इसे बंदे की नादानी ही समझा जाए कि ... उम्रे दराज मांग के ... जैसे शेर को गुनगुनाने का मौका तो कई बार आया लेकिन यह पता नहीं कि यह शेर हिन्दुस्तान के अंतिम बादशाह सिराजुद्दीन ख़ान, मुहम्मद अबू ज़फ़र बहादुर शाह ग़ाज़ी, आलमपनाह, शहंशाह का है।
खुशवंत सिंह की एक किताब है दिल्ली, दिल्ली की कहानी बयान करने के दरम्यान वे खुशरो, मीर, सादी आदि के साथ्ा कई शायरों को अपने पात्रों के जरिये याद करते करते हैं। और जब सल्तनत का शाहंशाह ही भला शायर हो तो उसे कैसे भूल सकते हैं। बहादुर शाह ज़फ़र को उन्होंने खूब कोट किया है। इसी क्रम में मेरी अज्ञानता भी दूर हुई। 82 साल के उम्र में अंग्रेजों की कैद में कालापानी को जा रहे शाहंशाह ने अपनी बातें कुछ इस तरह कही हैं -
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार1 में,
किसकी बनी है आलमे- नापाएदार2 में।
बुलबुल को पासबां से न सैयाद3 से गिला,
किस्मलत में कै़द थी लिखी फ़स्ले बहार4 में।
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहां है दिले – दाग़दार में ।
इक शाख़े –गुल5 पे बैठ के बुलबुल है शादमां6,
कांटे बिछा दिए हैं दिले – लालाज़ार7 में ।
उम्रे – दराज मांगकर लाए थे चार दिन,
दो आरजू में कट गए, दो इंतजार में ।
है कितना बदनसीब 'जफ़र' दफ़न के लिए,
दो गज़ जमीं भी मिल न सकी कुए-यार8 में।
1.नगर 2.नश्वर संसार 3.शिकारी 4.वसंत ऋतु 5.फूलों की डाली 6.खुश 7.दिल का बागीचा 8.यार की गली
आभार इस प्रस्तुति के लिये.
ReplyDeletejhakjhor dene wali rachna. in dino baar-baar sunna hua ise
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