Tuesday, October 31, 2017

इसमें पैसे की कोई गूंजाइश

.....भाईसाब हैं तो एक कस्बे के। लेकिन पिताजी की नौकरियों के चक्कर में कई जगहों के चक्कर काट चुके हैं। उनमें कई जगह का पानी और कई जगह की बानी है। और अब महानगर में हैं। फिर भी हर आदमी को कभी न कभी इस आम प्रश्न का सामना करना ही पड़ता है - वह सब तो ठीक है लेकिन आप मूलत: हैं कहां के? उनसे जब भी पूछता हूं कि आप कहां के हैं? वे इसे टाल जाते हैं। बस बचपन में जहां स्कूल किया था और कुछ कॉलेज के दिन कोई व्यंजन कोई खांटी स्वाद कुछ नहीं । बस ऐसे ही हैं जनाब। उनके इस अंदाज पर मुझे बड़ी कोफ्त होती है। आदमी जहां कहीं भी जन्मा हो वहां के गीत, संगीत, किस्से कहानियों से परिचित तो होता ही है। इसके बगैर बड़ा कैसे हो सकता है। मुझे अक्सर लगता है कि भाईसाब बस टाल रहे हैं कि कह दिया तो गीत सुनाना पड़ेगा या फिर कुछ बनाकर खिलाना पड़ेगा।
बहरहाल, गीत और व्यंजन ना आए तो भी चलता है। भाईसाब में और भी तो गुण हैं। मसलन वे कमाल के पेशेवर अंदाजवाले हैं। काम करते हैं तो भूत की तरह। उसमें कोई कोताही नहीं। और कुछ भी तकनीकी मसला हो उसको ठोक बजाकर सीखने में उनका सानी नहीं। विज्ञान की पढ़ाई की है। बस ग्रेजुएट भर हैं। लेकिन उनसे बात करो तो पता चलता है कि पहले क्यों लोग अपने घर के आगे बी.ए. की डिग्रियां लटकाते थे। अब तो बी.ए., बी.एस.सी वाले किलो के भाव भी कोई नहीं पूछता।
उनसे यह बात कहो तो फूले नहीं समाते। बताते हैं इसमें उस संस्था का योगदान है जहां मैंने छह सात साल काम किया। वे बार बार एकलव्य के सीखने के अंदाज को बयान करते हैं। कौन था उसका गुरू ? बस सीखने की चाहत और कड़ा परिश्रम। खुद करके देखना। जूझते हुए लक्ष्य को भेदना ! यह सब उनके तकिया कलाम हैं। लेकिन यह सब ऐसी बातें हैं जिन्हें गंभीर बनने के लिए कोई भी कहता रहता है। या जैसे ही कोई कम आत्मविश्वास वाला आदमी मिलता है उसको प्रवचन की मुद्रा में आप सुना सकते हैं।
भाईसाब बीच में सिनेमा का कोर्स कर आए। कुछ एक डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बनाईं। पहले एक बड़े फिल्मकार के साथ काम किया और अब खुद की अपनी एक कंपनी बना ली है। कुछ अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी झटक लाये हैं। यानी फिल्म की दुनिया में में इतना समय बिता लिया है कि उसके गुर, दांव पेंच में परिपक्व हो गए हैं।
अब उन्हें यह खूब पता है कि किससे कैसे बात करनी है। किससे कौन सा काम निकालना है और क्रेडिट नहीं देना है। कैसे लोगों से आइडियाज लेने हैं और अपनी चाशनी चढ़ाकर सिद्धांत टीप देना है। कोशिश यह करो कि  सामने वाले को उसकी खबर तक नहीं लगे। कैसे सामने वाले से ही बुलवाते रहो और अपनी बारी आए तो चुप्पे मियां बन जाओ। यानी सामनेवाले के सारे संसाधनों को मुफ्त में मार लो और कहो कि इस पर तो अभी काम करना है। इसमें पैसे की कोई गूंजाइश नहीं है।
कभी-कभी मन करता है उनसे पूछूं - भइया, इसमें  अभी पैसे की गूंजाइश नहीं है, लेकिन ऐसा करार क्यों नहीं कर लें कि जब गूंजाइश होगी तब मेरा भी हिस्सा होगा। लेकिन अपन अभी इतने बेशर्म नहीं हो पाए हैं। भाइसाब को देखते हुए मुझे अक्सर विकास के नाम पर हो रही बहस याद आती है कि विकास के कुछ लोगों को शहादत तो देनी ही पड़ती है। बंधुवर विकास जब होना है तो शहादत ही क्यों ? विकास में हिस्सेदारी क्यों नहीं! मुझे ऐसे सवाल दागने का मौका नहीं मिला लेकिन आपको मिले तो चूकिएगा नहीं। और हां भाइसाब मिलें तो उनसे भी बेहिचक पूछिएगा, मेरी तरह संकोच न कीजिएगा! आमीन...