Saturday, November 17, 2012

बदलाव का रास्‍ता राजनीति ही आएगा

अन्ना ने खिड़की खोली तो

योगेंद्र यादव

अन्ना हजारे

अन्ना हजारे का आंदोलन देश के लिए एक आशा की किरण है. यह आंदोलन देश में व्यापक परिवर्तन ला सकता है कि नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है. लेकिन, इसने जनमानस में एक बदलाव लाया है. जितने लोग सड़क पर उतरे, उससे कहीं अधिक घर में बैठे लोगों के मन में उस आंदोलन के प्रति सकारात्मक सोच उत्पन्न हुआ. यह देश में बदलाव का एक संकेत है. यह बदलाव उस पर निर्भर करता है कि हमारी नयी पीढ़ी की भागीदारी इसमें कैसी रहती है.

देश आज दोराहे पर खड़ा है. लोगों में गुस्सा है. वैसे हिंदुस्तानियों के मिजाज में गुस्सा है. बात-बात पर लोगों में खीझ उत्पन्न होती है. लेकिन, पिछले साल-डेढ़ साल में जो गुस्सा पैदा हुआ है, उससे एक छोटी-सी आशा पैदा हुई है. यह आशा का दीप बुझ जायेगा या दीर्घकालिक परिवर्तन की ओर ले जायेगा, यह तय नहीं है.

सामान्यत: घर, परिवार, बीवी, नेताओं, व्यवस्था, सरकार व शासन-प्रशासन से असंतोष रहता है. लेकिन वर्तमान असंतोष अलग किस्म का है. यह व्यवस्था के खिलाफ असंतोष है. घोटाले पहले भी हुए थे और अब भी हुए. ये यदा-कदा उजागर भी होते रहे हैं. नयी दिल्ली में काम करनेवाले मीडियाकर्मी हों या सत्ता के गलियारे से जुड़े लोग, इनके पास घोटालों की जानकारी भी रहती है. यह दीगर है कि इसे छापने की हिम्मत किसी में नहीं होती. लेकिन, जिस तरीके से कोलगेट घोटाले का मामला उजागर हुआ, उसने राजनीतिक प्रतिष्ठान के खिलाफ ही असंतोष का भाव पैदा किया.

आम तौर पर घोटालों में सत्ता से जुड़े लोग ही होते हैं. कोयला खदान आवंटन घोटाला ऐसा है, जिसमें कांग्रेस के साथ ही भाजपा के लोग भी समान रूप से संलिप्त हैं. जिस नीति के आधार पर कोयला खदान का आवंटन हुआ, उसे भाजपा सरकार ने बनाया था. कांग्रेस ने उस पर अमल शुरू किया, तो मध्यप्रदेश के भाजपाई मुख्यमंत्री ने उस नीति को जारी रखने के लिए सिफारिश भरा पत्र लिखा. ओड़ीशा के मुख्यमंत्री के अलावा राजस्थान सहित कई कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी उस नीति का समर्थन किया. हद तो यह कि आमतौर पर ईमानदार समझे जाने वाले वाम दलों की पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा भी पत्र लिखा गया.

रॉबर्ट वाड्रा का मामला कुछ भी नया नहीं है. सत्ता में बैठे लोगों के दामादों, रिश्तेदारों का प्रभाव शुरू से ही रहा है. बिहार में तो वर्षो तक प्रभाव था. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में रंजन भट्टाचार्य का प्रभाव किसी मीडियाकर्मी से छिपा नहीं था. लेकिन मीडिया में इस मुद्दे पर चुप्पी थी.

कांग्रेस के शासनकाल में एक साप्ताहिक पत्रिका ने जब रंजन भट्टाचार्य से संबंधित खबर छापनी चाही कि किस कदर वे पीएमओ चलाया करते थे, तो प्रिंटिंग प्रेस से उस मैटर को वापस करना पड़ा. रॉबर्ट वाड्रा के मामले में ऐसा नहीं है. यह बीते एक-डेढ़ साल में हुई घटनाओं का ही असर है कि निजी तौर या ड्राइंग रूम में होनेवाली चर्चाएं आज सार्वजनिक तौर पर हो रही हैं. लेकिन सत्ता व विपक्षी पार्टियों ने एक अलिखित समझौता किया है.

बीते दिन कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने खुलेआम कहा कि हमारे पास रंजन भट्टाचार्य से जुड़ी कई जानकारियां हैं, लेकिन हम गैरकानूनी बात नहीं करते. सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष पर यह बेशर्मी दिखती है कि एक-दूसरे का बचाव करें, बात न करें, पोल न खोलें. जनता के सामने सच को नहीं रखें. भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की कंपनी पर आरोप लगे कि उसने गबन किया है या उसके मालिक खोजे नहीं मिल रहे हैं, तो इसमें एक सच यह भी है कि उनको (अध्यक्ष को) मदद करनेवाली सरकार कांग्रेस व एनसीपी की ही है. इन घटनाओं से यह सीधा मतलब निकलता है कि सत्ता प्रतिष्ठान एक-दूसरे से मिला हुआ है.

बीते 20 वर्षों में देश ने कई रंगों की सरकार देखी है, पर रिलायंस का प्रभाव जस-का-तस है. देश का कोई भी पेट्रोलियम मंत्री ऐसा नहीं रहा, जो रिलायंस के खिलाफ बोल सके. मौजूदा समय में जिसने भी रिलायंस के खिलाफ बोलने की कोशिश की, उसे मंत्रालय से हाथ धोना पड़ा. यह शर्म का विषय है कि प्रधानमंत्री ईमानदार मंत्री से पेट्रोलियम मंत्रालय चलाना चाहते हैं, पर वे इसमें कामयाब नहीं हो पा रहे हैं. पीएम में ऐसी हिम्मत नहीं है कि वे ऐसा कर सकें.
सकारात्मक बात यह है कि ऐसी चीजें अब बाहर आ रही हैं. पहले ऐसे मुद्दे अखबार में नहीं छपते थे, पर सार्वजनिक असंतोष के बाद अखबारों व मीडिया में ये दिखने लगे हैं. आज भी एक-दो ऐसे बड़े अखबार हैं, जो रॉबर्ट वाड्रा का नाम तक नहीं छापते कि घोटालों में उनका नाम है. हां, खबर छापना जरूर उनकी मजबूरी बन गयी है.

निजी चीजों का सार्वजनिक होना शुभ लक्षण है. व्यवस्था का इलाज गुस्सा में है. लोग गुस्से में हैं व्यवस्था के दलालों से, शासन की अक्षमता से. अगर यही गुस्सा संकल्प में बदल जाये, तो वह बदलाव का वाहक बन सकता है. छोटा गुस्सा कायरता का लक्षण है. अगर 364 दिन गुस्सा चले, तो उससे बदलाव हो सकता है. पांच लोग बैठ कर भी कहें कि हम अकेले हैं, कुछ नहीं कर सकते. नेता अकेले होते हुए भी बैंक बैलेंस की गठरी के साथ दो हो जायें, तो यह ठीक नहीं. आम जनमानस अब ऐसा नहीं कहता. ग्रामीण इलाके के लोग भी अब बोलने लगे हैं कि अन्ना का आंदोलन जायज है. अन्ना आम लोगों के हित की बात कर रहे हैं.

इतिहास में कई लोग हैं, जो गुमनाम रहे. देश में गांधी से भी बड़े नेता हुए हैं, जो गुमनामी की जिंदगी में रहे. लेकिन, अन्ना के आंदोलन का मीडिया में कवरेज इतना व्यापक तौर पर मिला कि इसकी चर्चा हर जगह हुई. एक तरह से अन्ना आंदोलन ने बड़े बदलाव किये. हम अपने मन में अगर मैल रखें, तो कुछ नहीं कर सकते. जिस दिन यह मैल निकल जाये, नेता कुछ गलत नहीं कर सकते. अन्ना ने उस मैल को निकालने का काम किया. यह एक ऐतिहासिक चुनौती है देश के सामने.

अन्ना के आंदोलन से जो खिड़की खुली है, उसे दरवाजे के रूप में परिवर्तित किया जायेगा या वह बंद हो जायेगा, यह कहना मुश्किल है. 2014 के चुनाव में वह खिड़की अपना असर दिखायेगी ही, यह भी तय नहीं है. आमूल-चूल परिवर्तन व व्यवस्था में बदलाव के लिए यह खिड़की खुली है. अगर सही ऊर्जा का इस्तेमाल हो, तो आधी खिड़की को पूरा खोल कर दरवाजा बनाया जा सकता है. यह तभी संभव है, जब राजनीति को अपनायी जाये. राजनीति के माध्यम से ही किसी सच को साकार करने का दु:साहस किया जा सकता है. बशर्ते अन्ना के आंदोलन से जो आशा की किरण दिखी है, उसका वस्तुपरक मूल्यांकन हो.

अन्ना के आंदोलन में शहरी व कस्बाई इलाके के लोग शामिल रहे. ग्रामीण परिवेश न के बराबर था. शीर्ष के पांच प्रतिशत लोग व नीचे के 50 प्रतिशत लोग इस आंदोलन से गायब रहे. मंझोले किस्म के लोगों ने इसमें भाग लिया. आंदोलन की शुरुआत एकमात्र मुद्दा भ्रष्टाचार से हुई. यह सामान्य जन का आंदोलन नहीं था.

देश में ऐसे आंदोलन हर रोज होते हैं. लेकिन, इस आंदोलन की यह खासियत थी कि इसमें भाड़े के लोग नहीं लाये गये थे. स्वत: स्फूर्त लोग इसमें शामिल हुए. ऐसी कोई रैली या आंदोलन नहीं रहा, जिसमें 12 बजे तक महिलाएं अपने बच्चों के साथ शामिल हुई हों. अन्ना आंदोलन में ऐसा दिखा. यह जनमानस का बदलाव दिखा.

कुछ लोगों ने इसे लोकपाल के लिए आंदोलन का नाम दिया. दरअसल, यह लोकबल का आंदोलन था. ऐसे में यह आंदोलन राजनीति में कैसे बदले, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है. क्योंकि, यह युगधर्म की राजनीति के माध्यम से ही कोई बड़ा बदलाव हो सकता है. छोटे हो या बड़े आंदोलन, आमतौर पर राजनीति में यह शामिल नहीं हो पाता. अगर आप हर बच्चों को शिक्षा, हर महिला को घर तक स्वच्छ पानी दिलाना चाहते हैं, तो इसके लिए राजनीति में आना ही होगा.

चाहे राजनीति में कितनी भी खोट क्यों न हो, बिना इसके बिना आप ऐसे कामों को पूरा नहीं कर सकते. अगर राजनीति में सत्ता के भूखे, गुंडा व महाठग हैं, तो संत व विचारकों को भी आना होगा. लेकिन, अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू में राजनीति विरोधी दिखा. लोकतांत्रिक देश में ऐसा संभव नहीं है कि बिना राजनीति में उतरे आप कुछ कर सकें. क्योंकि, राजनीति बिना लोकतंत्र के की जा सकती है, पर लोकतंत्र बिना राजनीति के नहीं चल सकता है. अन्ना आंदोलन में पहले राजनीति विरोधी का चरित्र दिखा. फिर यह सत्ता विरोधी तक आ पहुंचा.

यह अकाट्य सच है कि अगर आपको अपने आंदोलन में तीखापन, ताकत लाना है, तो सत्ता का विरोध करना ही होगा. पत्रकारिता में भी यह धर्म है कि अगर कोई पत्रकार सत्ता के साथ कुरसी पर बैठ जाये, तो वह इसके खिलाफ है. लेकिन, सत्ता के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन का स्वरूप गलत दिशा भी दे सकता है.

कांग्रेस के विरोध का परोक्ष रूप यह कहा जाने लगा कि यह भाजपा का समर्थन है. बाबा रामदेव के आंदोलन में इसकी झलक मिलने का आरोप भी लगता है. हिसार में अन्ना टीम ने कांग्रेस का विरोध किया. लेकिन, भाजपा कोटे से जो चुनाव जीता वह भ्रष्ट से भी महाभ्रष्ट है.

यह धारणा बिल्कुल गलत है कि अगर आप सत्ता का विरोध करते हैं, तो उभरने वाला विकल्प साफ-सुथरा ही होगा. आंध्रप्रदेश में कांग्रेस शासन की अंधेरगर्दी है. लेकिन, जो सामने आ रहे हैं, वे हैं वीएसआर के बेटे जगन मोहन रेड्डी. ये वही हैं, जिन्होंने कोयला खदान के लिए राज्य का बॉर्डर इलाका ही परिवर्तित कर दिया था. हरियाणा में हुड्डा सरकार के खिलाफ चौटाला आये हैं, जो घड़ी की स्मगलिंग में पकड़े गये थे.

अर्थात परिवर्तन बेहतर भी हो सकती है, बदतर भी. राजनीतिक विकल्प दवा का भी काम कर सकता है और यह मर्ज भी बन सकता है, घाव को गहरा भी कर सकता है. लेकिन, इससे हटकर एक तीसरी धारा बनी है इस आंदोलन से. इसने राजनीतिक विकल्प की धारा को मजबूती प्रदान की है. हमें देखना होगा कि इस आंदोलन की पूरक शक्ति कहां है. क्योंकि, अन्ना आंदोलन में एक सीमा थी.

अब तक जो भी आंदोलन हुए हैं, जल, जंगल या जमीन या हाशिये पर रहे लोगों के लिए, यह मुख्यधारा की राजनीति से अलग रही हैं. यही कारण है कि ऐसे आंदोलन करनेवाले लोगों को पूजा जाता है, सम्मान दिया जाता है, पर उन्हें वोट नहीं मिलता. लोक तक तंत्र की बात पहुंचे, यह बेहद जरूरी है. इसके लिए यह जरूरी है कि राजनीति को अपनाया जाये.

यह सही है कि आंदोलन में ही भविष्य की राजनीति की बुनियाद टिकी है. पर अगर वैकल्पिक राजनीति चाहिए तो हर तरह के जनांदोलनों को जोड़ना होगा. अर्थात, 25-30 साल से चल रहे आंदोलन या साल-डेढ़ साल से शुरू आंदोलन जुट जायें, तभी बदलाव की बात सोची जा सकती है. यह कड़वा सच है कि एक मुद्दे, जाति विशेष या हाशिये पर रहे लोगों के लिए शुरू किया गया आंदोलन कोई राजनीतिक बदलाव नहीं ला सकता.

राजनीति या व्यवस्था में इसका प्रभावी हस्तक्षेप नहीं होता. लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है कि अगर शून्य से शुरू कर बड़े बदलाव की कल्पना की जाये तो यह बेमानी है. छोटे कारखानों में ट्रक बनाये जायें, तो उसकी बिक्री नहीं होगी, पूंजी भी डूब जायेगी.

राजनीति का एक न्यूनतम स्केल है. अगर उससे नीचे हों, तो सफलता नहीं मिलेगी, वोट नहीं मिलेगा. एक समुदाय या वर्ग की राजनीति करें तो पूरे समय की राजनीति नहीं की जा सकती. नया आंदोलन नहीं हो सकता. इसलिए बुनियादी परिवर्तन के लिए दोनों तरह के आंदोलनों को जोड़ना होगा.

अभी अन्ना के आंदोलन से यह खिड़की खुली है. अगली बार कब खुलेगी पता नहीं. वैसे भी हर पीढ़ी को एक बार मौका मिलता है कि वह नि:स्वार्थ भाव व जातिगत भावना से हट कर वोट करे. जब तक प्रदेश का नेतृत्व नहीं करेंगे, बुनियादी बदलाव की बात नहीं सोच सकते.

मालिक व प्रजा के बजाय अगर लोकतंत्र में नागरिक का एहसास करना चाहते हैं, तो राजनीति में आना ही होगी. राजनीति की सफलता के भी अलग-अलग पैमाने हैं. चुनावी सफलता को राजनीति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. अगर आंदोलन का राजनीति में प्रवेश होता है, तो यह कोई जरूरी नहीं कि जीत मिल जाये. पर, इतना जरूर है कि आंदोलन के मुद्दे राजनीतिक पार्टियां शामिल करती हैं.

अर्थात, पार्टियां भले ही हार जाये, पर मुद्दे जीवित रहते हैं. लोकलाज जिंदा रहता है. चुनाव हार सकते हैं, पर लोकलाज व लोकनीति जीवित रह सकती है. कांग्रेस व भाजपा अगर टिकट वितरण करेगी, तो कम-से-कम बेईमान लोगों को टिकट देने से परहेज जरूर करेगी.

हर पार्टियों में ईमानदार लोग हैं, जो उपेक्षित हैं. ऐसे आंदोलनों से उनकी मुख्यधारा में वापसी हो सकती है. अगर नयी पीढ़ी के आदर्शवादी युवा-युवती को राजनीति में लायी जाये, सौ में भी 10 पैसे भी शामिल हो जायें, तो बड़ी बात होगी. स्व से बाहर निकल जायें, यह ही बड़ी चीज है. ऐसे आदर्शवादी युवक मोहल्लों में जानवरों की सुरक्षा करनेवाले लड़के भी हो सकते हैं.

पेड़-पौधा लगानेवाले युवक भी हो सकते हैं. ऐसे आदर्शवादी युवाओं को लाकर राजनीति की मैली धारा में गंगा की प्रवाह लायी जा सकती है. राजनीति को बदलना है, तो सफलता का मापदंड भी बदलना होगा. दीर्घकालिक सफलता संभव है. युवाओं को लाना ही वैकल्पिक राजनीति है. यही वैकल्पिक राजनीति देने की कोशिश करनी होगी.
*पटना में ‘व्यवस्था परिवर्तन और वैकल्पिक राजनीति’ पर आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी में दिया गया भाषण

http://raviwar.com/ से साभार 

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