लिखना कब शुरू हुआ आपका, यह लेखकों और कवियों से पूछा जानेवाला एक आम सवाल है। कुछ कवि इसे बड़ी नफासत से कहते हैं - हम लिखते नहीं कविताएं हममें अभिव्यक्त होती हैं। हम तो निमित्त मात्र हैं। किसी कवि के जरिए कब उसकी श्रेष्ठ कविता अभिव्यक्त होती है यह अंदाज लगाना मुश्किल है। पिछले कुछ समय से ब्रजेश्वर जी बड़ी ही खुबसूरत कविताएं लिख रहे हैं, बिल्कुल नए अंदाज में। पहले हंस में और फिर राष्ट्रीय सहारा के इतवारी परिशिष्ट में उनकी कविताएं साया हुई हैं। प्रस्तुत हैं बीते इतवार को राष्ट्रीय सहारा में आईं कुछ कविताएं
गोलक
पाब्लो नेरूदा की कविता में
गोलक जैसे वक्ष पढ्कर
गोलक का नया अर्थ जाना
गोलक जो बचपन में
होता था हमारा बैंक
डालते थे उसमें
अठन्नियां चवन्नियां
जो भी जेबखर्च मिलता था
उससे बचाकर और इंतजार करते थे
उसके भरने का
नेरूदा की कविता से यह
नया अर्थ जाना
कि जहां सुनी जा सकती थी
दिल की धड़कन
उसमें करके सुराख
सुनते रहे सिक्कों की आवाज
यों सोचकर
याद आई देह और धरती की गंध
याद आया गांव
जहां मिटटी के दीयों में
फूलती थी सरसों
अब तो इस शहर में
हो गए हैं बरसों
जहां सिक्कों के शोर में
खो गई है जीवन की भोर । ।
एक बार
एक लड़की मिलती है एक दिन
एक लड्के से और
करने लगती है प्रेम
और फिर एक दिन
चली जाती है
उसे टूटे हुए जहाज के
डेक पर छोड्कर
फिर उसकी जिंदगी में
वह सब होता है
जो होता सबकी जिंदगी में
शादी, बेटे-बेटियां
पोते-पोतियां भी
लेकिन नहीं होता प्रेम
और मरते दम तक वह
किसी को पता नहीं चलने देती
कि जीवन एक बार उसने भी जिया था ।
अहिल्या
वह मेरा भ्रम था कि
फर्श पर पड़ी गठरी
बदल गई लड़की में
दरअसल
वह लड्की थी
जो इफ्तार से पहले की
नमाज अदा करके उठी थी
फर्श से।
भ्रम था मेरा
लेकिन मैं उस पर
यकीन करना चाहते था कि
अब भी बदल सकता है
कोई पेड्, कोई पत्थर
किसी औरत में
जैसे अहिल्या बदल गई थी
पत्थर से और में
एक स्पर्श से।।
Thursday, August 30, 2007
Thursday, August 23, 2007
क्लास रूम 3
नवाचारी शिक्षा में अब इस बात पर जोर दिया जाता है कि कक्षाओं की बनावट आयताकार नहीं रहनी चाहिए। हम सभी जानते हैं और बचपन से ऐसा ही देखा है कि कक्षाएं आयाताकार होती हैं और एक के पीछे एक कईं पात बनाकर लड़के लड़कियां बैठते हैं। महानगरों के अनुभव को छोड़ दें तो बाकी अधिकांश जगहों पर लड़कियों की पांत अलग ही होती है। महानगर पूर्णत: इस श्रेणीक्रमवाली कक्षा से मुक्त हैं और गांव मे हर जगह बिल्कुल समस्या ही है, यहां इस तरह के साधारणीकरण का ऐसा कोई इरादा नहीं है।
सत्र शुरू होने के एकाध दिन के बाद हर कक्षा में सबकी जगह तय हो जाती है कि कौन कहां बैठेगा। कई बार इतनी ज्यादा तय हो जाती है कि उसपर जूतमपैजार तक हो जाती है। जिन बच्चों की उंचाई कम है, जो कम सुनते हैं या जिन्हें दूर से दिखाई नहीं देता, ऐसी किसी भी समस्या के प्रति इन कक्षाओं में कोई संवेदनशीलता नहीं होती। हम सभी जानते हैं कि गांव की पृष्ठभूमि में हर गांव में मिडिल, हाईस्कूल या कॉलिज नहीं होता। ऐसे में एक मोहल्ले के बच्चों को किसी और मोहल्ला या फिर एक गांव या कस्बे में पढ़ाई के लिए जाना ही पड़ता है। ऐसे में अक्सर मोहल्ला, गांव, जाति के आधार पर पांत बनने लगती है। जाहिर है इस संदर्भ में स्थानीय बच्चों की तूती बोलती है।
मेरी कक्षा में भी पहले दिन कुछ उसी तरह की पांत बन गई। लड़कियां साफ दिख जाती हैं इसलिए पहला विभाजन यही था। पत्रकारिता करने के आकांक्षी लोगों को इस तरह बैठे देखकर यही लगा कि ऐसे रुढि़बद्ध लोग कहां जायेंगे। पहली बहस यहीं शुरू हुई। बहस का नतीजा सकारात्मक रहा और अब यह पांत नहीं रही । लेकिन दूसरे बंटवारे अब नहीं हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता ।
कक्षा में सभी विद्यार्थी शिक्षक से समान दूरी पर रहें, सब पर बराबर नजर हो, सबतक बराबर आवाज पहुंचे, सभी बराबरी से अपनी बात कह पाएं, शायद कक्षा का गोलाकार या अर्द्धवृताकार ढांचा इसमें मददगार हो सकेगा।
सत्र शुरू होने के एकाध दिन के बाद हर कक्षा में सबकी जगह तय हो जाती है कि कौन कहां बैठेगा। कई बार इतनी ज्यादा तय हो जाती है कि उसपर जूतमपैजार तक हो जाती है। जिन बच्चों की उंचाई कम है, जो कम सुनते हैं या जिन्हें दूर से दिखाई नहीं देता, ऐसी किसी भी समस्या के प्रति इन कक्षाओं में कोई संवेदनशीलता नहीं होती। हम सभी जानते हैं कि गांव की पृष्ठभूमि में हर गांव में मिडिल, हाईस्कूल या कॉलिज नहीं होता। ऐसे में एक मोहल्ले के बच्चों को किसी और मोहल्ला या फिर एक गांव या कस्बे में पढ़ाई के लिए जाना ही पड़ता है। ऐसे में अक्सर मोहल्ला, गांव, जाति के आधार पर पांत बनने लगती है। जाहिर है इस संदर्भ में स्थानीय बच्चों की तूती बोलती है।
मेरी कक्षा में भी पहले दिन कुछ उसी तरह की पांत बन गई। लड़कियां साफ दिख जाती हैं इसलिए पहला विभाजन यही था। पत्रकारिता करने के आकांक्षी लोगों को इस तरह बैठे देखकर यही लगा कि ऐसे रुढि़बद्ध लोग कहां जायेंगे। पहली बहस यहीं शुरू हुई। बहस का नतीजा सकारात्मक रहा और अब यह पांत नहीं रही । लेकिन दूसरे बंटवारे अब नहीं हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता ।
कक्षा में सभी विद्यार्थी शिक्षक से समान दूरी पर रहें, सब पर बराबर नजर हो, सबतक बराबर आवाज पहुंचे, सभी बराबरी से अपनी बात कह पाएं, शायद कक्षा का गोलाकार या अर्द्धवृताकार ढांचा इसमें मददगार हो सकेगा।
Tuesday, August 21, 2007
क्लास रूम 2
रोल ऑफ मीडिया इन डेमोक्रेसी। यह भाषण का विषय था। अमेरिकन महिला पत्रकार सुशन राबिन्सन किंग का भाषण। बात पत्रकारिता के इतिहास से शुरू हुई और डिजीटल डेमोक्रेसी पर आकर ठहर गई। शुरुआत अमेरिका से और अंत भी अमेरिका पर। व्याख्यानों में यह नया ट्रेंड है- विषय व्यापक और उदाहरण किसी छोटे दायरे में अध्ययन का। लेखों तक तो यह सब चल जाता है लेकिन व्याख्यान में आनेवालों का आकर्षण विषय की व्यापकता पर ही होता है। बहुत सारे लोग उससे खुद को जोड़ नहीं पाते।
डेमोक्रेसी से बात डिजीटल डेमोक्रेसी पर आई और उसी में घूमती रही। इससे जुड़ी हुई बात सिटीजन जार्नलिज्म की है और जमाना भी उसी का है। एक तरफ सिटिजंस जर्नलिज्म एक तो अंग्रेजी उपर से अमेरिकन अंग्रेजी। हालांकि अंग्रेजी जाननेवाले बच्चों ने उनको इराक, अफगानिस्तान और खुद अमेरिका के कई मुददों से जोड़कर लोकतंत्र पर सवाल उठाये लेकिन हिन्दी के बच्चे मुंह बिदका रहे थे। सुबह के भाषण में कुछ भी समझ में नहीं आया - एक ने आखिर में कह ही दिया।
एक प्रोफेसर कह गए- हिन्दी क्षेत्र की दो ही समस्याएं है - एक अंग्रेजी और दूसरी टैक्नालॉजी।
क्या ऐसा हिन्दी के साथ ही है और है तो क्यों है। क्या बांग्ला, ओडि़या, और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों को भी ऐसा झेलना पड़ता है। यकीनन होता ही होगा। ज्ञान की भाषा और शासन के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व जैसा है उसमें नए अनुशासनों यहां तक विज्ञान आदि जैसे विषयों में अकाल है। कोई यह जरूर कह सकता है कि हिन्दी कार्यान्वयन विभागों ने अनुवाद किये हैं लेकिन उनका चलन कितना है हमेशा से यह एक सवाल रहा है। उपभोक्ता वस्तुओं के अलावा ज्ञान में जो नए ट्रेंड हैं उसका संप्रेषण बहुत ही सीमित क्षेत्र में है। एक बड़ा वर्ग जो बड़ी उत्सुकता से ज्ञान और तकनीक के नए इलाके की तरफ देख रहा है उसके लिए अंग्रेजी सचमुच बड़ी बाधा है।
महानगरों से दूर कस्बों के गली कूचों में भी अंग्रेजी स्कूल फल - फुल तो रहे हैं लेकिन उस अंग्रेजी से ज्ञान की यात्रा हो पाएगी ऐसा होने में समय लगेगा। कितना इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
डेमोक्रेसी से बात डिजीटल डेमोक्रेसी पर आई और उसी में घूमती रही। इससे जुड़ी हुई बात सिटीजन जार्नलिज्म की है और जमाना भी उसी का है। एक तरफ सिटिजंस जर्नलिज्म एक तो अंग्रेजी उपर से अमेरिकन अंग्रेजी। हालांकि अंग्रेजी जाननेवाले बच्चों ने उनको इराक, अफगानिस्तान और खुद अमेरिका के कई मुददों से जोड़कर लोकतंत्र पर सवाल उठाये लेकिन हिन्दी के बच्चे मुंह बिदका रहे थे। सुबह के भाषण में कुछ भी समझ में नहीं आया - एक ने आखिर में कह ही दिया।
एक प्रोफेसर कह गए- हिन्दी क्षेत्र की दो ही समस्याएं है - एक अंग्रेजी और दूसरी टैक्नालॉजी।
क्या ऐसा हिन्दी के साथ ही है और है तो क्यों है। क्या बांग्ला, ओडि़या, और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों को भी ऐसा झेलना पड़ता है। यकीनन होता ही होगा। ज्ञान की भाषा और शासन के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व जैसा है उसमें नए अनुशासनों यहां तक विज्ञान आदि जैसे विषयों में अकाल है। कोई यह जरूर कह सकता है कि हिन्दी कार्यान्वयन विभागों ने अनुवाद किये हैं लेकिन उनका चलन कितना है हमेशा से यह एक सवाल रहा है। उपभोक्ता वस्तुओं के अलावा ज्ञान में जो नए ट्रेंड हैं उसका संप्रेषण बहुत ही सीमित क्षेत्र में है। एक बड़ा वर्ग जो बड़ी उत्सुकता से ज्ञान और तकनीक के नए इलाके की तरफ देख रहा है उसके लिए अंग्रेजी सचमुच बड़ी बाधा है।
महानगरों से दूर कस्बों के गली कूचों में भी अंग्रेजी स्कूल फल - फुल तो रहे हैं लेकिन उस अंग्रेजी से ज्ञान की यात्रा हो पाएगी ऐसा होने में समय लगेगा। कितना इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
Sunday, August 19, 2007
क्लास रूम
इस संस्थान में यह दूसरा साल है। विभाग वही है और कक्षा भी वही। उतने ही प्रशिक्षु भी हैं। अब आप यह न अपने तरफ से जोड़ लीजिएगा कि बिल्कुल वैसे ही। वैसे वाक्यों का नियम जानने वाले अगले वाक्य का अंदाजा लगा ही लेते हैं। हां, सभी वैसे ही नहीं हैं लेकिन लगभग वैसे ही हैं। पिछले बैच से बस एक साल का अंतर है, इसलिए पीढि़यों के गैप की परिकल्पना तो यहां नहीं कर सकते न। पत्रकारिता से जुड़ने की अपनी इच्छा में सबने लगभग एक जैसा ही लिखा है - एक बेहतर दुनिया बनाने की राह में हम शामिल होना चाहते हैं। लेकिन कइयों ने ईमानदारी से यह जोड़ना उचित समझा है कि यह एक आकर्षक करियर भी है।
बहरहाल, सब वही वही के बीच एक चौंकानेवाली बात मुझे परेशान कर रही है। हर बैच में कुछ अच्छे छात्र होते ही हैं और कुछ गुमसुम, चुपचाप शांतिपूर्ण कक्षा चलाने के पक्षधर तो कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका अपने पर कंट्रोल ही नहीं होता। वह हर बात पर कुछ कहना चाहते हैं। उनके पास प्रतिक्रिया करने के लिए कुछ हो या न हो। वे बिना कहे अपने को रोक ही नहीं सकते। और बहुत से ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत कुछ कहना होता है लेकिन वह कुछ बोल ही नहीं पाते। वह हमेशा कक्षा की समाप्ति या फिर वह सहज एकांत ढूंढते रहते हैं जब शिक्षक के साथ कुछ कह सकें। और इनमें भी वैसे बहुत हैं जो मौका पाने के बाद भी कुछ नहीं कह पाते। कहने आते हैं कुछ और कह कुछ और जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? क्या इसके मनोविज्ञान में उनका स्कूल, उनका समाज और उनका परिवेश भी शामिल नहीं है। हमारे लोकतंत्र की षष्टिपूर्ति में भीतर ही भीतर यह कौन सा हंटर चल रहा है जो अभिव्यक्ति को मारे जा रहा है। मेरे सामने एक बहुत बड़ा मौन है, शायद आपलोगों के पास कुछ जवाब, कुछ अनुभव हो।
बहरहाल, सब वही वही के बीच एक चौंकानेवाली बात मुझे परेशान कर रही है। हर बैच में कुछ अच्छे छात्र होते ही हैं और कुछ गुमसुम, चुपचाप शांतिपूर्ण कक्षा चलाने के पक्षधर तो कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका अपने पर कंट्रोल ही नहीं होता। वह हर बात पर कुछ कहना चाहते हैं। उनके पास प्रतिक्रिया करने के लिए कुछ हो या न हो। वे बिना कहे अपने को रोक ही नहीं सकते। और बहुत से ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत कुछ कहना होता है लेकिन वह कुछ बोल ही नहीं पाते। वह हमेशा कक्षा की समाप्ति या फिर वह सहज एकांत ढूंढते रहते हैं जब शिक्षक के साथ कुछ कह सकें। और इनमें भी वैसे बहुत हैं जो मौका पाने के बाद भी कुछ नहीं कह पाते। कहने आते हैं कुछ और कह कुछ और जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? क्या इसके मनोविज्ञान में उनका स्कूल, उनका समाज और उनका परिवेश भी शामिल नहीं है। हमारे लोकतंत्र की षष्टिपूर्ति में भीतर ही भीतर यह कौन सा हंटर चल रहा है जो अभिव्यक्ति को मारे जा रहा है। मेरे सामने एक बहुत बड़ा मौन है, शायद आपलोगों के पास कुछ जवाब, कुछ अनुभव हो।
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