ओबीसी के लिए उच्च शिक्षा में आरक्षण की हर तरफ बल्ले बल्ल्ो हो रही है। निश्चित रूप से यह एक ऐतिहासिक फैसला है। लेकिन अभी तक शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के जो अनुभव हैं जितने लोगों को संस्थाओं में प्रवेश मिल जाता है वह सभी वहां से सफल होकर या अच्छा अनुभव लेकर ही नहीं निकलते। कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें उन्हें बहुत ही खराब अनुभवों से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे अनुभवों की श्रृंखला कक्षा से खुद बाहर हो जाने से लेकर अपनी इहलीला समाप्त कर लेने की पराकाष्ठा तक है।
आरक्षण के साथ यह भी बहुत जरूरी है कि कक्षा के कार्यव्यापार में भी बदलाव लाये जायें। अभी तो कुछ वर्षों तक इस आरक्षण के खिलाफ प्रतिक्रियात्मक माहौल ही रहेगा। इसकी बहुत कम संभावना है कि शिक्षकों का व्यवहार आरक्षण से आए छात्रों के प्रति प्रतिक्रियात्मक हो लेकिन सहपाठियों में संघर्ष नहीं होगा ऐसा नहीं कहा जा सकता।
समावेश भोपाल, ने स्कूलों में जाति, धर्म, क्षेत्र, सामाजिक पिछड़ापन आदि को लेकर होनेवाली क्रियाओं प्रतिक्रियाओं का गहन अध्ययन करवाया था। कुछ चुनिंदा अनुभवों को 'दलित, आदिवासी और स्कूल' नाम से प्रकाशित भी किया गया था। शिक्षा को लेकर उत्साहित पहली पीढ़ी जब स्कूलों में पहुंचती है तो उसे किन समस्याओं से दो चार होना पड़ता है इसके बाबत चौंकाने वाले अनुभव आए हैं। जिस तरह का अलगाव और अंत:क्रियाएं बच्चों में इस तरह के सामाजिक विभाजनों को लेकर होती हैं संभवत: युवाओं में उतनी न रहती हों। एक कारण यह भी है कि वे इस स्तर पर आते आते काफी बच्चे पढ़ाई से बाहर हो जाते हैं और जो रह जाते हैं वह सहपाठियों से ताल मेल बिठा चुके होते हैं या फिर उनका संकल्प इतना उंचा होता है कि वे डिगते नहीं। लेकिन उनमें अधिकांश ऐसे होते हैं जिनमें समान्य वर्ग और पृष्ठभूमि से आए छात्रों जितना आत्मविश्वास नहीं होता। अगर आत्मविश्वास हो भी तो विभिन्न भाषाओं में बदलते बदलते उनकी लेखकीय अभिव्यक्ति उतनी पुष्ट नहीं हो पाती। मसलन एक कोरकू या गोंडी वाला बच्चा हिन्दी में स्कूल पास करता है और उच्च शिक्षा में आते आते उसे अंग्रेजी से जूझना पड़ता है। इस संक्रमण को झेलने के लिए जिस तरह के परिवेश और सहायता की जरूरत होती है, इसमें दो राय नहीं कि वह इन बच्चों को हासिल नहीं होती।
अगर मीडिया के अनुभवों की बात करें तो भारतीय जनसंचार संस्थान में पिछले दो वर्षों में यह भी दिखा कि उपरोक्त पृष्ठभूमि से आए अधिकांश ऐसे छात्रों को नौकरियां नहीं मिलीं। पहली नजर में तो यही लगता है कि मीडिया जिन कौशलों की मांग करता है वे उन पर खरा नहीं उतरे हों। लेकिन क्या सचमुच यह मामला कौशल तक ही सीमित है, यह अध्ययन का विषय है। योगेन्द्र यादव, अनिल चमडि़या और जितेंद्र के अध्ययन में मीडिया का जो रूप उभर कर सामने आया है उसको असर ऐसे अज्ञात कुलशीलों को बाहर रखने पर नहीं पड़ता होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मीडिया के अलावा बाकी अवसरों में ऐसे पूर्वाग्रह न काम करते हों इसकी कोई गारंटी नहीं ली जा सकती।
इस परिदृश्य में संस्थानों में प्रवेश सिर्फ एक कदम है, बाकी के दो कठिन मोड़ अभी भी बाकी हैं जहां काम करना अभी बाकी है।
कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें उन्हें बहुत ही खराब अनुभवों से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे अनुभवों की श्रृंखला कक्षा से खुद बाहर हो जाने से लेकर अपनी इहलीला समाप्त कर लेने की पराकाष्ठा तक है।
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात.