अपने यहां स्कूल से ही पढ़ाई का ऐसा सिलसिला शुरू होता है कि पढ़नेवाला/वाली किताब से बंधकर रह जाता है। चौतरफा कोशिश चलती रहती है कि आपको घेर बांध कर किताबों के भीतर प्रवेश दिला दिया जाए। आंख पोछते कंधे पर बस्ता बांधे जबरन स्कूल की चारदिवारी में धकेले जाते बच्चे देश के हर कोने का आम दृश्य है। वह तो भला हो संचिन तेंदुलकर, गीत सेठी, विश्वनाथन आनंद, पीटी उषा जैसी प्रतिभाओं का जिनने बरसों से जड़ हो गई कहावत - पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब खेलोगे कूदोगे ----- को चुनौती दी। ऐसे लोगों ने यह बताया कि दुनिया और भी है। जीने और सीखने के रास्ते और भी हैं।
लेकिन यहां पर खेल बनाम शिक्षा की बात नहीं करनी है। किताबों से बंधे रहने का सिलसिला जो स्कूलों में शुरू होता है वह स्कूल, कॉलेज होता हुआ अन्य पेशेवर पढ़ाइयों में भी अपना रंग दिखाता रहता है। ऐसे सौभाग्यशाली विद्यार्थी कम ही मिलेंगे जिन्हें साक्षरता की बजाए शिक्षा और रटने की जगह समझने को ओर प्रवृत किया गया हो। शायद हमने जो शिक्षा का ढांचा विकसित किया है उसका फोकस भी इस पर नहीं है। उत्तरप्रदेश और खासकर बिहार में तो पिछले कुछ वर्षों में स्कूलों की यह हालत रही है कि हजार विद्यार्थियों पर चार या पांच शिक्षक ही उपलब्ध रहे हैं। इसके अपवाद हो सकते हैं, लेकिन शिक्षक और छात्रों का अनुपात अत्यंत ही चिंताजनक रहा है। ऐसे में कोई शिक्षक किसी को क्या समझाएगा और कौन से कौशल विकसित कर पाएगा।
उत्साह में या फिर आलोचना में यह जरूर कहा जा सकता है कि शिक्षक चाहे तो क्या नहीं कर सकता है। लेकिन हर शिक्षक -क्या नहीं कर सकता - वाली मिट्टी का ही बना हो ऐसा मानकर नहीं चला जा सकता। अगर ऐसा हो पाता तो कोई बात ही नहीं थी। लिहाजा बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन, कोचिंग क्लासेस, गेस पेपर, चुनिंदा प्रश्न आदि के मकड़जाल में फंसना पड़ता है। इस मकड़जाल में एक ही उपाय काम करता है ज्ञान की सुई लगा दो। यह सुई किस मरीज पर कितना और कैसा असर करती है इसकी परवाह करने कोशिश यह तंत्र न तो करता है न ही करना चाहता है। और यह सब इसलिए होता है क्योंकि पूरा तंत्र परीक्षा केन्द्रित है। लिहाजा पूरी शिक्षा व्यवस्था एक अदद छापेखाने में तब्दिल होकर रह जाती है। जिसमें से हर साल मैट्रिक, इंटर, बीए, एमए और पीएचडी तक के फर्मे में भारी उत्पादन हो रहा है।
इसमें थोड़ी अतिरंजना लग सकती है लेकिन क्लास में आते ही विद्यार्थी प्रश्न कैसे लिखे जाएं, नोट्स कैसे बनाएं जाएं, की चिंता में लग जाएं तो इससे यही अर्थ निकलता है कि हमारी शिक्षा और यहां पर विशेष रूप से कहना होगा कि विश्वविद्यालयी शिक्षा में किस तरह का घून लगा हुआ है। परीक्षा परीक्षा .. परीक्षा । विद्यार्थी में अगर स्वत: सीखने और करते हुए सीखने का दीया नहीं जला है और परिसर के अलावा बाकी सजीव दुनिया से समाज से विद्यार्थी रिश्ता नहीं बना पाता तो आपको क्या लगता है चंद टेक्स्ट बुक, टृयूटोरियल और रियाज से कोई अच्छा पत्रकार बन सकता है। समस्या इन बच्चों में नहीं है, उस तंत्र में है जिसने इनकी प्रतिभा को अजीब तरह के खांचे में बंद सा कर दिया है जो परीक्षा और प्रश्नपत्र के अलावा कहीं देखता ही नहीं । इस ढांचे को तोड़ना एक बड़ी चुनौती है।
Dear Lal Bahadurji,
ReplyDeleteHats of to you for this wonderful attempt. This is a befitting reply to all who believe that we can not throw a stone in the sky. Once again I congratulate you on this vayage. Keep it up -
regards -
Pushker