अपनी ही रचनाओं को नष्ट कर देना एक रचनाकार के लिए घोर निराशा का क्षण है। लेकिन उसे इस निर्णय तक ले जाने में कही न कहीं से हम सब भी जिम्मेवार हैं। पुरस्कारों और फेलोशिप के इस समय में प्रतिभाशील लोगों का छूट जाना, उपेक्षित हो जाना एक निर्मम घटना है। पलाश विश्वास का यह पत्र इसका जीवंत दस्तावेज है
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कबाड़ी ने दिये सौ रुपए, ताजा सब्जी खरीदना है सुबह को। मधुमेह पीड़ित जो हूं।
Palash biswas द्वारा 21 फ़रवरी, 2008 10:07:00 PM IST पर पोस्टेड #
रचना समग्र को तिलांजलि
कबाड़ी ने दिये सौ रुपए, ताजा सब्जी खरीदना है सुबह को। मधुमेह पीड़ित जो हूं।
पलाश विश्वास
पिछले पैंतीस साल से हिन्दी में लिखते रहने की उपलब्धियां अनेक है। झारखण्ड, उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ के जनसंघर्षों में भागेदारी। उत्तरप्रदेश और बिहार मे मिला भरपूर अपनापा। मध्य प्रदेश और राजस्थान के पाठकों से संवाद बना रहा। पर जनपक्षधर लेखन के लिए अब कहीं कोई गुंजाइश नहीं बनती। सम्पादक प्रकाशक पूछता नहीं। आलोचक पढ़ते नहीं। तमाम लघुपत्रिकाएं पार्टीबद्ध या व्यवसायिक। व्यवसायिक मीडिया और साहित्य बाजार के कब्जे में। पूरा भारतीय उपमहादेश, यह खणड विखण्ड भूगोल इतिहास बालीवूड, कारपोरेट और क्रिकेट में निष्णात। धोनी और ईशान्त शर्मा की उपलब्धियों के सामने फीके पड़ने लगे हैं अमिताभ, किंग खान, सचिन तेंदुलकर, राहुल, गांगुली और अनिल कुंबले। शेयर सूचकांक और विकास दर में उछाल वाले शाइनिंग इण्डिया में एक अप्रतिष्ठत अपतिष्ठानिक मामूली लेखक की क्या बिसात। किराये के मकान में बसेरा। हिन्दी सेवा के पुरस्कार स्वरुप जीवन में कोई व्यवहारिक कामयाबी नहीं है। मकान मालिक की धमकियां अलग। कूड़ा जमा रखने से आखिर क्या हासिल होगा? पांडुलिपियों से कफन का इंतजाम तो नहीं होना है। सो, बारह तेरह साल की मेहनत की फसल अमेरिका से सावधान की प्रकाशित अप्रकाशित पांडुलिपियां, तमाम पूरी अधूरी कहानियां, उपन्यास, कविताएं, पत्र, पत्रिकाएं आज कबाड़ीवाले के हवाले करके बड़ी शान्ति मिली। अब कम से कम चैन से मर सकूंगा। अब हमें पांडुलिपियों के साथ फूंकने की नौबत नहीं आएगी।
जनम से बंगाली शरणार्थी परिवार से हूं। पिताजी स्वर्गीय पुलिन कुमार विश्वास आजीवन दलित शरणार्थियों के लिए देशभर में लड़ते खपते रहे। तराई में तेलंगना की तर्ज पर ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे। पुतिस ने पीटकर हाथ तोड़ दिया था। घर में तीन तीन बार कुर्की जब्ती हुई। कम्युनिस्ट थे। पर किसानों से कामरेडों के दगा और तेलंगना और ढिमरी ब्लाक के अनुभव से वामपंथ से उनका मोहभंग हो गया। पार्टी निषेधाज्ञा के विरुद्ध सन साठ में असम दंगों के दौरान वहां शरणाज्ञथियों के साथ खड़े होकर वामपंथ से हमेशा के लिए अलग होकर अराजनीतिक हो गये। पर सत्तर दशक के परिवर्तन के ख्वाबों के चलते, उस पीढ की विरासत ढो रहा हूं नन्दीग्राम और सिंगुर के बावजूद।
जनम से बंगाली। एणए किया अंग्रेजी साहित्य से और पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी। पर राजकीय इण्टर कालिज, नैनीताल के गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने परीक्षा की कापी जांचते हुए जो कहा कि हिन्दी भी तुम्हारी मातृभाशा है, उस आस्था से अलगाव नहीं हो पाया अबतक। चूंकि अब कुछ भी स्थानीय नहीं है उत्तर आधुनिक गैलेक्सी मनुस्मृति व्यवस्था में और स्वर्गीय पिता की विरासत भी कन्धे पर है, तो ग्लोवल नेटवर्किंग के मकसद से हाल में अंग्रेजी में लिखना शुरु किया है। पर लेखक तो रहा हूं हिन्दी का ही। इन पैंतीस वर्षों में शायद ही कोई पपत्र प्त्रिका बची हो, जिसम छपा नहीं हूं। यह सिलसिला १९७३ में दैनिक पर्वतीय नैलीताल से शुरु हुआ। रघुवीर सहाय जैसे ने दिनमान में जगह देकर हि्म्मत बढ़ाई।
छात्र जीवन में चिपको आंदोलन से जुड़ा रहा। नैनीताल समाचार और पहाड़ टीम का हिस्सा रहा हूं कभी। ताराचंद जी का सबक हम आज भी नहीं भूले कि जनपक्ष में खड़ा होना है तो संवाद का माध्यम हिंदी ही होना चाहिए। अपने घर में साल भर रखकर उन्होंने हमें वैचारिक मजबूती दी।
अंग्रेजी से एणए करने के बावजूद मैंने हिंदी प्तर्कारिता को आजीविका का माध्यम बनाया। मजा भी आया खूब। झारखण्ड में १९८० से १९८४ तक दैनिक आवाज में काम करते हुए आदिवासियों की जीवन यंत्रणा का पता चला। वहीं से एके राय और महाश्वेता देवी जैसी हस्तियों से अपनापा बना। खान दुर्घटनाओं पर अंधाधुंध का किया। जिसकी फसल मेरे कहानी संग्रह ईश्वर की गलती है। फिर मेरठ में सांप्रदायिक दंगों से आमना सामना हुआ। मेरा पहला कहानी संग्रह अंड सेंते लोग इसीका नतीजा है। लघठु उपन्यास उनका मिशन भी। टिहरी बांध पर लिखा लघु उपन्यास नई टिहरी पुरानी टिहरी।
फिर खाड़ी युद्ध का पहला अध्याय। तब मैं अमर उजाला के खाड़ी डेस्क पर था। इसके तुरन्त बाद सोवियत विघटन। अमेरिकी साम्राज्यवाद के भविष्य से नत्थी भारतीय उपहादेश ककी नियति का डर सताना शुरु किया तो लिखना शुरु किया अमेरिको से सावधान। बड़ी प्रतिक्रया हुई सन १९९९ तक। हजारों पत्र मिले। दैनिक आवाज में दो साल धारावाहिक छपा- जमशेदपुर और धनबाद में। बड़ी संख्या में लघु पत्रिकाओं ने अंश छापे। करीब बारह तेरह साल तक मैं इसी में जुटा रहा।
मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनते ही भारत में नवउपनिवेशवाद चालू। फिर आये वाजपेयी। अब प्रणव मुखर्जी वास्तविक प्रधानमंत्री। मेरी दिलचस्पी न शरणार्थी आंदोलन में थी न दलित आंदोलन में। हमारी पूरी आस्था मार्क्सवाद, वर्ग संघर्ष और क्रांति में रही है। दुनियाभर का साहित्य और विचारधाराओं के अध्ययन के बावजूद मैंने कभी अंबेडकर को नहीं पढ़ा।
१९९० में कोलकाता आने पर यहां काबिज ब्राह्मवादी व्यवस्था से हर कदम पर टकराव होने लगा। फिर मैंने बंगाल और भारतीय उपमहादेश की जड़ों को टटोलना शुरू किया। अंबेडकर को भी पढ़ना शुरु किया। इसी बीच सन २००१ में पिता को िधन हो गया। उन्होंने अपना सबकुछ जनसेवा में न्यौछावर कर दिया। विरासत में हमें संपत्ति नहीं, संघर्ष और अपने लोगों के हक हकूक के लिए खड़ा हो जाने की प्रतिबद्धता मिली। माकपाइयों से संबंध मधुर रहे हैं। थी मामलात में पश्चम बंगाल का समर्थन भी मिलने लगा। फिर अचानक २००१ में उत्तरांचल पर काबिज भाजपा सरकार ने बंगाली दलित शरणार्थियों को यकायक विदेशी नागरिक करार दिया। वहां भारी आंदोलन हुआ तो पश्चम बंगाल से पूरा समर्थन भी मिला। किंतु २००३ में गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नागरिकता संशोधन बिल पेश किया संसद में गुपचुप। द्वैत नागरिकता के बहाने पू्रवी बंगाल से आये और भारतभर में छितरा दिये गये विभाजन पीड़ितों को रातोंरात विदेशी नागरिक बना दिया गया। यह बिल संसदीय कमिटी के अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने बिना किसी सुनवाई के मंजूर कर दिया। संसद में बहस नाममात्र हुई। तब मनमोहन सिंह विपक्ष में थे और उन्होंने विभाजन पीड़ित शरणार्थियों को नागरिकता देने की पुरजोर पेशकश की, जिसे प्रधानमंत्री बनते ही वे भुल गये। सबसे बड़ा हादसा यह था कि शरणार्थी, दलित, पिछड़ा आदिवासी और सर्वहारा की बात करने वोले वामपंथियों ने इस बिल को कानू बनाने में भजपाइयों को हर संभव सहयोग दिया।
रही सही कसर पश्चिम बंगाल में शहरी करण, औद्यौगीकरण और पूंजीवादी विकास अभियान ने पूरी कर दी। इस बीच कांग्रेस के केंद्रीय सत्ता में आते ही प्रणव मुखर्जी ने दलित बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ देशबर में युद्धघोषणा कर दी। दरअसल नवउदारवाद के बहाने समूचे देश को आखेटगाह बना दिया गया। मूलनिवासियों का कत्लेआम होने लगा। और भारतीय उपमहादेश अंततछ अमेरिकी उपनिवेश बन गया। नंदीग्राम, सिंगुर, कलिंगनगर, विदर्भ, झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, तमिलनाडु. आंध्र, गुजरात, नवी मुंबई और महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और समूचे उत्तर भारत को श्मशान में तब्दील करने की साजिशें बेनकाब होने लगी। कल कारखाने , काम धंधे चौपट? न शिक्षा न रोजगार। शिक्षा, चिकित्सा का निजीकरण। मूल निवासी आजीविका और जीवन से बेदखल होने लगे।
अखारो और मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश। क्रकेट कार्निवाल। बालीवूड की उछाल। मोबाइल, कंप्यूटर. टीवी के जरिए नीली क्रांति। साहित्य साफ्ट पोर्न में तब्दील। मनोगंजन ही कला का एकमात्र सरोकार। तमाम लेखक बुद्धिजीवी संगठन सत्तादलों के साथ। सत्तावर्ग का चेहरा बेनकाब। दिल्ली में सत्ता साहित्य और संस्कृति का केन्द्रीयकरण। जनपदों का सफाया। कृषि और कृषकों का सत्यानाश।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब मानवाधिकार, लोकतंत्र और नागरिक अधिकार, संविधान, संप्रभुता और कानाल न्याय की तरह वायवीय अवधारणा मात्र। सर्वत्र बाजार संप्रभू।
सत्तापक्ष और विपक्ष एकाकार। जनांदोलन हैं ही नहीं। प्रतिरोध का क्रूरतापूर्वक दमन। मीडिया, मनी और माफिया का राज। ऐसे में साहित्य के लिए कहीं कोई स्पेस नहीं बचा।
यह कोई भवुक फैसला नहीं है। टाइम, स्पेस और मनी से हारे एक मामूली कलमकार के जीने का अंतिम राह है।
मेरे पाठकों , मुझे माफ करना।
हृदय को विदीर्ण करने वाली पोस्ट
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
padkar esa laga kanhi ham apni niyati to nahi pad rahe.rajesh utsahi
ReplyDeletepadkar esa laga kanhi ham apni niyati to nahi pad rahe.rajesh utsahi
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