Saturday, February 21, 2009

एक अपील

प्यारे दोस्त,

आप सामाजिक रूप से सक्रिय, चिंतनशील और संवेदनाओ से भरे हैं. इसी नाते आपके कुछ अनुरोध करना है. सबसे पहले आपसे माफ़ी कि आपको व्यक्तिगत संबोधन के साथ नहीं लिख रहा हूँ. आप एक राजनीतिक काम की चुनौतियाँ समझते हुए मुझे माफ़ कर देंगे, ऐसी उम्मीद है.

'इंडिया-शायनिंग' और 'भारत-निर्माण' के सरकारी दावों के बीच मेहनतकश किसान-मजदूर या तो जलालत भरी जिंदगी जी रहें हैं या आत्म-हत्या कर रहें हैं. गाँव और बस्तियां उजड़ रही हैं. इस स्थिति की अनदेखी करना अब मुमकिन नहीं है. आज एक ओर अय्याशी के अड्डे बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर अपने ही देश की ७८ प्रतिशत जनता २० रुपये रोज से भी कम पर गुजर-बसर कर रही है. (अर्जुन सेनगुप्ता आयोग)
जरा कल्पना करके देखें कि २० रुपये रोज से भी कम पर जिंदगी कैसी होती होगी.

ऐसी भीषण स्थिति में हिंसा, द्वेष, अशांति और अस्थिरता पैदा होना स्वाभाविक है. इसे पुलिस या फौज से नहीं रोका जा सकता. भीख / दान या विकास कार्य के नाम पर कुछ टुकडे फ़ेंक देने से भी इस समस्या से छुटकारा नहीं मिल सकता. किसी पुराने रोग से मुक्त होने के लिए बुनियादी कारणों को समझना और दूर करना जरूरी होता है.

प्यार, शान्ति और न्याय से भरे समाज की और कुछ कदम बढ़ाने के इसी नज़रिए से एक अभियान शुरू हुआ है. इसमे आपके सहयोग का निवेदन है. आपसे यह अपेक्षा नहीं है कि आप अपनी बाकी जिम्मेदारियों को छोड़ कर इस अभियान में कूद जायें. आपका थोड़ा सा सहयोग भी प्यार, शान्ति और न्याय से भरा समाज बनाने की दिशा में अमूल्य योगदान होगा.

इस दिशा में क्या करना जरूरी है तथा आप और हम मिलजुल कर क्या कर सकते है, इसके लिए जल्द ही मिलने का मन बनाये. फ़ोन / चिट्टी / इ-मेल पर भी संवाद शुरू कर सकते है.

आपको इस अभियान की प्रेस-विज्ञप्ति भेज रहा हूँ. इसमें उठाये गए सवालों पर आपके विचार और टिप्पणी जान कर बहुत अच्छा लगेगा. अगर आपको यह अभियान उचित लगे तो आपसे अनुरोध होगा कि अपने अमूल्य समय और उर्जा का कुछ हिस्सा इसमें भी लगाया जाए.

स्नेह, आदर और शुभकामनायों के साथ,

पंकज पुष्कर

०११-२३९८१०१२ (फेक्स या संदेश देने के लिए)
९१ - ९८६८९८४४४२

Monday, February 16, 2009

चलना तलवार की धार पर

कक्षा की वह मौन जमात कोई साधारणीकरण नहीं है। इसमें जिन तीन स्‍तरों की चर्चा है वह रूढ़ नहीं हैं। कक्षा में आंतरिक गतिशीलता भी बनी रहती है। यानी शुरू में जो वाचाल दिख रहा है वह धीरे-धीरे बीच की कतार या फिर मौन जमात में शामिल हो सकता है। इसी तरह मौन जमात में शामिल सदस्‍य अगली पंक्ति में आ जाते हैं। दरअसल, यह तीन कतारें आम प्रवृत्ति को दर्शाती हैं।
सत्र शुरू होते ही अपना सिक्‍का जमाने की होड़ शुरू हो जाती है। परिचय सत्र आम तौर पर चमकदार होता भी है। लेकिन धीरे धीरे सभी अपनी जगहें तय कर लेते हैं। ऐसे ही एक विद्यार्थी की ताजा स्‍मृत‍ि है। वह अत्‍यंत मेधावी था। शुरुआती कक्षाओं में उसकी गतिशीलता, विचारों की स्‍पष्‍टता दिखी भी लेकिन अचानक उसे लगने लगा कि बाकी लोग उससे बेहतर हैं। उसे तो अभी बहुत कुछ सीखना है। धीरे-धीरे वह निष्‍क्रय होता गया। उससे उम्‍मीद थी की कक्षा की बहसों में, विभिन्‍न प्रक्रियाओं में उसकी उपस्थिति से नई जान आएगी, लेकिन उसने किनारा कर लिया। आखिरकार जब सत्र समाप्त होने आया, तब उसका आत्‍मविश्‍वास लौटा। ध्‍यान दिया जाए तो ऐसे बहुत से उदाहरण मिल सकते हैं जो कक्षा की अंदरुनी गतिशीलता बयान करते हों।
कक्षा की गतिशीलताओं में शिक्षक की भूमिका होती है। वह उत्‍प्रेरक भी हो सकता है और घातक भी । अपेक्षा तो उससे उत्‍प्रेरक की ही जाती है। संभव है कुछ प्रयासों का असर सकारात्‍मक दिखे भी और यह भी संभव है कि प्रतिक्रियाओं से बनी बातें बिगड़ जाएं। कक्षा को साथ लेकर चलने के तरीके में वाचाल लोगों को चुप कराना पड़ सकता है, ताकि औरों को मौका मिल सके। इस कदम के निहितार्थ को न समझा जाए तो उलटा असर हो सकता है। विद्यार्थी ऐसा सोच सकते हैं कि उनका दमन किया जा रहा है, अवसर छीने जा रहे हैं।
आम तौर पर इतनी बारीक बातें सोची नहीं जातीं और न ही इनकी परवाह की जाती है। समझो तो ठीक ना समझो तो ठीक का चलताउ तरीका व्‍यवहार में है। पैंतालिस मिनट या एक घंटा बोल कर कागज समेट लेना बहुत आसान तरीका है। दूसरा तरीका तलवार की धार पर चलना है। वह पूरी तरह प्रक्रिया में शामिल होने की मांग करता है। ऐसा सोचते हुए राष्‍ट्रीय राजमार्गों के किनारे लगे होर्डिंग की याद आ रही है - सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी।

Wednesday, February 11, 2009

कक्षा की वह मौन जमात

कक्षा की अपनी गतिकी होती है। इसमें कक्षा में उपस्थित विद्यार्थियों की पृष्‍ठभूमि, उनके आपसी रिश्‍ते , शिक्षक से उनके संबंध आदि महत्वपूर्ण कारक होते हैं। यहां हम कुछ सामान्य प्रवृत्तियों पर चर्चा करेंगे जो प्राइमरी से पीजी तक हर जगह दिखायी देती है। हर कक्षा में पांच से दस फीसदी चमकती प्रतिभा वाले या मुखर विद्यार्थी होते हैं। वे शिक्षक की हर गतिविधि पर न केवल प्रतिक्रिया देते हैं बल्कि सारी गतिविधि अपने आस-पास सीमित कर लेना चाहते हैं। कहा जा सकता है कि अपने बीच ही शिक्षक को अटकाए रखते हैं। कालक्रम में उनकी गतिशीलता कक्षा पर इस कदर हावी होती है कि वे ड्राइविंग सीट पर होते हैं जहां चाहते हैं वहां कक्षा को ले जाते हैं।
लेकिन इनके ठीक पीछे दूसरा समूह होता है। जो मुखर तो नहीं होता लेकिन इस तरह से मुखर विद्यार्थियों के छा जाने से आक्रोश में रहता है। सीधे तो नहीं लेकिन गाहे बगाहे ऐसे मौके की ताक में रहता है जब अपनी शिकायत दर्ज करायी जा सके। कभी-कभार वह सक्रिय हो भी जाता है लेकिन इसमें कोई निरंतरता नहीं रहती। बल्कि उसे अपनी सक्रियता पर पूरा भरोसा नहीं होता। उनको यह भी लगता रहता है कि बाजी हाथ से जा चुकी है ऐसा करके भी वे ड्राइविंग सीट पर नहीं आ सकते।
सबसे बड़ी वह संख्या होती है जो एकदम ही निस्प्रीह होती है। कक्षा में अगर हां हो रही है तो हां और ना हो रही है तो ना की पक्षधर। वह इन तमाम गतिविधियों लेन-देन के क्यों में नहीं पड़ना चाहती। जो भी हो रहा है ठीक ही हो रहा होगा। इस श्रेणी को खुद पर बिल्कुल ही भरोसा नहीं होता, भय यह होता है कि अगर हां या ना के पक्ष में अधिक मुखर हुए तो कारण बताना पड़ सकता है और ऐसा मौका अपमानजनक होगा। जो सही या गलत है धीरे-धीरे उसका पता तो चल ही जाएगा।
सबसे अधिक घाटा कक्षा के इस मौन संप्रदाय को ही उठाना पड़ता है। शिक्षाविद ऐसा बताते हैं कि एक शिक्षक के लिए सबसे बड़ी चुनौती इस संप्रदाय की तत्काल पहचान कर लेने की होती है। और आदर्श यही है कि कक्षा की प्रगति का मानदंड इस पंक्ति में हो रहे विकास को बनाया जाए। सफल शिक्षकों की कहानी के स्रोत इसी कतार में ढूंढे जा सकते हैं।