Monday, November 26, 2012

बन रही है आम आदमी की पार्टी

समाचार4मीडिया से साभार 
पुण्य प्रसून वाजपेयी, वरिष्ठ पत्रकार
दफ्तर-एआईसी यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत। पता-ए-119 कौशांबी। पहचान-बंद गली का आखिरी मकान। उद्देश्य-राजनीतिक व्यवस्था बदलने का आखिरी मुकाम अरविन्द केजरीवाल। कुछ यही तासीर...कुछ इसी मिजाज के साथ इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अन्ना हजारे से अलग होकर सड़क पर गुरिल्ला युद्द करते अरविन्द केजरीवाल। किसी पुराने समाजवादी या वामपंथी दफ्तरों की तरह बहस-मुहासिब का दौर। आधुनिक कम्प्यूटर और लैपटाप से लेकर एडिटिंग मशीन पर लगातार काम करते युवा। और इन सब के बीच लगातार फटेहाल-मुफलिस लोगों से लेकर आईआईटी और बिजनेस मैनेजमेंट के छात्रों के साथ डाक्टरों और एडवोकेट की जमात की लगातार आवाजाही। अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते समाजसेवी से लेकर ट्रेड यूनियन और बाबुओं से लेकर कारपोरेट के युवाओं की आवाजाही। कोई वालेन्टियर बनने को तैयार है तो किसी के पास लूटने वालों के दस्तावेज हैं। कोई अपने इलाके की लूट बताने को बेताब हैं। तो कोई केजरीवाल के नाम पर मर मिटने को तैयार है। और इन सबके बीच लगातार दिल्ली से लेकर अलग अलग प्रदेशों से आता कार्यकर्ताओं का जमावड़ा, जो संगठन बनाने में लगे हैं। जिले स्तर से लेकर ब्लाक स्तर तक। एकदम युवा चेहरे।
मौजूदा राजनीतिक चेहरों से बेमेल खाते इन चेहरों के पास सिर्फ मुद्दों की पोटली है। मुद्दों को उठाने और संघर्ष करने का जज्बा है। कोई अपने इलाके मे अपनी दुकान बंद कर पार्टी का दफ्तर खोल कर राजनीति करने को तैयार है। तो कोई अपने घर में केजरीवाल के नाम की पट्टी लगा कर संघर्ष का बिगुल फूंकने को तैयार है। और यही सब भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत[एआईसी] के दफ्तर में आक्सीजन भी भर रहा है और अरविन्द केजरीवाल का लगातार मुद्दों को टटोलना। संघर्ष करने के लिये खुद को तैयार रखना और सीधे राजनीति व्यवस्था के धुरंधरों पर हमला करने को तैयार रहने के तेवर हर आने वालों को भी हिम्मत दे रहा है।

संघर्ष का आक्सीजन और गुरिल्ला हमले की हिम्मत यह अलख भी जगा रहा है कि 26 नवंबर को पार्टी के नाम के ऐलान के साथ 28 राज्यों में संघर्ष की मशाल एक नयी रोशनी जगायेगी। और एआईसी की जगह आम आदमी की पहचान लिये आम आदमी की पार्टी ही खास राजनीति करेगी। जिसके पास गंवाने को सिर्फ आम लोगो का भरोसा होगा और करने के लिये समूची राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव। दिल्ली से निकल कर 28 राज्यों में जाने वाली मशाल की रोशनी धीमी ना हो इसके लिये तेल नहीं बल्कि संघर्ष का जज्बा चाहिये और अरविन्द केजरीवाल की पूरी रणनीति उसे ही जगाने में लगी है। तो रोशनी जगाने से पहले मौजूदा राजनीति की सत्ताधारी परतों को कैसे उघाड़ा जाये, जिससे रोशनी बासी ना लगे। पारंपरिक ना लगे और सिर्फ विकल्प ही नहीं बल्कि परिवर्तन की लहर मचलने लगे। अरविन्द केजरीवाल लकीर उसी की खींचना चाहते हैं। इसीलिये राजनीतिक तौर तरीके प्रतीकों को ढहा रहे हैं।
जरा सिलसिले को समझें। 2 अक्टूबर को राजनीतिक पार्टी बनाने का एलान होता है। 5 अक्तूबर को देश के सबसे ताकतवर दामाद राबर्ट वाड्रा को भ्रष्टाचार के कठघरे में खड़ा करते हैं। 17 अक्तूबर को भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के जमीन हड़पने के खेल को बताते हैं। 31 अक्तूबर को देश के सबसे रईस शख्स मुकेश अंबानी के धंधे पर अंगुली रखते हैं और नौ नवंबर को हवाला-मनी लैंडरिंग के जरीये स्विस बैक में जमा 10 खाताधारकों का नाम बताते हुये मनमोहन सरकार पर इन्हें बचाने का आरोप लगाते हैं। ध्यान दें तो राजनीति की पारंपरिक मर्यादा से आगे निकल कर भ्रष्टाचार के राजनीतिकरण पर ना सिर्फ निशाना साधते हैं बल्कि एक नयी राजनीति का आगाज यह कहकर करते है कि , "हमें तो राजनीति करनी नहीं आती"। यानी उस आदमी को जुबान देते हैं जो राजनेताओं के सामने अभी तक तुतलाने लगता था। राजनीति का ककहरा राजनेताओं जैसे ही सीखना चाहता था। पहली बार वह राजनीति का नया पाठ पढ़ रहा है। जहां स्लेट और खड़िया उसकी अपनी है। लेकिन स्लेट पर उभरते शब्द सत्ता को आइना दिखाने से नहीं चूक रहे। तो क्या यह बदलाव का पहला पाठ है। तो क्या अरविन्द केजरीवाल संसदीय सत्ता की राजनीति के तौर तरीके बदल कर जन-राजनीति से राजनीतिक दलों पर गुरिल्ला हमला कर रहे हैं। क्योंकि आरोपों की फेरहिस्त दस्तावेजों को थामने के बावजूद अदालत का दरवाजा खटखटाने को तैयार नहीं है। केजरीवाल चाहें तो हर दस्तावेज को अदालत में ले जाकर न्याय की गुहार लगा सकते हैं। लेकिन न्यायपालिका की जगह जन-अदालत में जा कर आरोपी की पोटली खोलने का मतलब है राजनीति जमीन पर उस आम आदमी को खड़ा करना जो अभी तक यह सोचकर घबराता रहा कि जिसकी सत्ता है अदालत भी उसी की है। और इससे हटकर कोई रास्ता भी नहीं है। लेकिन केजरीवाल ने राजनीतिक न्याय को सड़क पर करने का नया रास्ता निकाला। वह सिर्फ सत्ताधारी कांग्रेस ही नहीं बल्कि विपक्षी भाजपा और बाजार अर्थव्यवस्था के नायक अंबानी पर भी हमला करते हैं। यानी निशाने पर सत्ता के वह धुरंधर हैं, जिनका संघर्ष संसदीय लोकतंत्र का मंत्र जपते हुये सत्ता के लिये होता है। तो क्या संसदीय राजनीति के तौर तरीकों को अपनी बिसात पर खारिज करने का अनूठा तरीका अरविन्द केजरीवाल ने निकाला है। यानी जो सवाल कभी अरुंधति राय उठाती रहीं और राजनेताओं की नीतियों को जन-विरोधी करार देती रहीं। जिस कारपोरेट पर वह आदिवासी ग्रामीण इलाकों में सत्ता से लाइसेंस पा कर लूटने का आरोप लगाती रहीं । लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें बंदूकधारी माओवादियों के साथ खड़ा कर अपने विकास को कानूनी और शांतिपूर्ण राजनीतिक कारपोरेट लूट के धंधे से मजे में जोड़ लिया। ध्यान दें तो अरविन्द केजरीवाल ने उन्हीं मु्द्दों को शहरी मिजाज में परोस कर जनता से जोड़ कर संसदीय राजनीति को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। तरीकों पर गौर करें तो जांच और न्याय की उस धारणा को ही तोड़ा है, जिसके आधार पर संसदीय सत्ता अपने होने को लोकतंत्र के पैमाने से जोड़ती रही। और लगातार आर्थिक सुधार के तौर तरीकों को देश के विकास के लिये जरुरी बताती रही। यानी जिस आर्थिक सुधार ने झटके में कारपोरेट से लेकर सर्विस सेक्टर को सबसे महत्वपूर्ण करार देकर सरकार को ही उस पर टिका दिया उसी नब्ज को बेहद बारिकी से केजरीवाल की टीम पकड़ रही है। एफडीआई के सीधे विरोध का मतलब है विकास के खिलाफ होना। लेकिन एफडीआई का मतलब है देश के कालेधन को ही धंधे में लगाकर सफेद बनाना तो फिर सवाल विकास का नहीं होगा बल्कि कालेधन या हवाला-मनीलैडरिंग के जरीये बहुराष्ट्रीय कंपनी बन कर दुनिया पर राज करने के सपने पालने वालों को कटघरे में खड़ा करना। स्विस बैंक खातों और एचएसबीसी बैकिंग के कामकाज पर अंगुली उठी है तो सवाल सिर्फ भ्रष्टाचार पर सरकार के फेल होने भर का नहीं है। बल्कि जिस तरह सरकार की आर्थिक नीति विदेशी बैंको को बढ़ावा दे रही हैं और आने वाले वक्त में दर्जनों विदेशी बैंक को सुविधाओं के साथ लाने की तैयारी वित्त मंत्री चिदबरंम कर रहे हैं, बहस में वह भी आयेगी ही। और बहस का मतलब सिर्फ राजनीतिक निर्णय या नीतियां भर नहीं हैं या विकास की परिभाषा में लपेट कर सरकार के परोसने भर से काम नहीं चलेगा। क्योंकि पहली बार राजनीतिक गुरिल्ला युद्द के तौर तरीके सड़क से सरकार को चेता भी रहे हैं और राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिये तैयार भी हो रहे हैं।
यह अपने आप में गुरिल्ला युद्द का नायाब तरीका है कि दिल्ली में बिजली बिलों के जरीये निजी कंपनियो की लूट पर नकेल कसने के लिये सड़क पर ही सीधी कार्रवाई भुक्तभोगी जनता के साथ मिलकर की जाये। और कानूनी तरीकों से लेकर पुलिसिया सुरक्षा को भी घता बताते हुये खुद ही बिजली बिल आग के हवाले भी किया जाये और बिजली बिल ना जमा कराने पर काटी गई बिजली को भी जन-चेतना के आसरे खुद ही खम्बो पर चढ़ कर जोड़ दिया जाये। और सरकार को इतना नैतिक साहस भी ना हो कि वह इसे गैर कानूनी करार दे। जिस सड़क पर पुलिस राज होता है वहां जन-संघर्ष का सैलाब जमा हो जाये तो नैतिक साहस पुलिस में भी रहता। और यह नजारा केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट की लूट के बाद सड़क पर उतरे केजरीवाल और उनके समर्थकों के विरोध से भी नजर आ गया। तो क्या भ्रष्टाचार के जो सवाल अपने तरीके से जनता के साथ मिलकर केजरीवाल ने उठाये उसने पहली बार पुलिस से लेकर सरकारी बाबुओं के बीच भी यही धारणा आम कर दी है कि राजनेताओं के साथ या उनकी व्यवस्था को बनाये-चलाये रखना अब जरुरी नहीं है। या फिर सरकार के संस्थानों की नैतिकता डगमगाने लगी है। या वाकई व्यवस्था फेल होने के खतरे की दिशा में अरविन्द केजरीवाल की राजनीति समूचे देश को ले जा रही है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि दिल्ली में सवाल चाहे बिजली बिल की बढ़ी कीमतो का हो या सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट का विकलांगों के पैसे को हड़पने का। दोनों के ही दस्तावेज मौजूद थे कि किस तरह लूट हुई है। पारंपरिक तौर-तरीके के रास्ते पर राजनीति चले तो अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जहां से सरकार को नोटिस मिलता। लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने इस मुद्दे पर जनता के बीच जाना ही उचित समझा। यानी जिस जनता ने सरकार को चुना है या जिस जनता के आधार पर संसदीय लोकतंत्र का राग सत्ता गाती है,उसी ने जब सरकार के कामकाज को कटघरे में खड़ा कर दिया तो इसका निराकरण भी अदालत या पुलिस नहीं कर सकती है। समाधान राजनीतिक ही होगा। जिसके लिये चुनाव है तो चुनावी आधार तैयार करते केजलीवाल ने बिजली और विकलांग दोनों ही मुद्दे पर जब यह एलान किया कि वह जेल जाने को तैयार हैं लेकिन जमानत नहीं लेंगे तो पुलिस के सामने भी कोई
चारा नहीं बचा कि वह गिरफ्तारी भी ना दिखायी और जेल से बिना शर्त सभी को छोड़ दे।
जाहिर है अरविन्द केजरीवाल ने जनता की इसी ताकत की राजनीति को भी समझा और इस ताकत के सामने कमजोर होती सत्ता के मर्म को भी पकड़ा। इसीलिये मुकेश अंबानी के स्विस बैंक से जुडते तार को प्रेस कॉन्फ्रेन्स के जरीये उठाने के बाद मुकेश अंबानी के स्विस बैक खातों के नंबर को बताने के लिये जन-संघर्ष [राजनीतिक-रैली] का सहारा लिया। और रैली के जरीये ही सरकार को जांच की चुनौती दे कर अगले 15 दिनो तक जनता के सामने यह सवाल छोड़ दिया कि वह सरकारी जांच पर टकटकी लगाये रहे।
साफ है राजनीतिक दल अगर इसे "हिट एंड रन "या "शूट एंड स्कूट" के तौर पर देख रही हैं या फिर भाजपा का कमल संदेश इसे भारतीय लोकतंत्र को खत्म करने की साजिश मान रहा है तो फिर नया संकट यह भी है कि अगर जनता ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को चुनाव में खारिज कर दिया तो क्या आने वाले वक्त में चुनावी प्रक्रिया पर सवाल लग जायेंगे। और संसदीय राजनीति लोकतंत्र की नयी परिभाषा टटोलेगी जहा उसे सत्ता सुख मिलता रहे। या फिर यह आने वाले वक्त में सपन्न और गरीब के बीच संघर्ष की बिसात बिछने के प्रतीक है। क्योंकि अरविन्द केजरीवाल को लेकर काग्रेस हो या भाजपा या राष्ट्रीय राजनीति को गठबंधन के जरीये सौदेबाजी करने वाले क्षत्रपो की फौज, जो सत्ता की मलाई भी लगातार खा रही है सभी एकसाथ आ खड़े हो रहे हैं। साथ ही कारपोरेट से लेकर निजी संस्थानों को भी लगने लगा है राजनीतिक सुधार का केजरीवाल उन्हें बाजार अर्थवयवस्था से बाहर कर समाजवाद के दायरे में समेट देगा। तो विरोध वह भी कर रहा है।
तो बड़ा सवाल यह भी है कि चौमुखी एकजुटता के बीच भी अरविन्द केजरीवाल लगातार आगे कैसे बढ़ रहे हैं। न्यूज चैनल बाइट या इंटरव्यू से आगे बढ़कर घंटों लाइव क्यों दिखा रहा है। अखबारों के पन्नो में केजरीवाल का संघर्ष सुर्खिया क्यों समेटे है। जबकि कारपोरेट का पैसा ही न्यूज चैनलो में है। मीडिया घरानों के राजनीतिक समीकरण भी हैं। कई संपादक और मालिक उन्हीं राजनीतिक दलों के समर्थन से राज्यसभा में हैं, जिनके खिलाफ केजरीवाल लगातार दस्तावेज के साथ हमले कर रहे हैं। फिर भी ऐसे समाचार पत्रों के पन्नों पर वह खबर के तौर पर मौजूद हैं। न्यूज चैनलो की बहस में हैं। विशेष कार्यक्रम हो रहे हैं। जाहिर है इसके कई तर्क हो सकते हैं। मसलन मीडिया की पहचान उसकी विश्वसनीयता से होती है। तो कोई अपनी साख गंवाना नहीं चाहता। दूसरा तर्क है आम आदमी जिस तरह सडक पर केजरीवाल के साथ खड़ा है उसमें साख बनाये रखने की पहली जरुरत ही हो गई है कि मीडिया केजरीवाल को भी जगह देते रहें। तीसरा तर्क है इस दौर में मीडिया की साख ही नहीं बच पा रही है तो वह साख बचाने या बनाने के लिये केजरीवाल का सहारा ले रहा है । और चौथा तर्क है कि केजरीवाल भ्रष्टाचार तले ढहते सस्थानों या लोगों का राजनीतिक व्यवस्था पर उठते भरोसे को बचाने के प्रतीक बनकर उभरे हैं तो राजनीतिक सत्ता भी उनके खिलाफ हैं, वह भी अपनी महत्ता को बनाये रखने में सक्षम हो पा रहा है। और केजरीवाल के गुरिल्ला खुलासे युद्द को लोकतंत्र के कैनवास का ही एक हिस्सा मानकर राजनीतिक स्वीकृति दी जा रही है। क्योंकि जो काम मीडिया को करना था, वह केजरीवाल कर रहे हैं। जिस व्यवस्था पर विपक्ष को अंगुली रखनी चाहिये थी, उसपर केजरीवाल को अंगुली उठानी पड़ रही है। लोकतंत्र की जिस साख को सरकार को नागरिकों के जरीये बचाना है, वह उपभोक्ताओं में मशगूल हो चली है और केजरीवाल ही नागरिकों के हक का सवाल खड़ा कर रहे हैं। ध्यान दें तो हमारी राजनीतिक व्यवस्था में यह सब तो खुद ब खुद होना था जिससे चैक एंड बैलेंस बना रहे। लेकिन लूट या भ्रष्टाचार को लेकर जो सहमति अपने अपने घेरे के सत्ताधारियों में बनी उसके बाद ही सवाल केजरीवाल का उठा है। क्योंकि आम आदमी का भरोसा राजनीतिक व्यवस्था से उठा है, राजनेताओं से टूटा है। जाहिर है यहां यह सवाल भी खड़ा हो सकता है कि केजरीवाल के खुलासों ने अभी तक ना तो कोई राजनीतिक क्षति पहुंचायी है ना ही उस बाजार व्यवस्था पर अंकुश लगाया है जो सरकारों को चला रही हैं। और आम आदमी ठगा सा अपने चुने हुये नुमाइन्दों की तरफ अब भी आस लगाये बैठा है। फिर केजरीवाल ने झटके में व्यवसायिक-राजनीति हितों के साथ खड़े होने वाले संपादकों की सौदेबाजी के दायरे को बढ़ाया है। क्योंकि केजरीवाल के खुलासों का बडा हथियार मीडिया भी है और मीडिया हर खुलासे में फंसने वालों के लिये तर्क गढ भी सकता है और केजरीवाल के हमले की धार भोथरी बनाने की सौदेबाजी भी कर सकता है। यानी अंतर्विरोध के दौर में लाभ उठाने के रास्ते हर किसी के पास है और अंतरविरोध से लाभ राजनेता से लेकर कारपोरेट और विपक्ष से लेकर सामाजिक संगठनों को भी मिल सकता है। यह सभी को लगने लगा है। लेकिन सियासत और व्यवस्था की इसी अंतर्विरोध से पहली बार संघर्ष करने वालों को कैसे लाभ मिल रहा है, यह दिल्ली से सटे एनसीआर के कौशाबी में बंद गली के आखिरी मकान में चल रहे आईएसी के दफ्तर से समझा जा सकता है। जहां ऊपर नीचे मिलाकर पांच कमरों और दो हाल में व्यवस्था परिवर्तन के सपने पनप रहे हैं। सुबह से देर रात तक जागते इन कमरों में कम्प्यूटर और लैपटॉप पर थिरकती अंगुलियां। कैमरे में उतरी गई हर रैली और हर संघर्ष के वीडियो को एडिटिंग मशीन पर परखती आंखें। हर प्रांत से आये भ्रष्टाचार की लूट में शामिल नेताओं के दस्तावेजो को परखते चेहरे। और इन सब के बीच दो-दो चार के झुंड में बहस मुहासिबो का दौर। बीच बीच में एकमात्र रसोई में बनती चाय और बाहर ढाबे ये आती दाल रोटी। यह राजनीतिक संघर्ष की नयी परिभाषा गढ़ने का केजरीवाल मंत्र है। इसमें जो भी शामिल हो सकता है हो जाये..दरवाजा हमेशा खुला है।
समाचार4मीडिया से साभार

Saturday, November 17, 2012

बदलाव का रास्‍ता राजनीति ही आएगा

अन्ना ने खिड़की खोली तो

योगेंद्र यादव

अन्ना हजारे

अन्ना हजारे का आंदोलन देश के लिए एक आशा की किरण है. यह आंदोलन देश में व्यापक परिवर्तन ला सकता है कि नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है. लेकिन, इसने जनमानस में एक बदलाव लाया है. जितने लोग सड़क पर उतरे, उससे कहीं अधिक घर में बैठे लोगों के मन में उस आंदोलन के प्रति सकारात्मक सोच उत्पन्न हुआ. यह देश में बदलाव का एक संकेत है. यह बदलाव उस पर निर्भर करता है कि हमारी नयी पीढ़ी की भागीदारी इसमें कैसी रहती है.

देश आज दोराहे पर खड़ा है. लोगों में गुस्सा है. वैसे हिंदुस्तानियों के मिजाज में गुस्सा है. बात-बात पर लोगों में खीझ उत्पन्न होती है. लेकिन, पिछले साल-डेढ़ साल में जो गुस्सा पैदा हुआ है, उससे एक छोटी-सी आशा पैदा हुई है. यह आशा का दीप बुझ जायेगा या दीर्घकालिक परिवर्तन की ओर ले जायेगा, यह तय नहीं है.

सामान्यत: घर, परिवार, बीवी, नेताओं, व्यवस्था, सरकार व शासन-प्रशासन से असंतोष रहता है. लेकिन वर्तमान असंतोष अलग किस्म का है. यह व्यवस्था के खिलाफ असंतोष है. घोटाले पहले भी हुए थे और अब भी हुए. ये यदा-कदा उजागर भी होते रहे हैं. नयी दिल्ली में काम करनेवाले मीडियाकर्मी हों या सत्ता के गलियारे से जुड़े लोग, इनके पास घोटालों की जानकारी भी रहती है. यह दीगर है कि इसे छापने की हिम्मत किसी में नहीं होती. लेकिन, जिस तरीके से कोलगेट घोटाले का मामला उजागर हुआ, उसने राजनीतिक प्रतिष्ठान के खिलाफ ही असंतोष का भाव पैदा किया.

आम तौर पर घोटालों में सत्ता से जुड़े लोग ही होते हैं. कोयला खदान आवंटन घोटाला ऐसा है, जिसमें कांग्रेस के साथ ही भाजपा के लोग भी समान रूप से संलिप्त हैं. जिस नीति के आधार पर कोयला खदान का आवंटन हुआ, उसे भाजपा सरकार ने बनाया था. कांग्रेस ने उस पर अमल शुरू किया, तो मध्यप्रदेश के भाजपाई मुख्यमंत्री ने उस नीति को जारी रखने के लिए सिफारिश भरा पत्र लिखा. ओड़ीशा के मुख्यमंत्री के अलावा राजस्थान सहित कई कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी उस नीति का समर्थन किया. हद तो यह कि आमतौर पर ईमानदार समझे जाने वाले वाम दलों की पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा भी पत्र लिखा गया.

रॉबर्ट वाड्रा का मामला कुछ भी नया नहीं है. सत्ता में बैठे लोगों के दामादों, रिश्तेदारों का प्रभाव शुरू से ही रहा है. बिहार में तो वर्षो तक प्रभाव था. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में रंजन भट्टाचार्य का प्रभाव किसी मीडियाकर्मी से छिपा नहीं था. लेकिन मीडिया में इस मुद्दे पर चुप्पी थी.

कांग्रेस के शासनकाल में एक साप्ताहिक पत्रिका ने जब रंजन भट्टाचार्य से संबंधित खबर छापनी चाही कि किस कदर वे पीएमओ चलाया करते थे, तो प्रिंटिंग प्रेस से उस मैटर को वापस करना पड़ा. रॉबर्ट वाड्रा के मामले में ऐसा नहीं है. यह बीते एक-डेढ़ साल में हुई घटनाओं का ही असर है कि निजी तौर या ड्राइंग रूम में होनेवाली चर्चाएं आज सार्वजनिक तौर पर हो रही हैं. लेकिन सत्ता व विपक्षी पार्टियों ने एक अलिखित समझौता किया है.

बीते दिन कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने खुलेआम कहा कि हमारे पास रंजन भट्टाचार्य से जुड़ी कई जानकारियां हैं, लेकिन हम गैरकानूनी बात नहीं करते. सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष पर यह बेशर्मी दिखती है कि एक-दूसरे का बचाव करें, बात न करें, पोल न खोलें. जनता के सामने सच को नहीं रखें. भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की कंपनी पर आरोप लगे कि उसने गबन किया है या उसके मालिक खोजे नहीं मिल रहे हैं, तो इसमें एक सच यह भी है कि उनको (अध्यक्ष को) मदद करनेवाली सरकार कांग्रेस व एनसीपी की ही है. इन घटनाओं से यह सीधा मतलब निकलता है कि सत्ता प्रतिष्ठान एक-दूसरे से मिला हुआ है.

बीते 20 वर्षों में देश ने कई रंगों की सरकार देखी है, पर रिलायंस का प्रभाव जस-का-तस है. देश का कोई भी पेट्रोलियम मंत्री ऐसा नहीं रहा, जो रिलायंस के खिलाफ बोल सके. मौजूदा समय में जिसने भी रिलायंस के खिलाफ बोलने की कोशिश की, उसे मंत्रालय से हाथ धोना पड़ा. यह शर्म का विषय है कि प्रधानमंत्री ईमानदार मंत्री से पेट्रोलियम मंत्रालय चलाना चाहते हैं, पर वे इसमें कामयाब नहीं हो पा रहे हैं. पीएम में ऐसी हिम्मत नहीं है कि वे ऐसा कर सकें.
सकारात्मक बात यह है कि ऐसी चीजें अब बाहर आ रही हैं. पहले ऐसे मुद्दे अखबार में नहीं छपते थे, पर सार्वजनिक असंतोष के बाद अखबारों व मीडिया में ये दिखने लगे हैं. आज भी एक-दो ऐसे बड़े अखबार हैं, जो रॉबर्ट वाड्रा का नाम तक नहीं छापते कि घोटालों में उनका नाम है. हां, खबर छापना जरूर उनकी मजबूरी बन गयी है.

निजी चीजों का सार्वजनिक होना शुभ लक्षण है. व्यवस्था का इलाज गुस्सा में है. लोग गुस्से में हैं व्यवस्था के दलालों से, शासन की अक्षमता से. अगर यही गुस्सा संकल्प में बदल जाये, तो वह बदलाव का वाहक बन सकता है. छोटा गुस्सा कायरता का लक्षण है. अगर 364 दिन गुस्सा चले, तो उससे बदलाव हो सकता है. पांच लोग बैठ कर भी कहें कि हम अकेले हैं, कुछ नहीं कर सकते. नेता अकेले होते हुए भी बैंक बैलेंस की गठरी के साथ दो हो जायें, तो यह ठीक नहीं. आम जनमानस अब ऐसा नहीं कहता. ग्रामीण इलाके के लोग भी अब बोलने लगे हैं कि अन्ना का आंदोलन जायज है. अन्ना आम लोगों के हित की बात कर रहे हैं.

इतिहास में कई लोग हैं, जो गुमनाम रहे. देश में गांधी से भी बड़े नेता हुए हैं, जो गुमनामी की जिंदगी में रहे. लेकिन, अन्ना के आंदोलन का मीडिया में कवरेज इतना व्यापक तौर पर मिला कि इसकी चर्चा हर जगह हुई. एक तरह से अन्ना आंदोलन ने बड़े बदलाव किये. हम अपने मन में अगर मैल रखें, तो कुछ नहीं कर सकते. जिस दिन यह मैल निकल जाये, नेता कुछ गलत नहीं कर सकते. अन्ना ने उस मैल को निकालने का काम किया. यह एक ऐतिहासिक चुनौती है देश के सामने.

अन्ना के आंदोलन से जो खिड़की खुली है, उसे दरवाजे के रूप में परिवर्तित किया जायेगा या वह बंद हो जायेगा, यह कहना मुश्किल है. 2014 के चुनाव में वह खिड़की अपना असर दिखायेगी ही, यह भी तय नहीं है. आमूल-चूल परिवर्तन व व्यवस्था में बदलाव के लिए यह खिड़की खुली है. अगर सही ऊर्जा का इस्तेमाल हो, तो आधी खिड़की को पूरा खोल कर दरवाजा बनाया जा सकता है. यह तभी संभव है, जब राजनीति को अपनायी जाये. राजनीति के माध्यम से ही किसी सच को साकार करने का दु:साहस किया जा सकता है. बशर्ते अन्ना के आंदोलन से जो आशा की किरण दिखी है, उसका वस्तुपरक मूल्यांकन हो.

अन्ना के आंदोलन में शहरी व कस्बाई इलाके के लोग शामिल रहे. ग्रामीण परिवेश न के बराबर था. शीर्ष के पांच प्रतिशत लोग व नीचे के 50 प्रतिशत लोग इस आंदोलन से गायब रहे. मंझोले किस्म के लोगों ने इसमें भाग लिया. आंदोलन की शुरुआत एकमात्र मुद्दा भ्रष्टाचार से हुई. यह सामान्य जन का आंदोलन नहीं था.

देश में ऐसे आंदोलन हर रोज होते हैं. लेकिन, इस आंदोलन की यह खासियत थी कि इसमें भाड़े के लोग नहीं लाये गये थे. स्वत: स्फूर्त लोग इसमें शामिल हुए. ऐसी कोई रैली या आंदोलन नहीं रहा, जिसमें 12 बजे तक महिलाएं अपने बच्चों के साथ शामिल हुई हों. अन्ना आंदोलन में ऐसा दिखा. यह जनमानस का बदलाव दिखा.

कुछ लोगों ने इसे लोकपाल के लिए आंदोलन का नाम दिया. दरअसल, यह लोकबल का आंदोलन था. ऐसे में यह आंदोलन राजनीति में कैसे बदले, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है. क्योंकि, यह युगधर्म की राजनीति के माध्यम से ही कोई बड़ा बदलाव हो सकता है. छोटे हो या बड़े आंदोलन, आमतौर पर राजनीति में यह शामिल नहीं हो पाता. अगर आप हर बच्चों को शिक्षा, हर महिला को घर तक स्वच्छ पानी दिलाना चाहते हैं, तो इसके लिए राजनीति में आना ही होगा.

चाहे राजनीति में कितनी भी खोट क्यों न हो, बिना इसके बिना आप ऐसे कामों को पूरा नहीं कर सकते. अगर राजनीति में सत्ता के भूखे, गुंडा व महाठग हैं, तो संत व विचारकों को भी आना होगा. लेकिन, अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू में राजनीति विरोधी दिखा. लोकतांत्रिक देश में ऐसा संभव नहीं है कि बिना राजनीति में उतरे आप कुछ कर सकें. क्योंकि, राजनीति बिना लोकतंत्र के की जा सकती है, पर लोकतंत्र बिना राजनीति के नहीं चल सकता है. अन्ना आंदोलन में पहले राजनीति विरोधी का चरित्र दिखा. फिर यह सत्ता विरोधी तक आ पहुंचा.

यह अकाट्य सच है कि अगर आपको अपने आंदोलन में तीखापन, ताकत लाना है, तो सत्ता का विरोध करना ही होगा. पत्रकारिता में भी यह धर्म है कि अगर कोई पत्रकार सत्ता के साथ कुरसी पर बैठ जाये, तो वह इसके खिलाफ है. लेकिन, सत्ता के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन का स्वरूप गलत दिशा भी दे सकता है.

कांग्रेस के विरोध का परोक्ष रूप यह कहा जाने लगा कि यह भाजपा का समर्थन है. बाबा रामदेव के आंदोलन में इसकी झलक मिलने का आरोप भी लगता है. हिसार में अन्ना टीम ने कांग्रेस का विरोध किया. लेकिन, भाजपा कोटे से जो चुनाव जीता वह भ्रष्ट से भी महाभ्रष्ट है.

यह धारणा बिल्कुल गलत है कि अगर आप सत्ता का विरोध करते हैं, तो उभरने वाला विकल्प साफ-सुथरा ही होगा. आंध्रप्रदेश में कांग्रेस शासन की अंधेरगर्दी है. लेकिन, जो सामने आ रहे हैं, वे हैं वीएसआर के बेटे जगन मोहन रेड्डी. ये वही हैं, जिन्होंने कोयला खदान के लिए राज्य का बॉर्डर इलाका ही परिवर्तित कर दिया था. हरियाणा में हुड्डा सरकार के खिलाफ चौटाला आये हैं, जो घड़ी की स्मगलिंग में पकड़े गये थे.

अर्थात परिवर्तन बेहतर भी हो सकती है, बदतर भी. राजनीतिक विकल्प दवा का भी काम कर सकता है और यह मर्ज भी बन सकता है, घाव को गहरा भी कर सकता है. लेकिन, इससे हटकर एक तीसरी धारा बनी है इस आंदोलन से. इसने राजनीतिक विकल्प की धारा को मजबूती प्रदान की है. हमें देखना होगा कि इस आंदोलन की पूरक शक्ति कहां है. क्योंकि, अन्ना आंदोलन में एक सीमा थी.

अब तक जो भी आंदोलन हुए हैं, जल, जंगल या जमीन या हाशिये पर रहे लोगों के लिए, यह मुख्यधारा की राजनीति से अलग रही हैं. यही कारण है कि ऐसे आंदोलन करनेवाले लोगों को पूजा जाता है, सम्मान दिया जाता है, पर उन्हें वोट नहीं मिलता. लोक तक तंत्र की बात पहुंचे, यह बेहद जरूरी है. इसके लिए यह जरूरी है कि राजनीति को अपनाया जाये.

यह सही है कि आंदोलन में ही भविष्य की राजनीति की बुनियाद टिकी है. पर अगर वैकल्पिक राजनीति चाहिए तो हर तरह के जनांदोलनों को जोड़ना होगा. अर्थात, 25-30 साल से चल रहे आंदोलन या साल-डेढ़ साल से शुरू आंदोलन जुट जायें, तभी बदलाव की बात सोची जा सकती है. यह कड़वा सच है कि एक मुद्दे, जाति विशेष या हाशिये पर रहे लोगों के लिए शुरू किया गया आंदोलन कोई राजनीतिक बदलाव नहीं ला सकता.

राजनीति या व्यवस्था में इसका प्रभावी हस्तक्षेप नहीं होता. लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है कि अगर शून्य से शुरू कर बड़े बदलाव की कल्पना की जाये तो यह बेमानी है. छोटे कारखानों में ट्रक बनाये जायें, तो उसकी बिक्री नहीं होगी, पूंजी भी डूब जायेगी.

राजनीति का एक न्यूनतम स्केल है. अगर उससे नीचे हों, तो सफलता नहीं मिलेगी, वोट नहीं मिलेगा. एक समुदाय या वर्ग की राजनीति करें तो पूरे समय की राजनीति नहीं की जा सकती. नया आंदोलन नहीं हो सकता. इसलिए बुनियादी परिवर्तन के लिए दोनों तरह के आंदोलनों को जोड़ना होगा.

अभी अन्ना के आंदोलन से यह खिड़की खुली है. अगली बार कब खुलेगी पता नहीं. वैसे भी हर पीढ़ी को एक बार मौका मिलता है कि वह नि:स्वार्थ भाव व जातिगत भावना से हट कर वोट करे. जब तक प्रदेश का नेतृत्व नहीं करेंगे, बुनियादी बदलाव की बात नहीं सोच सकते.

मालिक व प्रजा के बजाय अगर लोकतंत्र में नागरिक का एहसास करना चाहते हैं, तो राजनीति में आना ही होगी. राजनीति की सफलता के भी अलग-अलग पैमाने हैं. चुनावी सफलता को राजनीति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. अगर आंदोलन का राजनीति में प्रवेश होता है, तो यह कोई जरूरी नहीं कि जीत मिल जाये. पर, इतना जरूर है कि आंदोलन के मुद्दे राजनीतिक पार्टियां शामिल करती हैं.

अर्थात, पार्टियां भले ही हार जाये, पर मुद्दे जीवित रहते हैं. लोकलाज जिंदा रहता है. चुनाव हार सकते हैं, पर लोकलाज व लोकनीति जीवित रह सकती है. कांग्रेस व भाजपा अगर टिकट वितरण करेगी, तो कम-से-कम बेईमान लोगों को टिकट देने से परहेज जरूर करेगी.

हर पार्टियों में ईमानदार लोग हैं, जो उपेक्षित हैं. ऐसे आंदोलनों से उनकी मुख्यधारा में वापसी हो सकती है. अगर नयी पीढ़ी के आदर्शवादी युवा-युवती को राजनीति में लायी जाये, सौ में भी 10 पैसे भी शामिल हो जायें, तो बड़ी बात होगी. स्व से बाहर निकल जायें, यह ही बड़ी चीज है. ऐसे आदर्शवादी युवक मोहल्लों में जानवरों की सुरक्षा करनेवाले लड़के भी हो सकते हैं.

पेड़-पौधा लगानेवाले युवक भी हो सकते हैं. ऐसे आदर्शवादी युवाओं को लाकर राजनीति की मैली धारा में गंगा की प्रवाह लायी जा सकती है. राजनीति को बदलना है, तो सफलता का मापदंड भी बदलना होगा. दीर्घकालिक सफलता संभव है. युवाओं को लाना ही वैकल्पिक राजनीति है. यही वैकल्पिक राजनीति देने की कोशिश करनी होगी.
*पटना में ‘व्यवस्था परिवर्तन और वैकल्पिक राजनीति’ पर आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी में दिया गया भाषण

http://raviwar.com/ से साभार