Tuesday, October 30, 2012

जहां उन्‍हें कोई बच्‍चा नहीं कहता

यहां बच्‍चे दिन भर खेलते रहते हैं। शिक्षक उन्‍हें खेलते हुए देखते हैं। खेल खेल में बच्‍चे खुलते हैं। सपने बुनते हैं। करते हैं कल्‍पनाएं कलाबाजियों के साथ। और शिक्षक उन्‍हें नोट करते हैं। बच्‍चे नोट किया जाना महसूस कर लेते हैं। और सहज नहीं रह पाते। कुछ यह जानते हुए‍ कि नोट किया जा रहा है, नोट किये जाने योग्‍य करतब करने लगते है। आखें ओझल हुईं नहीं कि अपनी रौ में आ जाते हैं। इस तरह सहज होते हैं। छह, सात की उम्र में आजकल खुद को जान रहे हैं। अपने से भिन्‍न को पहचान रहे हैं। लड़का क्‍या है, लड़की क्‍या है। रूप, रंग, शरीर सबको समझने की कोशिश। उनके कोड हैं, उनका अंडरवर्ल्‍ड है। सेकरेट जगहें हैं। इस खुले स्‍कूल के बावजूद उनके अपने तलघर हैं। जहां उनकी अपनी दुनिया है। बच्‍चों की दुनियां। जहां वे अपने पूरे कद में हैं। अपने पूरे अस्तित्‍व में। वहां उनको कोई बच्‍चा कहकर नहीं बुलाता।