नाजि़र हुसेन
नाज़िर हुसेन की ज़िद ना होती तो भोजपुरी की पहली फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` जगह विमल रॉय के निर्देशन में कोई हिन्दी फिल्म बनी होती। नाज़िर हुसेन ने काफी पहले इस फिल्म की पटकथा तैयार कर ली थी और निर्माता तलाश रहे थे। विमल रॉय को भी यह पटकथा पसंद आई थी, लेकिन वह इसे भोजपुरी की बजाय हिन्दी में बनाना चाहते थे। श्री हुसेन ने कहा था, ''इ फिलिमिया बनी त भोजपुरिये में बनीं चाहे जब बने।'' नाज़िर हुसेन के अभिनय का विकास विमल रॉय के स्कूल में हुआ था। हालांकि श्री रॉय से जुड़ने के पहले वे आज़ाद हिन्द फौज़ में सांस्कृतिक मोरचे के संयोजक थे। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद विपरीत परिस्थितियों में जब फौज़ का काम समेटा गया तब वह कोलकाता में श्री रॉय के स्कूल से जुड़ गये थे। अपने देस, अपनी मिट्टी और बानी से गहरा सरोकार उन्हें फौज़ के परिवेश से ही मिला होगा। वरना लाभ और लोभ में देश व समाज को बौना कर देनेवाले इस समय में विमल रॉय के बैनर को भला कौन ठुकराता। कुछ समय बाद ही नाज़िर हुसेन की ज़िद फलीभूत हुई और विश्वनाथ शाहाबादी जैसा एक और भोजपुरी प्रेमी मिला जिसने इस फिल्म के लिए पैसा लगाना स्वीकार किया। भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत करने और उसको जिंदा रखने में श्री हुसेन के अप्रतीम योगदान की बदौलत ही भोजपुरी सिनेमा उद्यो्ग से जुड़े लोग उन्हें अपना 'दादा साहेब फाल्के` मानते हैं।
फिल्म की दुनिया में नाजि़र हुसेन के नाम से प्रतिष्ठत मोहम्मद नज़ीर खान उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले के उसियां गांव के रहनेवाले थे। उनके पिता साहेबजाद खान इंडियन पेनीसुलर रेलवे के कर्मचारी थे। जिनके साथ वे लखनऊ में रहे। नाजि़र साहब की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा लखनऊ के उर्दू परिवेश में हुई थी। उन दिनों हर तरफ आजादी की लड़ाई का ज्वार था। श्री हुसेन आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गये। वर्ष १९४० व ४१ के दौर में पूर्वोत्तर प्रांतों में उन्होंने आजाद हिन्द फौज के क्षेत्र प्रचारक के रूप में काम किया। इन्हीं दिनों उनका जुड़ाव थिएटर और साहित्य से हुआ। स्वाध्याय के साथ-साथ उन्होंने लेखन का अभ्यास भी शुरू किया और फौज़ के साथियों में एक सांस्कृतिक टोली विकसित की। जनवरी १९४५ में आयोजित नेताजी के जन्म दिवस समारोह में नज़ीर हुसेन ने बंगाल में अकाल को केन्द्र मे रखकर 'बलिदान` नामक नाटक तैयार किया, जिसकी सराहना खुद नेताजी ने की थी। जब आइ.एन.ए. का काम समेटा गया तो वे कलकत्ता आ गये। यहीं उनकी मुलाकात विमल राय से हुई। और वे उनके साथ का करने लगे थे। विमल राय जब कलकत्ता से मुबई आए तो नाजि़र हुसेन भी उनकी टोली में थे। तब की प्रतिष्ठित फिल्म पत्रिका माधुरी में विमल रॉय संबंधी एक आलेख में फिल्म 'पहला आदमी` के बारे में लिखा है - यह फिल्म आजाद हिन्द फौज से संबंधित एक सत्य घटना पर बनायी गई थी। कहानी लिखी थी आजाद हिन्द फौज के श्री नाजि़र हुसेन ने। श्री हुसेन आजकल एक सफल सिनेमा कलाकार, लेखक निर्माता हैं। इन्हें लेखक और अभिनेता के रूप में विमल दा ने ही सबसे पहले प्रस्तुत किया था...``। विमल राय की 'सिपाही का सपना`, 'परख`, 'अछूत कन्या`, 'दो बीघा जमीन` और 'बन्दगी` जैसी फिल्मों में काम कर नाजि़र हुसेन ने चरित्र अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। १९२२ में जन्मे नज़ीर हुसेेन की २५ जनवरी १९८४ को जब देहांत हुआ तब तक हिन्दी व भोजपुरी की सौ से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके थे। उन्होंने कई भोजपुरी फिल्मों की पटकथा लिखी और निर्माण भी किया। इनमें 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबा`, 'लागी नाही छूटे रामा, 'हमार संसार`, 'बलम परदेसिया,` रूस गइले सैंया हमार, 'चनवा के ताके चकोर,`'चुटकी भर सिंदूर` (निर्देशन) आदि फिल्में प्रमुख हैं। नाज़िर हुसेन का ही यह आग्रह था कि भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग भोजपुर इलाके में हो। उन दिनों जब मुंबई से भोजपुर जाना अत्यंत कठिन था। और सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं था। श्री हुसेन अपनी टोली लेकर छोटे-शहरों और कस्बों और गांवों में शूटिंग करते थे। उन्होंने भोजपुर अंचल के घर, आंगन, बातचीत, खेती-किसानी और भोजपुरी संस्कार से जुड़ी बारीक से बारीक चीजों को अपनी फिल्मों के दृश्य का हिस्सा बनाया।
लाल बहादुर
श्री ओझा साहब, आपके चिठ्ठे पर आना हुआ. नजीर साहब का भोजपुरी फिल्मों के प्रति लगाव का यह नया रूप बताया.
ReplyDeleteआपकी संगत साधु की संगत सिद्ध होने वाली लगता है.
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