Sunday, September 30, 2007

कवि का भोलापन

कात्‍यायनी का यह आलेख जनसत्ता के दुनिया मेरे स्‍तंभ में काफी पहले प्रकाशित हुआ था। हालांकि इसे एक टिप्‍पणी के इर्द गिर्द बुना गया है लेकिन इसकी प्रासंगिकता व्‍यापक है। साहित्‍य और संस्‍कृतिकर्म की दुनिया में जिस तरह से झंडाबरदारी और जुमलों का जोर बढ़ा है और जिस तरह की प्रवृत्तियां लहरा रही हैं, ऐसे में यह एक जरूरी आलेख हो जाता है।
पिछले दिनों में उमाशंकर चौधरी को चौथा अंकुर स्‍म़ति‍ पुरस्‍कार प्रदान करते हुए नामवर सिंह ने कहा कि आज के इस दौर ने कवि का भोलापन छीन लिया है, आज की पीढ़ी की परिपक्‍वता देख कर डर लगता है।
पहली बात भोलापन या मासूमियत एक चीज होती है और बे-लागलपेटपन, साफगोई, निष्‍कपटता या स्‍पष्‍टवादिता चालक, धूर्त या दुनियादार होना दूसरी चीज। जो बे-लागलपेट होता है, जो दुनियादार नहीं होता, जो समझौते नहीं करता, जो अपने कथनी और करनी के परिणामों को समझते हुए भी वही कहता और करता है जिसे सही और उचित समझता है, उसे दुनियादार और दंदफंदी लोग भोला कहते हैं। कभी वे उस पर तरस खाते हैं, कभी हंसते हैं और कभी उसकी दुर्गति पर हर्षित होते हैं। निराला या मुक्‍तबोध भोले नहीं थे। वे चालू चलन के हिसाब से नहीं, बल्‍कि अपनी शर्तों पर जीते थे और उसकी कीमत चुकाते थे। इसलिए उन्‍हें उनके शुभचिंतक दुनियादार चतुर सुजानगण भोला समझते थे।

दूसरी बात, भोलापन केवल बच्‍चों का नैसर्गिक और वशि‍ष्ट गुण हो सकता है, बड़ों का नहीं, चाहे वह कव‍ि ही क्‍यों न हो। बड़ा अगर बच्‍चों जैसा आचरण करेगा तो बचकाना ही कहलाएगा। फिर यह भी याद रखा जाना चाहिए क‍ि जानते-बूझते भोला नहीं बना जा सकता।

तीसरी बात, कभी-कभी मानवद्वेषी-मानवद्रोही प्रवृत‍ि या परिदृश्‍य की भयावहता को विपर्यास, कंटास्‍ट के द्वारा निरावृत्‍त करने के लिए कविता भोलेपन की मुद्रा,बाना या शैली अपना लेती है। कविता के इस आभासी भोलेपन को कवि का भोलापन नहीं मान लिया जाना चाहिए। एक समझदार, तत्‍वदर्शी कवि की कविता ही भोलेपन की यह मुद्रा अपना पाती है।

चौथी बात, कवि भी इस समाज में जीनेवाला एक आम नागरिक होता है। अगर वह वास्‍तव में भोला हुआ तो कविता लिखना तो दूर, जी तक नहीं सकता। पागलखाने पहुंच जाएगा, भूखों मर जाएगा या पागलखाने पहुंच जाएगा या आत्‍महत्‍या कर लेगा। और ऐसा व्‍यक्तित्‍व-विभाजन भी संभव नहीं क‍ि हम नागरिक के रूप में समझदार या दुनियादार हों और कवि के रूप में भोले-भोल कवि का अस्‍तत्वि एक मिथक है। कवि बस दो ही किस्‍म के हो सकते है- समझदार, समझौताहीन, स्‍पष्‍टवादी कवि और दुनियादार, चलाक, पाखंड़ी कवि। पहली कोटि के कवियों में कुछ अच्‍छे कवि भी हो सकते हैं और कुछ खराब भी। पर दूसरी कोटि का कोई भी अच्‍छा कवि नहीं हो सकता। अपनी तमाम कीमियागिरी और द्रव‍णि प्राणायाश-सदृश कला-साधना के बावजूद।

पांचवी बात, अलग-अलग विधाओं की अपनी विशिष्‍टताएं और सीमाएं होती हैं, लेकनि साहित्‍य-कला और हर विधा संश्लिष्‍ट सामाजिक यथार्थ से टकराती है, उसके अंतर्निहित अंतर्विरोधें का सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍मतर धरातल पर संधान और परावर्तन करती है और निश्‍चयता और अनिश्‍चयता के द्वंद्व के बीच से जीवन की गतिकी और विकास की दिशा को जानने-समझने की कोशि‍श करती है। यथार्थ जितना ही संश्लिष्‍ट होगा, उसके कलात्‍मक पुन:त्‍पादन के लिए सर्जक की चेतना का धरातल उतना ही उन्‍नत होना चाहिए। कवि अगर समझदार और व्‍यावहारिक नहीं होगा तो उसकी कविता सामाजिक यथार्थ से टकराने, उसका संधान करने और उसे परावर्तित करने का काम कर ही नहीं सकती।

यह एक मिथक है क‍ि कविता जीवन के निर्दोष सौंदर्य की अभिव्‍यक्ति होती है और कवि एक भोलाभाला जीव। न तो कविता कभी ऐसी थी और न ही कवि-कालिदास, भवभूति, तुलसी या कबीर के समय में भी नहीं। गांव के किसानों के बारे में भी शहरी किताबी लोगों में,प्राय: यह भ्रांत धारणा होती है क‍ि भोले होते हैं। गांवों में उत्‍पादन और विनिमय की अपेक्षा पिछड़े होने के चलते किसानों की सांस्‍कृतिक चेतना पिछड़ी होती है और उनकी तर्कणा अनुभववादी होती है, लेक‍िन वो भोले कदापि नहीं होते। भोलापन प्राय: उनकी उत्‍पीडि़त स्थिति की विवशता निरुपायता से पैदा हुई एक मुद्रा होती है। बल्कि शहरों में प्रचलित धारणा के विपरीत, किसान प्राय:अव्‍यावहारिक शहरी पढुवा लोंगों को उल्‍लू बना कर खूब मजा लेते हैं। तात्‍पर्य यह क‍ि सामाजिक संघातों विग्रहों से भरे समाज में किसी भी एक समुदाय, वर्ग या पेशे के लोंगो के भोले होने की बात असंभव है।

छठी बात, आज के पीढ़ी के कवियों की परिपक्‍वता देख कर आलोचक डरता क्‍यों है उसे डरना नहीं चाहिए। बात एक तुलना से समझी जा सकती है। पुरुष प्राय: स्त्रियों की परिपक्‍वता से भयभीत होता है। वह उनहें पुरुष वर्चस्‍व के लिए खतरा प्रतीत होती है और वे इस चीज से डरते हैं।

कहना न होगा, भोलाभाला होना बचकाना होना होता है। भोला बनने की हर कोशिश या तो पाखंड होती है या पिफर आप वाकई बौड़म हैं। बौड़म पर लोग या तो तरस खाते हैं, हंसते हैं या फिर उसे हंसते-हंसते खा जाते हैं और डकार तक नहीं लेते। इसलिए हे कविगण, अलोचक शिरोमणि की बात को दिल से कतई मत लगा लेना। समझदार बनना। भोला कतई न होना। भोले होगे तो कविताई कर पाना तो दूर, इस समाज में जीना मुहाल हो जाएगा। आज के समाज में जीना क्षण-प्रतिक्षण एक कठिन-जटिल युद्घ् है, कला-विशारद होना जरूरी है।

सचाई को कविता में बयान करना साहस के साथ समझदारी की भी मांग करता है।

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