कक्षा की वह मौन जमात कोई साधारणीकरण नहीं है। इसमें जिन तीन स्तरों की चर्चा है वह रूढ़ नहीं हैं। कक्षा में आंतरिक गतिशीलता भी बनी रहती है। यानी शुरू में जो वाचाल दिख रहा है वह धीरे-धीरे बीच की कतार या फिर मौन जमात में शामिल हो सकता है। इसी तरह मौन जमात में शामिल सदस्य अगली पंक्ति में आ जाते हैं। दरअसल, यह तीन कतारें आम प्रवृत्ति को दर्शाती हैं।
सत्र शुरू होते ही अपना सिक्का जमाने की होड़ शुरू हो जाती है। परिचय सत्र आम तौर पर चमकदार होता भी है। लेकिन धीरे धीरे सभी अपनी जगहें तय कर लेते हैं। ऐसे ही एक विद्यार्थी की ताजा स्मृति है। वह अत्यंत मेधावी था। शुरुआती कक्षाओं में उसकी गतिशीलता, विचारों की स्पष्टता दिखी भी लेकिन अचानक उसे लगने लगा कि बाकी लोग उससे बेहतर हैं। उसे तो अभी बहुत कुछ सीखना है। धीरे-धीरे वह निष्क्रय होता गया। उससे उम्मीद थी की कक्षा की बहसों में, विभिन्न प्रक्रियाओं में उसकी उपस्थिति से नई जान आएगी, लेकिन उसने किनारा कर लिया। आखिरकार जब सत्र समाप्त होने आया, तब उसका आत्मविश्वास लौटा। ध्यान दिया जाए तो ऐसे बहुत से उदाहरण मिल सकते हैं जो कक्षा की अंदरुनी गतिशीलता बयान करते हों।
कक्षा की गतिशीलताओं में शिक्षक की भूमिका होती है। वह उत्प्रेरक भी हो सकता है और घातक भी । अपेक्षा तो उससे उत्प्रेरक की ही जाती है। संभव है कुछ प्रयासों का असर सकारात्मक दिखे भी और यह भी संभव है कि प्रतिक्रियाओं से बनी बातें बिगड़ जाएं। कक्षा को साथ लेकर चलने के तरीके में वाचाल लोगों को चुप कराना पड़ सकता है, ताकि औरों को मौका मिल सके। इस कदम के निहितार्थ को न समझा जाए तो उलटा असर हो सकता है। विद्यार्थी ऐसा सोच सकते हैं कि उनका दमन किया जा रहा है, अवसर छीने जा रहे हैं।
आम तौर पर इतनी बारीक बातें सोची नहीं जातीं और न ही इनकी परवाह की जाती है। समझो तो ठीक ना समझो तो ठीक का चलताउ तरीका व्यवहार में है। पैंतालिस मिनट या एक घंटा बोल कर कागज समेट लेना बहुत आसान तरीका है। दूसरा तरीका तलवार की धार पर चलना है। वह पूरी तरह प्रक्रिया में शामिल होने की मांग करता है। ऐसा सोचते हुए राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे लगे होर्डिंग की याद आ रही है - सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी।
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