Friday, October 2, 2009

एक दिन बस स्‍टॉप पर

एक ही शहर में बहुत दिनों तक गुम रहने के बाद
दोनों मिले

मिले तो मीठा कुछ, ठंडा कुछ, कुछ गरम गरम
उनके भीतर बहुत कुछ घटा
उबला

फिर वे उसी तरह बात करते घूमते रहे
गलियों में
जैसे बचपन की गलियों में जा पहुंचे हों

गली जहां मुड्ती है उसी जगह घर है उनका
जहां लौट सकते हैं निशंक, बैठ सकते हैं बिना किसी चिंता के
कि रात की रोटी कहां से आएगी
कल के बस का किराया भी
कहीं नहीं था उनके बीच

वह तो भला हो आउटर मुद्रिका का
जिसके तेज हार्न से उनकी तंद्रा टूटी
और उन्‍होंने देखा कि
अरे। हम तो एक ही बस स्‍टॉप पर खड़े हैं
जबकि
हमें जाना है विपरीत दिशाओं में
और पता नहीं घर पर सब्‍जी है या नहीं

कि कल तो फिर निकलना है दिहाड़ी पर

इस तरह कुछ देर ठिठके सकुचाते
एक दूसरे से हाथ मिलाते हुए
वे सड़क पर विदा हुए

कि
अगली बार जल्‍दी मिलेंगे
बातें बहुत सारी रह गयी हैं
जिन पर बात करनी है

वे जाते हुए हवा में हाथ उठाए
तेज आवाज में एक दूसरे से कुछ कह रहे थे
लेकिन गाडि़यां थीं कि उन्‍हें ओझल किये जा रही थीं
.....;

No comments:

Post a Comment