Friday, March 28, 2008

उदास हैं पलाश

आज वह उदास था। पहली बार उसकी आवाज टूटी हुई लगी।
गांव खेड़े से आनेवाले लोगों के पास भले ही और कुछ न हो निश्छल हंसी जरूर होती है। वे अपनी खुशी पर तो झूमते ही हैं दुख पर भी ठहाका लगा सकते हैं। जीवन वहां रंगों का नाम है। जिंदादिली से खनकते रहना और उसी अंदाज में विदा हो जाने का राग बरबस गूंजता रहता है। जो जहां है जिस स्थिति में है अपने अंदाज में मस्त ।
फिर वह उदास क्यूं है?
जो लोग ऊपर की पंक्तियों को चुनौती देना चाहते हैं, ऐसे कई उदाहरण दिखा सकते हैं कि यह लो तुम्हारा उदास गांव और मनहूस जंगल। कोई चलताऊ बयान देने से पहले जरा इधर भी देख लो ...कहीं कोई टेर ... कोई तान नहीं है। तने और टहनियों पर पत्ते तक नहीं हैं, पता नहीं किस भय में थथमे हुए हैं, कौन रोके हुए है उन्हें । तब जबकि इस मौसम में पलाश के पेड़ लहकते दिखने चाहिए, निहंग खड़े हैं। कहा जा रहा है वायुमंडल गरमा रहा है और ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। कहीं भी, कभी भी कुछ भी हो सकता है।

हां, वह सचमुच सोच में डूबा हुआ है।
दरअसल, सफलता कभी इतनी एकांगी नहीं रही होगी। जब हम झुंड के झुंड एक ही दिशा में धकेले जा रहे हों तो उस दिशा में पीछे रह जाना दूर दूर से दिखाई देने लगता है। और यह दिख जाना ही उसके चेहरे को साल रहा है। वह मौन, हारा हुआ और अकेला दिख रहा है।
समूह में रहते हुए हमारा बहुत कुछ हिस्सा समूह जैसा हो जाता है। कई बार उस समूह से कई तरह के पूर्वाग्रह भी चस्पा हो जाते हैं। ऐसे में वस्तुत: हम जो हैं दिखाई नहीं देता। जातीय और प्रां‍तीय मुहावरे इसके उदाहरण हैं। जब समूह झांझर होने लगता है तब हमारा रंग दिखता है या फिर क्लोज अप में ।
वस्तुंत: एक शिक्षक का यह कौशल होता है, होना चाहिए भी कि वह समूह में व्यक्तिगत रंगों को पहचाने, उसको झाड़े, मांजे और चमकाए। यह संभव है बहुत शिक्षक मित्र ऐसा कर पाते हों। परंतु इस दौड़ में आवश्यकता के अनुरूप समय नहीं दे पाते हों। ऐसा कहा जाता है कि 20 छात्रों पर एक शिक्षक होना चाहिए। क्या वाकई उच्चम शिक्षा में भी यही आंकड़ा कामयाब है? यह जानकारी नहीं है मुझे।
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मौसमी दौड़ में पीछे रह गये लोगों के लिए कुछ दोषी तो हम हैं ही। वजह चाहे जो हो भीड़ में उस इकाई को न पहचानने या फिर पहचानकर भी पर्याप्त उपचार नहीं कर पाने की।
हां, वह हताश है और हारा हुआ नजर आ रहा है। कम से कम उसके वाक्य तो यही कह रहे हैं – अब कोई काम पूरा नहीं कर सकता सर, नहीं होगा मुझसे.........इस बुझी हुई आवाज के पीछे मुझे उसकी हंसी सुनाई दे रही है मुझे पूरी उम्मी द है वह जल्दी भी अपने रौ में दिखेगा ग्लोवबल वार्मिंग को मुंह चिढ़ता हुआ, अपनी मूल प्रकृति और जिजीविषा के साथ ................

Sunday, March 23, 2008

अलाली में रंग गुलाल

साल की शुरुआत में ही किसी दोस्त ने नववर्ष की शुभमानाओं के साथ वर्ष में आने वाले तमाम मौकों, तीज, त्यो‍हारों की शुभमनाएं भी जोड़ दी थीं। पता नहीं किस मौके पर किस हालत में रहें शुभकामना पठा पाएं या नहीं। इसलिए एकमुश्त ही ले लो भैया सारी की सारी। याद कर लेना जन्म दिन, शादी की वर्षगांठ और बच्चे का जन्मदिन भी जोड़ दिया है। और अन्य मौके जो मेरी जानकानी में रह गये हैं उनके लिए खाली स्थान छोड़कर ...... की शुमकामनाएं लिख दिया है। ...कौन रोज रोज की झंझट पाले..

कमाल का आइडिया है न। एक बार में ही सबकी छुट्टी । ड्राफ्ट बनाकर रखने की जहमत भी नहीं कि पता करो कि पिछले मौके पर क्‍या लिखा था। नहीं तो लोग मानेंगे कि अब रचनात्‍मकता बची ही नहीं। वही यांत्रिक शब्‍दावली ....

इस बार होली पर सुबह से ही दोस्तों, शुभचिंतकों और विद्यार्थियों के शुभकामना संदेश आने लगे तो एकबारगी दिल हुआ कि सबको जवाब तो दे ही देना चाहिए। पीआर किया नहीं तो पीआर खराब भी तो न करें। इतना लिखने में कितना समय लगता है कि .... आपको भी होली मुबारक। जीवन के सभी रंगों को स्वीकारें आदि आदि। कुछ लोगों ने बड़ी जतन से रंग और गुझिया मिलाकर संदेश भेजा था। दिल तो यह भी किया कि इन्हीं में से किसी एक बढि़या संदेश कॉपी करके सबको पठा दूं। मोबाइल में मास मेलिंग की सुविधा है। यही सुविधा ई मेल मे भी है – एक संदेश लिखा, कॉमन सा संबोधन दिया और सबके पते चिपका दिए। निश्चिंत, कोई बुरा नहीं मानता और होली पर तो वैसे भी बुरा मानना मना है.............

लेकिन इतना भी नहीं किया गया। न ऐसा न सोचें की तिब्बितियों के समर्थन में या इराक की बीती बरसी से परेशान हूं। या फिलीस्तीन‍ या किसानों की आत्मसहत्याओं से मन कसैला है। नन्दीलग्राम का संग्राम भी भूल चुका हू। कश्मीर अब उतना दुखी नहीं करता। गैर हिन्दी प्रदेशों में हिंदीवासियों उर्फ बिहारियों की हत्याओं और अपमानों के प्रति भी खाल मोटी हो गयी है। ............. ना कोई ठोस कारण नहीं है अगर होगा भी तो पहचान नहीं पा रहा हूं। उत्‍सव के माहौल में क्या सियापा करना...यह सब तो अपने समय और समाज का स्‍थाई फीचर हो गया है इनके लिए दुख जताने और संवेदना प्रकट करने वाले भी अब यांत्रिक माने जाने लगे हैं.......
मैंने यह मान लिया कि हवा में जब इतनी शुभकामनाएं गूंज रही हैं, इतने इलेक्ट्रानिक संदेश आ जा रहे हैं तो मुझे अलग से कोशिश करने की क्‍या जरूरत है। सब ओर से शुभकामनाएं छलक रही हैं तो मेरे संदेश भेजने न भेजने से कितन फर्क पड़ेगा इसलिए मैंने यह मान लिया कि सभी संदेशों में मेरा भी कुछ हिस्सा है। जब भी कोई संदेश बना, पठा या पढ़ रहा होगा उस समय मैं उसके आनंद, खुशी में शामिल हूं।
अगर आप में से किसी को मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो कृपया अन्यथा न लें। आप सबकी शुभकामनाओं में मैं खुद को शामिल महसूस करता हूं। इन दिनों शुभकामनाओं में ही डूब, उतरा और तैर रहा हूं। यह बात अलग है कि उनमें मुझे औपचारिकता, गैररचनात्मकता और बासीपन लग रहा है। ...तो लगे यह मेरी समस्‍या है आपके रंग में भंग क्‍यूं पड़े।
अगली बार से मैं भी तैयार रहूंगा। बढि़या संदेश बन सकेगा, कुछ रंगों की छपाछप से उकेर सकूंगा शुभकामना के बराबर तो आपको निराश नहीं करुंगा। इस बार शुभकामना कार्ड की दूकानों पर नहीं जा सका और न ही इलेक्ट्राकनिक संदेशोंवाली मुफतिया दूकानों की खाक छानी। कहा जाता है न कि अच्छा चुनना भी अच्छा लिखने से कम नहीं होता। हां, यह सब कुछ पढ़ा है, पता है।
बस इस बार की अलाली के लिए क्षमा करें।