वह अक्सठर चुप रहता । कभी -कभार उसका बोलना इस भ्रम को तोड़ने के लिए किया गया प्रयास जैसा लगता कि वह गूंगा नहीं है। फुसफुसाती हुई आवाज जिसमें सावधानी बरती जा रही हो कि कोई दूसरा सुन न ले।
जब आप किसी पर इतनी सूक्ष्म ता से देख रहे हों तो यह दायित्वक बनता है कि उससे बात की जाए। उस चुप्पीक के कारण में उतरा जाए। लेकिन दिहाड़ी की भागदौड़ इतनी व्यकस्तत और थकाउ है कि कभी सुकून से बातचीत का कोई मौका नहीं मिलता। सवाल यह भी होता है कि किससे बात करें और किसे छोड़ दें। फिर सिलेबस की कीमत पर तो यह सब हो भी नहीं सकता। आते जाते एक-आध टोक-टाक हो जाए यही काफी है। कभी-कभार इतने भर से भी फर्क पड़ता है। एक दिन मुझे उसका लंबा पत्र मिला .....
सर, आप ठीक समझते हैं। मैं जो चाहता हूं वह कह नहीं पाता। बोलते हुए डर लगता है। पता नहीं, इसके लिए डर उपयुक्तम शब्द है या झिझक। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि बोलने को मुंह खोला, लेकिन आवाज कहीं और रह गयी। मेरी इस बात पर आपको हंसी आ सकती है, लेकिन यह सच है। कभी ऐसा भी हुआ कि जब तक बोलने या पूछने को तैयार हुआ तब तक किसी और ने वही बात कह दी। कक्षा में हर बात पर हां हूं करने वाले बहुत सारे सहपाठी मुद्दों को ठीक से नहीं जानते हैं या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन उनकी अति सक्रियता से मुझे डर लगता है। हालांकि उनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जो कुछ बोलना या पूछना चाहते हैं, लेकिन नहीं कर पाते। हम सभी अक्स,र औरों की हां में हां मिलाकर अक्सउर संतुष्ट रहते हैं। कक्षा की संयुक्त हां .... हमारे लिए सबसे खुशी का क्षण होता है। तब मुझे इस बात का गर्व होता है कि मैं भी उन लोगों में शामिल हूं जिनकी बातें ठीक से सुनी और स्वींकारी जाती हैं।
कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि जो लोग बोल रहे हैं, उनसे बेहतर बोल सकता हूं। बातचीत या बहस खतम होते ही खयाल आता है कि वहां तो यह कहा जा सकता था, कहना चाहिए था, लेकिन इस कंठ का क्याह करूं, मौके पर फूटता ही नहीं। खीझ आती है अपने उपर।
यहां बहुत से ऐसे लेखक, कवि, पत्रकार हैं जिनकी रचनाओं को पढ़ते हुए बहुत रोमांच होता था कि ऐसा लिखनेवाले लोग होते कैसे हैं। यह इच्छाक होती थी कि उन लोगों से कभी मिल पाता। तब कल्प ना में बहुत सारी बाते होतीं कि क्याह- क्याक पूछा जा सकता है। लेकिन अब जबकि ऐसे बहुत सारे लोगों से रोज मिलना संभव है, लगता है सवाल धुआं हो गये हैं। सवाल उठते भी हैं तो लगता है कि यह भी कोई बात है जो इतने बड़े लेखकों से पूछी जाए। पहले ऐसा लगता था कि कक्षा में बहुत सारे विद्यार्थी या अनजान समूह होने के चलते सवाल करना असहज लग रहा है। लेकिन कल जब आपके साथ अकेले बैठने का मौका मिला तो पता नहीं सवाल कहां चले गये। बहुत सी बातें जो अनायास सवाल की तरह मन में उमड़ती घुमड़ती रहती हैं – मौका मिलने पर पता नहीं कैसे गायब हो जाती हैं। समझ में ही नहीं आता कहां से बात शुरू करूं। ऐसा क्योंज होता है, सर ।
क्याम यह हीनताबोध है, ऐसा क्याऐ किसी खास वर्ग, भाषा, समाज और क्षेत्र का होने से हो रहा है? यह सब सोचते हुए मुझे अपने स्कू ल पर खुंदक आती है और उन शिक्षकों पर भी जो इसको न तो समझ सके और न ही बाहर निकालने में मदद की। लेकिन फिर लगता है दोष उनका नहीं है क्यों कि सैकड़ों की जमात में कहां संभव है कि एक एक बच्चेम पर ध्या न दे सकें। परंतु ऐसा उंची कक्षाओं में भी संभव हो पाएगा। आप सबकी बातें सुनते हुए या फिर साहित्ये से गुजरते हुए समझ में आता है कि मेरी समस्याी क्याभ है। परंतु मैं ठीक-ठीक समझ पा रहा हूं या नहीं, इसकी तसदीक कैसे की जाय यह समझ में नहीं आता। मैं क्याा हूं, क्याय कर सकता हूं, क्याि करना चाहिए, किस राह से जाना चाहिए बिल्कु ल समझ में नहीं आता। समस्या यह भी है कि कहां से शुरू करें। कैसे शुरू करें? कोई राह तो बताइये सर, सचमुच हम सीखना चाहते हैं। गुरु तो अंतर्यामी होता है। सर, जब आप कहते हैं कि आपलोगों के मिजाज पहचानता हूं मैं, तब मुझे यह लगता है कि काश, आप हमारे मन में गिरह बनाये सवालों को भी पहचान पाते।
यह एक ऐसे समय में लिखा गया खत है जब खबरों में फार्म बिकने की संख्याम है। लंबी लाइनों और बदहवास चेहरों की तसवीरें हैं। चिंता न करें, और भी राहें जैसे सुझावों से भरे परिशिष्टो हैं । किस महाविद्यालय का कांटा कितने पर आकर टिकता है इस लिहाज से यह सपनों के टूटने और बिखरने का समय भी है। वस्तुेत: यह कट का ऑफ का समय है।
कट ऑफ निन्यासनबे का हो या उनसठ का बारहवीं की बाधा तोड़ लेनेवालों को दिल्ली: से लेकर दिलदारनगर किसी न किसी कैंपस में जगह मिल ही जाएगी। 25 के लिए बनी व्य़वस्थाक में पचपन तक को फिट कर लिया जाएगा। समस्या का अंत यहीं नहीं है, लेकिन आगे की समस्याेओं से जुड़ी सूचनाएं खबरों की मंडी में जगह नहीं बना पातीं। कक्षाएं चल रही हैं या नहीं या कक्षाओं में क्याठ चल रहा है, भनक तक नहीं लगती। नामांकन के बाद सन्ना टा होता है। इस लंबे सन्नााटे में कितनी टूट फूट होती है, कितनों के दम घुटते हैं, किसके मन में क्याा उमड़-घुमड़ रहा है ; यह कौन जानता है या जानना चाहता है। इस खत में एक अदद पहचान और भरोसे की पुकार है। विभिन्नै दबाओं और शिथिल ढांचों में कसी हमारी शिक्षा व्यखवस्थाह में क्या इसे सुना जा सकेगा?
यह लेख जनसत्ता में 13 जून 2009 को दुनिया मेरे आगे कॉलम में प्रकाशित हो चुका है।