Saturday, December 1, 2007

तीर घाट मीर घाट

भाईसाब संस्‍थान से बाहर निकले तो आज चेहरा उतरा हुआ था। मैंने टोका नहीं। अपने अनुभ्‍ाव शेयर करने लगा ...बच्‍चों को कोई काम करने के आने को कहो तो पता नहीं किस काम में व्‍यस्‍त रहते हैं, कर ही नहीं पाते। ऐसा लगता है कि अपने यहां कक्षा में पढ़कर आने की आदत नहीं है। दूसरी जगहों पर, आशय विकसित देशों से है, कक्षा के पहले रीडिंग मैटीरियल दिया जाता है। छात्र उसको पढ़कर आते हैं, प्रस्‍तुति करते हैं, फिर सवाल जवाब होते हैं। लेकिन यहां देखो तो बच्‍चे बस टुकुर टुकुर ताकते रहते हैं,सवाल भी आप ही रखो और जवाब भी आप ही दो। दरअसल पढ़ाने का यह ढांचा बदलना चाहिए। ऐसा लगता है...
... भाई साब हां हूं कर रहे थे। मुझे लगा या तो वह उंघ रहे हैं या फिर किसी और चिंता में हैं। टोका कि सुन रहे हैं न..
.... बोलते रहो, मैं सुन रहा हूं और कुछ सोच भी रहा हूं - वे बोलने लगे थे।
दरअसल, मुझे भी यह बात बहुत दिन से सता रही है कि बच्‍चे ऐसे क्‍यों हैं। उनका क्‍लास में मन क्‍यों नही लगता। क्‍यों वे क्‍लास के समय भी इधर-उधर आते जाते दिख जाते हैं। क्‍या यह किसी खास शिक्षक की कक्षा में ही होता है या यह एक आम पैटर्न है। काम करके आने में उन्‍हें क्‍यों परेशानी है। क्‍या वह बात नहीं समझ पा रहे या फिर काम को टाल रहे हैं। ऐसी टालू वृत्‍त‍ि क्‍यों है....
कई बार उनके चेहरे को देख कर लगता है कि वे कहीं अंटके हुए हैं किसी तरह के बोझ में दबे हुए हैं। जो चाहते हैं वह कह नहीं पार रहे अथवा सामने वाले के गुजर जाने का इंतजार कर रहे हैं। अगर वह अपने शिक्षकों के समक्ष सवाल नहीं रख सकते, अपनी परेशानियों पर बात नहीं कर सकते तो फिर कहां बात करेंगे। क्‍या शिक्षक समचुच इस काब‍िल नहीं रहे‍ कि उनसे सहज होकर अपनी बात कही जा सके। क्‍या हमारे हाव-भाव में एक दूरी बरतने या उनकी अपेक्षाओं को इनकार करने की बात झलक रही है। क्‍या वे सचमुच शिक्षकों से असहज महसूस कर रहे हैं या इसका दिखावा कर रहे हैं। ......या उन्‍हें बस कुछ बना बनाया उत्‍तर चाहिए...रेडीमेड...कोई अचूक फारमूला... बौद्धिक कंज्‍युमर होते जा रहे हैं...
भाइसाब लगातार बोलते जा रहे थे। उनके सरोकार समझ में आ रहे थे और समस्‍याएं भी। लेकिन इसके लिए कोई बना बनाया उत्‍तर नहीं था। हम इस पर बातचीत कर सकते थे। बातचीत के जरिए उन छात्रों की वास्‍तविक कठिनाइयों को जान सकते थे । लेकिन क्‍या यह जानना एकतरफा जानना नहीं होगा । इसमें असली भागीदार तो छात्र ही हैं, उनके शामिल हुए बगैर किसी हल या समझ का कोई अर्थ नहीं होगा। कभी कभी किसी बात पर हमारे तार मिलते हैं और फिर बात कहीं और निकल जाती है मानों हम दो छोर पर बैठे हों - एक तीर घाट एक मीर घाट।
दिल्‍ली की ट्रैफिक और शोर शाराबे में हमारे बीच ये बातें देर तक उमड़ती घुमड़ती रहीं।

2 comments:

  1. यह समस्या तो हर अध्यापक के सामने आती है । कई बार मैंने इसका हल लगातार दो पीरियड पढ़ाकर पाया है । कई बार हर रोज एक या दो विद्यार्थियों को अलग से बुलाकर बात करके पाया है । बहुत सी बार हल नहीं भी निकला है । हमारे पढ़ाने की प्रणाली जिसमें बच्चों को केवल बने बनाए उत्तरों को याद रखना होता है भी इसके लिए भी बहुत सीमा तक जिम्मेवार है ।
    घुघूती बासूती

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