Monday, June 9, 2008

सुनना मंगलेश डबराल को

क्‍या आपने अपनी मां से कुछ सुना है


बचपन के बाद कभी यह मौका लगा है कि आप अपनी मां के साथ बैठें और उससे उनकी कहानियां सुनें। उनके समय में चलने वाले किस्सेत,घटनाएं जिस रूप में उन तक पहुंचीं और जिस तरह से उन्होंने याद रखा है। कवि मंगलेश डबराल कहते हैं कि उनकी मां के पास जैसे किस्से थे, उनको अगर दर्ज किया होता तो वह कुछ उसी तरह की होती जिनका अनुभव हमें मारक्‍वेज के 'सौ सालों के एकांत' से गुजरते हुए होता है।
पिछले दिनों साहित्य अकादेमी और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ने आइआइसी सभागार में कवि मंगलेश डबराल से मुलाकात का कार्यक्रम रखा। जहां तक मेरा संपर्क रहा है मंगलेश जी बहुत कम बोलते हैं। बिल्कुल काम भर। उनका यह व्यक्तित्व उनकी कविताओं में भी झलकता है। अरसा हुआ बनारस में पुस्तक मेले में असद जैदी और संभवत: वीरेन डंगवाल के साथ उन्हें मंच पर बोलते हुए सुना था। तब वक्तव्य‍ से अधिक उन्होंने कविताओं को ही समय दिया था।
पहली बार उन्हें इस तरह मंच से कवि, लेखक और पत्रकार मित्रों के बीच सुनना बहुत ही अलग किस्मन का अनुभव था। वस्तुत: आम जीवन में व्यंक्ति औपचारिकताओं में इतना उलझा रहता है कि जो वह है दिखाई ही नहीं देता – सब ठीक तो है, ...और कैसे हैं, क्या चल रहा है, बहुत बढि़या या किसी तत्कालीन मुद्दे पर छोटी प्रतिक्रिया भर तक ही होता है। इस तरह कुल जमा ऐसे टुकड़े होते हैं जिनसे मुकम्मल तसवीर बना पाना कठिन होता है। वैसे तसवीरें तो एक वाक्यि और एक दरश से जो बननी होती हैं बन जाती हैं। लेकिन वह कितनी आधारहीन होती हैं, इसका अनुभव उपरोक्त किसी गहन संवाद के जरिये ही हो पाता है।
मंगलेश ने बचपन से लेकर अब तक के मुख्य पड़ावों, भटकावों, संघर्षों की चर्चा की (उपलब्धियों के बारे में हम लोग जानते ही हैं और बाकी सब आयोजकों की ओर से वितरीत कवि के परिचय में छपा हुआ था)। इसमें उनका पहाड़ विशेष रूप से उपस्थित था। पहाड़ी इलाके के स्वच्छ तारों भरे आसमान की चादर लपेटे धूल धूसरित आंखों वाले नगर और महानगरों में उनकी यात्रा को सुनना एक लंबी कविता से गुजरना था। बल्कि एक रोचक फिल्‍म कह सकते हैं जिसमें उनकी चुहल, भोलापन, सरोकार, चिंताएं और खीझ वाले खूबसूरत शॉट्स थे। बचपन से ही एम एम का प्रश्ना पत्र बनाने का उनका ख्वाुब बहुत रोचक था। उन्होंाने अपने समय के उभार का जिक्र किया जब सामाजिकता मुख्यु स्वरर था। 'मैं, मेरा' से अधिक 'हम और हमारा' का समय था। उन्होंने कुछ संदर्भ भी रखे जब एक की सफलता से कइयों का काम चलता था। सामाजिकता से एकाकीपन की ओर बढ़ते इस समय से वे खासे चिंतित दिखे। उनका दुख यह था कि हिन्दी कवि (इसमें कथाकारों और पत्रकारों को भी जोड़ा जा सकता है) सामाजिक स्वर नहीं बन सका। उन्होंने इस बाजारवादी समय में मोबाइल और कलावा संस्कृति, सांप्रदायिकता आदि पर भी अपनी चिंताएं और अनुभव रखे। उनकी यह चौंकाने वाली आत्‍मस्‍वीकृति कि मैं साठ का हो चुका हूं और मेरी आवाज का कोई असर नहीं है। या फिर यह कि क्‍या मैं यह कहते हुए किसी से हाथ मिला सकता हूं कि मैं कवि...... एक तरह से हिन्दी बौद्धिक जगत की आत्मस्वीकृति कही जा सकती है। गौर फरमाएं तो कोई बड़ा नाम नहीं दिखाई देता जिसको सुनने, समझने और मानने को हिन्दी समाज तत्पर हो। और जब उन्‍होंने यह कहा कि कभी कभी लगता है कि मेरा जन्‍म ही नहीं हुआ .... तो आप समझ सकते हैं किस अंदाज में उन्‍होंने डेढ़ दो घटे तक लोगों को बांधे रखा।

1 comment:

  1. Manglesh Dabral, Vishnu Nagar, Manmohan, Asad Zaidi aadi bahu thode log hain, jo bolte hain to lagta hai ki ye abhi bhi sochte hain

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