प्रेमनाथ चतुर्वेदी ने भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इस बात का जिक्र किया है कि टाइम्स समूह, नवभारत टाइम्स के लिए अच्छे संपादक रखना चाहता था। लेकिन उस समय का कोई भी बड़ा संपादक इस नौकरी में आने को तैयार नहीं था। सबका यही तर्क था कि नौकर बनने के बाद अपने मन की बात नहीं कही जा सकती। पत्रकार इब्बार रब्बी कहते हैं कि उस समय ब्यवसाय में धोखाधड़ी काफी थी। बैंक खुलते थे बंद होते थे। कंपनियां खुलती थीं और लोगों का पैसा लेकर दिवालिया घोषित हो जाती थीं। धन्ना सेठ पैसे का वारा न्यारा कर कहीं और दांव लगाने लगते थे। डालमिया समूह के पास भी उन दिनों एक बैंक था। भारत बैंक उसका दफतर दरियागंज में था। पहले नवभारत और बाद में नवभारत टाइम्स बने इस अखबार के कई कर्मचारी इस बैंक में नौकर थे। अक्षय कुमार जैन भी उनमें से एक थे। वह आगे चलकर बड़े प्रतिष्टित संपादक हुए। लेकिन इस जुगाड़ और कहीं का ईंट कहीं का गारा लेकर जो पत्रकारिता शुरू हुई उससे आजादी के पूर्व के मूल्य की कल्पना करना ही बेमानी था। श्री रब्बी कहते हैं कि पत्र-पत्रिकाएं धर्मार्थ निकाली गईं, यह बात पृत्रिकाओं के नाम से भी समझ में आ सकती है। धर्मयुग, नया ज्ञानोदय, फिर ज्ञानपीठ हालांकि यह सारे संस्थान में धार्मिक घेरे में कभी फंसे नहीं और प्रगतिशील धारा को अपना एजंडा बना लिया। हालांकि वह इस बात से इनकार नहीं करते कि हिन्दी प्रकाशनों में गहरी रूचि उस परिवार की रमा जैन की थी और बाद में इस समूह में जितने सितारे जुड़े वे रमा जैन की एकल अभिरूचि के फलित थे। अज्ञेय, रघुवीर सहाय, मनोहरश्याम जोशी, सवे्रश्वरदयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और भी साहित्यकार थे जो इस समूह में जुड़े। रमा जैन के बाद हिन्दी प्रेम भी जाता रहा और पत्रिकाओं को चलाना महज औपचारिकता भर रह गई।
लालबहादुर
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