Sunday, April 29, 2007

भोजपुरी के दादा साहेब

नाजि़र हुसेन
नाज़िर हुसेन की ज़िद ना होती तो भोजपुरी की पहली फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` जगह विमल रॉय के निर्देशन में कोई हिन्दी फिल्म बनी होती। नाज़िर हुसेन ने काफी पहले इस फिल्म की पटकथा तैयार कर ली थी और निर्माता तलाश रहे थे। विमल रॉय को भी यह पटकथा पसंद आई थी, लेकिन वह इसे भोजपुरी की बजाय हिन्दी में बनाना चाहते थे। श्री हुसेन ने कहा था, ''इ फिलिमिया बनी त भोजपुरिये में बनीं चाहे जब बने।'' नाज़िर हुसेन के अभिनय का विकास विमल रॉय के स्कूल में हुआ था। हालांकि श्री रॉय से जुड़ने के पहले वे आज़ाद हिन्द फौज़ में सांस्कृतिक मोरचे के संयोजक थे। दूसरे विश्‍वयुद्ध में जापान की हार के बाद विपरीत परिस्थितियों में जब फौज़ का काम समेटा गया तब वह कोलकाता में श्री रॉय के स्कूल से जुड़ गये थे। अपने देस, अपनी मिट्टी और बानी से गहरा सरोकार उन्हें फौज़ के परिवेश से ही मिला होगा। वरना लाभ और लोभ में देश व समाज को बौना कर देनेवाले इस समय में विमल रॉय के बैनर को भला कौन ठुकराता। कुछ समय बाद ही नाज़िर हुसेन की ज़िद फलीभूत हुई और विश्वनाथ शाहाबादी जैसा एक और भोजपुरी प्रेमी मिला जिसने इस फिल्म के लिए पैसा लगाना स्वीकार किया। भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत करने और उसको जिंदा रखने में श्री हुसेन के अप्रतीम योगदान की बदौलत ही भोजपुरी सिनेमा उद्यो्ग से जुड़े लोग उन्हें अपना 'दादा साहेब फाल्के` मानते हैं।
फिल्म की दुनिया में नाजि़र हुसेन के नाम से प्रतिष्ठत मोहम्मद नज़ीर खान उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले के उसियां गांव के रहनेवाले थे। उनके पिता साहेबजाद खान इंडियन पेनीसुलर रेलवे के कर्मचारी थे। जिनके साथ वे लखनऊ में रहे। ना‍जि़र साहब की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा लखनऊ के उर्दू परिवेश में हुई थी। उन दिनों हर तरफ आजादी की लड़ाई का ज्वार था। श्री हुसेन आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गये। वर्ष १९४० व ४१ के दौर में पूर्वोत्तर प्रांतों में उन्होंने आजाद हिन्द फौज के क्षेत्र प्रचारक के रूप में काम किया। इन्हीं दिनों उनका जुड़ाव थिएटर और साहित्य से हुआ। स्वाध्याय के साथ-साथ उन्होंने लेखन का अभ्यास भी शुरू किया और फौज़ के साथियों में एक सांस्कृतिक टोली विकसित की। जनवरी १९४५ में आयोजित नेताजी के जन्म दिवस समारोह में नज़ीर हुसेन ने बंगाल में अकाल को केन्द्र मे रखकर 'बलिदान` नामक नाटक तैयार किया, जिसकी सराहना खुद नेताजी ने की थी। जब आइ.एन.ए. का काम समेटा गया तो वे कलकत्ता आ गये। यहीं उनकी मुलाकात विमल राय से हुई। और वे उनके साथ का करने लगे थे। विमल राय जब कलकत्ता से मुबई आए तो नाजि़र हुसेन भी उनकी टोली में थे। तब की प्रतिष्ठित फिल्म पत्रिका माधुरी में विमल रॉय संबंधी एक आलेख में फिल्म 'पहला आदमी` के बारे में लिखा है - यह फिल्म आजाद हिन्द फौज से संबंधित एक सत्य घटना पर बनायी गई थी। कहानी लिखी थी आजाद हिन्द फौज के श्री नाजि़र हुसेन ने। श्री हुसेन आजकल एक सफल सिनेमा कलाकार, लेखक निर्माता हैं। इन्हें लेखक और अभिनेता के रूप में विमल दा ने ही सबसे पहले प्रस्तुत किया था...``। विमल राय की 'सिपाही का सपना`, 'परख`, 'अछूत कन्या`, 'दो बीघा जमीन` और 'बन्दगी` जैसी फिल्मों में काम कर नाजि़र हुसेन ने चरित्र अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। १९२२ में जन्मे नज़ीर हुसेेन की २५ जनवरी १९८४ को जब देहांत हुआ तब तक हिन्दी व भोजपुरी की सौ से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके थे। उन्होंने कई भोजपुरी फिल्मों की पटकथा लिखी और निर्माण भी किया। इनमें 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबा`, 'लागी नाही छूटे रामा, 'हमार संसार`, 'बलम परदेसिया,` रूस गइले सैंया हमार, 'चनवा के ताके चकोर,`'चुटकी भर सिंदूर` (निर्देशन) आदि फिल्में प्रमुख हैं। नाज़िर हुसेन का ही यह आग्रह था कि भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग भोजपुर इलाके में हो। उन दिनों जब मुंबई से भोजपुर जाना अत्यंत कठिन था। और सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं था। श्री हुसेन अपनी टोली लेकर छोटे-शहरों और कस्बों और गांवों में शूटिंग करते थे। उन्होंने भोजपुर अंचल के घर, आंगन, बातचीत, खेती-किसानी और भोजपुरी संस्कार से जुड़ी बारीक से बारीक चीजों को अपनी फिल्मों के दृश्य का हिस्सा बनाया।
लाल बहादुर

Saturday, April 28, 2007

भोजपुरी बाजार पर लट्टू बॉलीवुड

१९६२ में भोजपुरी की पहली फिल्म जब 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` रिलीज हुई तो उसने लोगों को चौंकाया था कि हिन्दी इलाके में यह कौन-सा नया सिनेमा है? उसके गीत अभी भी लोगों की स्मृति में हैं। १९७७ में 'दंगल` से भोजपुरी में रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हुआ और ८० के दशक में सेंसर बोर्ड में 'हिन्दी फिल्म` के खाते में दर्ज 'नदिया के पार` के बाद अब 'ससुरा बड़ा पैसे वाला` नाम की फिल्म भोजपुरी और उसके सिनेमा के लिए चमत्कारिक घटना है। कई बार राष्ट्रीय फलक पर कौंधने और फिर दृश्य से लगभग गायब होने की कगार पर जा चुके भोजपुरी सिनेमा की बालियां एक बार फिर खनकने लगी हैं। 'भइया लोगों का सिनेमा` कहकर मुंह बिदकाने वाले मुुबई के फिल्म निर्माताओं के मुंह में पानी भर आया है। गीतों के बाद अब फिल्मों के जरिये भोजपुरी अनुगूंज सुनायी दे रही है।
ऐसे दौर में जबकि बड़े बजट और मेगा प्रचारवाली फिल्में दूसरे शो में ही लुढ़क रही हैं, महज दो-तीन सप्ताह चलने वाली कोई हिन्दी फिल्म सुपर हिट मान ली जाती है, 'ससुरा बड़ा पैसा वाला` ने भोजपुरी के शास्त्रीय गढ़ से बाहर एक साथ कानपुर, लखीमपुर और लखनऊ में गोल्डेन जुबली मनाई। इसी क्रम मेंे 'कब होई गौना हमार`, 'उठाइले घूंघटा चांद देख ले,` 'बलमा बड़ा नादान,` 'बंधन टूटे ना,` 'गंगा के पार सैंया हमार,` 'दारोगा बाबू आई लव यू,` 'पंडित जी बताई ना बियाह कब होई,` और 'दामादजी` की बॉक्स आफिस पर सफलता और उनके अर्थशास्त्र ने बड़े निगमों को भी भोजपुरी फिल्मों में हाथ आजमाने के लिए ललचाया है। ट्रेड गाइड के आंकड़ों पर गौर करें तो औसतन ४० लाख के बजट में बननेवाली ये फिल्में करोड़ों का कारोबार कर रही हैं। खबर है कि विजय मलैया, बालाजी टेलीफिल्म्स और एबी कॉरपोरेशन भी भोजपुरी सिनेमा में पैसा लगाने जा रहे हैं। ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार व सायरा बानो की कंपनी भोजपुरी में फिल्म बनाने की घोषणा कर चुकी है। प्रसिद्ध नृत्य निर्देशिका सरोज खान 'दिल तोहार दिवाना हो गइल` से निर्देशन की भूमिका में उतर रही हैं।
गौर करनेे की बात है कि भोजपुरी सिनेमा को 'अछूत` मानने वाले हिन्दी के स्टार भी भोजपुरी आसमान में चमकने को उत्सुक दिख रहे हैं। फिल्म 'गंगा` में बागबान की सफल जोड़ी अमिताभ और हेमामालिनी होंगे। 'बाबुल प्यारे` में राज बब्बर दिखेंगे तो 'मति भुलैह माई बाप के` में रति अग्निहोत्री नजर आयेंगी। अजय देवगन 'धरती कहे पुकार के` में अपनी झलक दे चुके हैं। बॉलीवुड के संघर्ष से किनारे हो गयीं हृषिता भट्ट प्रीति झंगियानी को भोजपुरी सिनेमा में शरण मिली है। तो जूही चावला, भाग्यश्री, नग्मा.. जैसी नायिकाएं भी इधर हाथ आज़मा रही हंै।
भोजपुरी बाजार के मुनाफे से लोग इतने उतावले हैं कि एक समय की हिट फिल्म 'नमक हलाल` भोजपुरी में 'बबुआ खिलाड़ी ददुआ अनाड़ी` के नाम से डब होकर रिलीज हो चुकी है। एक्शन मास्टर टीनू वर्मा एक सामान्य भोजपुरी फिल्म के निर्माण से कहीं अधिक पैसा लगाकर 'मेरा गांव मेरा देश` का 'धरती पुत्र` के नाम से पुनर्निर्माण कर चुके हैं। इतना ही नहीं 'शोले` और 'दीवार` सहित ३० से ४० हिट हिन्दी फिल्मों की डबिंग राइट के लिए भी जोरआजमाइश जारी है। हवा यह भी है कि हॉलीवुड की फिल्मों की भोजपुरी में डबिंग की योजना है।
आलम यह है कि भोजपुरी फिल्में अपने बुनियादी इलाके यानी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, बंगाल तथा मुंबई में भी अपनी जगह बना रही हैं। हाल ही मे 'बंधन टूटे ना` ने मुंबई में १०० दिन पूरे किये हैं। यह आंकड़ा किसी भी हिन्दी सिनेमा के लिए सपना होता है। कल्याण, उल्हासनगर और डोंबिवली जैसे इलाके के सिनेमा घरों में २५ फिल्में रिलीज हुईं। नयी दिल्ली के पास लोनी में एक भोजपुरी फिल्म तीन महीने तक नहीं उतरी। इसके बाद तो नोएडा के अलका, मोती, आकाश जैसे सिनेमाघरों ने भी भोजपुरी फिल्मों को अपनाया और निराश नहीं हुए। भोजपुरी की पहली डॉल्बी डीटीएच कही जा रही फिल्म 'दामादजी` पिछले दिनों दिल्ली के देहाती इलाके के सिनेमा हॉल में नहीं बल्कि पारस और जनक जैसे संभ्रांत इलाके के सिनेमाघरों मंें रिलीज हुई जो भोजपुरी सिनेमा के लिए अभूतपूर्व घटना है।
जानकारों का कहना है कि भोजपुरी सिनेमा ने उत्तर प्रदेश और बिहार के एकल परदे वाले सिनेमा घरों को नया जीवन दिया है और महानगरों में मल्टीप्लेक्स संस्कृति से मुरझाये एकल परदेवाले सिनेमाघरों में रौनक लौट आई है। यह तथ्य है कि 'बंटी और बबली`, 'मंगल पांडेय,` 'पेज थ्री,` और 'ब्लैक` अपने सरोकार और कथ्य में भले ही उम्दा फिल्में हों लेकिन उनने लागत के अनुपात में उस तरह का व्यवसाय नहीं किया जितना कि इस दौर की भोजपुरी फिल्मों ने। मल्टीप्लेक्स संस्कृति के इस दौर में जब मेगा बजट वाली फिल्में औंधे मुंह गिर रही हैं भोजपुरी फिल्मों की पगडंडी चौड़ी होती नजर आ रही है और वह चौतरफा चर्चे में है। नोट करने की बात है कि भोजपुरी सिनेमा ने किसी राज्याश्रय की बदौलत नहीं बल्कि अपने दम पर यह कद बनाया है।

यह नयी बात नहीं है
लेकिन भोजपुरी फिल्मों का राष्ट्रीय फलक पर कौंधना और बाजार की इस ओर लपकना पहली बार नहीं हुआ है। यह बात अलग है कि इस बार यह चमक बड़े पैमाने पर और कई रूपों में दिखाई दे रही है। १९६१-६२ में बनी भोजपुरी की पहली फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` जब परदे पर आई तो ऐसी ही सनसनी पैदा हुई थी। दिल्ली के गोलचा सिनेमा आयोजित में उसके प्रीमियर में तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जगजीवन राम और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोग उपस्थित हुए थे। हिन्दी की मातहत भाषा घोषित होने के बावजूद उसने गीतों और फिल्म की दुनिया में अपनी अलग तसवीर पेश की थी। इसी क्रम में बनी 'बिदेसिया` और 'लागी नाही छूटे राम` जैसी सफल फिल्में बनीं जो अपने कर्णप्रिय गीतों की छाप छोड़ गयीं। भोजपुरी में फिल्म बनाने का भगीरथ प्रयास करने वाले नज़ीर हुसेन ने भोजपुरी अंचल से पलायन को केेन्द्र में रखकर 'हमार संसार` जैसी यादगार फिल्म बनायी थी।
भोजपुरी सिनेमा के पहले दौर में हिन्दी और भोजपुरी फिल्मों की लागत और बुनावट में बहुत ज्यादा फर्क नहीं था। गीत दोनों ही फिल्मों की ताकत थी। चित्रगुप्त, अंजान, शैलेन्द्र कह बात हो या मो. रफी और लता मंगेशकर की दोनो भाषाओं में उपलब्ध थे। कुन्दन कुमार, नज़ीर हुसेन, कुमकुम, असीम कुमार, लीला मिश्रा, असीत सेन जैसे मजे हुए कलाकार थे। इनकी कड़ी में सुजीत कुमार और पद्मा खन्ना उभरे जो लंबे समय तक भोजपुरी सिनेमा के पर्याय बने रहे। यह दौर भोजपुरी इलाके की परंपरा, संस्कृति के दस्तावेजीकरण का दौर माना जा सकता है। इसे हिन्दी फिल्मों में काम से मिले अवकाश, कमाई से हुई बचत से बने सिनेमा का दौर कहा जा सकता है। विश्वनाथ शाहाबादी के अलावा भोजपुरी अंचल से ऐसा कोई दूसरा निर्माता नहीं उभर कर आया जो इन फिल्मों में निवेश करे। एक गुजराती निर्माता बच्चू भाई शाह ने 'बिदेसिया` में पैसा लगाया और सफल रहे। फिल्म का निर्देशन संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी ने किया था, गीत राममूर्ति चतुर्वेदी के थेे। इसी फिल्म में 'बिदेसिया शैली` के जनक भिखारी ठाकुर को गाते हुए फिल्माया गया। तीन-चार वर्ष में करीब १९ फिल्में बनीं। लेकिन तब हिन्दी की समांतर दुनिया में रंगीन सिनेमा और ७० एमएम की टैक्नोलॉजी का प्रयोग शुरू हो चुका था। और सिनेमा उद्योग आम हालत बहुत अच्छी नहीं थी लिहाजा भोजपुरी सिनेमा का यह दौर लड़खड़ा गया।
भोजपुरी सिनेमा का दूसरा हिलोर १९७७ में उठा। इस दौर में भी गीतों की ताकत काम आयी। वैसे भी गीतों के मामले में भोजपुरी फिल्मों ने कभी समझौता नहीं किया। पहले दौर में सफल फिल्म 'बिदेसिया` की टोली ने ही उसी कथानक में जरा फेर-बदलकर भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म 'दंगल` बनायी। निर्देशन रति कुमार ने किया। इसमें तब की 'मिस इंडिया` प्रेमा नारायण को बतौर हिरोइन लिया गया। पहलवानी, लठैती, भेड़ा की लड़ाई जैसे गंवई मसाले थे तो डाकुओं की डेन, (शोले का प्रभाव), घोड़ों के चेज और गोला बारूद वाले एक्शन सीक्वेंस जैसे हिन्दी सिनेमा के तत्कालीन नुमाइशी तत्वों का इस्तेमाल किया गया। एक बार फिर भोजपुरी फिल्मों का बाज़ार गरम हुआ। इस बार निर्माताओं की भूमिका में भोजपुरी अंचल से भी लोग आए जो या तो सिनेमाघरों के मालिक थे या फिर वितरण के काम में लगे थे। अशोक जैन की 'गंगा किनारे मोरा गांव` और नाज़िर हुसेन की 'बलम परदेसिया`, मोहन जी प्रसाद की 'हमार भौजी,` लक्ष्मण शाहाबादी की फिल्म 'दूल्हा गंगा पार के` जैसी सफल फिल्में भी आईं। भाई-बहन के संबंध पर बनी कमर नार्वी फिल्म 'भैया दूज` को तो तब राजस्थानी (मारवाणी) में डब किया गया और वहां भी वह हिट रही।
पहले दौर की बनिस्बत यह दौर कुछ लंबा चला। परंतु इन फिल्मों का फारमूला इतनी बार दुहराया गया कि उब स्वाभाविक थी। न तो नये विचार आए न सिनेमा का नया अंदाज। विषय और कला को मांजने की बजाय भोजपुरी सिनेमा में नुमाइशी चीजें ज्यादा हावी हो गयीं। इसका नमूना यह था कि भोजपुरी फिल्मों की स्टार सुजीत कुमार ने, जिन्हें तब के सुपर स्टार राजेश खन्ना के समांतर देखा जाता था, रेखा और अमिताभ को मेहमान बनाकर 'पान खाये सैंया हमार` और शत्रुघ्न सिन्हा ने 'बिहारी बाबू` जैसी फिल्म बनायी- जो औंधे मुंह गिर गयी। लेकिन इसी दौर में राजश्री प्रोडक्शन ने इन फिल्मों के मिजाज को परिष्कृत संस्कार देकर 'नदिया के पार` फिल्म बनायी। भोजपुरी संस्कार और मिजाज वाली इस हिन्दी फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर सफलता लंबे समय तक बॉलीवुड के लिए मिसाल बनी रही।
हालांकि इस दूसरे दौर में भोजपुरी फिल्मों की सफलता कोई कम नहीं थी, लेकिन इसके बाद भी भोजपुरी फिल्मों के लिए बुनियादी अधोरचनाओं के लिए पहल नहीं हो सकी। कुछ संगठन और मंच जरूर बन गये जिन्होंने दूसरे राज्य की भाषाओं की तर्ज पर यु.पी. और बिहार की सरकारों से इस उद्योग को मदद करने की गुहार लगायी। लेकिन बॉलीवुड पर उसकी निर्भरता कम नहीं हो सकी। इस दौर में कुणाल, गौरी और राकेश पांडेय जैसी नई प्रतिभाएं तो आईं। पर उंगलियों पर गिने जानेवाले लोगों के भरोसे कोई उद्योग नहीं चल सकता था। सस्ते कलाकार, तकनिशियनों और सस्ती कहानियों के कारण फिल्में पिटने लगीं तो लोगों ने दूसरा रास्ता पकड़ लिया। निर्देशक ब्रजभूषण कहते हैं, ''बेहतर होता यदि अपनी कमाई का कुछ हिस्सा लोग इस उद्योग के विकास में लगाते। अपने कलाकारों को यहां टिके रहने भर पारिश्रमिक और सम्मान देते। लेकिन हुआ उल्टा। भोजपुरी से पैसा और नाम बनानेवाले भी मैदान छोड़ गये।``
तब एक और बड़ा कारण भारतीय क्षितिज पर टीवी/विडियो संस्कृति का उभार था। सीरियलों की दुनिया में निवेश किसी भाषायी फिल्म या बी ग्रेड की हिन्दी फिल्म बनाने से कहीं ज्यादा चोखा धंधा था। उसके बाद नब्बे का दशक भोजपुरी फिल्मों में सूखा को दशक रहा है। हां, हर साल तीन-चार के औसत से फिल्में बनती जरूर रहीं लेकिन बाजार की उनमें कोई रुचि नहीं थी।
नयी सदी की शुरुआत में मोहनजी प्रसाद की 'सैंया हमार` और संजय उपाध्याय की 'कन्या दान` ने जो सुगबुगाहट शुरू की पिछले एक-डेढ़ साल भर का समय भोजपुरी सिनेमा के इतिहास में अभूतपूर्व स्थितियां उपस्थित हुई हंै। पहले रवि किशन और अब भोजपुरी गायकी से आया नया नवेला स्टार मनोज तिवारी 'मृदुल` नामचीन स्टार है। इस दौर में सफलता का परिणाम है कि चालीस साल से ऊपर तक की यात्रा में मात्र दो सौ का आंकड़ा छूनेवाले इस बाजार में पिछले कुछ ही महीनों में कुल अस्सी से ज्यादा फिल्मों की घोषणा हुई है।
लेकिन संख्या और कमाई किसी भी कलात्मक विधा के लिए कोई मानदंड नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण यह है कि ये फिल्में अपने अंतर्वस्तु में क्या लेकर आती हैं। और अपने को कितने लंबे समय तक टिकाये रखने का माद्दा रखती हैं।
क्या है इन फिल्मों मंे
सच तो यह है कि जिस कलात्मक ऊंचाई के लिए दूसरी भाषाई यानी ओड़िया, बांग्ला, असमिया या मलयालम फिल्में जानी जाती हैं भारतीय सिनेमा में भोजपुरी फिल्में वैसी कोई नई जमीन तोड़ नहीं तोड़ रही है। शुरुआती दौर की कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो भोजपुरी सिनेमा हिन्दी सिनेमा द्वारा खाली की गयी जगह का सिनेमा है। जिसके खिलाड़ी कम पूंजी वाले सिनेमा के शौकीन हैं। फिल्म निर्माता लाला दमानी कहते हैं, ''बड़े बैनरवाली किसी हिन्दी फिल्म के नायक के मेक-अप मैन के मेहनताने में भोजपुरी की एक फिल्म बन जाती है।``
दरअसल हिन्दी सिनेमा के मल्टीप्लेक्स अवतार ने महानगरों ही नहीं बल्कि कस्बाई और ग्रामीण इलाकों के एक सिनेमाघरों को सूना कर दिया था। महानगरीय और एनआरआई दर्शकों की चाह में वह गैर मेट्रो आबादी की रुचियों से दूर चला गया है। लिहाजा इन सिनेमाघरों का काम बी-ग्रेड हिन्दी फिल्मों या 'ए` सर्टिफिकेट वाली देसी-विदेशी फिल्मों के भरोसे चल रहा था। जाहिर है ऐसे सिनेमा का स्थायी और बड़ा दर्शक वर्ग नहीं हो सकता जिससे वह खुद को जोड़ नहीं पा रहा हो। आखिर वह उस सिनेमा का दर्शक कैसे हो सकता है जिसमें उसकी भाषा, रहन-सहन सब कुछ उपहास का पर्याय बना हुआ हो। उसकी भूमिकाएं नौकर, अपराधी या बौड़म की हो। 'ससुरा बड़ा पैसे वाला` के निर्देशक अजय सिन्हा कहते हैं, 'वह दर्शक जो २० रुपये देकर टिकट खरीदता है हिन्दी फिल्मों के नये दौर में अपने को ठगा महसूस करता है।`` भोजपुरी के स्टार रविकिशन कहते हैं, ''एक बंदा जो घर का खाना पसंद करता है उसे पांच सितारा खाना परोसा जा रहा है जिससे उसका परिचय ही नहीं है।`` 'नदिया के पार` के निर्देशक गोविंद मूनीस कहते हैं, ''सेक्स और हिंसा के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है हमारे समाज और संस्कृति में जो फिल्मों का विषय हो सकता है।``
१९६२ से लेकर अब तक की कुछ सफल फिल्मों पर गौर करें तो उनकी कल्पनाशीलता, नजरिया और प्रस्तुतीकरण पर लेकर सवाल उठ सकते हैं। लेकिन ये अपना मुहावरा और अपना नायक गढ़ने की कोशिश करती फिल्में हैं। भोजपुरी यहां किसी की चेरी नहीं है। ठेठ अंदाज में (कुछ लोग इसे 'भदेस` कहते हैं) ही सही उसका अपना भरा-पूरा संसार है। साठ के दशक की हिन्दी फिल्मों की तरह इनका पसंदीदा विषय समाजिक-पारिवारिक ताना-बाना है जिनका मुख्य सरोकार परिवार व विवाह तक सीमित है। यह भी कहा जा सकता है कि राजश्री प्रोडक्शन के फारमूले को ग्रामीण छौंक के साथ परोसा जा रहा है। सिंदूर, मंगलसूत्र व धर्म-कर्म के ईद-गिर्द भावपूर्ण कथानक और आठ से बारह गीत-नृत्य सिक्वेंस (कव्वाली, मुजरा, नौटंकी) और समकालीन हिन्दी मसाला फिल्मों के लटके-झटके भोजपुरी फिल्मों का मुख्य हिस्सा हैं। कुछ फिल्में स्लैप्स्टिक कॉमेडी और द्विअर्थी संवादों की राह पर भी चल पड़ी हैं।
अपनी सफलता से नया आयाम खोलने वाली फिल्म 'ससुरा बड़ा पैसे वाला` मूलत: कॉमेडी है जिसका अंत मेलोड्रामाइ है। यह एक ग्रामीण युवक की कहानी है जिसका अपने परिवार और परंपरा से गहरा लगाव है। उसने शहर में पढ़ाई की है, दिलेर और विवेकवान है। लेकिन विचित्र तरह की अपनी मित्र मंडली (एक बौना, एक बड़ी उम्र में छोटी बुद्धिवाला, एक नाक से बोलने वाला..आदि। कहा जा सकता है इस इलाके में प्रचलित शिव की बारातियों से यह बिंब लिया गया है।) से कोई परहेज नहीं करता। गोरुओं को चारा देने और खेत में कुदाल चलाने और अपने स्वाभिमान की रक्षा में रिक्शा चलाने जैसे काम से अपने दर्शक समूह से तादात्म्य बिठाता है। उसकी टकराहट शहरी संस्कृति की प्रतिनिधि नायिका से होती है। फारमूले के मुताबिक नायिका को पराजित होकर समर्पण करना है, सो होता है। खलनायक जैसे पेंच भी होने चाहिए सो है। पूरी कथा ग्रामीण परिवेश में फिल्मायी गयी है। बहुत कुछ शुरुआती दौर की फिल्मों की तरह। यानी खेत, खलिहाल, हल-बैल, टमटम, कच्चे-पक्के खपरैल मकान, शादी के गीत और रीति-रिवाज तो है ही। आम जनता के लिए आइटम सांग यानी नौटंकी और 'लौंडा नांच` भी है को स्थानीय मसाले के तौर पर डाला गया है। यहां डेविड धवन गोविंदा वाला बनावटी गांव नहीं है। न ही गांव के नाम पर बनावटी भाषा। नाभि, उरोज, नितंब, महीन कपड़ों में स्नान जैसे हिन्दी फिल्मों के उद्दीपक मसाले का भी इस्तेमाल है, लेकिन संयत ढंग से। यह संतुलन ही बाजार की भाषा में इस फिल्म का 'सेलिंग प्वाइंट है` जो इसे बड़े दर्शक समूह तक ले जाता है। निर्देशक बड़ी सावधानी से जातीय, वर्गीय भेदभाव और स्थानीय टकराव वाले बिन्दुओं से बचते हुए एक गुडी-गुडी फिल्म बनाने की कोशिश की है जो इस इलाके के पुरुषवादी मिजाज का बखूबी खयाल रखती है। एक तरह से यह फिल्म अब तक की हिट भोजपुरी फिल्मों का सारांश है।
अन्य फिल्मों के कथानक और बुनावट भी इस दायरे के बाहर नहीं निकलीे दिख रही। हां, इतना जरूर हुआ है कि इनमें सिर्फ गांव और गलियां ही नहीं है। हिन्दी सिनेमा की तरह यथार्थ के बीच स्वप्निल उड़ानें भी हैं। जो आकर्षक लोकेशन की संभावना बनाती हैं। गायक उदित नारायण की भोजपुरी फिल्म 'कब होई गौना हमार` में मॉरीशस का लोकेशन है। 'बाबुल प्यारे`, 'दिल दीवाना हो गइल` और 'गंगा` की शुटिंग लंदन में पूरी की गयी है। हाल ही में रिलीज 'फिरंगी दुल्हनियां` न केवल विदेशों में शूट हुई है बल्कि इसकी नायिका तान्या युक्रेन की है। नए दौर में राजनीतिक व्यंग्य की ओर भी एक धारा जाती है इन दिनों 'बांके बिहारी एम.एल.ए. जैसी फिल्म बन रही है। डर की तर्ज पर 'पिपरा तर के बरम्ह` जैसी हॉरर फिल्म पर भी एक निर्देशक ने हाथ आजमाया है। ३५ एमएम और सिनेमास्कोप में शूटिंग, डिजीटल डॉल्बी के साउंड ट्रैक की समकालीन तकनिकी का उपयोग भी है।

कहां ले जायेगा यह उफान
एक दौर रहा है जब अमेरिका सहित दुनिया के तमाम शहरों में सिनेमा के नाम पर हॉलीवुड फिल्मों को बोलबाला था। लेकिन जल्द ही लोगों को लगने लगा कि इन फिल्मों में जो कुछ भी परोसा जा रहा है वह उनकी खंडित सच्चाइयां हंै या फिर इन कथाओं में उनका अस्तित्व है ही नहीं। कारण और भी रहे हैं नजीजतन फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी, रूसी, जापानी सिनेमा का अस्तित्व उभर कर आया। ब्लैक सिनेमा और तीसरा सिनेमा का उद्भव हुआ। इस कड़ी में ईरानी और भारतीय सिनेमा का भी नया अंदाज जुड़ा। यह भी बात उभरी कि सिनेमा सिर्फ मौज मस्ती ही नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का औजार बन सकता है। अपने यहां भी बॉलीवुड की मुख्यधारा सिनेमा के बरक्श अलग अंदाजवाले क्षेत्रीय सिनेमा का विकास हुआ है। पिछले चालीस वर्षों से भोजपुरी सिनेमा में उठता-गिरता यह उफान भी इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है। हलांकि अभी उसमें सौंदर्यबोध और प्रतिरोध की वह धार विकसित नहीं हो पायी है जैसा कि अन्य भाषाई सिनेमा या विश्व के दूसरे प्रतिरोधी सिनेमा में दिखता है। सवाल यह है कि क्या यह ताजा उफान भोजपुरी सिनेमा उद्योग को कोई स्थाई शक्ल दे सकेगा? क्या वह अन्य भाषाई सिनेमा की तरह अपनी अलग पहचान बना सकेगा?
लंबे समय तक भोजपुरी सिनेमा के स्टार रहे राकेश पांडेय कुछ सच्चाइयों से हमारा परिचय कराते हैं, ''कुछ ऐसे लोग भी सक्रिय हैं जिन्होंने इस भाषा और सिनेमा को बदनाम भी किया है। वो दस बारह दिन के लिए आउटडोर में जाते हैं और फिल्म लपेटकर ले आते हैं। यह जो 'लपेटकर ले आना` मुहावरा है उसने बहुत ही कबाड़ा किया है। दक्षिण की फिल्में भी तो क्षेत्रीय ही हैं न! लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी इस तरह के शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। यह रीयल मेकिंग नहीं है।`` अजय सिन्हा कहते हैं, ''भोजपुरी सिनेमा के एक-आध माइनस प्वाइंट रहे हैं जो मुझे परेशान करते रहे हैं। यहां 'मैनेज करना` एक शब्द चलता है। जिसमें कोई एक लाख रुपया देकर हीरो बन गया, पचास हजार देकर विलेन बन गया या बनना चाहता है। इस तरह से तो सिनेमा नहीं चलता है। कोई कला मैनेज नहीं की जा सकती। जब तक पेशेवर लोग नहीं हो कैसे आप अच्छे काम की उम्मीद कर सकते हैं।`` इसमें कोई शक नहीं कि इस उफान में बहुत से ऐसे लोग भी शामिल हैं जिनका भोजपुरी और उसके सिनेमा से बहुत लेना देना नहीं है। उनके लिए यह पिछले दौर की तरह एक और अवसर भर है।
विडंबना यह है कि भोजपुरी सिनेमा को हर बार शून्य से शुरुआत करनी पड़ती है। सिनेमा के बाबत निर्माण और वितरण अधोरचनाएं विकसित नहीं हैं। वहां अब भी सिनेमा की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के तकनिकी और मानव संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। उसे अपने इलाके से सैकड़ों मिल दूर मुंबई में ही सारा काम-धाम करना पड़ता है। क्लैप ब्वाय से लेकर तमाम तकनिशियन तक के लिए वह मुंबई पर निर्भर है। उत्तर प्रदेश सरकार की सक्रियता की बदौलत स्टूडियो के नाम पर ले दे कर नोएडा फिल्म सिटी है लेकिन ज्यादातर फिल्मों की शूटिंग मिर्जापुर, जौनपुर, वाराणसी, पटना और हाजीपुर में होती है। जहां किसी तरह की तकनिकी या ढांचागत सुविधाएं नहीं हैं। लखनऊ के भारतेन्दु नाट्य संस्थान को छोड़ दें तो अभिनय के प्रशिक्षण के लिए कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। अभिनेताओं का तो काम चल जाता है लेकिन अभी भी अभिनेत्रियां दूसरे प्रदेशों की होती हैं।
बीस करोड़ की ठोस आबादी के मनोरंजन का बीड़ा जो उद्योग उठाने जा रहा है वह इस लंगड़ी व्यवस्था और परनिर्भरता के सहारे कितने दूर तक जायेगा इसके प्रति आशंका सहज है। नये दौर के पूंजी प्रवाह से उसकी तकनिकी काबिलियत भले ही बढ़ जाये, लेकिन कलात्मकता और अंतवर्स्तु में विकास या मौलिकता तब तक नहीं आ सकती जब तक कि इसमें स्थानीय प्रशिक्षित आवग की बढ़ोतरी न हो। अगर आज भी भोजपुरी फिल्में साठ के दशक के कथानक से बाहर नहीं निकलना चाहती हैं तो यह विकास नहीं ठहराव कहा जायेगा। और इसकी भी एक सीमा है। मौजूदा उफान को भोजपुरी बाजार का उफान तो कहा जा सकता है, सेंसेक्स की तरह जिसमें बुनियादी बदलाव से लापरवाह आसमानी उछाल संभव होते हैं। लेकिन भोजपुरी सिनेमा का उफान आना बाकी है। जाहिर सी बात है बाजार इसमें मददगार हो सकता है लेकिन असल काम तो इस भाषा में पले-बढ़े बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों के हाथ में है अगर सचमुच वे इसे अपना सिनेमा मानने को तैयार हों! ज्यादातर लोगों के लिए तो अभी भी यह अछूत माध्यम उर्फ कला है।
लालबहादुर

Friday, April 27, 2007

दिल्‍ली की हिन्‍दी पत्रकारिता

प्रेमनाथ चतुर्वेदी ने भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इस बात का जिक्र किया है कि टाइम्‍स समूह, नवभारत टाइम्‍स के लिए अच्‍छे संपादक रखना चाहता था। लेकिन उस समय का कोई भी बड़ा संपादक इस नौकरी में आने को तैयार नहीं था। सबका यही तर्क था कि नौकर बनने के बाद अपने मन की बात नहीं कही जा सकती। पत्रकार इब्‍बार रब्‍बी कहते हैं कि उस समय ब्‍यवसाय में धोखाधड़ी काफी थी। बैंक खुलते थे बंद होते थे। कंपनियां खुलती थीं और लोगों का पैसा लेकर दिवालिया घोषित हो जाती थीं। धन्‍ना सेठ पैसे का वारा न्‍यारा कर कहीं और दांव लगाने लगते थे। डालमिया समूह के पास भी उन दिनों एक बैंक था। भारत बैंक उसका दफतर दरियागंज में था। पहले नवभारत और बाद में नवभारत टाइम्‍स बने इस अखबार के कई कर्मचारी इस बैंक में नौकर थे। अक्षय कुमार जैन भी उनमें से एक थे। वह आगे चलकर बड़े प्रतिष्टित संपादक हुए। लेकिन इस जुगाड़ और कहीं का ईंट कहीं का गारा लेकर जो पत्रकारिता शुरू हुई उससे आजादी के पूर्व के मूल्‍य की कल्‍पना करना ही बेमानी था। श्री रब्‍बी कहते हैं कि पत्र-पत्रिकाएं धर्मार्थ निकाली गईं, यह बात पृत्रिकाओं के नाम से भी समझ में आ सकती है। धर्मयुग, नया ज्ञानोदय, फिर ज्ञानपीठ हालांकि यह सारे संस्‍थान में धार्मिक घेरे में कभी फंसे नहीं और प्रगतिशील धारा को अपना एजंडा बना लिया। हालांकि वह इस बात से इनकार नहीं करते कि हिन्‍दी प्रकाशनों में गहरी रूच‍ि उस प‍रिवार की रमा जैन की थी और बाद में इस समूह में जितने सितारे जुड़े वे रमा जैन की एकल अभिरूच‍ि के फलित थे। अज्ञेय, रघुवीर सहाय, मनोहरश्‍याम जोशी, सवे्रश्‍वरदयाल सक्‍सेना, श्रीकांत वर्मा और भी साहित्‍यकार थे जो इस समूह में जुड़े। रमा जैन के बाद हिन्‍दी प्रेम भी जाता रहा और पत्रिकाओं को चलाना महज औपचारिकता भर रह गई।
लालबहादुर

Thursday, April 26, 2007

अपनी बात

संगत में आपका स्‍वागत है। पहली पोस्‍ट की भाषा आपकी समझ में नहीं आयी होगी। माफ कीजिएगा। वह इसलिए कि लिखा तो हिन्‍दी में था लेकिन उसे उसी रूप में अपलोड कैसे किया जाए यह जानकारी नहीं थी। अपन करते हुए सीखने की धारा में विश्‍वास रखते हैं। अपने मित्र अविनाश को धन्‍यवाद देना चा‍हता हूं जिनके सौजन्‍य से अब से हम हिन्‍दी में बात कर सकते हैं। मेरी कोशिश होगी कि अपने अनुभवों से आपको रू ब रू करा सकूं। मैं जो सोचता समझता हूं वह आपके साथ साझा कर सकूं।
लाल बहादुर

Monday, April 16, 2007

बशीर बद्र का एक शेर

मित्रों आपके सुझाव के लिए धन्‍यवाद। बशीर बद्र साहब का नाम न दे पाना ब्‍लॉग पर आने के अतिउत्‍साह और ब्‍लॉगिंग की तकनीकी अज्ञानता के कारण ही हुआ। इस माध्‍यम मे उतरने और तकनीकी सहयोग के लिए अविनाश को साधुवाद। और आप सभी को भी जिन्‍होंने इस भयानक भूल की तरफ ईशारा किया।

कोई हाथ्‍ा भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो। बशीर बद्र