Wednesday, December 8, 2010

भारत भवन में इस्‍मत आपा

आदिविद्रोही नाट्य महोत्‍सव में आज लाइन में नहीं लगना पड़ा। पत्रकारिता में रहने या पत्रकारिता से जुडे होने से इतना तो लाभ मिलता ही है। माफ करें, लाभ की बात थोड़ी गलत निकल गयी, आजकल स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले का जिक्र जो है। लेकिन सामान्‍य जीवन का यही लाभ कहीं बड़े स्‍तर पर जाकर स्‍पेक्‍ट्रम में तो नहीं बदल जाता ! भाईसाब को ऐसा ही लगा। लाइन तोड़कर आगे जानेवालों को लोग यही कह रहे थे - भाईसाब पढ़े लिखे तो हो।
बात भाईसाब को लग गई और उन्‍होंने थिएटर के अंदर जाने की पत्रकारीय सुविधा को छोड़कर बाहर लगी स्‍क्रीन पर ही नाटक देखना पसंद किया।

नसीरुद्दीन शाह निर्देशित 'इस्‍मत आपा के नाम' के इस प्रदर्शन को देखने के लिए भीड़ कुछ इस तरह उमड़ी कि भारत भवन का अंतरंग छोटा पड़ गया। ठंड में भी लोग हॉल के बाहर लगे स्‍क्रीन के सामने डटे रहे। ऐसा तब भी हुआ, जबकि ऐन वक्‍त पर नसीर का आना रद्द हो गया था। रत्‍ना शाह पाठक ने बताया कि वे किंचित अस्‍वस्‍थ हैं इसलिए नहीं आ सके।

मुंबई के मोट्ले समूह की इस्‍ा प्रस्‍तुति में इस्‍मत आपा यानी इस्‍मत चुगताई की तीन कहानियां - छुईमुई, 'मुगल बच्‍चा' और 'दो हाथ' शामिल थीं। आम तौर पर नाटक में एक कहानी को कई किरदार मिलकर प्रस्‍तुत करते हैं। इन किरदारों की भूमिका में अलग-अलग लोग रहते हैं। लेकिन यहां पर एक कहानी को एक ही पात्र कह रहा था। इस तरह अकेले ही वह कई पात्रों को जी रहा था। और जैसा कि कहानी में होता है वह लेखन बनकर भी उपस्थित हो रहा था। इन कहानियों को क्रमश: हीबा शाह, रत्‍ना पाठक शाह और सीमा पाहवा ने प्रस्‍तुत किया।' दो हा'थ के पाठ में तो सीमा पाहवा ने दर्शक दीर्घा को भी अपनी किस्‍सागोई में शामिल कर लिया।
इस्‍मत आपा की कहानियां हमें आम जनजीवन के पात्रों से मिलवाती हैं। उनकी भाषा में आम लोगों की मस्‍ती है। कहानियों में इतनी संजीदगी है कि उनकी मुरीद मनीषा कहती हैं, ''इस्‍मत की कहानियों से गुजरते हुए आपको अक्‍सर लगेगा थोड़ी देर किताब को किनारे रखकर जी भर हंस लें।'' लेकिन हंसी के बरक्‍श वे दुख का जो रूप हमारे सामने रखतीं हैं, वह काफी गहरा है। अपने कहन में सुख-दुख, आम और भद्रलोक का विरोधाभास जितनी आसानी से और मारक शैली में वह खड़ा करती हैं, अद्भुत है।
मंच पर कही गयी ये कहानियां दर्शकों में इस्‍मत को फिर से पढ़ने का चाव जगाती हैं। और जैसा कि नाटक के इस फार्म को अपनाने की भूमिका में रत्‍ना पाठक शाह ने कहा भी - इन कहानियों को मंच के जरिए नई पीढ़ी के बीच ले जाना है।

Monday, December 6, 2010

नटबुंदेले का ताम्रपत्र

ताम्रपत्र के अंतिम दृश्‍य के बाद देर तक तालियां। नाटक के मुख्‍य किरदार आलोक चटर्जी के परिचय के बाद देर तक तालियां और निर्देशक अलखनंदन से परिचय के बाद बहुत देर तक तालियां। कोई भी कलात्‍मक कृति जब मन को छूती है तो उसकी प्रतिक्रिया छिपती नहीं। फूट पड़ती है।

लेकिन, औरतों पर कसे गए जुमले पर इतनी तालियां क्‍यों ? क्‍या ये जुमले तालियों के लिए ही जोड़े गए थे ? क्‍या एक अच्‍छे नाटक में इस तरह के जुमलों की पैबंद आवश्‍यक थी ? क्‍या नाटक के दौरान कसे गए जुमले मूल पाठ का हिस्‍सा थे । अगर हिस्‍सा थे भी तो क्‍या उस पाठ में समय के मुताबिक बदलाव नहीं किए जा सकते। निर्देशक इतनी छूट तो ले ही सकता है। सवाल यह भी है कि दर्शकों को जातिवादी, लैंगिग टिप्‍पणियां ही क्‍यों गुदगुदाती हैं। क्‍या इस दृश्‍य से या थिएटर में इस तरह की प्रतिक्रिया से यह माना जाए कि भोपाल का सुधि दर्शक वर्ग पुरूषवादी है ?

बहरहाल, नाटक अच्‍छा था और अभिनय सधा हुआ। सभी पात्र अपनी भूमिकाओं में फब रहे थे। संवाद चुस्‍त और चुटीले थे, जिसे अलखनंदन के नाटकों का हस्‍ताक्षर माना जाता है। बंगाली पृष्‍ठभूमि में रचा यह नाटक बीच में कुछ समय एक ढीलापन जरूर दिखा, लेकिन अंतत: अपने मूल कथ्‍य को ठीक से रखने में कामयाब रहा। इसके लेखक देवाशीष मजूमदार हैं। नाटक में एक ऐसे निम्‍न मध्‍यमवर्गीय परिवार की कहानी है जो मजबूरी से मुक्ति के लिए छोटे रास्‍ते पर चल पड़ता है। और समय की तथाकथित व्‍यावहारिकताओं में उलझ जाता है। इसे व्‍यावहारिकता नही, एक तरह की चालूगिरी कहना चाहिए।आजकल इस तकनीक को जीवन चलाने और उसमें सफल होने के राज के रूप में परोसा जा रहा है।
नाटक में सुखी होने का यह रास्‍ता दूर तक नहीं चल पाता, क्‍योंकि उसकी उलझनें इस परिवार को भी अपने लपेटे में लेने लगती हैं। एक व्‍यक्ति जो झूठ का स्‍वतंत्रता सेनानी बनता है, ताम्रपत्र हासिल करता है। लेकिन अपने इस स्‍वांग को हकीकत में जीने लगता है। इससे समस्‍याएं खड़ी होती हैं। टकराव होते हैं। अंतत: यह स्‍वांग ही उसे अपनी ठीक ठीक भूमिका को पहचानने में मदद करता है। आखिर कार वह चौतरफा फैली सड़ांध के खिलाफ तनकर खड़े होने की हिम्‍मत जुटाता है। आदिविद्रोही नामक इस नाट्य समारोह को सार्थक करता हुआ।
ऐसे समय में जब हर तरफ हार की चादर ओढ़कर सोई हुई जनता दिखती है, यह नाटक अलग संदेश्‍ा देता है।

अलख दा ! घर से बाहर जाते हुए बंगाली परिवारों में हमेशा आस्‍छी .....कहा जाता है, यानी अभी आया... या आ रहा हूं। आपने दुग्‍गा दुग्‍गा को तो पकड़ा, लेकिन इसे छोड़ क्‍यों दिया? कोई खास वजह ?