रोल ऑफ मीडिया इन डेमोक्रेसी। यह भाषण का विषय था। अमेरिकन महिला पत्रकार सुशन राबिन्सन किंग का भाषण। बात पत्रकारिता के इतिहास से शुरू हुई और डिजीटल डेमोक्रेसी पर आकर ठहर गई। शुरुआत अमेरिका से और अंत भी अमेरिका पर। व्याख्यानों में यह नया ट्रेंड है- विषय व्यापक और उदाहरण किसी छोटे दायरे में अध्ययन का। लेखों तक तो यह सब चल जाता है लेकिन व्याख्यान में आनेवालों का आकर्षण विषय की व्यापकता पर ही होता है। बहुत सारे लोग उससे खुद को जोड़ नहीं पाते।
डेमोक्रेसी से बात डिजीटल डेमोक्रेसी पर आई और उसी में घूमती रही। इससे जुड़ी हुई बात सिटीजन जार्नलिज्म की है और जमाना भी उसी का है। एक तरफ सिटिजंस जर्नलिज्म एक तो अंग्रेजी उपर से अमेरिकन अंग्रेजी। हालांकि अंग्रेजी जाननेवाले बच्चों ने उनको इराक, अफगानिस्तान और खुद अमेरिका के कई मुददों से जोड़कर लोकतंत्र पर सवाल उठाये लेकिन हिन्दी के बच्चे मुंह बिदका रहे थे। सुबह के भाषण में कुछ भी समझ में नहीं आया - एक ने आखिर में कह ही दिया।
एक प्रोफेसर कह गए- हिन्दी क्षेत्र की दो ही समस्याएं है - एक अंग्रेजी और दूसरी टैक्नालॉजी।
क्या ऐसा हिन्दी के साथ ही है और है तो क्यों है। क्या बांग्ला, ओडि़या, और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों को भी ऐसा झेलना पड़ता है। यकीनन होता ही होगा। ज्ञान की भाषा और शासन के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व जैसा है उसमें नए अनुशासनों यहां तक विज्ञान आदि जैसे विषयों में अकाल है। कोई यह जरूर कह सकता है कि हिन्दी कार्यान्वयन विभागों ने अनुवाद किये हैं लेकिन उनका चलन कितना है हमेशा से यह एक सवाल रहा है। उपभोक्ता वस्तुओं के अलावा ज्ञान में जो नए ट्रेंड हैं उसका संप्रेषण बहुत ही सीमित क्षेत्र में है। एक बड़ा वर्ग जो बड़ी उत्सुकता से ज्ञान और तकनीक के नए इलाके की तरफ देख रहा है उसके लिए अंग्रेजी सचमुच बड़ी बाधा है।
महानगरों से दूर कस्बों के गली कूचों में भी अंग्रेजी स्कूल फल - फुल तो रहे हैं लेकिन उस अंग्रेजी से ज्ञान की यात्रा हो पाएगी ऐसा होने में समय लगेगा। कितना इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
bhai. aj apka blog dekha. samagri bad me padhunga.
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