Monday, December 6, 2010

नटबुंदेले का ताम्रपत्र

ताम्रपत्र के अंतिम दृश्‍य के बाद देर तक तालियां। नाटक के मुख्‍य किरदार आलोक चटर्जी के परिचय के बाद देर तक तालियां और निर्देशक अलखनंदन से परिचय के बाद बहुत देर तक तालियां। कोई भी कलात्‍मक कृति जब मन को छूती है तो उसकी प्रतिक्रिया छिपती नहीं। फूट पड़ती है।

लेकिन, औरतों पर कसे गए जुमले पर इतनी तालियां क्‍यों ? क्‍या ये जुमले तालियों के लिए ही जोड़े गए थे ? क्‍या एक अच्‍छे नाटक में इस तरह के जुमलों की पैबंद आवश्‍यक थी ? क्‍या नाटक के दौरान कसे गए जुमले मूल पाठ का हिस्‍सा थे । अगर हिस्‍सा थे भी तो क्‍या उस पाठ में समय के मुताबिक बदलाव नहीं किए जा सकते। निर्देशक इतनी छूट तो ले ही सकता है। सवाल यह भी है कि दर्शकों को जातिवादी, लैंगिग टिप्‍पणियां ही क्‍यों गुदगुदाती हैं। क्‍या इस दृश्‍य से या थिएटर में इस तरह की प्रतिक्रिया से यह माना जाए कि भोपाल का सुधि दर्शक वर्ग पुरूषवादी है ?

बहरहाल, नाटक अच्‍छा था और अभिनय सधा हुआ। सभी पात्र अपनी भूमिकाओं में फब रहे थे। संवाद चुस्‍त और चुटीले थे, जिसे अलखनंदन के नाटकों का हस्‍ताक्षर माना जाता है। बंगाली पृष्‍ठभूमि में रचा यह नाटक बीच में कुछ समय एक ढीलापन जरूर दिखा, लेकिन अंतत: अपने मूल कथ्‍य को ठीक से रखने में कामयाब रहा। इसके लेखक देवाशीष मजूमदार हैं। नाटक में एक ऐसे निम्‍न मध्‍यमवर्गीय परिवार की कहानी है जो मजबूरी से मुक्ति के लिए छोटे रास्‍ते पर चल पड़ता है। और समय की तथाकथित व्‍यावहारिकताओं में उलझ जाता है। इसे व्‍यावहारिकता नही, एक तरह की चालूगिरी कहना चाहिए।आजकल इस तकनीक को जीवन चलाने और उसमें सफल होने के राज के रूप में परोसा जा रहा है।
नाटक में सुखी होने का यह रास्‍ता दूर तक नहीं चल पाता, क्‍योंकि उसकी उलझनें इस परिवार को भी अपने लपेटे में लेने लगती हैं। एक व्‍यक्ति जो झूठ का स्‍वतंत्रता सेनानी बनता है, ताम्रपत्र हासिल करता है। लेकिन अपने इस स्‍वांग को हकीकत में जीने लगता है। इससे समस्‍याएं खड़ी होती हैं। टकराव होते हैं। अंतत: यह स्‍वांग ही उसे अपनी ठीक ठीक भूमिका को पहचानने में मदद करता है। आखिर कार वह चौतरफा फैली सड़ांध के खिलाफ तनकर खड़े होने की हिम्‍मत जुटाता है। आदिविद्रोही नामक इस नाट्य समारोह को सार्थक करता हुआ।
ऐसे समय में जब हर तरफ हार की चादर ओढ़कर सोई हुई जनता दिखती है, यह नाटक अलग संदेश्‍ा देता है।

अलख दा ! घर से बाहर जाते हुए बंगाली परिवारों में हमेशा आस्‍छी .....कहा जाता है, यानी अभी आया... या आ रहा हूं। आपने दुग्‍गा दुग्‍गा को तो पकड़ा, लेकिन इसे छोड़ क्‍यों दिया? कोई खास वजह ?

1 comment:

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