Sunday, August 19, 2007

क्‍लास रूम

इस संस्‍थान में यह दूसरा साल है। विभाग वही है और कक्षा भी वही। उतने ही प्रशिक्षु भी हैं। अब आप यह न अपने तरफ से जोड़ लीजिएगा कि बिल्‍कुल वैसे ही। वैसे वाक्‍यों का नियम जानने वाले अगले वाक्‍य का अंदाजा लगा ही लेते हैं। हां, सभी वैसे ही नहीं हैं लेकिन लगभग वैसे ही हैं। पिछले बैच से बस एक साल का अंतर है, इसलिए पीढि़यों के गैप की परिकल्‍पना तो यहां नहीं कर सकते न। पत्रकारिता से जुड़ने की अपनी इच्‍छा में सबने लगभग एक जैसा ही लिखा है - एक बेहतर दुनिया बनाने की राह में हम शामिल होना चाहते हैं। लेकिन कइयों ने ईमानदारी से यह जोड़ना उचित समझा है कि यह एक आकर्षक करियर भी है।
बहरहाल, सब वही वही के बीच एक चौंकानेवाली बात मुझे परेशान कर रही है। हर बैच में कुछ अच्‍छे छात्र होते ही हैं और कुछ गुमसुम, चुपचाप शांतिपूर्ण कक्षा चलाने के पक्षधर तो कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका अपने पर कंट्रोल ही नहीं होता। वह हर बात पर कुछ कहना चाहते हैं। उनके पास प्रतिक्रिया करने के लिए कुछ हो या न हो। वे बिना कहे अपने को रोक ही नहीं सकते। और बहुत से ऐसे होते हैं जिन्‍हें बहुत कुछ कहना होता है लेकिन वह कुछ बोल ही नहीं पाते। वह हमेशा कक्षा की समाप्ति या फिर वह सहज एकांत ढूंढते रहते हैं जब शिक्षक के साथ कुछ कह सकें। और इनमें भी वैसे बहुत हैं जो मौका पाने के बाद भी कुछ नहीं कह पाते। कहने आते हैं कुछ और कह कुछ और जाते हैं। ऐसा क्‍यों होता है ? क्‍या इसके मनोविज्ञान में उनका स्‍कूल, उनका समाज और उनका परिवेश भी शामिल नहीं है। हमारे लोकतंत्र की षष्टिपूर्ति में भीतर ही भीतर यह कौन सा हंटर चल रहा है जो अभिव्‍यक्ति को मारे जा रहा है। मेरे सामने एक बहुत बड़ा मौन है, शायद आपलोगों के पास कुछ जवाब, कुछ अनुभव हो।

2 comments:

  1. अच्‍छा अवलोकन है पर मुझे अपनी कक्षाओं में अकसर यह भी दिखा है कि एक ही विद्यार्थी अलग अलग समय इन अलग अलग वर्गों में भी दोलन करता है। नहीं ? मतलब आज जो मूक है वह ही एक दिन बोलता है और खूब बोलता है।

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  2. हम तो अभी सीख ही रहे हैं इस लिए अभी बोल कुछ भी नही सकते । वैसे आप का अवलोकन बहुत अच्छा है ।

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