अरूंधती से मनीष कुमार की यह बातचीत प्रभात खबर में 24 जून 2007 को प्रकाशति हुई थी। इस बातचीत में जो सवाल आए हैं उनकी त्वरा अभी भी कम नहीं हुई है वे उतने ही समीचीन हैं। बल्कि उनकी चुनौतियां दिन ब दिन बढ़ती जा रही हैं। पीपुल्स न्यूज नेटवर्क की साइट पर हाल ही में मैंने यह बातचीत पढ़ी।
भारतीय समाज को आप किस नजरिये से देखती हैं?
किसी भी समाज के बारे में दो वाक्यों में नहीं बताया जा सकता है. एक लेखक समाज के बारे में बताने में पूरी जिंदगी गुजार देता है. लेकिन मुझे लगता है कि दक्षिण अफ्रीका में जिस प्रकार का रंगभेद होता था, ऐसा ही भारत में भी है. वहां आप काले-गोरे के भेद को खुलेआम देख सकते थे, लेकिन यहां पहचान करने में थोड़ी मुश्किल है. यह भी रंगभेद का ही एक प्रकार है.
आप कई बार समाज के सर्वहारा वर्ग के पक्ष में खड़ी नजर आयीं. इसके पीछे क्या कारण रहा?
मेरे ख्याल में दो किस्म के लोग होते हैं. एक, जिनका शक्तिशाली लोगों के साथ नेचुरल एलाइनमेंट रहता है, दूसरे वे लोग हैं जिनके पास कुछ नहीं है. जनता के पास शक्ति तो काफी है, लेकिन देश में जो कुछ हो रहा है, उसे किस प्रकार से ठीक किया जाये, उसका सही तरीका समझ में नहीं आ रहा है. अगर कोई प्रधानमंत्री भी बन जाये, तो वह सबकुछ सुधार नहीं सकता. मुझे नहीं लगता है कि ऊपर से कोई सुधार हो सकता है, सुधार निचले स्तर से ही संभव है.
अभी देश की विकास दर 10 फीसदी के पास है, सरकारी आंकड़ों में 26 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, हर साल अरबपति लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, सेंसेक्स डेली रिकॉर्ड ऊंचाई छू रहा है, विदेशी पूंजी का प्रवाह बना हुआ है. इस पूरे ताने-बाने को आप किस रूप में देखती हैं?
ये जो हो रहा है, वह ठीक नहीं है. यह सिर्फ उनको अच्छा लग रहा होगा, जो निजी कंपनियों के सीइओ होंगे, जिनका स्टॉक एक्सचेंज काफी बढ़ रहा है. इसको कैसे रोका जाये इस सवाल का जबाव ढूंढना होगा. मुझे लगता है कि गांधीवादी माहौल का जो रेसिस्टेंस है वो अब नहीं चलता. इसमें पूरी तरह एनजीओ आ गये हैं, लोगों को बांट देते या खरीद लेते हैं. इस माहौल को बदलने का हल क्या है? हल है भी या नहीं, ये भी हमें पता नहीं? मुझे लगता है कि अगर कोई रैडिकल रिवोल्यूशनरी सोल्यूशन नहीं होता है तो फिर कुछ वर्षों में पूरे देश में अपराध बढ़ जायेगा.
सरकार की नीतियां समाधान के बदले किस तरह जनता के हितों के विरुद्ध जा रही है?
आज आप कुछ भी करो सरकार, पुलिस और आर्मी कुचल देती है. पहले तो इसलामिक टेररिज्म का नाम लिया जाता था, लेकिन अब उन्हें लगता है कि इसलामिक टेररिज्म में सब नहीं आते इसमें सिर्फ मुसलमान ही आते हैं, तो बाकियों को कैसे बंद किया जाये. अब जो इस्लामिक टेररिज्म के श्रेणी में नहीं आते हैं उसे माओवादी टेररिस्ट बना दिया गया है. इस तरह राज्य के लिए आतंकवाद का जो पुल है वह बढ़ रहा है. अभी जो कुछ छत्तीसगढ़ में हो रहा है यही चीज कोलंबिया जैसे देश में हुआ था. वहां पर सरकार ने खुद एक पिपुल मिलिशिया खड़ी कर दी और विद्रोहियों के साथ उनका सिविल वार जैसी स्थिति बन गयी, जब सभी लोग छद्म युद्ध देख रहे थे, तो एक बड़ी कंपनी वहां जाकर खनिज की खुदाई की, यही छत्तीसगढ़ में हो रहा है. लोगों को नचाने में ये लोग काफी उस्ताद हैं. इन दिनों एक बात पर काफी चर्चा हो रही है कि सीइओ को 25 करोड़ की सैलरी मिलनी चाहिए या नहीं. इसमें कहा गया कि अगर उनका वेतन कम होगा तो रिफॉर्म की प्रक्रिया बंद हो जायेगी. अब आप बताइये इन दिनों किसी कंपनी के सीइओ के पद पर किस तबके लोग बैठते हैं.
पिछले डेढ़-दो दशक में हमारे देश में उपभोक्तावादी संस्कृति काफी हावी होती जा रही है.आपकी नजर में समाज पर इसका क्या असर हो रहा है?
कुछ दिनों पहले अखबार में एक बड़ा विज्ञापन शॉपिंग रिवोल्यूशन के संबंध में आया था. मुझे लगता है कि भारत में उदारीकरण की जो नीति आयी है इसने मध्य वर्ग को फैलाया है. इससे आज हमारे देश में अमीरी-गरीबी की खाईं बढ़ती जा रही है, अमीर और धनी होते जा रहे हैं, गरीब पिछड़ते जा रहे हैं. उदाहरण के लिए सौ लोगों को रोटी, कपड़ा, पानी और यातायात की सुविधा मिलती है लेकिन अधिकतर लोग इससे वंचित रह जाते हैं. लेकिन यदि आप कोई नयी आर्थिक नीति लाते हैं, जिसके तहत 25 लोगों को बहुत अमीर बनाते हैं और बाकी 75 लोगों से सभी कुछ छीन लेते हैं तो इसका दीर्घकालीन प्रभाव समझा जा सकता है. अभी भारत का बाजार इस प्रकार से बनाया जा रहा है कि ज्यादातर लोगों से काफी कुछ छीन कर कुछ लोगों को दे दिया जाये. अब यह समझना होगा कि ये लोग उपभोक्ता की वस्तु कहां से ला रहे हैं. यदि आप भारत का नक्शा देखें, तो पता चलता है कि जहां पर जंगल है उसके नीचे खनिज- संपदा है. अब आपके पास चुनने का विकल्प है. जंगल को काट कर निकाल दें और इससे बहुत पैसा भी मिलेगा पर इससे 50 वर्षों में सारा देश सूख जायेगा. हमारे देश के प्रधानमंत्री हों या मोंटेक सिंह अहलूवालिया या पी चिंदबरम इनके पास कोई कारगर नीति नहीं है सिर्फ आंकड़े दिखाते हैं. इससे ज्यादा खतरनाक क्या हो सकता है कि बगैर किसी ऐतिहासिक साहित्यिक या सामाजिक नजरिये से देखने के बजाय आप आंकड़ों के आधार पर आगे बढ़ रहे हैं.
एक तरफ अमेरिकी नीति मानवता के इतनी खिलाफ लगती है, लेकिन दूसरी ओर हर कोई अमेरिका जाने का मौका छोड़ना नहीं चाहता है. ऐसा क्यों?
अमेरिका के लिए मुझे कोई चाह नहीं है, मैं सच कहूं तो मुझे घसीट कर भी ले जाओ तो मैं वापस चली आऊंगी. इतना मशीनी बन कर मैं रहने का सोच भी नहीं सकती हूं. लेकिन अगर आप किसी गांव के दलित हों, आप वहां पानी नहीं पी सकते, किसी के सामने नहीं जा सकते और फिर आपको अमेरिका जाने का मौका मिले तो क्यों नहीं जायेंगे? अमेरिका ज्यादातर नेताओं और अधिकारियों के बच्चे ही जाते हैं. लेकिन इतना सत्य है कि यह खतरनाक प्रवृत्ति है.
किस प्रकार से आप खतरनाक मानती हैं?
खतरनाक है, अगर आप 16 या 18 वर्ष के बच्चे को अमेरिका भेज दो तो उसका पूरा दिमाग या उनके सोचने का तरीका बदल जाता है. वो भी किसी जेल में नहीं, बल्कि विश्वविद्यालयों में. वहां उनका पूरा ब्रेन वॉश हो जाता है. यह अमेरिकी नीति है कि नौजवानों को पहले अपने यहां प्रशिक्षण दो और फिर उन्हीं का इस्तेमाल अपने हितों के लिए करो, जैसा कि 1973 में चिली में जो कू हुआ था आइएमए के खिलाफ. इससे पहले अमेरिका ने वहां के नौजवानों को शिकागो स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में भर्ती किया, स्कॉलरशिप देकर इनके दिमाग में न्यू कंजरवेटिव फ्री मार्केट आइडियोलॉजी डाल दी गयी और फिर इन लोगों ने चिली का जिस तरह से दोहन किया वह सभी को पता है. हमारे भारत में भी मुख्यत: इलीट वर्ग के बच्चे अमेरिका जाते हैं, जिनके बाप-दादा यहां मंत्री, ब्यूरोक्रेट या बड़े बिजनेसमैन हैं. इस तरह से यह पूरा चक्र घूमता है.
भारतीय लेखन का मौजूदा दौर आपको कैसा लगता है?
ये भारतीय लेखन क्या है? मैं इसे नहीं मानती हूं. क्या जो अंगरेजी में लिखते हैं वे अलग हैं? हिंदी या भोजपुरी में लिखनेवालों में ऐसा नहीं है. अंगरेज़ी के भारतीय लेखक, कहानी को घुमा-फिरा कर पाठक को संदेह में डाल देते हैं. भारतीय भाषाई लेखन का क्या भविष्य देखती हैं? भारतीय भाषाई लेखन का भविष्य, क्षेत्र पर निर्भर करता है लेकिन मुझे लगता है कि भाषाई लेखन का माहौल पूरी तरह से अलग हो रहा है. इलीट वर्ग समाज से पूरी तरह अलग हो गया है. निम्न तबका उनके पास पहुंच नहीं पाता, ऐसे में दोनों के बीच संवादहीनता का माहौल पैदा हो गया है. दोनों के पास कोई भाषा ही नहीं बची है और जब आपको लिखना होगा तो दोनों को समझने की आवश्यकता होगी. इस तरह की परिस्थिति में आप कैसे भाषाई लेखन का भविष्य देख सकते हैं.
ऐसा देखने में आता है कि इलीट वर्ग के बच्चे समज से पूरी तरह कट से गये हैं. इसके पीछे प्रमुख वजह क्या है?
आपने सही कहा कि आज के धनी वर्ग के बच्चे पूरी तरह से समाज से कटे हुए हैं. कुछ दिनों पहले इसी वर्ग में से आनेवाली एक लड़की ने कहा कि अरुंधति तुम्हारी किताब द अलजेब्रा ऑफ इनफिनिट जस्टिस मैंने अपने भाई को पढ़ने को दिया तो उसने काफी आश्चर्य से आदिवासियों के बारे में बोला भारत में इस प्रकार के प्राणी भी रहते हैं. ऐसा नहीं है कि ये बच्चे खराब हैं या दिल से बुरे हैं. लेकिन समाज से कट से गये हैं. इसके पीछे मुझे कारण लगता है कि इनदिनों इस प्रकार की दुनिया बन रही है जिसमें गाड़ी, अखबार, कॉलेज, अस्पताल, शिक्षा आदि सभी कुछ इस वर्ग के लिए अलग है. जबकि पहले ऐसी बात नहीं थी. आज जो समाज में खाई बनी हुई है, यह किसी भी तरह से लाभकारी नहीं हो सकता. इसी वजह से ये इलीट वर्ग आज सिर्फ छीननेवाले बन गये हैं, इनसे आप किसी भी तरह की उम्मीद नहीं कर सकते हैं.
आप अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में जाकर वहां के सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखती हैं. इस तरह से लिखने का साहस आप कैसे दिखा पायीं?
जब 11 सितंबरवाली घटना हुई तो मैंने इस घटना के विषय में काफी सोच-विचार किया. इसके बाद मैंने निर्णय लिया कि अगर मैं लेखिका हूं तो इसपर लिखूंगी. अगर नहीं लिख सकती तो जेल में जाकर बैठना मेरे लिया ज्यादा अच्छा होगा. यह निर्णय मैंने तुरंत लिया और लिख डाला. लेकिन भारत में काफी लल्लो-चप्पो करनेवाले लोग हैं, यहां बुश के खिलाफ लिखनेवाले बहुत कम लोग हैं, जबकि आपको अमेरिका में इनके खिलाफ बोलनेवाले काफी ज्यादा मिलेंगे. वियतनाम की लड़ाई के खिलाफ अमेरिका में जितना विरोध हुआ वह मिसाल है. सैनिकों ने अपने मेडल वापस कर दिये. क्या भारत में ऐसा संभव है? कश्मीर के मुद्दे पर सेना ने कभी कुछ नहीं बोला.
न्यायपालिका से आपके विरोध को लेकर काफी चर्चा हुई थी. क्या आपको लगता है कि देश में न्यायिक सक्रियता के दौर के बावजूद न्यायिक ढ़ांचा खासा जर्जर है?
मुझे लगता है कि प्रजातंत्र में सबसे खतरनाक संस्था ज्यूडिसियरी है, क्योंकि यह जिम्मेदारी से अपने को मुक्त किये हुए है. कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट ने सबको डरा दिया है. आप इसके खिलाफ कुछ नहीं कर सकते हैं, प्रेस भी कुछ नहीं कर सकता. अगर आप जजमेंट को देखें तो आपको पता चलेगा कि कोर्ट कितनी गैरजिम्मेदाराना ढंग से निर्णय देती है. प्रजातंत्र में ज्यूडिसियरी का इतना शक्तिशाली होना सही नहीं है.
जल, जंगल और जमीन के मुद्दे पर आप काफी काम करती हैं. जिस तरह से जंगल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिया जा रहा है और आदिवासियों को उनके अधिकार से वंचित किया जा रहा है. इसका भविष्य आप किस रूप में देखती हैं?
एक किताब है जिसका नाम कोलैप्स है. इसमें एक ईस्टर आइलैंड के बारे में लिखा गया है जो प्रशांत महासागर में है. यहां काफी बड़े-बड़े पेड़ों को वहां रहने वाले लोग अपने रिवाज कि लिए काटा करते थे, जबकि उन्हें मालूम था कि तेज समुद्री हवाओं से ये बड़े पेड़ उन्हें बचाते हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने एक-एक करके पेड़ों को काट डाला और अंत में समुद्री तूफान से वह आइलैंड नष्ट हो गया, कमोबेश भारत में भी यही स्थिति बनती जा रही है. सरकार शॉर्ट टर्म फायदा के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को माइनिंग करने की इजाजत दे रही है और ये कंपनियां अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रही हैं, जिसका कुप्रभाव हमें कुछ वर्षों के बाद दिखायी देगा. मानव और जानवर में यही अंतर है कि जानवर भविष्य नहीं देखते हैं और मानव भविष्य के बारे में सोचते हैं. लेकिन यहां समस्या यह है कि सरकार ज्यादा लंबा भविष्य न देखकर कम समय का भविष्य देख रही है. यह सही है कि आज इन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियां माइनिंग के बदले काफी धन दे रही हैं, लेकिन आज से पचास वर्ष बाद क्या स्थिति होगी? एक वेदांत नाम की कंपनी उड़ीसा में बॉक्साइट निकाल रही है जबकि बदले में वह वहां विकास करने की बात करती है. लेकिन जहां बॉक्साइट का भंडार है उससे उड़ीसावासियों को पानी मिलता है. अब आप ही बताइये उसे खत्म करने के बाद पानी की कमी होगी या नहीं. इसलिए सरकार थोड़े समय के लाभ के लिए लंबे समय वाले नुकसानवाली नीति पर चल रही है.
हथियार और बम के बूते दुनिया में दादागिरी दिखाने वाले राष्ट्रों के खिलाफ कोई विश्वजनमत क्यों नहीं तैयार हो पा रहा है?
पूंजीवादी दौर में सभी अपने-अपने फायदे में लगे हुए हैं. किसी के खिलाफ जाने पर फायदा नहीं की सोच पूरे राष्ट्र में व्याप्त् है. लेकिन यह शॉर्ट टर्म विजन है. वास्तव में इसका फायदा कुछ शक्तिशाली राष्ट्र उठा रहे हैं.
हाल में ही अमेरिका और भारत के बीच हुए न्यूक्लियर डील को आप किस रूप में देखती हैं?
भारत और अमेरिका के बीच हुए न्यूक्लियर डील को देखकर मुझे यह लगता है कि हमारे नेताओं ने अदूरदर्शिता दिखायी है. उन्हें यह नहीं मालूम कि जिन्होंने भी अमेरिका के साथ डील किया, उनकी क्या हालत हो गयी. अमेरिका अब एक ऐसी नीति बनायेगी जिससे वह पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में ले लेंगे. फिर कहेंगे एनरॉन का कॉट्रेक्ट साइन करो नहीं तो यह नहीं देंगे, वह नहीं देंगे. इस तरीके से अमेरिका भारत के ऊपर हावी हो जायेगा.
आतंकवाद आज पहले से ज्यादा खतरनाक मुद्दा बन गया है, इस चुनौती से निपटने के लिए दुनिया में जो भी पहल हो रही है, उसमें देशों की आपसी गुटबंदी ही ज्यादा दिखायी पड़ती है. आतंकवाद की चुनौती से निपटने का कारगर तरीका क्या हो सकता है?
आप इसे रोकने की जितनी ज्यादा कोशिश करेंगे यह उतना ही ज्यादा बढ़ेगा. इस्लामिक देशों का सारे तेल पर नियंत्रण कर रहे हैं. हर चीजों का निजीकरण किया जा रहा है. अगर आप किसी के संसाधन पर कब्जा करेंगे तो इसके खिलाफ विद्रोह तो फैलेगा ही. इससे निपटने के लिए सरकारों को अपने नीतियों को लेकर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है. भारत की ही स्थिति देखें तो छत्तीसगढ़ में 600 गांवों के लोगों को हटा कर एक पुलिस कैंप में डाल दिया जाता है. हजारों लोगों को घर से बेघर करने का असली मकसद क्या है? असली आतंकवादी वे ही हैं जो नंदीग्राम से लोगों को भगा रहे हैं, कलिंग नगर में गोली चला रहे हैं. जहां तक विश्वस्तर पर आतंकवाद की समस्या से निपटने के प्रयास की बात है, मुझे लगता है कि इसके लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहा है. सभी अपने-अपने लाभ की प्रकृति को देखते हुए आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करते हैं.
आपके विचारों में वामपंथ का प्रभाव ज्यादा दिखता है, इसकी वजह क्या है?
मेरा वामपंथ, पार्टीवाला वामपंथ नहीं है. सोचने वाले जो भी लोग होंगे, निश्चित रूप से उनके विचारों में वामपंथ का प्रभाव दिखायी देगा, यह बात कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है. सरकार की नीतियों के बारे में सोचने पर कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं पागलखाने चली जाऊंगी.
आप गांधी जी से किस तरह से प्रभावित हैं?
कुछ चीजों में गांधी जी से काफी प्रभावित हूं, लेकिन गांधी जी के जाति के संबंध में जो विचार थे उनसे मैं असहमत हूं. मुझे गांधी के आर्थिक विचार काफी प्रासंगिक लगते हैं लेकिन सरकार ने उनके विचार को खेल बना दिया है. यह गांधी के विचारों का मखौल उड़ाना है. राजनीतिज्ञ इस समय गांधी के नाम का इस्तेमाल अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए करते हैं. जहां फायदा होता है, वहां गांधी के नाम का दुरुपयोग करने से भी परहेज नहीं करते.
ऐसी चर्चा है कि इन दिनों मेधा जी से आपका कुछ वैचारिक मतभेद चल रहा है? इसके पीछे मूल वजह क्या है?
यह सरासर गलत बात है, मेरा मेधा जी से किसी प्रकार का अनबन नहीं है. वे एक कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जबकि मैं अपने आपको सोशल वर्कर नहीं मानती हूं क्योंकि मैं कष्ट उठा कर कोई काम नहीं कर सकती. मैं अपने आपको लेखिका मानती हूं. मैं किसी मुद्दे पर लिख सकती हूं. मुझमें नेतृत्व का गुण नहीं है. मैं नेता कभी नहीं बन सकती हूं.
आप अपने लेखन और रचनात्मक आंदोलन में हिस्सेदारी को लेकर आगामी सालों के लिए क्या प्रतिबद्धता मानती हैं?
मैं किसी को आगे रास्ता दिखाउंगी इसका मैं वचन नहीं दे सकती. मैं नियम बना कर कोई काम नहीं करती. वक्त के अनुसार निर्णय लेती हूं