अभिनेता मनोज वाजपेयी से अनीश अंकुर और मृत्युंजय प्रभाकर की बातचीत
यह बातचीत मोहल्ला में प्रकाशित हो चुकी है। संगत में इसका पुनर्प्रकाशन इसलिए किया जा रहा है कि इन दिनों भोजपुरी याहू समूह में भोजपुरी कला,संस्कृति आदि के साथ सिनेमा पर भी चर्चा हो रही है। खासतौर से भोजपुरी के सिनेमा को लेकर 2003 से ही मीडिया में खूब चर्चा है। मनोज की बातचीत में भी उसका एक पक्ष है। इस बातचीत में से भोजपुरी का अंश लिया जा सकता था। लेकिन पूरी बातचीत अपने में इस कदर कसी हुई है कि उसे काटना-छांटना अच्छा नहीं लगा। और फिर यह मेरा अधिकार भी नहीं था। लालबहादुर
बॉलीवुड में आपका कैरियर लगभग 13 वर्ष का हो चुका है। जाहिर है पत्रकार, आलोचक व फिल्म समीक्षक आपके इन 13 वर्षों का अपने-अपने ढंग से मूल्यांकन करते हैं। आप खुद इन 13 वर्षों का कैसे मूल्यांकन करेंगे?
1993 में मैंने अपनी पहली फिल्म की थी, बैंडिट क्वीन, शेखर कपूर जी के साथ और उस समय मैंने 11 साल का रंगमंच छोड़ा था। या यों कहें कि वह छूट गया था। इन 11 सालों में रंगमंच में मैंने वह सब कुछ किया जो सोचा था और अपने को पूरा भर कर निकला था मैं वहां से। सिनेमाई दुनिया में आया तो ये मेरे लिए एक ऐसा माध्यम बना जो न सिर्फ मेरी रोजी-रोटी चलाता था, बल्कि मेरे अंदर की रचनात्मकता की भंड़ास भी पूरी करता। कोशिश मेरी शुरू से यही रही कि एक मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा का चलन किया जाए या उसका मैं हिस्सा बनूं और अगर आप देखें तो मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा काफी परिष्कृत हो चुका है। शायद उन्हीं प्रयासों का ही ये फल रहा। तो आज 13 साल के पूरे संघर्ष, आलोचना, इस पूरी लंबी-चौड़ी यात्रा के बाद कहीं-न-कहीं यह संतुष्टि होती है कि जो मैंने चाहा था, मैंने वो किया और अपनी शर्तों पर किया। इससे मैंने एक वर्ग खोजा जो मेरी तरह की फिल्मों में या मेरे अभिनय में भरोसा रखता है।
जैसा कि आपने कहा कि मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा प्रचलन में आ चुका है। खुद आप अपनी भूमिका इसमें किस रूप में देखते हैं?
मेरी भूमिका उसको आगे ले जाने की है। अगर आप देखें, तो जितने भी हमारे पॉपुलर अभिनेता-निर्देशक या फिल्म प्रोडक्शन हाउसेस हैं, वो अब मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा को भी तलाश रहे हैं। उसमें भी वो अपना व्यापार देख रहे हैं जो कि एक अच्छा चलन है। अब जब वो उस सिनेमा यानी मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा में पैसे लगाते हैं और जब वो पैसा वापस आता है, तो उससे वे उत्साहित होते हैं और ज्यादा-से-ज्यादा ऐसी फिल्में बनाने की कोशिश करते हैं। सबसे अच्छी पहल जो यहां पर है, वो यह कि हमारी कमर्शियल फिल्मों के पॉपुलर अभिनेता इन फिल्मों का हिस्सा बनने से कतरा नहीं रहे हैं। उनको पहले बहुत डर रहता था कि कहीं उनकी इमेज को धक्का न पहुंच जाए। जो रोल पहले मनोज वाजपेयी को मिलते थे, आज उन रोल्स को पाने के लिए बहुत सारे लोग दौड़ में हैं। मनोज वाजपेयी को वो रोल मिले न मिले, वो कम पॉप्यूलर है या ज्यादा, वो समय के हिसाब से बदलता रहता है। यह मनोज वाजपेयी का व्यक्तिगत मसला है। वो सामाजिक या सिनेमाई मसला नहीं है। सिनेमाई मसला ये है कि मिडिल आफ द रोड सिनेमा ने एक बहाव पकड़ा है और अब उसको आगे ले जाने की जरूरत है। जैसे-जैसे यह चलन बढ़ता जाएगा, प्रोडयूसर को पैसे मिलते जाएंगे तो वो किसी भी तरह के प्रयोग से कतराएगा नहीं।
अभी का जो यथार्थवादी कहा जानेवाला सिनेमा है, जिसे एक खास अभिरुचि के लोग पसंद करते हैं, इसने बतौर अभिनेता या आप जैसे लोगों को कितनी संतुष्टि दी है?
बहुत ज्यादा संतुष्टि दी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अगर आप देखें, तो चाहे काबुल एक्सप्रेस हो या फिर प्रकाश झा की फिल्में हों या फिर अनुराग कश्यप की, अभी भी स्मोकिंग बन रही है। ये जितने भी निर्देशक हैं, जो यथार्थवादी फिल्में बनाते हैं, उनके साथ काम करने के लिए अभिनेता अब खुद पहल कर रहे हैं। वो खुद ये ख्वाहिश रख रहा है कि वो उनके साथ काम करे। ये अपने आपमें एक बड़ा चेंज है। दूसरा ये कि हम लड़ाई कभी भी ये नहीं लड़ रहे थे कि कमर्शियल फिल्में खत्म हो जाएं। हमारी कोशिश या लड़ाई ये थी कि हम भी इस दुनिया में एग्जिस्ट करें। हम आपके साथ-साथ चलें। सिनेमाई समाज में सबके लिए जगह हो, सबको हॉल मिले। जब हमको ये मिला तो साथ-साथ दर्शक का एक वर्ग तैयार हो गया। और शायद ये कोएग्जिस्टेंस दोनों के लिए बहुत जरूरी थी और आज उसको मान्यता भी मिल रही है पॉपुलर सिनेमा कल्चर की तरफ से।
थिएटर से जो लोग फिल्मों की ओर रुख करते हैं, अमूमन वह एक जगह जाकर एडजस्ट नहीं कर पाते। पिछले वर्ष फिल्मकार सुधीर मिश्र ने एक इंटरव्यू में कहा कि थिएटरवाले थियेटर को तो मां समझते हैं और फिल्मों को पता नहीं क्या समझते हैं? वे न इधर के रह पाते हैं, न उधर के। आप लगभग एक अपवाद जैसे हैं, जिसने थियेटर के बैक ग्राउंड से आकर भी 13 साल तक बॉलीवुड में न सिर्फ खुद को टिकाये रखा, बल्कि एक खास जगह भी बनायी। आपके साथ क्या ऐसा खास रहा कि आप दोनों में एक बैलेंस बना कर चल सके?
लचीलापन। क्योंकि आज के आधुनिक समाज में आप सिर्फ अपने आपको रख कर नहीं चल सकते। आपको अपना एक टारगेट रखना होगा और उसको पाने के लिए आपको ज्यादा लचीला बनना होगा लेकिन साथ-साथ आपका लक्ष्य नहीं खोना चाहिए। जब भी आप लचीले हो रहे हैं, तो आपका ध्यान हमेशा लक्ष्य पर होना चाहिए। शायद वो लचीलापन मुझे रंगमंच में अलग-अलग निर्देशकों से काम करने पर मिला था। दूसरा ये कि मैं ड्राइंग रूम से फिल्में दिखाने के हमेशा विरोध में रहा हूं, जबकि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि मेरा अभिनेता अपने जुनून के लिए काम करता है। वो किसी खास दर्शक या वर्ग के लिए काम नहीं करता, क्योंकि अगर मैं एक खास समूह के लिए काम करना शुरू करूंगा तो बहुत सारे समझौते करने पड़ेंगे। क्या चलता है, क्या नहीं चलता है, ये बताने वाले लोग यहां बहुत ज्यादा हैं लेकिन सही बतानेवाले लोग नहीं हैं। इसलिए मेरा ये विश्वास रहा कि जो आप सही समझो, वही करो। और इसी पर मैं हमेशा चला। साथ ही ये भी बहुत जरूरी है कि प्रोड्यूसर की रुचि आपमें रहे और वो आप पर पैसा लगाये। जब मेरे ब्रांड के अंदर इतना माद्दा होगा कि वो किसी भी फिल्म को बेच सकता है, तब वो प्रयोग करेगा। मेरे 11 साल के थियेटर ने मुझे खुद को समझने में और मैं क्या करना चाहता था, उसको स्पष्ट रूप से देखने में मेरी मदद की। एक और फर्क लगता है, वो ये कि मैंने सीधा मुंबई का रुख नहीं किया था। जब मैं गया तो बिहार के लोग न के बराबर थे। मैंने 11 साल जमके काम किया- निशांत नाट्य मंच से लेकर बैरी जॉन तक। अगर आप देखें तो कहां एक वामपंथी विचारधारा के साथ काम करना और फिर एक्ट वन जैसी डेमोक्रेटिक संस्था हमने बनायी। तो अलग-अलग लोगों के साथ काम करने से भी ये लचीलापन आया।
अब बातचीत को थोड़ा दूसरी ओर मोड़ें। 60 और 70 के दशक में एक ट्रेंड था कि लोग हिंदुस्तान के किसी कोने से आकर ‘बॉलीवुड’ में सघर्ष कर अपने लिए खास मुकाम बना सकते थे। जैसे अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से, शत्रुघ्न सिन्हा पटना से, धर्मेंद्र व विनोद खन्ना पंजाब से आये और अपने को हीरो के रूप में स्थापित किया। क्या वह ट्रेंड अब ख़त्म-सा हो रहा है? और इस स्पेस को खानदानी एक्टर्स द्वारा भरा जा रहा है? क्या वो प्रॉसेस खत्म हो गया, जिसमें देश में कहीं से भी आकर ‘बॉलीवुड’ में आप एक स्थान बना सकते थे? खुद आप जैसे स्थापित एक्टर को लेकर भी बहस चलती रहती है कि ये मेनस्ट्रीम में है या फेंस (परिधि... हाशिया...) पर है?
हमेशा से। हमारा सिनेमा पश्चिम से बहुत ज्यादा प्रभावित होता रहा है। अब वो शहरी समूह पश्चिम की तरफ अपने व्यवहार के लिए देख रहा है। वजह इंटरनेट और टीवी का इतना बड़ा बूम। आज का लड़का, जो स्कूल जाता है, वो अंगरेजी मीडियम में ही जाता है। वो लड़का ऐसे हीरो को नहीं देखना चाहता जो समाज से जूझता हुआ, खपता हुआ एक बड़ी लड़ाई लड़ रहा हो। आज वो एक खास तरीके के कपड़े पहने हुए हीरो को देखना चाहता है, क्योंकि वो ऐसा हीरो है, जो अमेरिकन सभ्यता से प्रभावित है। उसमें मनोज वाजपेयी फिट नहीं बैठता। तो मनोज वाजपेयी का काम ये है कि वो अपने तरीके की फिल्में, चाहे वो कमर्शियल हों मेनस्ट्रीम हों, मिडिल आफ द रोड हों, करे। मैंने जब तक पढ़ाई पूरी की, तब तक टीवी का इतना बूम नहीं आया था कि मैं उस 17-18 साल की उम्र में चीजों को समेटता अपने अंदर। मैं जब थिएटर ख़त्म कर रहा था, तब टीवी का बूम शुरू हुआ था। इंटरनेट उस समय तक आया नहीं था। मुझे आज तक कंप्यूटर ऑपरेट करना नहीं आता। तो इससे आप सोच सकते हैं कि मैं कितना अमेरिकन हूं। मेरी जरूरत इस बात की थी कि मैं इसको समझूं और उसकी जो चीजें हैं, उनको अपने अंदर लाने की कोशिश करूं। न कि मैं दूर खड़ा हुआ तमाशा देखता रहूं। बदलते दौर में एक अभिनेता की जरूरत यही है कि वो अपने आपको थोड़ा लचीला बना कर चले। नहीं तो वो दूर फेंस के बाहर ही खड़े होकर तमाशा देखेंगे।
क्या यह महज लचीलेपन का सवाल है या फिर एक बड़ा सोशियो पॉलिटकल सवाल है, जिसमें छोटी जगहों (शहरों, कस्बों) से आनेवालों के लिए बॉलीवुड के दरवाजे बंद हो चुके हैं?
छोटी जगहों से आने वालों के लिए दरवाजे बंद हो चुके हैं, क्योंकि जो दर्शक समूह फिल्में हिट करवाता है, वो अरबन क्लास है। यह अरबन क्लास या शहरी समूह मल्टीप्लैक्स में जाता है। वो अमेरिकन हीरो देखना चाहता है, क्योंकि उसकी पूरी शिक्षा-दीक्षा अमेरिकन सभ्यता और संस्कृति से बहुत प्रभावित है। उस वर्ग को मनोज वाजपेयी की फिल्में अच्छी लगती हैं, लेकिन उनका सुपरस्टार उसी तरीके के काम करेगा जो पश्चिमी रूपरेखा से सहमति लिये हुए है। वही हीरो चल रहा है और आगे तक चलेगा, क्योंकि आज का युवा वर्ग बहुत प्रभावित है उस सभ्यता से। वो रोज इंटरनेट इस्तेमाल कर रहा है और रोज अंग्रेजी फिल्में देखता है।
सुभाष घई का वह मशहूर वक्तव्य कि ‘हमारी फिल्मों को अब बिहार-यूपी के चवन्निया दर्शकों की कोई जरूरत नहीं है’- आप भी तो ऐसी ही बातें कह रहे हैं। हिंदुस्तान के बाहर फिल्में हिट हुईं, तो उन्हें हिट मान लिया जाता है। क्या भारतीय दर्शकों का हिंदी सिनेमा पर जो दबाव था, वह खत्म हो चुका है?
बिल्कुल... और अगर आप देखें तो भोजपुरी फिल्मों का उत्थान ही इसलिए हुआ, क्योंकि जो दर्शक पहले सिंगल थियेटर जाकर फिल्मों को सफल बनाता था, आज वो दर्शक छूट गया है। मल्टीप्लैक्स में उनके लिए जगह नहीं है। वहां की टिकट दरें उनके लिए बहुत महंगी हैं। जिसने अमिताभ बच्च्न, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना के दौर को एक बड़ा दौर बनाया, वो दर्शक पीछे छूट गया है। इसलिए उसको अपने हीरो की तलाश है। और वो अपना हीरो भोजपुरी फिल्मों में देख रहा है। वो अपनी जमीन की सुंगध इन फिल्मों में देख रहा है।
थोड़ी बातें भोजपुरी फिल्मों को लेकर। हाल के दिनों में भोजपुरी फिल्मों में जो बूम, जो उछाल आया है, इसे आप कैसे देखते हैं?
मेरी राय यही है कि ये बूम या उछाल हमेशा आता रहा है लेकिन ये दौर हमेशा ख़त्म भी होता रहा है। अपने ही कारणों से। मैं शुरू से ही, जब भी लोग मुझसे पूछते हैं कि आपको कैसा महसूस होता है भोजपुरी फिल्मों की सफलता पर, मैं कहता रहा हूं कि यदि ये सफल हो रही हैं, तो आप इसका फायदा उठाइए सटीक फिल्में बना कर। सटीक फिल्में इसलिए बनाइए ताकि ये दौर खत्म न हो जाये पिछले वाले दौर की तरह। जब भी ये व्यापार की तरह से लिया जायेगा तो ये खत्म हो जाएगा, क्योंकि भोजपुरी फिल्मों का दर्शक वर्ग एक खास पॉकेट में है। वो पूरे हिंदुस्तान में फैला हुआ नहीं है। तो इसका फायदा उठाना है सटीक फिल्में बना कर यानी जिनमें भोजपुरी समाज हो, भोजपुरी समस्याएं हों न कि हिंदी फिल्मों की नकल हो और हिंदी कर्मिशयल में जो हिट हुई हैं, उनको बनाया जाए। मेरे पास बहुत सारे लोग प्रस्ताव लेकर आते हैं और काम करने के लिए मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करने की कोशिश क रते हैं। उनके हिसाब से मैं भोजपुरी का हूं तो मुझे ये फिल्में क रनी चाहिए। तो मैं स्पष्ट तौर पर कहता हूं कि मेरे लिए भाषा बहुत मायने नहीं रखती। मैं काशीनाथ सिंह से बहुत प्रभावित रहा हूं और काशीनाथ का अपना मोर्चा जब मैंने प्ले किया तो उस समय सबसे बड़ा ज्ञान जो मुझे हुआ, वो ये कि ये लड़ाई भाषा की नहीं है। लड़ाई या तो रोजी-रोटी की है या क्वालिटी वार है, जिससे मुझे संतुष्टि मिलनी चाहिए। और साबित करने की जरूरत नहीं है कि मैं भोजपुरी भाषी हूं। वो तो मेरे बर्थ सर्टिफिकेट में लिखा है।
भोजपुरी फिल्मों से आपके उदासीन रिश्ते को लेकर एक समीक्षक ने टिप्पणी कि भोजपुरी फिल्मों की जो तेज रफ्तारवाली बस है, इस वक्त मनोज वाजपेयी ‘मिस’ कर गये, तो बाद में पछताएंगे। आप देखें, हिंदी फिल्मों के स्थापित बड़े-बड़े अभिनेता, यहां तक कि अमिताभ बच्चन ने भी भोजपुरी फिल्मों के लिए हामी भरी है।
जब सत्या हिट हुई थी तो बहुत सारे लोगों ने कहा था कि मनोज वाजपेयी बहुत सारी फिल्में मना कर रहा है, ये पछताएगा। लेकिन मैं हमेशा कहता रहा कि मेरा लक्ष्य कभी भी सफल फिल्में नहीं रहीं। मैं पिंजर, शूल, सत्या, जुबैदा करना चाहता हूं। मेरी फिल्म 1971 आ रही है, पूरी मेहनत से बनायी है हमने। आप देखें उसे और मुझे पूरा विश्वास है आप उसे सराहेंगे। भोजपुरी, तमिल, तेलगू, हिंदी की बात नहीं है। वो स्क्रिप्ट तो लेकर आएं, जिसको पढ़ कर लगे कि मैं सब कुछ छोड़ कर वो फिल्म करूं। भाषा को अलग कीजिए और उससे मुझे ब्लैक मेल करना बंद कीजिए।
मल्टीप्लैक्स के आने से ‘मिडिल ऑफ द रोड’ सिनेमा को कितना फायदा या नुकसान हुआ?
मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा को बहुत फायदा हुआ और इतना ही नहीं, छोटी फिल्मों को बहुत फायदा हुआ है। ये प्रयोग करने वाली फिल्में हैं और इसी के प्रोडक्ट हैं नागेश कुकुन्नर। बहुत सारी फिल्में जो आजकल रिलीज हो रही हैं, शायद आज ये दिन नहीं देख पातीं, अगर मल्टीप्लैक्स नहीं होते। किसी फेस्टिवल में दिखा कर ही ये खत्म हो जातीं। दूसरा यह कि मल्टीप्लैक्स का फायदा बहुत ज्यादा हमारे तरीके के अभिनेताओं, निर्देशकों, फिल्मों को हो रहा है। कम से कम वो प्रदर्शित हो रही हैं, दिखायी जा रही हैं, जो पहले कभी नहीं हो पाता था।
मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा, जिसे कहा जा रहा है, इसे लानेवाले ज्यादातर अभिनेता थिएटर पृष्ठभूमि के हैं, जबकि आज मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा के लिए कॉमर्शियल फिल्मों के मेनस्ट्रीम एक्टर्स को ढूंढ़ा जा रहा है। आपको नहीं लगता कि यह एक बड़ा शिफ्ट है? जिन अभिनेताओं ने अपनी मेहनत से इस सिनेमा को स्थापित किया, आज उन्हें ही छांटा जा रहा है।
मेरे ख्याल से ऐसा नहीं है। इक़बाल में नसीर साहब का प्रयोग किया गया और ओमपुरी भी काफी इंट्रोड्यूस होते रहते हैं। बहुत सारे अभिनेता हैं, जो ज्यादा काम नहीं करना चाहते। लेकिन किसी की औकात नहीं कि वो नसीरूद्दीन शाह को छांट दे। हिंदुस्तान के सबसे बड़े अभिनेता हैं वो और अगर वो ज्यादा फिल्में नहीं कर रहे तो यह उनका अपना चुनाव है।
सिनेमा के एक और सामाजिक संदर्भ के बारे में आपकी राय जानना चाहता हूं। हिंदुस्तान की आजादी के बाद हिंदी सिनेमा में राजकपूर, दिलीप कुमार व देवानंद की तिकड़ी का बोलबाला था। सिनेमा के समाजशास्त्र का अध्ययन करनेवाले बताते हैं कि आजादी के बाद का जो स्वप्न था कि हिंदुस्तान कैसा हो, इसे इन तीनों ने एक्सप्रेस किया। बाद में जब यह स्वप्न टूटता है और लोगों में जो गुस्सा, जो आक्रोश है, उसे समाज में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र-युवाओं को मूवमेंट के रूप में अभिव्यक्ति मिलती है और सिनेमा में इसी वक्त एंग्री यंगमैन की छवि लेकर अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा वगैरह आते हैं। बाद में लोगों का यह गुस्सा जब कोई बदलाव नहीं लाता तो वह फ्रस्ट्रेशन में तब्दील हो जाता है, जो शाहरूख खान की सुपरहिट डर के रूप में सामने आता है। अब जबकि छह वर्ष से 96-97 फीसदी फिल्में फ्लाप हो रही हैं और इसे लेकर सिनेमा से जुड़े तमाम हलकों में चिंता भी व्यक्त की जा रही है, क्या समाज के इस महत्वपूर्ण मुकाम को (अब तक जिस ढंग से फिल्में अभिव्यक्त करती आयी हैं) एक बड़ा अदाकार या फिल्म एक्सप्रेस करने में नाकाम तो साबित नहीं हो रहा?
देखिए हमारा समाज बंटा हुआ है और हमारा दर्शक भी बंट गया है। हमारी जो शहरी संस्कृति है वो 20 किलोमीटर दूर ग्रामीण संस्कृति से एकदम अलग हो चुकी है। 20 किलोमीटर दूर का जो हीरो है, वो रविकिशन है। लेकिन ठीक 20 किलोमीटर दूर का जो शहर पटना आता है, वहां का युवा वर्ग, जिसे सही सुविधाएं मिली हैं, जिसका पालन-पोषण अच्छे से हुआ है, उसका हीरो शाहरूख-आमिर खान है। पहले दर्शक समूह एक होता था, अब दर्शक समूह एक नहीं रहा। उसमें बंटवारा हुआ है और सबके अलग-अलग हीरो हैं, अपने-अपने कारणों से। अगर आप मुझसे पूछें कि कौन है आज के बदलते दौर का नायक, तो मैं जवाब दूंगा- बहुत सारे भोजपुरी क्षेत्र के लिए मनोज तिवारी, रवि किशन हैं, तो शहरी समाज या अप्रवासी भारतीयों के लिए शाहरूख, सलमान, आमिर हैं। और बाकी जो आपके जैसे लोग हैं, तो उनके लिए मनोज वाजपेयी है। इतना ही नहीं, तेलगू, तमिल फिल्में जिस तरह का व्यापार आजकल कर रही है, वो अपने आप में अच्छा संकेत है। लकिन वो इसलिए भी हुआ है, क्योंकि बंटवारा दर्शकों का बड़े पैमाने पर हुआ है।
अब एक व्यक्तिगत किस्म का सवाल। आपकी शुरुआत एक लेफ्ट आइडियोलॉजीवाले संगठन निशांत नाट्य मंच से हुई। कई वर्ष पूर्व निशांत के संयोजक शम्सुल इस्लाम ने पटना में एक अनौपचारिक बातचीत में आपके बारे में बताया था कि वो सिर्फ अच्छा एक्टर ही नहीं, बल्कि काफी कमिटेड भी था। क्या लेफ्ट पर अब भी आपको भरोसा है?
देखिए, मैंने सारे ‘इज्म’ के लोगों के साथ काम किया। उनके साथ मिल कर संघर्ष किया। शम्सुल ने मुझे समाज को जांचने-परखने की क्षमता दी। उसने मुझे सही तरीके की किताबें पढ़ना सिखाया। उसने मुझे तेवर दिया और वो तेवर आज तक कायम है। बैरी जॉन से मैंने बाकायदा एक लचीलापन लिया। जिनके साथ मैंने काम किया उनको मैंने नकारा कभी नहीं। एक उम्र थी, जहां जानने के लिए बहुत कुछ था क्योंकि मैं पूरे सामंती समाज से निकल कर दिल्ली शहर गया था। मैंने उस समय पटना भी नहीं देखा था। मेरे लिए हर चीज जो मैं देख रहा था, समझ रहा था एजुकेशन थी। हर व्यक्ति, जिससे मैं मिल रहा था, उससे मैं ले रहा था। बेलवा गांव के मनोज वाजपेयी का खजाना खाली था अंदर से। वहां जाकर मैं अपने अंदर ही व्यवस्था को देख रहा था और समझ रहा था। कुछ भी अंदर पुख्ता नहीं था। लेने का जज्बा बहुत था और लेने के लिए जगह बहुत थी। मैं यह बिल्कुल नहीं कह सकता कि वामपंथ एकदम सही पंथ है और प्रजातांत्रिक विधि जो है, वही सबसे ज्यादा अच्छी है। सबको साथ मिला कर चलने की बात है।
आजकल सिनेमा और राजनीति को लेकर बहुत चर्चा होती है। मैं एक खास पहलू पर आपकी राय जानना चाहता हूं। राजनीति का सर्वांगीण विरोध और सिनेमा के प्रति गहरा आकर्षण खास पहचान है। इन दोनों के अंर्तसंबंधों पर एक चीज में समानता है- दोनों जगह खानदानवाद हावी है। पर एक फर्क भी है। राजनीति में मान लीजिए राजनीतिक खानदान का लड़का है, पर उसे कम से कम चुनाव में जनता का समर्थन हासिल करना पड़ता है। लेकिन बॉलीवुड में किसी सुपरस्टार (मान लीजिए अभिषेक बच्च्न) की सौ फिल्में फ्लॉप हो जाएं फिर भी ‘हीरो’ वही बने रहेंगे। वहीं अगर आपकी चार-पांच फिल्में लगातार फ्लॉप हो जाये तो शायद कोई पूछने भी न आये। ऐसा क्यों? बॉलीवुड आपको कम डेमोक्रेटिक नहीं लगता?
थोड़ा-सा हम भटक जाएंगे, अगर हम इसको चुनाव से जोड़ेगे। जो प्रोड्यूसर पैसा लगा रहा है, अगर वो एक खास अभिनेता पर पैसा लगा रहा है, तो उसे कोई रोक नहीं सकता। लेकिन जब वो फिल्में लगती हैं तो ये लोगों के ऊपर है कि वो उसे देखने जाएं या नहीं। अगर मेरे पिताजी के पास 1000 करोड़ रुपये हैं और अगर वो ठान लें कि सारी फिल्में मनोज के साथ बनानी है, चाहे लोग देखने जाएं या नहीं, तो आप मेरे पिताजी को रोक नहीं पाएंगे। अब यह लोगों के ऊपर है कि वो मेरी फिल्म देखने जाएं या नहीं। आखिर में फिल्में प्रदर्शित होने के समय व्यापार में तब्दील हो जाती है और इसलिए हम इसे किसी और चीज से जोड़ कर नहीं देख सकते। और जहां तक मेरी अपनी बात है, मेरा ये मानना है कि कौन किस खानदान से आ रहा है- ये मेरे लिए देखने की चीज नहीं है। मेरे लिए देखने की चीज ये है कि मैं किस स्थिति में हूं और मुझे किस स्थिति में काम करना पड़ रहा है। मुझे कैसे उस स्थिति से निकल कर दूसरी स्थिति में जाना है और वहां अपनी जगह बनानी है। मेरा आग्रह है आप सबसे और जो अभिनेता बनना चाहते हैं, उनसे भी, इसको बहस का मुद्दा न बनाया जाए। आप तो इसको कंपीटिशन मान लेंगे, और प्रोडयूसर जो है, वो एक प्रोडक्ट के रूप में उसे देखेगा। ये एक कंट्राडिक्शन है और इसको साथ ले के चलें। यथास्थिति के रूप में लें और अपनी लड़ाई लड़ें, नहीं हो बहुत ज्यादा हतोत्साहित होंगे।