चेहरे
सपाट
सन्नाटा है
परिसर में फैला
वितान भय का
बच्चे किताब हो गए हैं ।
Friday, December 18, 2009
Tuesday, November 3, 2009
एक रात सपने में मिले सद्दाम
फाइव स्टार होटल के गलियारे में सिगार सुलगाते हुए
वे स्वस्थ थे, जैसे कैद से पहले आजाद इराक में थे
इराक अब नहीं था उनकी जुबान पर
अब वह एक पर्यटक थे
उन्होंने कहा - हम सितारों में हैं - आज यहाँ कल वहां
कौन रोक सकता है हमें ???
उन्होंने मेजबानों की फेहरिस्त दिखाई
और उडानों के टिकेट भी
होगा कहीं इराक सिगार के धुएँ में
सपने में सद्दाम कहीं और का सपना देख रहे थे !
निशांत, २००३
राष्ट्रवाद एक छाता है
राष्ट्रवाद एक छाता है
किल कमानियों पर कसा
आंधी और बूंदों से थरथराता
कई बरसातों तक चल जाती है
उसकी यह संरचना
एक नहीं कई जमातों को बचाती या कि
वंचित रखती नैसर्गिक बूंदाबांदी से
सवाल तब उठता है जब बरसात न हो
और धूप नरम हो ----
निशांत, दिल्ली २००३
किल कमानियों पर कसा
आंधी और बूंदों से थरथराता
कई बरसातों तक चल जाती है
उसकी यह संरचना
एक नहीं कई जमातों को बचाती या कि
वंचित रखती नैसर्गिक बूंदाबांदी से
सवाल तब उठता है जब बरसात न हो
और धूप नरम हो ----
निशांत, दिल्ली २००३
Friday, October 2, 2009
एक दिन बस स्टॉप पर
एक ही शहर में बहुत दिनों तक गुम रहने के बाद
दोनों मिले
मिले तो मीठा कुछ, ठंडा कुछ, कुछ गरम गरम
उनके भीतर बहुत कुछ घटा
उबला
फिर वे उसी तरह बात करते घूमते रहे
गलियों में
जैसे बचपन की गलियों में जा पहुंचे हों
गली जहां मुड्ती है उसी जगह घर है उनका
जहां लौट सकते हैं निशंक, बैठ सकते हैं बिना किसी चिंता के
कि रात की रोटी कहां से आएगी
कल के बस का किराया भी
कहीं नहीं था उनके बीच
वह तो भला हो आउटर मुद्रिका का
जिसके तेज हार्न से उनकी तंद्रा टूटी
और उन्होंने देखा कि
अरे। हम तो एक ही बस स्टॉप पर खड़े हैं
जबकि
हमें जाना है विपरीत दिशाओं में
और पता नहीं घर पर सब्जी है या नहीं
कि कल तो फिर निकलना है दिहाड़ी पर
इस तरह कुछ देर ठिठके सकुचाते
एक दूसरे से हाथ मिलाते हुए
वे सड़क पर विदा हुए
कि
अगली बार जल्दी मिलेंगे
बातें बहुत सारी रह गयी हैं
जिन पर बात करनी है
वे जाते हुए हवा में हाथ उठाए
तेज आवाज में एक दूसरे से कुछ कह रहे थे
लेकिन गाडि़यां थीं कि उन्हें ओझल किये जा रही थीं
.....;
दोनों मिले
मिले तो मीठा कुछ, ठंडा कुछ, कुछ गरम गरम
उनके भीतर बहुत कुछ घटा
उबला
फिर वे उसी तरह बात करते घूमते रहे
गलियों में
जैसे बचपन की गलियों में जा पहुंचे हों
गली जहां मुड्ती है उसी जगह घर है उनका
जहां लौट सकते हैं निशंक, बैठ सकते हैं बिना किसी चिंता के
कि रात की रोटी कहां से आएगी
कल के बस का किराया भी
कहीं नहीं था उनके बीच
वह तो भला हो आउटर मुद्रिका का
जिसके तेज हार्न से उनकी तंद्रा टूटी
और उन्होंने देखा कि
अरे। हम तो एक ही बस स्टॉप पर खड़े हैं
जबकि
हमें जाना है विपरीत दिशाओं में
और पता नहीं घर पर सब्जी है या नहीं
कि कल तो फिर निकलना है दिहाड़ी पर
इस तरह कुछ देर ठिठके सकुचाते
एक दूसरे से हाथ मिलाते हुए
वे सड़क पर विदा हुए
कि
अगली बार जल्दी मिलेंगे
बातें बहुत सारी रह गयी हैं
जिन पर बात करनी है
वे जाते हुए हवा में हाथ उठाए
तेज आवाज में एक दूसरे से कुछ कह रहे थे
लेकिन गाडि़यां थीं कि उन्हें ओझल किये जा रही थीं
.....;
Thursday, July 16, 2009
गुरुजनों के नाम एक चिट़ठी
वह अक्सठर चुप रहता । कभी -कभार उसका बोलना इस भ्रम को तोड़ने के लिए किया गया प्रयास जैसा लगता कि वह गूंगा नहीं है। फुसफुसाती हुई आवाज जिसमें सावधानी बरती जा रही हो कि कोई दूसरा सुन न ले।
जब आप किसी पर इतनी सूक्ष्म ता से देख रहे हों तो यह दायित्वक बनता है कि उससे बात की जाए। उस चुप्पीक के कारण में उतरा जाए। लेकिन दिहाड़ी की भागदौड़ इतनी व्यकस्तत और थकाउ है कि कभी सुकून से बातचीत का कोई मौका नहीं मिलता। सवाल यह भी होता है कि किससे बात करें और किसे छोड़ दें। फिर सिलेबस की कीमत पर तो यह सब हो भी नहीं सकता। आते जाते एक-आध टोक-टाक हो जाए यही काफी है। कभी-कभार इतने भर से भी फर्क पड़ता है। एक दिन मुझे उसका लंबा पत्र मिला .....
सर, आप ठीक समझते हैं। मैं जो चाहता हूं वह कह नहीं पाता। बोलते हुए डर लगता है। पता नहीं, इसके लिए डर उपयुक्तम शब्द है या झिझक। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि बोलने को मुंह खोला, लेकिन आवाज कहीं और रह गयी। मेरी इस बात पर आपको हंसी आ सकती है, लेकिन यह सच है। कभी ऐसा भी हुआ कि जब तक बोलने या पूछने को तैयार हुआ तब तक किसी और ने वही बात कह दी। कक्षा में हर बात पर हां हूं करने वाले बहुत सारे सहपाठी मुद्दों को ठीक से नहीं जानते हैं या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन उनकी अति सक्रियता से मुझे डर लगता है। हालांकि उनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जो कुछ बोलना या पूछना चाहते हैं, लेकिन नहीं कर पाते। हम सभी अक्स,र औरों की हां में हां मिलाकर अक्सउर संतुष्ट रहते हैं। कक्षा की संयुक्त हां .... हमारे लिए सबसे खुशी का क्षण होता है। तब मुझे इस बात का गर्व होता है कि मैं भी उन लोगों में शामिल हूं जिनकी बातें ठीक से सुनी और स्वींकारी जाती हैं।
कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि जो लोग बोल रहे हैं, उनसे बेहतर बोल सकता हूं। बातचीत या बहस खतम होते ही खयाल आता है कि वहां तो यह कहा जा सकता था, कहना चाहिए था, लेकिन इस कंठ का क्याह करूं, मौके पर फूटता ही नहीं। खीझ आती है अपने उपर।
यहां बहुत से ऐसे लेखक, कवि, पत्रकार हैं जिनकी रचनाओं को पढ़ते हुए बहुत रोमांच होता था कि ऐसा लिखनेवाले लोग होते कैसे हैं। यह इच्छाक होती थी कि उन लोगों से कभी मिल पाता। तब कल्प ना में बहुत सारी बाते होतीं कि क्याह- क्याक पूछा जा सकता है। लेकिन अब जबकि ऐसे बहुत सारे लोगों से रोज मिलना संभव है, लगता है सवाल धुआं हो गये हैं। सवाल उठते भी हैं तो लगता है कि यह भी कोई बात है जो इतने बड़े लेखकों से पूछी जाए। पहले ऐसा लगता था कि कक्षा में बहुत सारे विद्यार्थी या अनजान समूह होने के चलते सवाल करना असहज लग रहा है। लेकिन कल जब आपके साथ अकेले बैठने का मौका मिला तो पता नहीं सवाल कहां चले गये। बहुत सी बातें जो अनायास सवाल की तरह मन में उमड़ती घुमड़ती रहती हैं – मौका मिलने पर पता नहीं कैसे गायब हो जाती हैं। समझ में ही नहीं आता कहां से बात शुरू करूं। ऐसा क्योंज होता है, सर ।
क्याम यह हीनताबोध है, ऐसा क्याऐ किसी खास वर्ग, भाषा, समाज और क्षेत्र का होने से हो रहा है? यह सब सोचते हुए मुझे अपने स्कू ल पर खुंदक आती है और उन शिक्षकों पर भी जो इसको न तो समझ सके और न ही बाहर निकालने में मदद की। लेकिन फिर लगता है दोष उनका नहीं है क्यों कि सैकड़ों की जमात में कहां संभव है कि एक एक बच्चेम पर ध्या न दे सकें। परंतु ऐसा उंची कक्षाओं में भी संभव हो पाएगा। आप सबकी बातें सुनते हुए या फिर साहित्ये से गुजरते हुए समझ में आता है कि मेरी समस्याी क्याभ है। परंतु मैं ठीक-ठीक समझ पा रहा हूं या नहीं, इसकी तसदीक कैसे की जाय यह समझ में नहीं आता। मैं क्याा हूं, क्याय कर सकता हूं, क्याि करना चाहिए, किस राह से जाना चाहिए बिल्कु ल समझ में नहीं आता। समस्या यह भी है कि कहां से शुरू करें। कैसे शुरू करें? कोई राह तो बताइये सर, सचमुच हम सीखना चाहते हैं। गुरु तो अंतर्यामी होता है। सर, जब आप कहते हैं कि आपलोगों के मिजाज पहचानता हूं मैं, तब मुझे यह लगता है कि काश, आप हमारे मन में गिरह बनाये सवालों को भी पहचान पाते।
यह एक ऐसे समय में लिखा गया खत है जब खबरों में फार्म बिकने की संख्याम है। लंबी लाइनों और बदहवास चेहरों की तसवीरें हैं। चिंता न करें, और भी राहें जैसे सुझावों से भरे परिशिष्टो हैं । किस महाविद्यालय का कांटा कितने पर आकर टिकता है इस लिहाज से यह सपनों के टूटने और बिखरने का समय भी है। वस्तुेत: यह कट का ऑफ का समय है।
कट ऑफ निन्यासनबे का हो या उनसठ का बारहवीं की बाधा तोड़ लेनेवालों को दिल्ली: से लेकर दिलदारनगर किसी न किसी कैंपस में जगह मिल ही जाएगी। 25 के लिए बनी व्य़वस्थाक में पचपन तक को फिट कर लिया जाएगा। समस्या का अंत यहीं नहीं है, लेकिन आगे की समस्याेओं से जुड़ी सूचनाएं खबरों की मंडी में जगह नहीं बना पातीं। कक्षाएं चल रही हैं या नहीं या कक्षाओं में क्याठ चल रहा है, भनक तक नहीं लगती। नामांकन के बाद सन्ना टा होता है। इस लंबे सन्नााटे में कितनी टूट फूट होती है, कितनों के दम घुटते हैं, किसके मन में क्याा उमड़-घुमड़ रहा है ; यह कौन जानता है या जानना चाहता है। इस खत में एक अदद पहचान और भरोसे की पुकार है। विभिन्नै दबाओं और शिथिल ढांचों में कसी हमारी शिक्षा व्यखवस्थाह में क्या इसे सुना जा सकेगा?
यह लेख जनसत्ता में 13 जून 2009 को दुनिया मेरे आगे कॉलम में प्रकाशित हो चुका है।
जब आप किसी पर इतनी सूक्ष्म ता से देख रहे हों तो यह दायित्वक बनता है कि उससे बात की जाए। उस चुप्पीक के कारण में उतरा जाए। लेकिन दिहाड़ी की भागदौड़ इतनी व्यकस्तत और थकाउ है कि कभी सुकून से बातचीत का कोई मौका नहीं मिलता। सवाल यह भी होता है कि किससे बात करें और किसे छोड़ दें। फिर सिलेबस की कीमत पर तो यह सब हो भी नहीं सकता। आते जाते एक-आध टोक-टाक हो जाए यही काफी है। कभी-कभार इतने भर से भी फर्क पड़ता है। एक दिन मुझे उसका लंबा पत्र मिला .....
सर, आप ठीक समझते हैं। मैं जो चाहता हूं वह कह नहीं पाता। बोलते हुए डर लगता है। पता नहीं, इसके लिए डर उपयुक्तम शब्द है या झिझक। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि बोलने को मुंह खोला, लेकिन आवाज कहीं और रह गयी। मेरी इस बात पर आपको हंसी आ सकती है, लेकिन यह सच है। कभी ऐसा भी हुआ कि जब तक बोलने या पूछने को तैयार हुआ तब तक किसी और ने वही बात कह दी। कक्षा में हर बात पर हां हूं करने वाले बहुत सारे सहपाठी मुद्दों को ठीक से नहीं जानते हैं या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन उनकी अति सक्रियता से मुझे डर लगता है। हालांकि उनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जो कुछ बोलना या पूछना चाहते हैं, लेकिन नहीं कर पाते। हम सभी अक्स,र औरों की हां में हां मिलाकर अक्सउर संतुष्ट रहते हैं। कक्षा की संयुक्त हां .... हमारे लिए सबसे खुशी का क्षण होता है। तब मुझे इस बात का गर्व होता है कि मैं भी उन लोगों में शामिल हूं जिनकी बातें ठीक से सुनी और स्वींकारी जाती हैं।
कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि जो लोग बोल रहे हैं, उनसे बेहतर बोल सकता हूं। बातचीत या बहस खतम होते ही खयाल आता है कि वहां तो यह कहा जा सकता था, कहना चाहिए था, लेकिन इस कंठ का क्याह करूं, मौके पर फूटता ही नहीं। खीझ आती है अपने उपर।
यहां बहुत से ऐसे लेखक, कवि, पत्रकार हैं जिनकी रचनाओं को पढ़ते हुए बहुत रोमांच होता था कि ऐसा लिखनेवाले लोग होते कैसे हैं। यह इच्छाक होती थी कि उन लोगों से कभी मिल पाता। तब कल्प ना में बहुत सारी बाते होतीं कि क्याह- क्याक पूछा जा सकता है। लेकिन अब जबकि ऐसे बहुत सारे लोगों से रोज मिलना संभव है, लगता है सवाल धुआं हो गये हैं। सवाल उठते भी हैं तो लगता है कि यह भी कोई बात है जो इतने बड़े लेखकों से पूछी जाए। पहले ऐसा लगता था कि कक्षा में बहुत सारे विद्यार्थी या अनजान समूह होने के चलते सवाल करना असहज लग रहा है। लेकिन कल जब आपके साथ अकेले बैठने का मौका मिला तो पता नहीं सवाल कहां चले गये। बहुत सी बातें जो अनायास सवाल की तरह मन में उमड़ती घुमड़ती रहती हैं – मौका मिलने पर पता नहीं कैसे गायब हो जाती हैं। समझ में ही नहीं आता कहां से बात शुरू करूं। ऐसा क्योंज होता है, सर ।
क्याम यह हीनताबोध है, ऐसा क्याऐ किसी खास वर्ग, भाषा, समाज और क्षेत्र का होने से हो रहा है? यह सब सोचते हुए मुझे अपने स्कू ल पर खुंदक आती है और उन शिक्षकों पर भी जो इसको न तो समझ सके और न ही बाहर निकालने में मदद की। लेकिन फिर लगता है दोष उनका नहीं है क्यों कि सैकड़ों की जमात में कहां संभव है कि एक एक बच्चेम पर ध्या न दे सकें। परंतु ऐसा उंची कक्षाओं में भी संभव हो पाएगा। आप सबकी बातें सुनते हुए या फिर साहित्ये से गुजरते हुए समझ में आता है कि मेरी समस्याी क्याभ है। परंतु मैं ठीक-ठीक समझ पा रहा हूं या नहीं, इसकी तसदीक कैसे की जाय यह समझ में नहीं आता। मैं क्याा हूं, क्याय कर सकता हूं, क्याि करना चाहिए, किस राह से जाना चाहिए बिल्कु ल समझ में नहीं आता। समस्या यह भी है कि कहां से शुरू करें। कैसे शुरू करें? कोई राह तो बताइये सर, सचमुच हम सीखना चाहते हैं। गुरु तो अंतर्यामी होता है। सर, जब आप कहते हैं कि आपलोगों के मिजाज पहचानता हूं मैं, तब मुझे यह लगता है कि काश, आप हमारे मन में गिरह बनाये सवालों को भी पहचान पाते।
यह एक ऐसे समय में लिखा गया खत है जब खबरों में फार्म बिकने की संख्याम है। लंबी लाइनों और बदहवास चेहरों की तसवीरें हैं। चिंता न करें, और भी राहें जैसे सुझावों से भरे परिशिष्टो हैं । किस महाविद्यालय का कांटा कितने पर आकर टिकता है इस लिहाज से यह सपनों के टूटने और बिखरने का समय भी है। वस्तुेत: यह कट का ऑफ का समय है।
कट ऑफ निन्यासनबे का हो या उनसठ का बारहवीं की बाधा तोड़ लेनेवालों को दिल्ली: से लेकर दिलदारनगर किसी न किसी कैंपस में जगह मिल ही जाएगी। 25 के लिए बनी व्य़वस्थाक में पचपन तक को फिट कर लिया जाएगा। समस्या का अंत यहीं नहीं है, लेकिन आगे की समस्याेओं से जुड़ी सूचनाएं खबरों की मंडी में जगह नहीं बना पातीं। कक्षाएं चल रही हैं या नहीं या कक्षाओं में क्याठ चल रहा है, भनक तक नहीं लगती। नामांकन के बाद सन्ना टा होता है। इस लंबे सन्नााटे में कितनी टूट फूट होती है, कितनों के दम घुटते हैं, किसके मन में क्याा उमड़-घुमड़ रहा है ; यह कौन जानता है या जानना चाहता है। इस खत में एक अदद पहचान और भरोसे की पुकार है। विभिन्नै दबाओं और शिथिल ढांचों में कसी हमारी शिक्षा व्यखवस्थाह में क्या इसे सुना जा सकेगा?
यह लेख जनसत्ता में 13 जून 2009 को दुनिया मेरे आगे कॉलम में प्रकाशित हो चुका है।
Saturday, February 21, 2009
एक अपील
प्यारे दोस्त,
आप सामाजिक रूप से सक्रिय, चिंतनशील और संवेदनाओ से भरे हैं. इसी नाते आपके कुछ अनुरोध करना है. सबसे पहले आपसे माफ़ी कि आपको व्यक्तिगत संबोधन के साथ नहीं लिख रहा हूँ. आप एक राजनीतिक काम की चुनौतियाँ समझते हुए मुझे माफ़ कर देंगे, ऐसी उम्मीद है.
'इंडिया-शायनिंग' और 'भारत-निर्माण' के सरकारी दावों के बीच मेहनतकश किसान-मजदूर या तो जलालत भरी जिंदगी जी रहें हैं या आत्म-हत्या कर रहें हैं. गाँव और बस्तियां उजड़ रही हैं. इस स्थिति की अनदेखी करना अब मुमकिन नहीं है. आज एक ओर अय्याशी के अड्डे बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर अपने ही देश की ७८ प्रतिशत जनता २० रुपये रोज से भी कम पर गुजर-बसर कर रही है. (अर्जुन सेनगुप्ता आयोग)
जरा कल्पना करके देखें कि २० रुपये रोज से भी कम पर जिंदगी कैसी होती होगी.
ऐसी भीषण स्थिति में हिंसा, द्वेष, अशांति और अस्थिरता पैदा होना स्वाभाविक है. इसे पुलिस या फौज से नहीं रोका जा सकता. भीख / दान या विकास कार्य के नाम पर कुछ टुकडे फ़ेंक देने से भी इस समस्या से छुटकारा नहीं मिल सकता. किसी पुराने रोग से मुक्त होने के लिए बुनियादी कारणों को समझना और दूर करना जरूरी होता है.
प्यार, शान्ति और न्याय से भरे समाज की और कुछ कदम बढ़ाने के इसी नज़रिए से एक अभियान शुरू हुआ है. इसमे आपके सहयोग का निवेदन है. आपसे यह अपेक्षा नहीं है कि आप अपनी बाकी जिम्मेदारियों को छोड़ कर इस अभियान में कूद जायें. आपका थोड़ा सा सहयोग भी प्यार, शान्ति और न्याय से भरा समाज बनाने की दिशा में अमूल्य योगदान होगा.
इस दिशा में क्या करना जरूरी है तथा आप और हम मिलजुल कर क्या कर सकते है, इसके लिए जल्द ही मिलने का मन बनाये. फ़ोन / चिट्टी / इ-मेल पर भी संवाद शुरू कर सकते है.
आपको इस अभियान की प्रेस-विज्ञप्ति भेज रहा हूँ. इसमें उठाये गए सवालों पर आपके विचार और टिप्पणी जान कर बहुत अच्छा लगेगा. अगर आपको यह अभियान उचित लगे तो आपसे अनुरोध होगा कि अपने अमूल्य समय और उर्जा का कुछ हिस्सा इसमें भी लगाया जाए.
स्नेह, आदर और शुभकामनायों के साथ,
पंकज पुष्कर
०११-२३९८१०१२ (फेक्स या संदेश देने के लिए)
९१ - ९८६८९८४४४२
आप सामाजिक रूप से सक्रिय, चिंतनशील और संवेदनाओ से भरे हैं. इसी नाते आपके कुछ अनुरोध करना है. सबसे पहले आपसे माफ़ी कि आपको व्यक्तिगत संबोधन के साथ नहीं लिख रहा हूँ. आप एक राजनीतिक काम की चुनौतियाँ समझते हुए मुझे माफ़ कर देंगे, ऐसी उम्मीद है.
'इंडिया-शायनिंग' और 'भारत-निर्माण' के सरकारी दावों के बीच मेहनतकश किसान-मजदूर या तो जलालत भरी जिंदगी जी रहें हैं या आत्म-हत्या कर रहें हैं. गाँव और बस्तियां उजड़ रही हैं. इस स्थिति की अनदेखी करना अब मुमकिन नहीं है. आज एक ओर अय्याशी के अड्डे बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर अपने ही देश की ७८ प्रतिशत जनता २० रुपये रोज से भी कम पर गुजर-बसर कर रही है. (अर्जुन सेनगुप्ता आयोग)
जरा कल्पना करके देखें कि २० रुपये रोज से भी कम पर जिंदगी कैसी होती होगी.
ऐसी भीषण स्थिति में हिंसा, द्वेष, अशांति और अस्थिरता पैदा होना स्वाभाविक है. इसे पुलिस या फौज से नहीं रोका जा सकता. भीख / दान या विकास कार्य के नाम पर कुछ टुकडे फ़ेंक देने से भी इस समस्या से छुटकारा नहीं मिल सकता. किसी पुराने रोग से मुक्त होने के लिए बुनियादी कारणों को समझना और दूर करना जरूरी होता है.
प्यार, शान्ति और न्याय से भरे समाज की और कुछ कदम बढ़ाने के इसी नज़रिए से एक अभियान शुरू हुआ है. इसमे आपके सहयोग का निवेदन है. आपसे यह अपेक्षा नहीं है कि आप अपनी बाकी जिम्मेदारियों को छोड़ कर इस अभियान में कूद जायें. आपका थोड़ा सा सहयोग भी प्यार, शान्ति और न्याय से भरा समाज बनाने की दिशा में अमूल्य योगदान होगा.
इस दिशा में क्या करना जरूरी है तथा आप और हम मिलजुल कर क्या कर सकते है, इसके लिए जल्द ही मिलने का मन बनाये. फ़ोन / चिट्टी / इ-मेल पर भी संवाद शुरू कर सकते है.
आपको इस अभियान की प्रेस-विज्ञप्ति भेज रहा हूँ. इसमें उठाये गए सवालों पर आपके विचार और टिप्पणी जान कर बहुत अच्छा लगेगा. अगर आपको यह अभियान उचित लगे तो आपसे अनुरोध होगा कि अपने अमूल्य समय और उर्जा का कुछ हिस्सा इसमें भी लगाया जाए.
स्नेह, आदर और शुभकामनायों के साथ,
पंकज पुष्कर
०११-२३९८१०१२ (फेक्स या संदेश देने के लिए)
९१ - ९८६८९८४४४२
Monday, February 16, 2009
चलना तलवार की धार पर
कक्षा की वह मौन जमात कोई साधारणीकरण नहीं है। इसमें जिन तीन स्तरों की चर्चा है वह रूढ़ नहीं हैं। कक्षा में आंतरिक गतिशीलता भी बनी रहती है। यानी शुरू में जो वाचाल दिख रहा है वह धीरे-धीरे बीच की कतार या फिर मौन जमात में शामिल हो सकता है। इसी तरह मौन जमात में शामिल सदस्य अगली पंक्ति में आ जाते हैं। दरअसल, यह तीन कतारें आम प्रवृत्ति को दर्शाती हैं।
सत्र शुरू होते ही अपना सिक्का जमाने की होड़ शुरू हो जाती है। परिचय सत्र आम तौर पर चमकदार होता भी है। लेकिन धीरे धीरे सभी अपनी जगहें तय कर लेते हैं। ऐसे ही एक विद्यार्थी की ताजा स्मृति है। वह अत्यंत मेधावी था। शुरुआती कक्षाओं में उसकी गतिशीलता, विचारों की स्पष्टता दिखी भी लेकिन अचानक उसे लगने लगा कि बाकी लोग उससे बेहतर हैं। उसे तो अभी बहुत कुछ सीखना है। धीरे-धीरे वह निष्क्रय होता गया। उससे उम्मीद थी की कक्षा की बहसों में, विभिन्न प्रक्रियाओं में उसकी उपस्थिति से नई जान आएगी, लेकिन उसने किनारा कर लिया। आखिरकार जब सत्र समाप्त होने आया, तब उसका आत्मविश्वास लौटा। ध्यान दिया जाए तो ऐसे बहुत से उदाहरण मिल सकते हैं जो कक्षा की अंदरुनी गतिशीलता बयान करते हों।
कक्षा की गतिशीलताओं में शिक्षक की भूमिका होती है। वह उत्प्रेरक भी हो सकता है और घातक भी । अपेक्षा तो उससे उत्प्रेरक की ही जाती है। संभव है कुछ प्रयासों का असर सकारात्मक दिखे भी और यह भी संभव है कि प्रतिक्रियाओं से बनी बातें बिगड़ जाएं। कक्षा को साथ लेकर चलने के तरीके में वाचाल लोगों को चुप कराना पड़ सकता है, ताकि औरों को मौका मिल सके। इस कदम के निहितार्थ को न समझा जाए तो उलटा असर हो सकता है। विद्यार्थी ऐसा सोच सकते हैं कि उनका दमन किया जा रहा है, अवसर छीने जा रहे हैं।
आम तौर पर इतनी बारीक बातें सोची नहीं जातीं और न ही इनकी परवाह की जाती है। समझो तो ठीक ना समझो तो ठीक का चलताउ तरीका व्यवहार में है। पैंतालिस मिनट या एक घंटा बोल कर कागज समेट लेना बहुत आसान तरीका है। दूसरा तरीका तलवार की धार पर चलना है। वह पूरी तरह प्रक्रिया में शामिल होने की मांग करता है। ऐसा सोचते हुए राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे लगे होर्डिंग की याद आ रही है - सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी।
सत्र शुरू होते ही अपना सिक्का जमाने की होड़ शुरू हो जाती है। परिचय सत्र आम तौर पर चमकदार होता भी है। लेकिन धीरे धीरे सभी अपनी जगहें तय कर लेते हैं। ऐसे ही एक विद्यार्थी की ताजा स्मृति है। वह अत्यंत मेधावी था। शुरुआती कक्षाओं में उसकी गतिशीलता, विचारों की स्पष्टता दिखी भी लेकिन अचानक उसे लगने लगा कि बाकी लोग उससे बेहतर हैं। उसे तो अभी बहुत कुछ सीखना है। धीरे-धीरे वह निष्क्रय होता गया। उससे उम्मीद थी की कक्षा की बहसों में, विभिन्न प्रक्रियाओं में उसकी उपस्थिति से नई जान आएगी, लेकिन उसने किनारा कर लिया। आखिरकार जब सत्र समाप्त होने आया, तब उसका आत्मविश्वास लौटा। ध्यान दिया जाए तो ऐसे बहुत से उदाहरण मिल सकते हैं जो कक्षा की अंदरुनी गतिशीलता बयान करते हों।
कक्षा की गतिशीलताओं में शिक्षक की भूमिका होती है। वह उत्प्रेरक भी हो सकता है और घातक भी । अपेक्षा तो उससे उत्प्रेरक की ही जाती है। संभव है कुछ प्रयासों का असर सकारात्मक दिखे भी और यह भी संभव है कि प्रतिक्रियाओं से बनी बातें बिगड़ जाएं। कक्षा को साथ लेकर चलने के तरीके में वाचाल लोगों को चुप कराना पड़ सकता है, ताकि औरों को मौका मिल सके। इस कदम के निहितार्थ को न समझा जाए तो उलटा असर हो सकता है। विद्यार्थी ऐसा सोच सकते हैं कि उनका दमन किया जा रहा है, अवसर छीने जा रहे हैं।
आम तौर पर इतनी बारीक बातें सोची नहीं जातीं और न ही इनकी परवाह की जाती है। समझो तो ठीक ना समझो तो ठीक का चलताउ तरीका व्यवहार में है। पैंतालिस मिनट या एक घंटा बोल कर कागज समेट लेना बहुत आसान तरीका है। दूसरा तरीका तलवार की धार पर चलना है। वह पूरी तरह प्रक्रिया में शामिल होने की मांग करता है। ऐसा सोचते हुए राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे लगे होर्डिंग की याद आ रही है - सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी।
Wednesday, February 11, 2009
कक्षा की वह मौन जमात
कक्षा की अपनी गतिकी होती है। इसमें कक्षा में उपस्थित विद्यार्थियों की पृष्ठभूमि, उनके आपसी रिश्ते , शिक्षक से उनके संबंध आदि महत्वपूर्ण कारक होते हैं। यहां हम कुछ सामान्य प्रवृत्तियों पर चर्चा करेंगे जो प्राइमरी से पीजी तक हर जगह दिखायी देती है। हर कक्षा में पांच से दस फीसदी चमकती प्रतिभा वाले या मुखर विद्यार्थी होते हैं। वे शिक्षक की हर गतिविधि पर न केवल प्रतिक्रिया देते हैं बल्कि सारी गतिविधि अपने आस-पास सीमित कर लेना चाहते हैं। कहा जा सकता है कि अपने बीच ही शिक्षक को अटकाए रखते हैं। कालक्रम में उनकी गतिशीलता कक्षा पर इस कदर हावी होती है कि वे ड्राइविंग सीट पर होते हैं जहां चाहते हैं वहां कक्षा को ले जाते हैं।
लेकिन इनके ठीक पीछे दूसरा समूह होता है। जो मुखर तो नहीं होता लेकिन इस तरह से मुखर विद्यार्थियों के छा जाने से आक्रोश में रहता है। सीधे तो नहीं लेकिन गाहे बगाहे ऐसे मौके की ताक में रहता है जब अपनी शिकायत दर्ज करायी जा सके। कभी-कभार वह सक्रिय हो भी जाता है लेकिन इसमें कोई निरंतरता नहीं रहती। बल्कि उसे अपनी सक्रियता पर पूरा भरोसा नहीं होता। उनको यह भी लगता रहता है कि बाजी हाथ से जा चुकी है ऐसा करके भी वे ड्राइविंग सीट पर नहीं आ सकते।
सबसे बड़ी वह संख्या होती है जो एकदम ही निस्प्रीह होती है। कक्षा में अगर हां हो रही है तो हां और ना हो रही है तो ना की पक्षधर। वह इन तमाम गतिविधियों लेन-देन के क्यों में नहीं पड़ना चाहती। जो भी हो रहा है ठीक ही हो रहा होगा। इस श्रेणी को खुद पर बिल्कुल ही भरोसा नहीं होता, भय यह होता है कि अगर हां या ना के पक्ष में अधिक मुखर हुए तो कारण बताना पड़ सकता है और ऐसा मौका अपमानजनक होगा। जो सही या गलत है धीरे-धीरे उसका पता तो चल ही जाएगा।
सबसे अधिक घाटा कक्षा के इस मौन संप्रदाय को ही उठाना पड़ता है। शिक्षाविद ऐसा बताते हैं कि एक शिक्षक के लिए सबसे बड़ी चुनौती इस संप्रदाय की तत्काल पहचान कर लेने की होती है। और आदर्श यही है कि कक्षा की प्रगति का मानदंड इस पंक्ति में हो रहे विकास को बनाया जाए। सफल शिक्षकों की कहानी के स्रोत इसी कतार में ढूंढे जा सकते हैं।
लेकिन इनके ठीक पीछे दूसरा समूह होता है। जो मुखर तो नहीं होता लेकिन इस तरह से मुखर विद्यार्थियों के छा जाने से आक्रोश में रहता है। सीधे तो नहीं लेकिन गाहे बगाहे ऐसे मौके की ताक में रहता है जब अपनी शिकायत दर्ज करायी जा सके। कभी-कभार वह सक्रिय हो भी जाता है लेकिन इसमें कोई निरंतरता नहीं रहती। बल्कि उसे अपनी सक्रियता पर पूरा भरोसा नहीं होता। उनको यह भी लगता रहता है कि बाजी हाथ से जा चुकी है ऐसा करके भी वे ड्राइविंग सीट पर नहीं आ सकते।
सबसे बड़ी वह संख्या होती है जो एकदम ही निस्प्रीह होती है। कक्षा में अगर हां हो रही है तो हां और ना हो रही है तो ना की पक्षधर। वह इन तमाम गतिविधियों लेन-देन के क्यों में नहीं पड़ना चाहती। जो भी हो रहा है ठीक ही हो रहा होगा। इस श्रेणी को खुद पर बिल्कुल ही भरोसा नहीं होता, भय यह होता है कि अगर हां या ना के पक्ष में अधिक मुखर हुए तो कारण बताना पड़ सकता है और ऐसा मौका अपमानजनक होगा। जो सही या गलत है धीरे-धीरे उसका पता तो चल ही जाएगा।
सबसे अधिक घाटा कक्षा के इस मौन संप्रदाय को ही उठाना पड़ता है। शिक्षाविद ऐसा बताते हैं कि एक शिक्षक के लिए सबसे बड़ी चुनौती इस संप्रदाय की तत्काल पहचान कर लेने की होती है। और आदर्श यही है कि कक्षा की प्रगति का मानदंड इस पंक्ति में हो रहे विकास को बनाया जाए। सफल शिक्षकों की कहानी के स्रोत इसी कतार में ढूंढे जा सकते हैं।
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