Monday, November 1, 2010

ऐसा बोलो, ऐसा मत बोलो

चौथी या छटवीं में पढ़ी एक कहानी बहुत याद आ रही है। पूरी कहानी नहीं याद है, कुछ उस तरह की याद है जैसे हम याद करते हैं - यहीं तो हुआ करता था वह पेड़, या जैसे कि यहीं तो बैठते थे वह की याद की तरह। यानी उसकी उपस्थिति का अहसास भर है। अलबत्‍ता शीर्षक याद है - रक्षा में हत्‍या, लेखक का नाम नहीं । कोई बात नहीं अच्‍छे लायब्रेरियन शीर्षक के नाम से ही रचनाकारों को ढूंढ निकालते हैं। आप में से किसी ने पढ़ी हो तो जरूर बताइयेगा।

कहानी का मजमून यह था कि दो बच्‍चे गर्मी की दोपहरी में परेशान हैं। उनके घर के छज्‍जे पर चिड़ी ने अंडे दिए हैं। उनको डर लगता है कि दोपहर में जब सन्‍नाटा होता है कोई दूसरी चिडि़या या कोई बिल्‍ली अंडों को न ले उड़े और यह भी की इतनी धूप में अंडों को भी तो धूप लगती होगी न। इस तरह के कई डर हैं उनके मन में और वे अंडों की रक्षा करना तय कर लेते हैं। लेकिन इस काम के लिए छज्‍जे की ढलान पर नजाकत से बने घोंसले जिस तरह के संतुलन की जरूरत होती है, नहीं रख पाते और अंडे टूट जाते हैं। बच्‍चों का वह दुख इतना गहरा है कि अब तक पालथी मारकर भीतर बैठा हुआ है।

अनजान में हुई गलती से जान के जाने का डर।

कई बार हम बड़े भी बच्‍चों को इसी तरह डरा देते हैं। बच्‍चे संघर्ष करते हुए अपना संतुलन साध लेते हैं। लेकिन हमें उनकी सुरक्षा की इतनी चिंता होती है कि हमारी चीख निकल जाती है। हमारी इस भयातुरता से उनका बड़ा नुकसान हो जाता है। जरा छोटे बच्‍चों से बात करके देखिए तो सही। उनके भीतर हमारा डर इतना बैठा हुआ है कि वे हमेशा चेताते रहते हैं - ऐसे बैठो, यहां मत बैठो, ऐसे मत बोलो, इस तरह मत चलो , ऐसा मत करो आदि आदि।

2 comments:

  1. सर, मैन आपका ब्लॉग नियमित पढता हूँ. नियमित लेखन की अपेक्षा रखता हूँ.

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  2. भाईसाब । यह अच्‍छा चरित्र बनाया है। भाई साब यह तो प्रेमचंद की कहानी है। पर हां शीर्षक शायद यह नहीं था। मुझे भी इसलिए याद रह गई कि गुल्‍लक पत्रिका में इस्‍तेमाल की थी।

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