शैक्षिक लोन पर खुद सूद चुकाने का सरकार का निर्णय पढ़ाई लिखाई में लगे आर्थिक रूप से पिछड़े युवाओं के लिए बहुत बड़ी राहत है। आर्थिक असहायता के अंधेरे में यह विकास की खिड़की की तरह है । ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें विद्यार्थी का चयन किसी अच्छे कोर्स में तो हुआ लेकिन फीस नहीं होने के कारण वह पढ़ाई जारी नहीं कर पाया।
एक उदाहरण मेरे पास है। इस बार गांव जाने पर मुझे पता चला कि गांव के एक मुसलिम लड़के ने यूपी पॉलीटेक्नीक की प्रवेश परीक्षा पास किया था। पिछले कई वर्षों में गांव से पढ़ाई करनेवालों के लिए यह बहुत बड़ी सफलता थी, मुसलिम समाज के लिए तो दुर्लभ। क्योंकि गांवों में जिस तरह से स्कूली ढांचा तहस नहस हुआ है उसमें नाउम्मीदी बहुत है। लेकिन इस बच्चे के मामले में दूसरे किस्म की निराशा मिली। नामांकन लेने जब वह बक्सर से बलिया पहुंचा तो, उसे वहां पर फीस के बारे में बताया गया, गांव में कपड़े की सिलाई कर परिवार चला रहे उसके पिता के लिए वह फीस असंभव थी। लिहाजा वह वापस लौट आया। कुछ दिनों तक गुमसुम रहा, और आखिरकार पास के कॉलेज में बी.ए. में नामांकन करा लिया। उसने इस दुर्घटना की चर्चा अपने शिक्षकों और गांव में भी अन्य लोगों से नहीं की। क्यों नहीं की यह अलग सवाल है।
जरूरतमंद लोगों के लिए कई और योजनाएं, सहायता आदि की व्यवस्था संस्थान, कॉलेज या यूनीवर्सिटी के स्तर पर होती है। यह बात चौंकानेवाली है कि आखिर पॉलीटेक्नीक कॉलेज ने उस विद्यार्थी को उपलब्ध सूचनाएं क्यों नहीं दी। (संभव है उसके साथ सांप्रदायिक या क्षेत्रीय पूर्वाग्रह के कारण ऐसा हुआ हो) और ऐसी सूचनाएं न तो आम लोगों के पास होती हैं और न ही उनमें इसमें आत्मविश्वास कि कुछ जिरह भी कर सकें। यह कहने की बात नहीं है कि कुछ केन्द्रीय संस्थानों को छोड़ दें तो बाकी जगहों पर इसके बारे में विद्यार्थियों को सही सलाह देने वालो कोई उपलब्ध नहीं होता। ग्रामीण अंचलों में तो और भी स्थिति खराब है। ऐसे में कई बार होनहार लड़कों के लिए गांव गिरांव में चंदा बेहरी का ही आसरा रहता है। लेकिन सरकार के मौजूदा कदम से संभवत: उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी।
ऐसा तभी हो सकेगा जब जरूरतमंद लोगों की सही पहचान हो। शिक्षा संस्थानों, क्षेत्र के बैंकों में इसके बारे में जानकारी सहजता से उपलब्ध हो। शैक्षिक लोन कोई नयी खबर नहीं है, इसकी व्यवस्था पहले भी थी लेकिन सूद सहित। एक खास आय वर्ग के बाद अभी भी यही व्यवस्था होगी। लेकिन सूद के साथ भी लोन निकाल पाना कठिन कसरत रही है। ऐसी खबरें आम तौर पर सुनने में मिलती हैं कि बैंक के बाबू या मैनेजर किसी बिचालिये के जरिये जारी लोन का कुछ प्रतिशत भेंट स्वरूप मांगते हैं। बिना भेंट के यह लोन कतई संभव नहीं होता। अब जबकि सूद सरकार चुकाएगी, ऐसी घोषणा की जा चुकी है इस भेंट का दबाव और भी बढ़ सकता है। बहुत संभव है कि जरूरतमंद लोगों की बजाय यह लोन किसी और व्यक्ति या धंधे के काम आने लगे।
अच्छा रहेगा इस अवरोध से बचाव में छात्र संगठन, स्वयंसेवी संस्थाएं और शिक्षक समुदाय तथा जरूरत मंद तबके से जुड़े अन्य सामाजिक संगठन इसकी निगरानी करें और जरूरतमंदों की सहायता करें। ऐसा होने से एक बड़े तबके के लिए आगे बढ़ने, हुनरमंद होने का रास्ता खुलेगा। किसी खुर्शीद, चमनलाल, या शरीफ को किसी अनचाही कक्षा या लेन में मन मार कर नहीं बैठना पड़ेगा।
Sunday, April 27, 2008
Monday, April 14, 2008
नामांकन ही अंत नहीं है
ओबीसी के लिए उच्च शिक्षा में आरक्षण की हर तरफ बल्ले बल्ल्ो हो रही है। निश्चित रूप से यह एक ऐतिहासिक फैसला है। लेकिन अभी तक शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के जो अनुभव हैं जितने लोगों को संस्थाओं में प्रवेश मिल जाता है वह सभी वहां से सफल होकर या अच्छा अनुभव लेकर ही नहीं निकलते। कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें उन्हें बहुत ही खराब अनुभवों से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे अनुभवों की श्रृंखला कक्षा से खुद बाहर हो जाने से लेकर अपनी इहलीला समाप्त कर लेने की पराकाष्ठा तक है।
आरक्षण के साथ यह भी बहुत जरूरी है कि कक्षा के कार्यव्यापार में भी बदलाव लाये जायें। अभी तो कुछ वर्षों तक इस आरक्षण के खिलाफ प्रतिक्रियात्मक माहौल ही रहेगा। इसकी बहुत कम संभावना है कि शिक्षकों का व्यवहार आरक्षण से आए छात्रों के प्रति प्रतिक्रियात्मक हो लेकिन सहपाठियों में संघर्ष नहीं होगा ऐसा नहीं कहा जा सकता।
समावेश भोपाल, ने स्कूलों में जाति, धर्म, क्षेत्र, सामाजिक पिछड़ापन आदि को लेकर होनेवाली क्रियाओं प्रतिक्रियाओं का गहन अध्ययन करवाया था। कुछ चुनिंदा अनुभवों को 'दलित, आदिवासी और स्कूल' नाम से प्रकाशित भी किया गया था। शिक्षा को लेकर उत्साहित पहली पीढ़ी जब स्कूलों में पहुंचती है तो उसे किन समस्याओं से दो चार होना पड़ता है इसके बाबत चौंकाने वाले अनुभव आए हैं। जिस तरह का अलगाव और अंत:क्रियाएं बच्चों में इस तरह के सामाजिक विभाजनों को लेकर होती हैं संभवत: युवाओं में उतनी न रहती हों। एक कारण यह भी है कि वे इस स्तर पर आते आते काफी बच्चे पढ़ाई से बाहर हो जाते हैं और जो रह जाते हैं वह सहपाठियों से ताल मेल बिठा चुके होते हैं या फिर उनका संकल्प इतना उंचा होता है कि वे डिगते नहीं। लेकिन उनमें अधिकांश ऐसे होते हैं जिनमें समान्य वर्ग और पृष्ठभूमि से आए छात्रों जितना आत्मविश्वास नहीं होता। अगर आत्मविश्वास हो भी तो विभिन्न भाषाओं में बदलते बदलते उनकी लेखकीय अभिव्यक्ति उतनी पुष्ट नहीं हो पाती। मसलन एक कोरकू या गोंडी वाला बच्चा हिन्दी में स्कूल पास करता है और उच्च शिक्षा में आते आते उसे अंग्रेजी से जूझना पड़ता है। इस संक्रमण को झेलने के लिए जिस तरह के परिवेश और सहायता की जरूरत होती है, इसमें दो राय नहीं कि वह इन बच्चों को हासिल नहीं होती।
अगर मीडिया के अनुभवों की बात करें तो भारतीय जनसंचार संस्थान में पिछले दो वर्षों में यह भी दिखा कि उपरोक्त पृष्ठभूमि से आए अधिकांश ऐसे छात्रों को नौकरियां नहीं मिलीं। पहली नजर में तो यही लगता है कि मीडिया जिन कौशलों की मांग करता है वे उन पर खरा नहीं उतरे हों। लेकिन क्या सचमुच यह मामला कौशल तक ही सीमित है, यह अध्ययन का विषय है। योगेन्द्र यादव, अनिल चमडि़या और जितेंद्र के अध्ययन में मीडिया का जो रूप उभर कर सामने आया है उसको असर ऐसे अज्ञात कुलशीलों को बाहर रखने पर नहीं पड़ता होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मीडिया के अलावा बाकी अवसरों में ऐसे पूर्वाग्रह न काम करते हों इसकी कोई गारंटी नहीं ली जा सकती।
इस परिदृश्य में संस्थानों में प्रवेश सिर्फ एक कदम है, बाकी के दो कठिन मोड़ अभी भी बाकी हैं जहां काम करना अभी बाकी है।
आरक्षण के साथ यह भी बहुत जरूरी है कि कक्षा के कार्यव्यापार में भी बदलाव लाये जायें। अभी तो कुछ वर्षों तक इस आरक्षण के खिलाफ प्रतिक्रियात्मक माहौल ही रहेगा। इसकी बहुत कम संभावना है कि शिक्षकों का व्यवहार आरक्षण से आए छात्रों के प्रति प्रतिक्रियात्मक हो लेकिन सहपाठियों में संघर्ष नहीं होगा ऐसा नहीं कहा जा सकता।
समावेश भोपाल, ने स्कूलों में जाति, धर्म, क्षेत्र, सामाजिक पिछड़ापन आदि को लेकर होनेवाली क्रियाओं प्रतिक्रियाओं का गहन अध्ययन करवाया था। कुछ चुनिंदा अनुभवों को 'दलित, आदिवासी और स्कूल' नाम से प्रकाशित भी किया गया था। शिक्षा को लेकर उत्साहित पहली पीढ़ी जब स्कूलों में पहुंचती है तो उसे किन समस्याओं से दो चार होना पड़ता है इसके बाबत चौंकाने वाले अनुभव आए हैं। जिस तरह का अलगाव और अंत:क्रियाएं बच्चों में इस तरह के सामाजिक विभाजनों को लेकर होती हैं संभवत: युवाओं में उतनी न रहती हों। एक कारण यह भी है कि वे इस स्तर पर आते आते काफी बच्चे पढ़ाई से बाहर हो जाते हैं और जो रह जाते हैं वह सहपाठियों से ताल मेल बिठा चुके होते हैं या फिर उनका संकल्प इतना उंचा होता है कि वे डिगते नहीं। लेकिन उनमें अधिकांश ऐसे होते हैं जिनमें समान्य वर्ग और पृष्ठभूमि से आए छात्रों जितना आत्मविश्वास नहीं होता। अगर आत्मविश्वास हो भी तो विभिन्न भाषाओं में बदलते बदलते उनकी लेखकीय अभिव्यक्ति उतनी पुष्ट नहीं हो पाती। मसलन एक कोरकू या गोंडी वाला बच्चा हिन्दी में स्कूल पास करता है और उच्च शिक्षा में आते आते उसे अंग्रेजी से जूझना पड़ता है। इस संक्रमण को झेलने के लिए जिस तरह के परिवेश और सहायता की जरूरत होती है, इसमें दो राय नहीं कि वह इन बच्चों को हासिल नहीं होती।
अगर मीडिया के अनुभवों की बात करें तो भारतीय जनसंचार संस्थान में पिछले दो वर्षों में यह भी दिखा कि उपरोक्त पृष्ठभूमि से आए अधिकांश ऐसे छात्रों को नौकरियां नहीं मिलीं। पहली नजर में तो यही लगता है कि मीडिया जिन कौशलों की मांग करता है वे उन पर खरा नहीं उतरे हों। लेकिन क्या सचमुच यह मामला कौशल तक ही सीमित है, यह अध्ययन का विषय है। योगेन्द्र यादव, अनिल चमडि़या और जितेंद्र के अध्ययन में मीडिया का जो रूप उभर कर सामने आया है उसको असर ऐसे अज्ञात कुलशीलों को बाहर रखने पर नहीं पड़ता होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मीडिया के अलावा बाकी अवसरों में ऐसे पूर्वाग्रह न काम करते हों इसकी कोई गारंटी नहीं ली जा सकती।
इस परिदृश्य में संस्थानों में प्रवेश सिर्फ एक कदम है, बाकी के दो कठिन मोड़ अभी भी बाकी हैं जहां काम करना अभी बाकी है।
Sunday, April 6, 2008
समय के जोकर
निलय उपाध्याय के दूसरे संग्रह कटौती में एक कविता है जोकर। तकरीबन दस साल पहले लिखी गयी इस कविता की सामयिकता चूकी नहीं है अभी। हमारे समय और सत्ता के अंदाज का सटीक बयान है यह कविता। बाकी आप फैसला करेंगे। पेश है कविता
जोकर
सबसे पहले किसे जलील करते हैं जोकर ?
खुद को
उसके बाद किसको जलील करते हैं?
समाजियों और नर्तकों को
और उसके बाद ?
उसके बाद
बहुत आक्रामक हो जाती है जोकर मुद्रा
वे हंसते हुए उतार लेते हैं
देवताओं के कपड़े
जो जानते हैं अश्लीलता की ताकत
और समाज में
उसे सिद्ध करने की कला
सिर्फ जोकर नहीं होते
जोकर
सबसे पहले किसे जलील करते हैं जोकर ?
खुद को
उसके बाद किसको जलील करते हैं?
समाजियों और नर्तकों को
और उसके बाद ?
उसके बाद
बहुत आक्रामक हो जाती है जोकर मुद्रा
वे हंसते हुए उतार लेते हैं
देवताओं के कपड़े
जो जानते हैं अश्लीलता की ताकत
और समाज में
उसे सिद्ध करने की कला
सिर्फ जोकर नहीं होते
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