उसदोपहर में बहनजी की बातों में एक किस्सा यह भी था ।
...मेरी बेटी तो पढ़ाई लिखाई के अलावा कुछ करती ही नहीं है। जब हमलोग वहां गए थे बहुत खराब लगता था। हमने देखा कि वह अपने रीडिंग डेस्क पर जमी रहती है और जार्ज किचेन में हैं। मैंने उसको टोका भी लेकिन उसका कहना था कि मेरा इस काम में मन ही नहीं लगता मां।
ठीक ही कह रही थी वह। बचपन से वह ऐसी ही है। छूकर किचेन का काम नहीं। पता नहीं कहां से यह बात उसके मन में घर कर गयी। कहती थी - उसका बस चले तो घर की डिजाइन से किचेन को खतम कर दे।
घर से हॉस्टल गयी तो वहां जरूरत ही नहीं पड़ी। मुझे तो डर लगता था कि शादी में कैसे निभेगी इसकी। लेकिन ईश्वर सबके लिए कुछ न कुछ सोचता है। अब देखो उसको ऐसा घर मिला जिसमें रसोई को लेकर कोई बहस ही नहीं है। सिर्फ जार्ज ही नहीं उसके भाई, उसके पिता भी किचेन में लगे रहते हैं। और किसी दबाव में नहीं मजे से। अपने यहां किस घर में ऐसा संभव है. कि मर्द किचेन में काम करें और औरतें रीडिंग डेस्क पर हों ।
मै तो वहां चंद दिनों की मेहमान थी, फिर भी मुझसे तो रहा नहीं गया। अपने यहां किचेन तो औरतों की नाभिनाल से बंधा है। बिना उसके सुबह शाम ही नहीं होती। तुमलोगों की उम्र में तो पता नहीं, लेकिन हम जिस उम्र में बड़े हुए हैं उसमें तो हमारी दुनिया की कल्पना ही इसके बगैर नहीं की जा सकती थी। जैसे रसोई औरत का पर्याय हो।
वहां से आने के बाद तुमलोगों से ऐसा कह पा रही हूं। लेकिन अपना काम तो उसके बगैर चला नहीं। ना ही उसके बिना दिन कटता है। ... पुरुषों को किचेन में खटर पटर करते देख उठ कर गयी उस तरफ। लेकिन वहां करूं क्या ? वहां का खान पान ही अलग है। अपना साजो समान भी वहां नहीं। रसोई से तो ऐसा नाता रहता है कि आंख मूंद कर भी उसमें जाओ तो कभी किसी गलत सामान पर हाथ नहीं पड़ेगा। ....लेकिन वहां तो से उसके घरवाले दौड़ पड़े .... नो ... नो ....अब उनसे कैसे कहूं कि बैठे बैठे उब्ा होने लगी है। कितना टीवी देखो, कितना घूमो। कड़छी, बेलन के बिना अपना जीवन कितना अधूरा लगने लगता है। ऐसा लगता है कि जन्म ही उनके साथ हुआ है । कि जहां आराम भी है वहां ये मन में खटकते रहते हैं।
बहनजी के अमेरिकी प्रवास में किचेन प्रसंग हम देर तक सुनते रहे। उन्होंने इस प्रसंग का अंत इस तरह किया --- बिल्कुल अनोखा परिवार है मिला है बेटी को। जार्ज के एक भाई ने सिर्फ इसलिए विवाह नहीं किया कि अपने नानाजी की देखभाल करेगा। नानाजी अस्सी पार कर गए हैं। उनका सारा काम करता है। और खुश है। मुझे तो अब अपने यहां यकीन नहीं होता कि बुजुर्गों की देखभाल के लिए कोई अपना जीवन दांव पर लगाएगा। दूसरों की सेवा को ही अपना जीवन मान लेगा।
यहां बार बार जिस जार्ज का नाम आ रहा था वह बहन जी का दामाद है । है वह अमेरिकी ही लेकिन कुछ अलग ।
आपके लेख से उन प्राचीनतम औरतों की याद आई जो घर में और बाहर भी अपना एक अदृश्य चूल्हा चौका रसोई जमा लेती हैं. एक अचूक सिद्धहस्थ व्याकरण की तरह, चाहे वह रेलगाड़ी का डब्बा हो या अस्पताल का वार्ड या धर्मशाला का कमरा. नीग्रो औरते अपना कांटीनेंट (अफ्रीका, गाने, माला, लचक, नाच, शोषण) साथ लेकर चलती हैं, भार या शिकायत की तरह नहीं बल्कि करुणा की संधियों की तरह.. वैसी ही हमारी बड़ी बहनें, भौजियां और मांए अपना चूल्हा, चौका, रसोई साथ लेकर चलती है. वही एक कैदखाना है उनकी आज़ादी का..
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