Friday, November 2, 2007

नेतृत्‍व से नया आकाश

यह पोस्‍ट तकनीकी गड़बड़ी के कारण दोबारा आ गया है माफ करेंगेअगर सही नेतृत्‍व न हो तो जनता और समाज में बिखराव स्‍वाभाविक है। सगठन छोटा हो या बड़ा इससे फर्क नहीं पड़ता। हर दायरे में इस बात को महसूस किया जा सकता है। और यह भी कि रिमोट कंट्रोल से मशीनें तो चलाई जा सकती हैं लेकिन किसी जैविक संस्‍थान को नहीं। इस संबंध में किसी के विपरीत अनुभव हो सकते हैं और वैकल्पिक भी कुछ लोग दुष्‍‍यंत को चेप सकते हैं कि ;... एक पत्‍थर तो तबीयत तो उछालो यारों...। लेकिन मामला तो तबियत का ही होता है कि वह बने या फिर बनी रहने दी जाये तो सही।
बहरहाल, दूरस्‍थ निदेशक के भरोसे चल रहे इस संस्‍थान में आजकल यह विखराव साफ दिख रहा है। संस्‍थान में चार नियमित कोर्स हैं। लेकिन ऐसा लग रहा है कि चारों अलग-अलग संस्‍थान के कोर्स हैं। सबकी दिशाएं अलग, मत अलग। कोई आपसी संगति नहीं है। विभाग निदेशकों का अहं इतना उदग्र है कि उसकी छाया विद्यार्थियों पर भी छायी दिख रही है। वह संस्‍थान कम एक विभाग के नागरिक ज्‍यादा नजर आने लगे हैं। संवाद, परस्‍परता, उदारता, सहिष्णुता, व्‍यापकता ... आदि होंगे किसी समय पत्रकारिता के मूल्‍य ( अभी भी कम से कम किताबी मूल्‍य तो हैं ही) यहां तो संकीर्णता के राष्‍ट्रीय बेर खाने में जनता लगी हुई है।
सबकुछ सर्वानुमति और सहमति से ही चले ऐसा एक सुखद स्‍वप्‍न ही हो सकता है। जहां भी दो लोग हों मतभेद होना स्‍वाभाविक है, और ज्‍यादा लोग हों तो जटिलता बढ़ती जाती है। मतभेद स्‍वाभाविक बहस को जन्‍म देता है और उससे हमारे विचारों पर सान चढ़ती है। लोकतांत्रिक परंपरा में मतभेद कोई अजूबा नहीं है, हां मतभेद जब मनभेद में बदलने लगे तो अवश्‍य ही चिंता का विषय हो जाता है। मनभेद टुच्‍चई को जन्‍म देते हैं। आप कोई बड़ी लाइन खींचने की बजाय लाइन मिटाने की नकारात्‍मक भूमिका की ओर बढ़ने लगते हैं। रुढि़यों के पेंच खुलते नहीं बल्कि संवादहीनता में कई तरह की नयी गलतफहमियां पैदा होती हैं और रूढि़यां और भी मजबूत होने लगती हैं।
इस तरह के विखराव के माहौल में एक कुशल नेतृत्‍व की जरूरत होती है। जो समूह, समाज या संस्‍थान की अधोमुख प्रवृत्तियों को उर्ध्‍वमुख कर सके। शायद इस स्थिति में सभी को सांस लेने और विकसित होने को नया आकाश मिल सके।

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