Wednesday, December 8, 2010

भारत भवन में इस्‍मत आपा

आदिविद्रोही नाट्य महोत्‍सव में आज लाइन में नहीं लगना पड़ा। पत्रकारिता में रहने या पत्रकारिता से जुडे होने से इतना तो लाभ मिलता ही है। माफ करें, लाभ की बात थोड़ी गलत निकल गयी, आजकल स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले का जिक्र जो है। लेकिन सामान्‍य जीवन का यही लाभ कहीं बड़े स्‍तर पर जाकर स्‍पेक्‍ट्रम में तो नहीं बदल जाता ! भाईसाब को ऐसा ही लगा। लाइन तोड़कर आगे जानेवालों को लोग यही कह रहे थे - भाईसाब पढ़े लिखे तो हो।
बात भाईसाब को लग गई और उन्‍होंने थिएटर के अंदर जाने की पत्रकारीय सुविधा को छोड़कर बाहर लगी स्‍क्रीन पर ही नाटक देखना पसंद किया।

नसीरुद्दीन शाह निर्देशित 'इस्‍मत आपा के नाम' के इस प्रदर्शन को देखने के लिए भीड़ कुछ इस तरह उमड़ी कि भारत भवन का अंतरंग छोटा पड़ गया। ठंड में भी लोग हॉल के बाहर लगे स्‍क्रीन के सामने डटे रहे। ऐसा तब भी हुआ, जबकि ऐन वक्‍त पर नसीर का आना रद्द हो गया था। रत्‍ना शाह पाठक ने बताया कि वे किंचित अस्‍वस्‍थ हैं इसलिए नहीं आ सके।

मुंबई के मोट्ले समूह की इस्‍ा प्रस्‍तुति में इस्‍मत आपा यानी इस्‍मत चुगताई की तीन कहानियां - छुईमुई, 'मुगल बच्‍चा' और 'दो हाथ' शामिल थीं। आम तौर पर नाटक में एक कहानी को कई किरदार मिलकर प्रस्‍तुत करते हैं। इन किरदारों की भूमिका में अलग-अलग लोग रहते हैं। लेकिन यहां पर एक कहानी को एक ही पात्र कह रहा था। इस तरह अकेले ही वह कई पात्रों को जी रहा था। और जैसा कि कहानी में होता है वह लेखन बनकर भी उपस्थित हो रहा था। इन कहानियों को क्रमश: हीबा शाह, रत्‍ना पाठक शाह और सीमा पाहवा ने प्रस्‍तुत किया।' दो हा'थ के पाठ में तो सीमा पाहवा ने दर्शक दीर्घा को भी अपनी किस्‍सागोई में शामिल कर लिया।
इस्‍मत आपा की कहानियां हमें आम जनजीवन के पात्रों से मिलवाती हैं। उनकी भाषा में आम लोगों की मस्‍ती है। कहानियों में इतनी संजीदगी है कि उनकी मुरीद मनीषा कहती हैं, ''इस्‍मत की कहानियों से गुजरते हुए आपको अक्‍सर लगेगा थोड़ी देर किताब को किनारे रखकर जी भर हंस लें।'' लेकिन हंसी के बरक्‍श वे दुख का जो रूप हमारे सामने रखतीं हैं, वह काफी गहरा है। अपने कहन में सुख-दुख, आम और भद्रलोक का विरोधाभास जितनी आसानी से और मारक शैली में वह खड़ा करती हैं, अद्भुत है।
मंच पर कही गयी ये कहानियां दर्शकों में इस्‍मत को फिर से पढ़ने का चाव जगाती हैं। और जैसा कि नाटक के इस फार्म को अपनाने की भूमिका में रत्‍ना पाठक शाह ने कहा भी - इन कहानियों को मंच के जरिए नई पीढ़ी के बीच ले जाना है।

Monday, December 6, 2010

नटबुंदेले का ताम्रपत्र

ताम्रपत्र के अंतिम दृश्‍य के बाद देर तक तालियां। नाटक के मुख्‍य किरदार आलोक चटर्जी के परिचय के बाद देर तक तालियां और निर्देशक अलखनंदन से परिचय के बाद बहुत देर तक तालियां। कोई भी कलात्‍मक कृति जब मन को छूती है तो उसकी प्रतिक्रिया छिपती नहीं। फूट पड़ती है।

लेकिन, औरतों पर कसे गए जुमले पर इतनी तालियां क्‍यों ? क्‍या ये जुमले तालियों के लिए ही जोड़े गए थे ? क्‍या एक अच्‍छे नाटक में इस तरह के जुमलों की पैबंद आवश्‍यक थी ? क्‍या नाटक के दौरान कसे गए जुमले मूल पाठ का हिस्‍सा थे । अगर हिस्‍सा थे भी तो क्‍या उस पाठ में समय के मुताबिक बदलाव नहीं किए जा सकते। निर्देशक इतनी छूट तो ले ही सकता है। सवाल यह भी है कि दर्शकों को जातिवादी, लैंगिग टिप्‍पणियां ही क्‍यों गुदगुदाती हैं। क्‍या इस दृश्‍य से या थिएटर में इस तरह की प्रतिक्रिया से यह माना जाए कि भोपाल का सुधि दर्शक वर्ग पुरूषवादी है ?

बहरहाल, नाटक अच्‍छा था और अभिनय सधा हुआ। सभी पात्र अपनी भूमिकाओं में फब रहे थे। संवाद चुस्‍त और चुटीले थे, जिसे अलखनंदन के नाटकों का हस्‍ताक्षर माना जाता है। बंगाली पृष्‍ठभूमि में रचा यह नाटक बीच में कुछ समय एक ढीलापन जरूर दिखा, लेकिन अंतत: अपने मूल कथ्‍य को ठीक से रखने में कामयाब रहा। इसके लेखक देवाशीष मजूमदार हैं। नाटक में एक ऐसे निम्‍न मध्‍यमवर्गीय परिवार की कहानी है जो मजबूरी से मुक्ति के लिए छोटे रास्‍ते पर चल पड़ता है। और समय की तथाकथित व्‍यावहारिकताओं में उलझ जाता है। इसे व्‍यावहारिकता नही, एक तरह की चालूगिरी कहना चाहिए।आजकल इस तकनीक को जीवन चलाने और उसमें सफल होने के राज के रूप में परोसा जा रहा है।
नाटक में सुखी होने का यह रास्‍ता दूर तक नहीं चल पाता, क्‍योंकि उसकी उलझनें इस परिवार को भी अपने लपेटे में लेने लगती हैं। एक व्‍यक्ति जो झूठ का स्‍वतंत्रता सेनानी बनता है, ताम्रपत्र हासिल करता है। लेकिन अपने इस स्‍वांग को हकीकत में जीने लगता है। इससे समस्‍याएं खड़ी होती हैं। टकराव होते हैं। अंतत: यह स्‍वांग ही उसे अपनी ठीक ठीक भूमिका को पहचानने में मदद करता है। आखिर कार वह चौतरफा फैली सड़ांध के खिलाफ तनकर खड़े होने की हिम्‍मत जुटाता है। आदिविद्रोही नामक इस नाट्य समारोह को सार्थक करता हुआ।
ऐसे समय में जब हर तरफ हार की चादर ओढ़कर सोई हुई जनता दिखती है, यह नाटक अलग संदेश्‍ा देता है।

अलख दा ! घर से बाहर जाते हुए बंगाली परिवारों में हमेशा आस्‍छी .....कहा जाता है, यानी अभी आया... या आ रहा हूं। आपने दुग्‍गा दुग्‍गा को तो पकड़ा, लेकिन इसे छोड़ क्‍यों दिया? कोई खास वजह ?

Thursday, November 25, 2010

बॉस का पराठा

.... एक ही डेस्‍क पर चार लोग काम करते हैं। एक बॉस,तीन शागिर्द। दो पुराने हैं, नियमित हैं, एक नया। भोजन का समय है । अखबार का दफ्तर है, काम का दबाव है। इसलिए काम करते हुए भोजन का काम भी कर लेना है। भोजन का समय तय नहीं है। बॉस को जब भूख लगे वही भोजन का समय है। ऐसे मौके पर वह जेब में रखे रोल किए हुए पराठे निकालते हैं। घर से ही ऐसी तैयारी करके आना पड़ता है। समय इतना कीमती है कि टिफिन खोलने और पराठे में सब्‍जी लपेटने में जाया नहीं होना चाहिए, प्रबंधन का नया गुर है।

बॉस काम और भोजन में इस तरह तन्‍मय होते हैं कि उन्‍हें दूसरे की माजूदगी का पता नहीं चलता। ऐसा देखा गया है कि कभी-कभी बॉस परिचित स्‍थाई शागिर्दों के साथ तो पराठा शेयर कर लेते हैं। शेयर करना इस बात का संकेत है कि बॉस काम से खुश हैं। लेकिन नए व्‍यक्ति को इस बात का अंदाजा नहीं लग पाता क्‍योंकि वह इस शेयरिंग का भागीदार नहीं बन पाता। क्‍या वह उस जगह में मौजूद नही हो पाया है ......

शेयर कर या न करे। लेकिन इतना लोक व्‍यवहार होना ही चाहिए कि सामने वाले से एक बार पूछ लें। या इतना ही कि भोजन का समय हो गया, तुम भी भोजन कर लो। लेकन ऐसा नहीं होता। ऐसा कैसे हो सकता है। इस तरह से कोई सोच भी कैसे सकता है। सोचने में भी अटपटा ....भाईसाब कुछ उद्विग्‍न से लग रहे थे।

....सोचिए जरा, अखबार के दफ्तर में ऐसा होता था। कैसे पत्रकार होंगे वे। कैसा दफ्तर होगा वह। ट्रेन की यात्राओं में भी अगर आदमी अपनी रोटी निकालता है तो एक बार बगलवाले से पूछ लेता है- आइए रोटी खाते हैं। यह अलग बात है कि वह आता है या नहीं। लेकिन आप लोगों के सामने बैठकर बिना दाएं-बाएं भोजन कैसे कर सकते हैं।परिचितों से नहीं पूछो तब भी चलता है, लेकिन जब एक नया व्‍यक्ति आपके समूह में आकर बैठा है तो उसे कैसे अनदेखा कर सकते हैं ?

दिक्‍कत क्‍या है आप अपनी रोटी अपने समय से खा लीजिए, वह अपनी खाएगा। इसमें इतना सेंटी होने की क्‍या बात है ?

इसमें सेंटी होने की बात नहीं है बंधु, चिंता इस असंवेदनशीलता और क्रूरता के बीज पड़ने की है। ऐसा भी कहीं हो रहा है या होता है, यहा सोच पाना कठिन है। कहीं आपके पास ऐसा तो शुरू नहीं हो रहा ?

Sunday, November 21, 2010

अच्‍छे लोग

4 बजकर 20 मिनट हुए हैं
आसमान में बादल हैं
सूरज कुछ फीका

अच्‍छे लोगों की बैठक में
अच्‍छे लोग गले मिल रहे है

बैठक से जाते हुए
एक अच्‍छे आदमी ने
दूसरे के बारे में कहा कि
...... वह अच्‍छा नहीं है

दूसरे आदमी को भी पहले आदमी के बारे में
ठीक यही कहते हुए सुना गया

बैठक से पहले भी
दूसरे देश, काल, परिस्थिति में
उन्‍होंने एक दूसरे के बारे में ऐसा ही कहा था

अच्‍छे लोगों की आंखों में चमक है
आर्किमिडीज़ की तरह
वे मुस्‍कुराते हुए बता रहे हैं कि
अच्‍छे लोग ऐसे ही होते हैं

अच्‍छे लोग बता रहे हैं
इस तरह बनती है अच्‍छी दुनिया
जिसमें हमें रहना है ।

निशांत

Saturday, November 20, 2010

आतंकवाद पर विमर्श - अंतिम

'खाली जगह जहां से संसार को महसूस किया जा सकता है'

‘'आतंकवाद’ से जो आशंकाएँ पैदा होती हैं, उससे पूरा समाज आत्मरक्षात्मक हो जाता है, और अपने आत्म को हर सिरे से संरक्षित, सुरक्षित करने की तमाम प्रविधियाँ तलाशने लगता है। पर आत्मसंरक्षण की इसी प्रक्रिया में आत्म का दायरा संकुचित भी होने लगता है, क्योंकि संसार के साथ उसका सम्बन्ध एक तरह से असुरक्षित होने लगता है। लेकिन इसी के बरक्स, और मैं फिर उसी सवाल पर लौट रहा हूँ, कि यह माँ आत्मसुरक्षा की स्थापित प्रविधियों का अतिक्रमण करते हुए, अपने आत्म का विस्तार करते हुए एक नितान्त परम अज्ञात को अपना लेती है और उसी में अपने अस्तित्व की सार्थकता का निवेश करती है। तो इसमें क्या यह अभिप्रेत नहीं है कि यहआत्मसंरक्षण का एक सर्वथा रेडिकल ढंग है''


गीतांजलि श्री के उपन्‍यास खाली जगह के बहाने आतंकवाद पर दीपेन्‍द्र और मदन सोनी के बीच हुए 'मित्र संवाद' की तीसरी एवं आखरी कड़ी -


दीपेन्द्र: क्या खाली जगह को ‘आतंकवाद’ के मानसिक प्रभाव के रूप में पढ़ा जा सकता है?

मदन: हाँ, एक तरह से। जैसा कि हम बात कर रहे थे कि अगर ‘आतंकवाद’ की संघटना के दो सिरे मानकर चलें जिसमें से एक उसके कर्तृत्व का सिरा है और दूसरा उसके प्रभाव का सिरा है, तो यह उपन्यास अपने को मुख्यतः उस दूसरे सिरे पर केन्द्रित करता है। पर इससे कहीं ज़्यादा यह उपन्यास हमें एक ऐसी जगह ले जाता है, एक ऐसे भावनात्मक और मानसिक संसार में, जहाँ ये दोनों पक्ष एक दूसरे में गड्डमड्ड हो जाते हैं।

दीपेन्द्र: उपन्यास में ‘खाली जगह’ पद की अनेक व्यंजनाएँ उभरती लगती हैं। पहली तो शायद यही है कि संसार से दूर बिल्कुल अलग एक ऐसी खाली जगह है जहाँ से सांसारिकता को देखा जा सकता है। दूसरी, वह जगह है जहाँ से संसार को महसूस करते हुए लिखा जा सकता है। तीसरी शायद यह होगी कि खाली जगह एक तरह से मृत्यु की प्रतीक्षा की जगह भी है, जहाँ इसका आख्याता अन्य हो जाने की पीड़ा को निरन्तर झेलता हुआ अपने असहनीय जीवन से मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा है। पर मुक्ति की प्रतीक्षा की यह प्रक्रिया चूँकि उसके लेखन में घटित हो रही है, लेखन उसके जीवन में एक ऐसी जगह के रूप में उभरता है जहाँ चरम आघात झेलने के बावजूद वह अपनी चेतना को जिलाये रख सकता है।

आप अपनी औपन्यासिक समीक्षाओं में लेखन को अक्सर ही एक पात्र के रूप में देखते रहे हैं, लेखन की इस उपन्यास में क्या भूमिका आपको दीखती है?

मदन: सबसे पहले तो हम इस उपन्यास का संक्षिप्त खाका देखें। किसी विश्वविद्यालय का एक कैफे है जिसमें किसी पाठ्यक्रम के सिलसिले में कोई प्रवेश परीक्षा होने वाली है और जिसके लिए बाहर से बहुत से लड़के आये हैं। वे लड़के उस कैफे में हैं, तभी वहाँ पर अचानक एक बम-विस्फोट होता है। उसमें बहुत से लोग मारे जाते हैं और पूरा कैफे तहस-नहस हो जाता है। वहीं एक कोने में, एक ‘खाली जगह’ में, तीन बरस का एक बच्चा, जोकि इस उपन्यास का जो नायक है और जो, उस घटना के बीत जाने के बरसों बाद, उत्तमपुरुष शैली में अपने अनुभवों का बयान कर रहा है, जीवित और सम्भवतः मूर्च्छित अवस्था में पड़ा पाया जाता है। उस बच्चे का न तो कोई दावेदार है और न ही किसी को इसकी जानकारी है कि वह कौन है और कहाँ से आया है। खुद उस बच्चे को भी इसकी कोई स्मृति नहीं है। मारे गये लोगों में अठारह बरस का एक लड़का भी शामिल है जिसकी तलाश में उसके माँ-बाप वहाँ आते हैं और वे अपने मृत बेटे के बिखरे हुए अवशेषों के साथ-साथ इस जीवित बच रहे तीन बरस के बच्चे को भी अपने साथ ले जाते हैं। वे अपने मृत बेटे की स्मृति में उसका पालन-पोषण करते हैं और वह उस मृत लड़के की स्मृतियों की छाया में, उसकी चीज़ों, आदतों, रुचियों की छाया में बड़ा होता रहता है। वह न केवल उस अठारह साल के लड़के की एवज़ में ले आया गया है, बल्कि उसका पूरा विकास भी जैसे उसकी एवज में होता है। वह निरन्तर और वर्षों लगभग खामोश रहकर अपनी इस विचित्र नियति का त्रास भोगता रहता है, जिसने उसको एक छाया-अस्तित्व के रूप में सिकुड़ कर रह गया, पहचानहीन जीवन जीने को विवश कर दिया है। अन्ततः जब वह भी अठारह साल का हो जाता है तो वह, माँ-बाप की इच्छा के विरुद्ध, उसी शहर के उसी विश्वविद्यालय में, जहाँ बम-विस्फोट की वह घटना घटी थी, जाकर पढ़ने की ज़िद करता है, जिसके मूल में दरअसल अपनी जड़ों को तलाशने की उसकी आकांक्षा है। इस बीच परिवार में एक लड़की, जो उम्र में लड़के से कुछ बड़ी है, आ चुकी होती है। लड़की उसी शहर की है जहाँ वह घटना घटी थी। लड़की इस लड़के के जीवन में पहला ऐसा इन्सान है जिसके सम्पर्क में वह अपने पहचानहीन छाया-अस्तित्व के त्रास से मुक्ति की उम्मीद करता है, क्योंकि वह महसूस करता है कि वह उसके स्वतन्त्र, अनन्य वुजूद को पहचान रही है। दोनों के बीच अनुराग विकसित होता है। वह लड़के के माँ-बाप को उसकी देखरेख का आश्वासन देकर लड़के को उस शहर में भेजने के लिए राजी कर लेती है। घटनाक्रम एक (अति-)नाटकीय मोड़ लेता है: शहर में पहुँचकर वह लड़की के साथ विश्वविद्यालय के उसी कैफे में जाता है, और एक बार फिर एक बम-विस्फोट होता है और इस बार वह फिर बच जाता है। और वह लड़की मारी जाती है। लेकिन इस बम-विस्फोट से ठीक पहले लड़के को उससे भी ज़्यादा बड़ा आघात पहुँचाने वाली एक और घटना तब घटित होती है, जब कैफे में उसके सामने बैठी वह लड़की उसे बताती है कि दरअसल वह उस मृत लड़के की भी प्रेयसी थी और बम-विस्फोट में उस लड़के के मारे जाने के क्षण में वह उसी कैफे में उसके साथ थी। लड़के के जीवन में उसके विशिष्ट, अनन्य अस्तित्व की पहचान की जो उम्मीद इस लड़की के कारण जागती है, वह लड़की के इस रहस्योद्घाटन के साथ समाप्त हो जाती है।

तो ‘खाली जगह’ की, जैसा कि आपने कहा, अनेक व्यंजनाएँ हैं। यह उस लड़के की मृत्यु से पैदा हुई खाली जगह है जिसको यह दूसरा लड़का रूपायित या प्रतिबिम्बित कर रहा है। विडम्बना बहुत स्पष्ट है: हाड़-मांस की एक जीती-जागती उपस्थिति दरअसल एक अनुपस्थिति को रूपायित कर रही है; एक अस्तित्व अनस्तित्व को प्रतिबिम्बित कर रहा है।

यहाँ मुझे बोर्खेस की एक कहानी याद आती है। कहानी की स्मृति कुछ धुँधली सी ही है, लेकिन शायद उसमें एक व्यक्ति अपनी कल्पना में एक दूसरे व्यक्ति को जन्म देता है। जन्म देने के बाद इसको लगता है कि अगर उसको यह बात पता चल गयी कि वह एक जीता-जागता हाड़-मांस का जीव न होकर एक कल्पना-मात्र है, तो यह उसके लिए बहुत तकलीफ़देह और अपमान की बात होगी। इसलिए यह उसको जीते-जागते वास्तविक लोगों की दुनिया से दूर जंगल में एक झोपड़ी में रखकर उसका पालन-पोषण करता है ताकि उसको अपने अस्तित्व की वास्तविकता-अवास्तविकता को लेकर किसी तरह के संकट का सामना न करना पड़े। संयोग से एक बार उस जंगल में आग लगती है, और इसको अहसास होता है कि चूँकि उसकी वह सन्तान अवास्तविक है, उस पर आग का कोई असर नहीं होगा। इसलिए, इसके पहले कि वह आग के सम्पर्क में आये और उसको उसकी अवास्तविकता का अहसास हो, यह व्यक्ति उसको आग से दूर ले जाने उसके पास जाता है। लेकिन होता यह है कि वहाँ पहुँचते-पहुँचते वह अवास्तविक, कल्पित व्यक्ति तो आग में जल जाता है, लेकिन यह जो इस कल्पित इन्सान का पिता और वास्तविक मनुष्य था, आग के बीच होने के बावजूद जलता नहीं है।

दोनों ही घटनाओं में, दूसरे लोगों के मारे जाने के बावजूद, बच जाता है। जैसे कि उसका अस्तित्व ही नहीं है। ‘खाली जगह’ नामक पद इस स्थिति को भी व्यंजित करता है।

दीपेन्द्र: इस उपन्यास में मातृत्व और पितृत्व अपने विशिष्ट रूपों में दिखलायी देते हैं जहाँ पुत्र के अभाव को झेल रहे माँ और पिता अपनी चेतना में काफी वध्य होते हैं और अपने जीने को किसी तरह सहने योग्य बनाये हुए हैं। आघात मनुष्य की चेतना पर कितना गहरा हो सकता है, इसका बहुत ही सूक्ष्म ब्यौरा इस उपन्यास के माध्यम से हमें मिलता है…।

मदन: हाँ। पर उपन्यास जहाँ फोकस कर रहा है, वह दरअसल माँ-बाप की चेतना नहीं है बल्कि उस लड़के की चेतना है जोकि उनके साथ रह रहा है, और जिनको वह माँ-बाप कह भी नहीं सकता है। इन दोनों के प्रति उसके मन में प्रेम है। लेकिन जितना वात्सल्य और स्नेह उसको इन दोनों से मिल रहा है, उसको पूरी तरह से समझने, महसूस करने के बावजूद वह उस अनुपात में उसका प्रतिदान नहीं कर पाता है। क्यों? क्या इसलिए नहीं कि यह प्रतिदान वही कर सकता है जोकि है? माँ और बाप, ज़ाहिर है, एक ऐसे ही व्यक्ति के हो सकते हैं जो स्वयं हो। लेकिन इस लड़के को किसी और चीज़ ने जन्म दिया है, और वो चीज़ है: बम। इस तरह उसको मृत्यु के कारण ने जन्म दिया है। वह दरअसल बम की सन्तान है। वे लोग तो उसके वर्चुअल माँ-बाप हैं। यह उसका अस्तित्वपरक संकट है। इस संकट को हम उपन्यास में शुरू से ही लक्ष्य करते हैं, तभी से जब उसको घर लाया जाता है। बम-विस्फोट की घटना ने उसको एक ऐसी जगह लाकर छोड़ दिया है जहाँ पर उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है, जहाँ पर उसकी अपनी कोई पहचान नहीं है। उस अठारह साल के लड़के की तस्वीर वहाँ लगी हुई है, जो हर वक़्त उसके सामने है, उसकी रुचि की चीज़ें इसको खिलायी-पिलायी जाती हैं, इसको देखकर हर कोई उसको याद करता है, उसके जन्मदिन पर इसका जन्मदिन मनाया जाता है… कुल मिलाकर इसका पूरा जीवन उसकी छाया में जिया जा रहा है। एक छाया-अस्तित्व। पूरे वक़्त उसका संघर्ष यह है कि वह कैसे अपने स्वत्व को, उसकी भौतिकता में, उसकी रूहानियत में, उसकी भावनात्मकता में अनुभव कर सके। जैसा कि हम ज़िक्र कर चुके हैं, उस कैफे में दुबारा लौटते हुए वह अपनी जड़ों की तलाश में लौट रहा होता है; या शायद यह जानने कि यह जो उसका अनस्तित्व-अस्तित्व है इसकी जड़ कहाँ है। और वहाँ पहुँचने पर उसको, मानों तर्कसंगत तौर पर, एक बार फिर वही मिलता है, जिसने उसको जन्म दिया था: बम।

दीपेन्द्र: एक बात यह भी सोचने की है कि उपन्यास में बम-विस्फोटों की ये घटनाएँ क्या इतनी विशिष्ट कही जा सकती हैं कि हम उपन्यास के चरितनायक के इस संकट को विशिष्ट रूप से ‘आतंकवाद’ से पैदा संकट की तरह ही देखें। यानी चरितनायक के इस संकट के सन्दर्भ में ये बम-विस्फोट किन्हीं दूसरी दुर्घटनाओं के समतुल्य भी तो देखे जा सकते हैं।

मदन: मेरा ख़याल है कि नहीं। चरितनायक के इस संकट के सन्दर्भ में ये बम-विस्फोट उस चीज़ से गहरा ताल्लुक रखते हैं जिसे ‘आतंकवाद’ कहा जाता है। उसका संकट, जैसा कि हम सहज ही लक्ष्य कर रहे हैं, अपनी, या अपने अस्तित्व की, उस पहचान का ही तो संकट है, जो ‘आतंकवाद’ के मूल में भी मौजूद है। ‘आतंकवादी’ बम के घटक भी तो यही हैं: पहचान के नष्ट हो जाने का भय, दूसरे के द्वारा, या दूसरे की तरह परिभाषित होने को लेकर प्रतिरोध, अपनी विशिष्ट पहचान का दृढ़ आग्रह…। यह पहचान व्यक्तिवाचक, जातिवाचक, साम्प्रदायिक, राष्ट्रीय किसी भी तरह की हो सकती है। यह बम जब फटता है तो इन्हीं सब इकाइयों के विघटन का ख़तरा भी पैदा कर देता है। आप यह कह सकते हैं कि बम के इन्हीं में से कुछ घटक अपने व्युत्क्रमित रूप में उपन्यास के इस चरितनायक के संकट के घटक बन जाते हैं। आप देखें कि इस उपन्यास में किसी शहर का नाम नहीं हैं, उसमें कोई व्यक्तिवाचक नाम नहीं है, न चरितनायक का नाम आपको पता है, न उस लड़के का जो मारा गया है, न उसके माँ-बाप का, न ही आपको पता चलता है कि उनकी जाति क्या है, सम्प्रदाय क्या है, धर्म क्या है। इसकी बजाय वे सब सर्वनाम में याद किये जाते हैं: मैं, वह, उसका, उसकी…। या जातिवाचक नामों में: माँ, बाप, लड़का, लड़की…। तो उपन्यास में दो तरह से इसकी व्यंजनाएँ उभरती हैं: एक व्यक्तिवाचक नामों के विलोपन से; जैसे यह कहने की कोशिश है कि सारी पहचानें, सारे नाम सर्वनामों में या जातिवाचक पहचानों में बदल गये हैं; हिंसा के इस माहौल में हर संघटना, हर इकाई जैसे अपना नाम खो चुकी है। और दूसरी व्यंजना यह भी निकलती है कि चरितनायक के साथ जो कुछ घटित हो रहा है, वही इस उपन्यास के साथ भी घटित हो रहा है; क्योंकि उपन्यास में नामों का न होना, उपन्यास के अपने नामों का न होना, उसमें चरित्रों के नामों का न होना उपन्यास का भी एक तरह से अनाम होना है। तो जैसे नामहीनता या पहचानहीनता का जो संकट चरितनायक भोग रहा है, उपन्यास भी उस संकट में भागीदारी कर रहा है। इसीलिए इस ‘खाली जगह’ की एक व्यंजना यह भी है कि यह खाली जगह उपन्यास है। अगर हम इसको थोड़ा और सामान्यीकृत करके कहें तो, यह खाली जगह साहित्य है। वह हमेशा ही एक खाली जगह है क्योंकि वह हमेशा ही उस चीज़ की एक छाया है जिसको हम वास्तविक अस्तित्व कहते हैं; लेकिन एक ऐसी छाया जिसके साथ हमें हमेशा एक जीवित, धड़कती हुई सत्ता को बोध होता है। साहित्य की यह विडम्बना है कि वह एक ऐसा अस्तित्व है, जो हमेशा किसी दूसरे अस्तित्व का छाया-जीवन जीता है और इस दूसरे की पहचान का माध्यम बनने में ही जैसे अपनी पहचान को चरितार्थ करता है। तो इस अर्थ में यह उपन्यास अपने कथ्य में भागीदारी करता है और खुद एक तरह की नामहीनता का शिकार होता है, और एक बहुत बड़ा जोखिम इस रूप में उठाता है कि कुछ लोगों को वह अमूर्त या ‘ऑब्स्क्योर’ लग सकता है (प्रसंगवश, ‘आतंकवादियों’ को ‘ऑब्स्क्योरेण्टिस्ट’ कहा जाता है)। पर लेखक ने न केवल इसकी परवाह नहीं की है बल्कि जैसे स्वीकार कर लिया है कि ‘न सताइश कि तमन्ना है, न सिले की परवा / गर मेरे अशआर में मानी नहीं न सही’। बहरहाल, हमने कहा कि उपन्यास साहित्य के रूप में एक खाली जगह है और इस उपन्यास का शीर्षक भी यही है। यानी ‘खाली जगह’ एक खाली जगह का शीर्षक है; मानों खाली जगह होने का इस उपन्यास का तत्त्व ही उसके शीर्षक के रूप में उसकी सतह पर तैर कर आ गया हो।

दीपेन्द्र: उपन्यास एक ऐसे गहनतम पुत्र-शोक को बहुत गहराई से समझने का उद्यम कर रहा है जिसके कारण तीन चेतनाएँ लगभग असामान्य हो गयी हैं जिनको उपन्यास का आख्याता, जो एक तरह का वर्चुअल पुत्र है, लेखे में लेने का प्रयास कर रहा है। तो एक तरह से यह लगता है कि लेखन बम का प्रतिपक्ष तो शायद नहीं है, पर उसके आघात से पैदा हुए शोक को सहने या उबरने में वह मदद शायद करता है। पर इस लेखन का विज़न एक तरह से ट्रैजिक-कॉमिक है: आख्याता चरम शोक से गुजर रहा है, एक तरह से पारिवारिक अवैधता को भी वह झेल रहा है, इस अवैधता का प्रतिवाद करने के लिए अपने आप को लगातार लिख रहा है, और इस दौरान, मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए भी, वह अपने आप को जिलाये हुए है। तो क्या इसमें एक तरह से यह ध्वनित नहीं होता कि लेखन नामक यह खाली जगह ही है, जहाँ व्यक्ति अपने आप को जिलाये रख सकता है-बम के मौत के सन्देश के खिलाफ़?

मदन: यह कहना कि साहित्य या लेखन ही वह जगह है जहाँ पर व्यक्ति मृत्यु के खिलाफ़ अपने को जिलाये रख सकता है, या कि जहाँ वह उस शोक को सहने योग्य बना रह सकता है, लगता तो अच्छा है, लेकिन इसमें हम लेखन का थोड़ा सा रोमानीकरण भी कर रहे हो सकते हैं।

दीपेन्द्र: पर यह व्यक्ति संवाद से बिल्कुल वंचित है, उसकी चेतना का रूप ही कुछ ऐसा बन गया है कि किसी से संवाद ही नहीं कर पा रहा है, उसके पास अपने आपसे संवाद करने का ही विकल्प बचा है। तो इस तरह से लेखन उसके लिए आत्मालाप का एक माध्यम है।

मदन: मैं आपकी बात का मर्म शायद समझ रहा हूँ, पर मैं अपनी पिछली बात को ही दोहराते हुए उसमें कुछ बढ़त करूँगा। मुझे लगता है कि जहाँ तक इस आख्याता का सवाल है, शोक से ज़्यादा उसके शोक का कारण यहाँ महत्त्वपूर्ण है, और वह है एक बहुत ही गम्भीर किस्म का अस्तित्व या पहचान का संकट। और इस संकट का स्तर सामाजिक, सांस्कृतिक नहीं है, जैसा कि हम मसलन गोरा उपन्यास में देखते हैं। वहाँ पर वह एक धर्म और जाति से जुड़ा संकट है। यहाँ यह नहीं है। यहाँ यह संकट गहरा इस अर्थ में है कि वह महसूस कर रहा है कि वह है या नहीं है। वह इतनी कम उम्र में वहाँ ले आया गया है कि उसके पास अपने उत्स तक की कोई स्मृति नहीं हैं। उपन्यास एक बहुत गहरी अस्तित्वपरक रूपक-कथा (एलेगॅरी) के रूप में उभरता है। वह हमारे सामने एक ऐसे व्यक्ति को रख रहा है जिसको न केवल स्वयं अपनी जड़ों के बारे में पता नहीं है, बल्कि, एक तरह से, वह जिसके भी सम्पर्क में जाता है, अपनी जड़हीनता को, अपनी पहचान के विस्थापन को उसमें संक्रमित कर देता है। उसके सन्दर्भ में उसके माँ-बाप भी अपने मातृत्व-पितृत्व को संकटापन्न स्थिति में पाते हैं। पहचान का संकट उनका भी है। वे किसके माँ-बाप हैं: उसके जो मर गया है या उसके जिसको वे उसकी जगह पाल रहे हैं। तो, लेखन ऐसे एक बहुत ही सघन किस्म के अस्तित्वपरक पहचान के संकट से पैदा शोक को सहने की सामर्थ्य दे सकता है या उसके बावजूद जीने की कोई जगह उपलब्ध करा सकता है, ऐसा कहने की बजाय, मुझे लगता है कि ज़्यादा सटीक यह कहना होगा कि ऐसी मनःस्थिति, या ऐसी अस्तित्वपरक स्थिति के भीतर से ही साहित्य पैदा होता है। अगर इस तरह के कथन में कोई सार्थकता है तो मैं यही कहना चाहूँगा कि साहित्य आपको सहने की सामर्थ्य या गुंजाइश नहीं देता, वह सहने की प्रक्रिया में पैदा होता है। यह लड़का अगर अपने समाज से संवाद नहीं कर पा रहा है, तो इसलिए कि वह अपने अस्तित्व के सुनिश्चित बोध के उस न्यूनतम स्तर पर नहीं है जो ऐसे संवाद का आत्मविश्वास जगाता है। लेकिन होने के इस मान पर वह अपने साथ तो संवाद कर ही सकता है, जोकि वह कर रहा है: उसका लेखन या बयान यही आत्मसंवाद है। ऐसी चरम हताशा की स्थिति में व्यक्ति उस चीज़ का स्रोत बनता है जिसको हम लेखन कहते हैं।

और यह बहुत युक्तिसंगत भी लगता है, क्योंकि एक ऐसी चरम हताशा जोकि इस अनिश्चय से पैदा हो रही है कि वह है या नहीं, ही उस चीज़, यानी साहित्य, को भी जन्म दे सकती है जोकि अन्ततः इसी अहसास का ही एक रूपंकरण है कि वह है या नहीं है। अस्तित्व-अनस्तित्व के बीच के दोलन के भीतर से ही इस दोलन का एक दूसरा रूप निकल सकता है। उपन्यास अपने वास्तविक स्वत्व को पाने की कोशिश में अपनी एक प्रतिच्छाया गढ़ता है, तीन साल के इस बच्चे के रूप में, जो एक तथाकथित वास्तविक अस्तित्व की छाया के रूप में जी रहा है, और यह उपन्यास उस छाया की छाया के रूप में जन्म ले रहा है।

दीपेन्द्र: इस उपन्यास में मातृत्व भी अपनी विशिष्ट लक्षणाओं में स्वायत्त होता दिखलायी देता है। और यह ऐसा मूलगामी किस्म का मातृत्व है, जहाँ पुत्र-शोक के बावजूद माँ तीन बरस के एक लड़के को अपनाती है और अपने मृत बेटे की स्मृतियों के तप से इस बच्चे की परवरिश करते हुए अपनी स्मृतियों को नैरन्तर्य दे पा रही है। तो क्या आपको नहीं लगता कि यहाँ मातृत्व अपनी चरम ऊँचाई पर पहुँचा हुआ है जहाँ वह एक दूसरे बच्चे को बिना शर्त अपनाती है?

मदन: हाँ, मैं सहमत हूँ। मातृत्व का अनुभव हमेशा सन्तान के सापेक्ष होता है, लेकिन यहाँ जिस बच्चे के सन्दर्भ में उसका वात्सल्य प्रगट हो रहा है, वह उसका बेटा नहीं है। वह न केवल उसका बेटा नहीं है बल्कि एक ऐसा बच्चा भी वह है, जोकि जिस हद तक अपने अस्तित्व या अपनी पहचान के होने-न-होने का संघर्ष कर रहा है उसी हद तक वह माँ और पिता की परिभाषाओं को भी अस्थिर कर रहा है। तो एक ऐसी सन्तान जोकि लगातार मातृत्व और पितृत्व की पहचानों को सुनिश्चित नहीं होने दे रही है…

दीपेन्द्र: समस्याग्रस्त कर रही है…

मदन: …बिल्कुल…तो अगर हम इस मातृत्व को विनाश, वियोग और विस्थापन के, पहचानों के धुँधला जाने, नष्ट हो जाने के, इस पूरे परिप्रक्ष्य में रखकर देखें, तो मातृत्व एकमात्र चीज़ है जो इन सब के विरुद्ध प्रतिरोध के रूप में उभरता है। वह एक मूल्य के रूप में उभर कर आता है। उपन्यास मानो यह कहता है कि अस्तित्व के इस समूचे निषेध के बरक्स केवल मातृत्व ही है जो इस निषेध को प्रतिरोध दे सकता है। और कहीं न कहीं वह इस बात की ओर भी इंगित है कि अस्तित्व का बुनियादी विस्थापन दरअसल मातृत्व से विस्थापन ही है, कि आप अपने मातृ स्रोत से कट गये हैं, माँ के गर्भ से बाहर फेंक दिये गये हैं, कि मातृत्व की विस्मृति ने आपको उस जगह ला दिया है जहाँ पर कि आप एक संहारक, हिंसक रूप ले लेते हैं-एक ऐसा संहारक, विध्वंसक रूप जिसने अपने आपको कुछ इस तरह छितरा दिया है कि वह एक व्यापक स्तर तक फैलकर विध्वंस, संहार और आतंक की सन्तानें पैदा कर रहा है। तो उपन्यास मातृत्व के इस लगभग इकतरफ़ा और मुक्त दान के माध्यम से जैसे यह कहता प्रतीत होता है कि हमें अपने अस्तित्व के, अपने सभ्यता और संस्कृति के मूल में मातृत्व के इस तत्त्व को खोजने, इसका पुनर्वास करने की ज़रूरत है। और वह भी उस चुनौती के बिन्दु पर जहाँ पर मातृत्व खुद निरन्तर अस्थिर हो रहा है।

इसके बरक्स आपके मन में पितृत्व को लेकर सवाल उठ सकता है….

दीपेन्द्र: हाँ। उपन्यास का आख्याता स्पष्ट ही विरोधाभासी स्थितियों में है। उसकी चेतना निरन्तर निलम्बन की स्थितियों में है। जहाँ माँ से उसे एक तरह की स्वीकार्यता, एक तरह की वैधता, मिल रही है, वहीं पिता उसको मन से स्वीकार नहीं कर पा रहा है। और उसका शोक भी बहुत स्वाभाविक, बहुत ही यथार्थपरक लगता है। वह अपनी चेतना में पूरी तरह से विचलित हो गया है। अपने शोक से उबरने के लिए वह अपनी दैहिक आकांक्षा की पूर्ति का सहारा लेने की कोशिश भी करता है, लेकिन उसके ये प्रयास विफल हो जाते हैं। उपन्यास में इस प्रसंग को बहुत मर्मस्पर्शी ढंग से लिखा गया है। तो पिता का रूप यहाँ बहुत ही वध्य दिखलायी देता है। आप इसको किस तरह से देखते हैं?

मदन: आप उत्प्रेक्षाएँ ही कर सकते हैं। जो स्थिति है, वह तो आपने बतायी ही है कि पिता उसको, माँ की तरह, सच्चे मन से स्वीकार नहीं कर पा रहा है। लेकिन हमारे समाज में सन्तान के सन्दर्भ में माँ और पिता की क्या स्थितियाँ हैं? अगर हम इस सवाल पर थोड़ा ध्यान दें, तो हमारे समाज में, और सिर्फ भारतीय समाज में नहीं, एक विचित्र सी स्थिति है जिसमें कि यह माना जाता है कि सन्तान का स्रोत पिता है। तमाम तरह के वैज्ञानिक-जीववैज्ञानिक तथ्यों के बावजूद सामान्य मनोविज्ञान यही है।

दीपेन्द्र: सांस्कृतिक मिथक…

मदन: जी। और यह अकारण नहीं है कि हमारे नाम ज़्यादातर पिता के नाम पर चलते हैं। इसे आप कुछ इस तरह भी कह सकते हैं कि जैसे अस्तित्व का स्रोत भी हमारे समाज में पुरुष को मान लिया गया है। यह भी वैसा ही सांस्कृतिक मिथक है। अकारण नहीं कि अधिकांश संस्कृतियाँ जब अस्तित्व के किसी अतिक्रामी स्रोत को नाम देने की कोशिश करती हैं, तो उसको ‘परम पिता’ आदि कहती हैं। दूसरी ओर मातृत्व को एक क्षेत्र (खेत) के रूप में देखा जाता है, जिसमें कि पिता द्वारा बीज रोप दिया जाता है। वह एक जगह है-एक ‘खाली जगह’, आप कह सकते हैं-जहाँ पर आप बीज का आरोपण कर देते है। पौरुष का अहंकार शायद इसी मान्यता में है कि वह खाली जगह को भरता है। संयोग से इस उपन्यास में भी, आप देखें कि वह लड़की भी हो सकती थी, उस खाली जगह को रूपायित करने या भरने वाली। क्यों नहीं हो सकती थी? माँ से भिन्न, पिता अगर इस बच्चे को पूरे मन से स्वीकार नहीं कर पा रहा है, और उसके लिए वह ‘खाली जगह’ जस की तस बनी हुई है, तो शायद इसीलिए कि वह खाली जगह उसकी सन्तान के चले जाने से बनी है। कहीं न कहीं पिता अपने बेटे की मृत्यु में अपनी मृत्यु देख रहा है, क्योंकि वही उसका प्रतिनिधित्व कर रहा था। तो बहरहाल जो चला गया है, जिसके चले जाने के कारण वह ‘खाली जगह’ पैदा हुई है वह तो था ही पुरुष, (उसकी सत्ता का प्रतिनिधि), वह भी पुरुष ही है जो उस ‘खाली जगह’ को भर रहा है। उस खाली जगह में एक बार फिर पुरुष का जन्म ही होता है। माँ तो उसको इसलिए स्वीकार कर लेती है कि उस खाली जगह में जैसे पिछला बच्चा आया था, वैसे ही यह बच्चा भी आ गया है। उसके खाली जगह होने में और उसके भर जाने में बहुत बड़ा व्यतिरेक उसके लिए पैदा नहीं हुआ है। लेकिन पिता के सन्दर्भ में वह एक बड़ा व्यतिरेक है, क्योंकि जो बच्चा अब वहाँ है, वह उसका नहीं है। ज़ाहिर है, हम उत्प्रेक्षाएँ ही कर रहे हैं, पर आप देखिये कि, जैसा कि आपने संकेत किया, बीच में एक ऐसा प्रसंग आता है, जहाँ पिता अपने आपको यौन-कर्म में समर्थ नहीं पाता, मानों उसका बेटा मरकर उसके पौरुष को अपने साथ ले गया है। तो इस मानी में उपन्यास स्त्रीत्व के, मातृत्व के, मूल्य को बहुत सूक्ष्म ढंग से, बिना किसी भी तरह की नारेबाज़ी के, कुछ इस तरह रखता है कि पितृसत्तात्मक मूल्य उससे प्रश्नांकित हो सकें।

दीपेन्द्र: शायद ऐसा इसलिए है कि पिता एक तरह से वैयक्तिक चेतना को सार्वजनिक क्षेत्र में प्रदर्शित कर रहा है। उसका शोक सार्वजनिक क्षेत्र में उद्घाटित होते हुए भी दिख रहा है। पर माँ का शोक सार्वजनिक क्षेत्र में बिल्कुल अप्रकट है। क्या ऐसा इसलिए है कि पितृसत्ता पर हमारी सामाजिक संस्थाओं का दबाव है? क्या इसलिए वह अपनी संवेदना को विस्तार नहीं दे पा रहा है, और इसलिए पितृसत्ता की रूढ़ि का अनुसरण कर रहा है? जबकि माँ क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र से उदासीन है उसके अस्तित्व की संवेदना से उसके तार जुड़े हुए हैं, और इसलिए वह अपने मातृत्व के जैविक स्तर का अतिक्रमण करते हुए उसको विस्तार दे पा रही है?

मदन: हाँ, आप ऐसा कह सकते हैं। हालाँकि मैं यह कहूँगा कि पितृसत्ता पर सामाजिक संस्थाओं का नहीं, सामाजिक संस्थाओं पर पितृसत्ता का दबाव है। से संस्थाएँ स्वयं पितृसत्तात्मक हैं-तमाम तरह की सामाजिक संस्थाएँ जिनमें मैं उन सामाजिक संस्थाओं को भी शामिल करूँगा, जिनके मूलाधार पेगन रहे हैं, और जहाँ पर ऐसा नहीं होना चाहिए था। हम जानते हैं कि भारतीय समाज ने एक लम्बे समय तक अपने को एक मातृसत्तात्मक समाज के रूप में एसर्ट करने, थामे रखने की कोशिश की।

आपने सार्वजनिकता की बात कही है। इस सिलसिले में मुझे यह भी सूझता है कि इसमें विशिष्ट और सामान्य का भेद है। माँ के लिए यह अनुभव अत्यन्त विशिष्ट है, और वही उसकी प्रतिक्रियाओं में प्रकट होता है। पिता उसके समाजोन्मुख न हो पाने, उसके खामोश बने रहने आदि को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया करता है, क्षुब्ध होता है, वे सब उसको एक सामाजिक प्राणी में न बदलते देख पाने के कारण पैदा होती हैं। क्योंकि उसके लिए यह सामाजिकता, या सामुदायिकता एक बहुत बड़ा मूल्य है।

दीपेन्द्र: एक तरह से देखें तो ‘आतंकवाद’ से जो आशंकाएँ पैदा होती हैं, उससे पूरा समाज आत्मरक्षात्मक हो जाता है, और अपने आत्म को हर सिरे से संरक्षित, सुरक्षित करने की तमाम प्रविधियाँ तलाशने लगता है। पर आत्मसंरक्षण की इसी प्रक्रिया में आत्म का दायरा संकुचित भी होने लगता है, क्योंकि संसार के साथ उसका सम्बन्ध एक तरह से असुरक्षित होने लगता है। लेकिन इसी के बरक्स, और मैं फिर उसी सवाल पर लौट रहा हूँ, कि यह माँ आत्मसुरक्षा की स्थापित प्रविधियों का अतिक्रमण करते हुए, अपने आत्म का विस्तार करते हुए एक नितान्त परम अज्ञात को अपना लेती है और उसी में अपने अस्तित्व की सार्थकता का निवेश करती है। तो इसमें क्या यह अभिप्रेत नहीं है कि यह आत्मसंरक्षण का एक सर्वथा रेडिकल ढंग है?

मदन: हाँ, और इसमें जो बात बहुत महत्त्वपूर्ण है वह यह है कि एक क्षेत्र या एक खाली जगह या एक गर्भ या अवतल आधार के रूप में उसको इससे बहुत फर्क नहीं पड़ रहा है कि वह किस जाति का, किस पन्थ या धर्म का है, या किस शुक्र का बीज है। वह इन सबसे निरपेक्ष होकर स्वयं को समर्पित कर सकती है, उस बीज को विकसित होने देने के लिए। वह अपना काम इन तमाम पहचानमूलक संकोचों की परवाह किये बिना कर सकती है। यहाँ हम एक बार फिर गोरा को याद कर सकते हैं। गोरामें भी आनन्दमयी और कृष्णदयाल दोनों ही जानते हैं कि गोरा उनकी अपनी सन्तान नहीं है। लेकिन गोरा के साथ दोनों के रिश्ते का फ़र्क देखिये! तो बहरहाल मातृत्व की यह प्रतिमा अपनी चरितार्थता ही इसमें देखती है कि वह इन सारे प्रतिबन्धों से ऊपर उठकर उस चीज़ के विस्तार के लिए गुंजाइश दे जिसको आप अस्तित्व कहते हैं।

दीपेन्द्र: यहाँ पर एक संयोग और याद आ रहा हैः आपने कविता का व्योम और व्योम की कविता में प्रगतिशील कविता की समीक्षा करते हुए ब्रेख्त का उदाहरण दिया था कि प्रगतिशील कविता में दरअसल मातृत्व की कमी है और इस नाते आपने ब्रेख्त केमदर करेज की भी याद की थी। तो क्या इस उपन्यास में भी ‘मदर करेज’ का एक विशिष्ट रूप दिखलायी नहीं देता?

मदन: बिल्कुल दिखलायी देता है। वह मदर-करेज ही है। ‘करेज’ सच्चे अर्थों में शायद तभी परिभाषित होगा जब वह ‘मदर-करेज’ हो। साहस तब तक साहस नहीं है जब तक कि आप वह जोखिम नहीं उठाते जो कि आपकी पहचान को तहस-नहस कर दे, जब तक कि आप इन पहचानों से उपर उठने की कोशिश नहीं करते कि किसने जन्म दिया, किस जाति का है, किस समाज का है, किस धर्म का है…; जब तक आप इन और ऐसी तमाम सामाजिक या सामाजिक तौर पर गढ़ी गयी शर्तों को चुनौती नहीं देते हैं। साहस इसी अर्थ में मातृत्व से जुड़ा हुआ है। साहस की हमारे समाज की परिभाषा हमेशा पितृसत्तात्मक होती है। जैसे साहस पौरुष का लक्षण हो। और अगर वह किसी स्त्री में भी दिखायी दे जाता है तो उसको तब तक स्वीकार नहीं किया जाता जब तक कि उसको मर्दाना न कह दिया जाय।

दीपेन्द्र: उपन्यास का आख्याता एक तरह से मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है और इस नाते यह उपन्यास अस्तित्व के उस कोने को प्रकाशित करता है जहाँ मृत्यु की प्रतीक्षा अन्तर्निहित है। यूँ तो सारे अस्तित्व में ही मृत्यृ-प्रतीक्षा रहती है, पर इस उपन्यास में मृत्यु की प्रतीक्षा बहुत गोचर और मुखर है। और इसी मृत्यु-प्रतीक्षा में एक तरह से जीवन अपने निलम्बित स्वरूप में दिखलायी देता है और उसमें गढ़ा भी जाता है। इसी के साथ, इस व्यक्ति की आकांक्षा अपनी विषिष्टता को अनुभव करने की है जबकि संसार उसको उसकी विशिष्टता से निरन्तर वंचित कर रहा है। मृत्यु-प्रतीक्षा और अपनी विषिष्टता को अनुभव करने की आकांक्षा दोनों ही चीज़ों का माध्यम उसके लिए लेखन है। वहीं, वह लड़का भी जिसकी मृत्यु हो चुकी है, उसके दिमाग़ में भी एकदम विचित्र या अनूठी चीज़ों के प्रति आकर्षण है; वह भी लिखता था, और उन चीज़ों के बारे में लिखता था जो संसार की किन्हीं कोटियों में बाँटी ही नहीं जा सकतीं। तो यह उपन्यास एक तरह से यह बतलाने की कोशिश कर रहा है कि अस्तित्व के भीतर विशिष्टता है और यह विशिष्टता लेखन के माध्यम से आत्मसंवाद में प्रकट हो सकती है।

मदन :यह बात तो आपकी मुझे ठीक लगती है कि यह विशिष्टता का अनुभव या उसका दबाव ही है जोकि उन चीज़ों में प्रगट होता है जिनको हम साहित्य की सामान्य कोटि के भीतर कविता, कहानी उपन्यास जैसे रूपों में रखते हैं। आपकी जिस बात से मेरी सहमति कम बनती है वह यह है कि यह लड़का मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। मुझे लगता है कि वहाँ मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं है। सामान्य तौर पर भी, मृत्यु के साथ लोगों का सम्बन्ध उसकी अवश्यम्भाविता को झुठलाने और उसको भुलाने का होता है, उसका सामना करने का नहीं होता। सामान्यतः उसको एक ऐसी चीज़ के रूप में देखने की कोशिश की जाती है जैसे कि वह हम से बाहर है। यानी वह होने की एक ही संघटना का अंग नहीं है। लेकिन अगर हम मृत्यु को अस्तित्व का अनिवार्य अंग मान लेते हैं, तो फिर उसका क्या रूप बनता है? वह हमेशा होने-न-होने का रूप बनता है। आपका होना दरअसल भेदपरक (डिफ़रेंसियल) है; मृत्यु के न होने के सापेक्ष है; और आपका न होना आपके अस्तित्व के नाते स्थगित है। कुल मिलाकर अस्तित्व का रूप एक निरपेक्ष और स्थिर पहचान का नहीं है। वह एक अनिश्चय की स्थिति है। इस अस्थिर, अनिश्चित पहचान का रूप ही दरअसल उस चेतना को प्रतिबिम्बित करता है जो कि मृत्यु और अस्तित्व दोनों को एक दूसरे के सहअस्तित्व, परस्पर-व्याप्ति और सायुज्य में देखती है। और इस चेतना के भीतर से जब वह चीज़ पैदा होती है जिसको हम साहित्य कहते हैं, तो हमारे समक्ष इस चेतना का एक वस्तुपरक रूप प्रगट होता है, जिसमें हम स्पष्ट तौर पर उस अस्थिर और अनिश्चित पहचान को चरितार्थ या मूर्त होते देखते हैं। अस्तित्व के और मृत्यु के सन्दर्भ में साहित्य को कुछ इस रूप में कल्पित करना मुझे ठीक लगता है।

तो उपन्यास के इस चरितनायक की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि परिस्थितियों ने उसको उस जगह ला दिया है जहाँ पर वह एक अस्थिर, असुरक्षित और काँपती हुई चेतना को रूपायित कर रहा है; जहाँ वह पूरे वक़्त होने-न-होने की एक अविभाज्य मनःस्थिति में है। मृत्यु का न होने का पक्ष, और अस्तित्व का होने का पक्ष, अनुपस्थिति और उपस्थिति: ये दोनों जब मिलतीं हैं, तो वे एक ऐसी खाली जगह में रूपान्तरित होती हैं जो एक भौतिक देह में रूपायित है। ज़ाहिर है यह एक बहुत ही विरोधाभासी, अन्तर्विरोधी सी बात लगती है, क्योंकि तब, आप कहेंगे, यह कैसी खाली जगह! लेकिन मैं समझता हूँ कि यह बात स्पष्ट होना चाहिए कि देह यहाँ खाली जगह को प्रतिबिम्बित कर रही है। जैसे कि भाषा जो अपनी भौतिक (ध्वनिपरक/आरेखात्मक) उपस्थिति से एक समूची अनुपस्थित दुनिया का आभास हमें देती है। याद करें उस प्रसंग को जब वह लड़की उसके साथ दैहिक संसर्ग कर रही है। सहसा आप पाते हैं कि उसका समूचा आवेग आईने की वर्चुअल स्पेस में घटित हो रहा है। आईना वहाँ माध्यम नहीं है, बल्कि वह आईने में ही घटित हो रहा है। इस प्रसंग को अगर हम लड़के के अस्तित्व की उक्त ख़ास अवस्थिति के सन्दर्भ में देखें, तो यह बहुत ही सटीक प्रतीत होता है, क्योंकि अनुपस्थिति-उपस्थिति की क्रीड़ा का यह यथार्थ अगर कहीं प्रतिबिम्बित हो सकता है, तो वह आईने में ही हो सकता है; या फिर साहित्य में।

दीपेन्द्र: फ्रायड मानता है कि ‘डैथ ड्राइव’ एक अन्तर्निहित चीज़ है और वह मनुष्य की उन क्रियाओं में अनेकशः परिलक्षित होती है जो वह अपने स्वत्व से पलायन करने के लिए करता है। यह चीज़ इस उपन्यास में बहुत मुखर ढंग से प्रकाशित होती दीखती है जहाँ यह लड़का निरन्तर बम की प्रतीक्षा कर रहा है और अन्त में उसे पछतावा भी होता है कि बम का शिकार वह क्यों नहीं हुआ। पर मैं यह कहने की कोशिश कर रहा था कि इसी मृत्यु-प्रतीक्षा में वह अपनी जीवन-शक्ति भी जुटा रहा है। तो एक तरह से इस लड़के की चेतना में जीवनपरक और मृत्युपरक स्थितियों का द्वन्द्व गोचर होता हुआ दिखलायी देता है। इसी तरह से प्रेम और मृत्यु का द्वन्द्व भी इस व्यक्ति में घटित होता दिखलायी देता है। मृत्यु से उसकी चेतना आविष्ट हो रही है और ऐसे समय में प्रेम उसके जीवन में प्रवेश करता है और मृत्यु और प्रेम का द्वन्द्व उसको ऐसे अप्रत्याशित क्षेत्र में ला खड़ा करता है जहाँ उसको अपनी पहचान शायद फिर से गढ़नी होगी। संक्षेप में यह कि क्या उपन्यास, एक तरह से, जीवन और मृत्यु के संवेगों के द्वन्द्व को निदर्शित करता हुए दिखलायी नहीं देता?

मदन: हाँ, आप ऐसा कह सकते हैं। मैंने इस प्रेम प्रसंग को इस रूप में नहीं देखा है। हमारी व्याख्याएँ काफी हद तक हमारा इच्छित चिन्तन होती हैं। ख़ैर, मैं जिस रूप में उसको देखना चाहता हूँ या जिस रूप में वह मुझको दिखायी देता है, वह कुछ विचित्र-सा है। यह लड़की उसके लिए आखिरी सहारा है जिससे उसको यह उम्मीद बँधती है कि वह उसको उसकी अद्वितीयता में पहचानेगी, या जो आत्मपहचान में उसकी मदद कर सकेगी। और इसीलिए वह ज़िद करता है, उस शहर में जाने की। तो वह उस शहर, उस कैफे में तो लौट ही रहा है, लेकिन एक ऐसे अनुभव में भी लौट रहा है जो उसको उसकी अद्वितीय पहचान दे रहा है। यह अनुभव है प्रेम का है। लेकिन अगर हम इस बात पर सहमत हों कि अस्तित्व अपने आप में वैसा ही है जैसा कि इस लड़के के रूप में हमें दिखायी दे रहा है जिसमें कि व्यक्ति है भी और नहीं भी है, तो यह लड़का यहाँ अस्तित्व के इस यथार्थ का निषेध करने का आखिरी यत्न करता है। और इस निषेध के लिए वह ठीक उस जगह से जा रहा है जहाँ उसकी वास्तविकता का असल स्रोत है; जहाँ उसकी अस्तित्वपरक वास्तविकता का मातृत्व है। वह माँ से दूर जा रहा है, उस माँ से जोकि उसको उसी रूप में रखना चाह रही है जैसा कि वह है; वह मातृत्व के उस फिगर से दूर जा रहा है जोकि अस्तित्व को उसके यथार्थ में स्वीकार करना चाह रहा है। विचित्र स्थिति है: वह माँ से दूर जा रहा है, पर क्योंकि उसको लगता है कि जहाँ वह जा रहा है, वहाँ उसका वास्तविक स्रोत है, अपने तईं वह माँ के पास जा रहा है। लेकिन विडम्बना यह है कि वह उस पहचान से इंकार करने वहाँ जा रहा है जोकि उसको उसी स्रोत से प्राप्त हुई है। वह वहाँ एक मुक्त हस्त, मुक्त मन, मुक्त गर्भ स्रोत का निषेध करने जा रहा है। वह स्रोत/माँ की ओर जाते हुए स्रोत/माँ का निषेध कर रहा है: सिर्फ़ माँ से दूर जाने के अर्थ में नहीं माँ के करीब जाने के अर्थ में भी। वह एक माँ से दूसरी माँ तक जा रहा है। एक माँ जहाँ से उसको यह अनुभव मिला है, दूसरी माँ जिसने उस अनुभव को स्वीकार किया है। पर अन्ततः वह एक स्त्री (यानी उस लड़की) के पास ही जा रहा है, भले ही एक ऐसी स्त्री के पास जिसके बारे में उसको पूरा विश्वास है कि वह उसकी माँ से एक भिन्न स्त्री है, क्योंकि वह उसको उसकी अद्वितीयता में स्वीकार कर रही है। उसको लगता है कि मातृत्व इस बात में है।

लेकिन वहाँ पहुँचने के बाद वह पाता है कि वहाँ उस लड़की के वेश में दरअसल वही औरत बैठी हुई है जो यह जानती है कि वह वह नहीं है, और तब भी उसको स्वीकार करती है। और अन्ततः जब वह बम-विस्फोट में मारी जाती है, उसका यह मारा जाना दरअसल लड़के की उस ग़लत उम्मीद का मारा जाना है जिसमें एक निर्भ्रान्त, नीरन्ध, स्थिर, सुपरिभाषित, सुपरिसीमित अस्तित्व की अपेक्षा है। वह उस उम्मीद का वध है, उस दूसरे बम विस्फोट में। इसके बाद वह, एक तरह से अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार कर लेता है: ‘‘…और मुझे तो अभी बचना है, अगले विस्फोट में भी, दावा करता हूँ!)”

यह दूसरा बम विस्फोट औपन्यासिक दृष्टि से बहुत ठीक शायद नहीं है। जिस कलात्मक अमूर्तन में यह उपन्यास घटित होता है, उसे देखते हुए एक ठोस किस्म के संयोग या तथ्य पर इतना बल देना मुझे अन्यथा बहुत ठीक नहीं लगता। लेकिन एक रूपक के स्तर पर यह दूसरा विस्फोट एक अत्यन्त विश्वासप्रद दार्शनिक संकेत से भरा हुआ है। पहला विस्फोट लड़के को उसके अस्तित्व के यथार्थ में प्रतिष्ठित करता है, तो दूसरा विस्फोट उसको उस यथार्थ के निषेध से विचलित करता है।

दीपेन्द्र: मैं एक बार फिर लौटता हूँ। यह व्यक्ति एक दुखान्त परिस्थिति से दूसरी दुखान्त परिस्थिति में जाता हुआ तो दिखलायी पड़ता है, लेकिन जो चीज़ उसको सुकून दे रही है, वो एक तरह का उसका ‘कॉमिक विजन’ भी है। मतलब, नितान्त दुखद परिस्थितियों में रहते हुए भी वह उनसे ग्रस्त नहीं होता, बल्कि ‘कॉमिक विजन’ का सहारा लेते हुए उनसे मुक्त होने का यत्न करता है। क्या आपको नहीं लगता कि उपन्यास एक ‘ट्रैज़िक-कॉमिक विजन’ के साथ लिखा गया है?

मदन: एक बार फिर मैं आपके निष्कर्ष से सहमत हूँ लेकिन इस तक पहुँचने के लिए उपन्यास की जिस चीज़ का आप सहारा ले रहे हैं उस पर मेरी राय थोड़ी भिन्न है। निश्चय ही उसमें एक ‘ट्रैज़िक-कॉमिक विजन’ है। अस्तित्व अपनी वास्तविकता में ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ ही है। यह अपने आप में एक ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ सी ही स्थिति है कि वह एक दूसरे आदमी की छाया में और उसके नाम पर जीने को विवश है। इस तरह की स्थिति पर आपको हँसी ही आयेगी। पर यह ‘ट्रैज़िक’ भी है क्योंकि उस व्यक्ति के अन्तःकरण पर क्या गुज़र रही है, इसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन अगर हम इस ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ को उसके बयान के उन लक्षणों में पकड़ने की कोशिश करें जहाँ पर शब्दों, मुहावरों के साथ खिलवाड़ की गयी है, तो वहाँ मुझे उसमें गम्भीरता दिखायी नहीं देती। मुझे नहीं लगता कि वे इस ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ स्थिति को सही ढंग से प्रतिबिम्बित करते हैं। उपन्यास के गाम्भीर्य के साथ उनकी मैत्री बैठती नहीं दीखती। प्रसंगवश, ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ परिस्थितियों को ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ शैली में पकड़ने की कला अगर हिन्दी में कहीं दिखायी देती है तो वह कृष्ण बलदेव वैद के यहाँ दिखायी देती है। आप उनके ‘विजन’ या उन परिस्थितियों से, या उनसे व्यंजित होते अस्तित्वबोध से असहमत हो सकते हैं। लेकिन वे परिस्थितियाँ और उनको प्रगट करने वाला शिल्प अविभाज्य रूप से जुड़े होते हैं; वे एक दूसरे के सन्दर्भ में अपरिहार्य लगते हैं। पर इस उपन्यास में ये चीज़ें उसकी लय में अनावश्यक व्यवधान डालती हैं। यहाँ वह खिलवाड़ उस व्यक्ति के बयान का अंग होती हुई भी उसके उसके अस्तित्वपरक संकट के सन्दर्भ में हल्के-फुल्के ‘इण्टरल्यूड’ की तरह लगती है।

दीपेन्द्र: बाह्य विस्फोट (इक्स्प्लोज़ॅन) और आन्तरिक विस्फोट (इम्प्लोज़ॅन) की इस उपन्यास में समानान्तरता हमें साहित्य की अपनी प्रकृति की याद दिलाती है, जो दोनों को धारण करता है…

मदन: ठीक बात है। यहाँ बाह्य विस्फोट आन्तरिक विस्फोट को जन्म देता है। आप संसार की बनावट को देखें तो उसमें दोनों का यही शायद यही सम्बन्ध दिखायी दे। कम से कम एक दृष्टि तो ऐसा ही मानती लगती है कि बाह्य विस्फोट आन्तरिक विस्फोट की प्रतिध्वनि या प्रतिरूप या प्रतिक्रिया है। शुद्ध भौतिकवादी दृष्टि इसको उलट रूप में देखेगी। पर अगर दोनों में से किसी एक बात को मानने में हमें असन्तोष होता है, और यह असन्तोष हमेशा पैदा होता रहा है, तो मुझे ज़्यादा बेहतर यह लगता है, और साहित्य इसकी ताईद करता है, कि बाह्य विस्फोट आन्तरिक विस्फोट को जन्म देता है, वह उसका स्रोत है पर आन्तरिक विस्फोट बाह्य विस्फोट का रूपक, या प्रतिध्वनि, या अनुगूँज भी है। और ये दोनों चीज़ें एक साथ घटित होती हैं। और इनको एकसाथ घटित होने देने का अवकाश साहित्य में होता है।

दीपेन्द्र: आन्तरिक विस्फोटों की अदृश्यता और अश्रव्यता को शायद भाषा के माध्यम से ही बोधगम्य बनाया जा सकता है।

मदन: बिल्कुल। अगर वह विस्फोट चेतना में घटित हो रहा है, और उसके चिथड़े-चिथड़े उड़ रहे हैं, तो उससे बनने वाले निशानों को भाषा में ही पकड़ा जा सकता है। जबकि बाह्य विस्फोटों का हस्ताक्षर भिन्न भी हो सकता है, जैसा कि हम उसको इस उपन्यास के कैफे में देखते हैं। उपन्यास में ये दोनों ही चीज़ें हैं: उपन्यास शुरू होता है एक बाह्य विस्फोट के साथ, और ख़त्म होता है एक आन्तरिक विस्फोट के साथ। अगर इसको एकरैखिक ढंग से पढ़ेंगे तो आप पाएँगे कि उपन्यास की यात्रा बाह्य विस्फोट से आन्तरिक विस्फोट तक की है। लेकिन मैं समझता हूँ कि यह उपन्यास का, और सामान्य तौर पर साहित्य का, सम्यक पाठ नहीं होगा। इसकी बजाय मैं उसको एक वृत्ताकार संरचना की तरह पढ़ने का प्रस्ताव करूँगा, जैसा कि उपन्यास खुद ही आग्रह करता है। यह अकारण नहीं है कि जिस कैफे से उपन्यास की शुरूआत होती है, उसी कैफे में वह समाप्त होता है। यह कहना मुश्किल है कि कौन सा विस्फोट बाह्य है और कौन सा आन्तरिक। यह लड़का जिस अनुभव को जी रहा है वह एक तरह से अस्तित्व का आतंक ही तो है, जिसको जगाने, उकसाने का काम अस्तित्व को आतंकित करने वाली बम-विस्फोट की वह घटना करती है, लेकिन जब हम अस्तित्व के इसी आतंक को असह्य मान लेते हैं, और उसके प्रति असहिष्णुता की पराकाष्ठा पर जाकर प्रतिक्रिया करने लगते हैं, तो क्या यही आतंक उस बम का रूप नहीं ले लेता?

(समाप्‍त)

यह बातचीत प्रतिलिपि पर कुछ समय प्रकाशित हो चुकी है, इस लेख के अलावा अन्‍य महत्‍वपूर्ण चर्चाओं, विमर्शों के लिए इस पत्रिका को देखा जा सकता है। प्रतिलिपि पर जाने के लिए यहां क्लिक करें।

Monday, November 15, 2010

आतंकवाद पर विमर्श - दो

'आतंकवाद पर समाजवैज्ञानिक विमर्श एकांगी हैं'

''साहित्य उस व्यक्ति की चेतना के उन तत्त्वों के प्रति संवेदनशील हो सकता है, उनको सम्बोधित कर सकता है जो कि इन सारी चीज़ों के प्रति वध्य बना दिये गये होते हैं। साहित्य उन स्थलों की पहचान कर सकता है जो कि हमेशा ही वध्य होते हैं, या जिनके वध्य होने की सम्भावना समाज में हमेशा होती है। वह वध्यता जो कि मनुष्यता की अनिवार्य पहचान है; धर्म के प्रति, जाति के प्रति, विचारधाराओं के प्रति, पन्थों और मतों के प्रति उसकी संवेदनशीलता। उन नाजुक, वध्यस्थलों को समझने का, और उनकी नज़ाकत को चरितार्थ करने का काम साहित्य कर सकता है। वह अपने पाठक को उस व्यक्ति के प्रति भी संवेदनशील बना सकता है जिस व्यक्ति के प्रति इस तरह की घटनाएँ हमारे समाज को असंवेदनशील बना देती हैं, जोकि इन घटनाओं का सबसे दारुण पक्ष है, क्योंकि यह असंवेदनशीलता भी कहीं न कहीं उन घटनाओं के कारकों में योगदान करती है।''

प्रस्‍तुत है आतंकवाद पर दीपेन्‍द्र और मदन सोनी के बीच हुए संवाद यानी मित्र संवाद की दूसरी कड़ी

दीपेन्‍द्र : ‘आतंकवाद’ पर केन्द्रित ख़ासकर समाजवैज्ञानिक विमर्शों में ‘आतंकवाद’ को समझने की एक तरह से विचारधारात्मक एकांगी दृष्टि दिखायी देती है। मनुष्य की चेतना के भीतर घटित हो रही घटनाओं के सूक्ष्म विवरण उनमें नहीं होते। इसलिए परिस्थितियों के मर्म को समझने में उनसे विशेष मदद नहीं मिलती। इसके बरक्स साहित्य में इस संघटना को बहुत से कोणों से, बहुआयामी और संष्लिष्ट दृष्टि से, देखे जाने की सम्भावना दिखती है। इस संघटना के सन्दर्भ में साहित्य के ‘रेस्पॉन्स’ का क्या रूप हो सकता है?

मदन: ‘आतंकवाद’ के सन्दर्भ में साहित्य की प्रतिश्रुति कम से कम दो तरह की हो सकती है। इनमें से एक तो वही है जो गीतांजलि श्री के उपन्यास में उभरती है, जो उस चेतना को लेखे में लेता है जिसे हम ‘आतंकवाद’ की शिकार चेतना के रूप में पहचानते हैं। पर मुझे लगता है कि एक और महत्त्वपूर्ण ढंग हो सकता है, और वह उस व्यक्ति के मर्म में पैठने का होगा जो कि् ‘आतंकवाद’ का एक तरह से अनपहचाना शिकार है, यानी वह व्यक्ति जिसे ‘आतंकवादी’ गतिविधि का उपकरण बनाया जाता है; वह जो ‘आतंकवाद’ को उसके अन्तिम रूप में अंजाम देता है; जिसे किसी तरह का भौतिक या आध्यात्मिक लालच देकर यह कार्रवाई करायी गयी है। उस वाहक के मनोविज्ञान में, उसके आत्म में, उसके मर्म में पैठने की कोशिश कोई कर सकता है, तो वह, मुझे लगता है, साहित्य ही है। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, यह व्यक्ति भी उस कार्रवाई का शिकार होता है, और तब भी होता है जबकि वह एक ‘मानव-बम’ नहीं होता। साहित्य उस व्यक्ति की चेतना के उन तत्त्वों के प्रति संवेदनशील हो सकता है, उनको सम्बोधित कर सकता है जो कि इन सारी चीज़ों के प्रति वध्य बना दिये गये होते हैं। साहित्य उन स्थलों की पहचान कर सकता है जो कि हमेशा ही वध्य होते हैं, या जिनके वध्य होने की सम्भावना समाज में हमेशा होती है। वह वध्यता जो कि मनुष्यता की अनिवार्य पहचान है; धर्म के प्रति, जाति के प्रति, विचारधाराओं के प्रति, पन्थों और मतों के प्रति उसकी संवेदनशीलता। उन नाजुक, वध्यस्थलों को समझने का, और उनकी नज़ाकत को चरितार्थ करने का काम साहित्य कर सकता है। वह अपने पाठक को उस व्यक्ति के प्रति भी संवेदनशील बना सकता है जिस व्यक्ति के प्रति इस तरह की घटनाएँ हमारे समाज को असंवेदनशील बना देती हैं, जोकि इन घटनाओं का सबसे दारुण पक्ष है, क्योंकि यह असंवेदनशीलता भी कहीं न कहीं उन घटनाओं के कारकों में योगदान करती है। साहित्य इस तरह ‘आतंकवाद’ के इर्दगिर्द एक अधिक मानवीय विमर्श बुन सकता है।

दीपेन्द्र: मुझे तॉल्स्तॉय की कहानी ‘क्रूज़र सोनाटा’ याद आती है जिसमें एक व्यक्ति ने अभी हाल ही में भावावेश में आकर अपनी पत्नी की हत्या की है, पर जब वह अपनी पत्नी का स्मरण कर रहा है, तो जान पड़ता है कि उसके साथ उसका सम्बन्ध बहुत ही असाधारण और अद्भुत था, और उस स्मरण में पत्नी की बहुत ही आत्मीय स्मृतियाँ उभरती हैं। पूरी कहानी पढ़ने के दौरान इस बात का निर्धारण बहुत मुश्किल हो जाता है कि इस व्यक्ति की चेतना के किस अंश को अपराधी माना जाय और किस अंश को निर्दोष माना जाय। विधि व्यक्ति को एक समग्र अखण्डित इकाई के रूप में देखना चाहती है, जोकि उसको दण्डित करने के लिए ज़रूरी है। पर साहित्य मनुष्य की परिभाषा को ही इतना समस्यामूलक बना देता है या उसमें विखण्डन पैदा कर उसको इतने सारे तत्त्वों के रूप में पेश कर देता है कि उसको फैसले और दण्ड का विषय बना पाना मुश्किल होता है। व्यक्ति के अलग-अलग बिखरे हुए अंशों को साहित्य एक समग्र इकाई में परिभाषित नहीं करना चाहता क्योंकि वह अपने स्वभाव से ही सामान्यीकरण के ख़िलाफ़ होता है। ऐसे में साहित्य का विमर्श ‘आतंकवाद’ की परिघटना की समझ को विकसित करने में प्रासंगिक कैसे हो सकता है?

मदन: साहित्य कभी भी ‘आतंकवाद’ का निर्धारण करने या उसको परिभाषित करने का काम नहीं करेगा। वह कोई अदालत नहीं है, कोई नैतिक संहिता नहीं है, जहाँ पर ‘आतंकवादी’ को या किसी को भी दण्डित किया जाना है। जैसा कि हम शुरू में कह रहे थे, आप ‘आतंकवाद’ शब्द का इस्तेमाल करते ही उसको परिभाषित करते हैं, जोकि अपने आप में एक तरह की हिंसा है। तो ये कोशिशें अपने आप में उन कारकों में शामिल हैं जो ‘आतंकवाद’ को जन्म देते हैं। ये भी विमर्श के क्षेत्र में ‘आतंकवादी’ कार्रवाइयाँ हैं। क्योंकि जैसे ही आप परिभाषित करते हैं, आप परिसीमित भी करते हैं; जैसे ही आप एक नाम देते हैं, वैसे ही आप उन सारी सम्भावनाओं को ख़त्म कर देते हैं या उस एक नाम में सिमटा देते हैं जोकि किन्हीं अन्य नामों से पुकारी जा सकती थीं। एक पहचान को स्थिर करते हुए आप बहुत सारी पहचानों का अपवर्जन करते हैं, या उनको हाषिये पर धकेल देते हैं। और इस तरह आप उस असन्तोष को जन्म देते हैं जोकि अपने विकृत रूप में पहचान के ‘काउण्टर-एसर्सन’ में बदलता है। साहित्येतर विमर्शों की समस्या यही है। साहित्य इसीलिए कभी ‘आतंकवाद’ को परिभाषित करने, उसका निर्धारण करने, की कोशिश नहीं करेगा। वह शायद एक ऐसे संश्लिष्ट मनुष्य को चरितार्थ करने की कोशिश करेगा जो एक साथ ‘आतंकी’, भी है और ‘आतंकवाद’ का शिकार भी है, पीड़ा पहुँचाने वाला भी है और पीड़ित भी। इसीके साथ-साथ वह उस संघटना को ख़ुद हमारे भीतर लोकेट करने की कोशिश करेगा। वह कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति को सामने नहीं लाएगा जिसकी ओर कृति का सेल्फ़ अँगुली उठाकर उसको ‘आतंकवादी’ कह सके। साहित्य की अँगुली हमेशा अपनी ओर उठेगी। वह एक ऐसी स्थिति पैदा करेगा जिसमें कि आप अपने को उस जगह खड़ा पाएँ जिस ओर आपकी अँगुली उठी हुई है; जिस जगह खड़े होकर किसी व्यक्ति ने बम का धमाका किया है। उस जगह जहाँ शिकार और शिकारी एक-दूसरे के सन्दर्भ में शब्द और अर्थ की तरह एक दूसरे से गुँथे हों। साहित्य इनके सा-हित्य को चरितार्थ करेगा। साहित्य आपको उस जगह खड़ा करेगा जहाँ पर इस विस्फोटक व्यक्ति को तैयार किया था। ‘आतंकवाद’ के कारण और कार्य के संश्लेषण को किसी चरित्र, या किसी मानवीय स्थिति में रूपायित करना और इससे भी अधिक इस समूची संघटना को एक अस्तित्वपरक संकट के रूप में सामने लाने की कोशिश करना, सब तरह के जोखिम उठाते हुए-साहित्य की भूमिका, इस सन्दर्भ में, शायद कुछ इस तरह की होगी। जब तक हम एक ऐसे स्वत्व को सामने नहीं लाते हैं जिसके भीतर यह सब एक साथ घटित हो रहा है तब तक हम इस जटिल संघटना को नहीं समझ सकते। इस संश्लेषण में साहित्य किसी दैवी कर्ता की तरह सफल नहीं भी होगा, तो वह अकुण्ठ भाव से अपनी विफलता को भी दिखायेगा।

दीपेन्द्र: मेरा आशय यह था कि विधि के लिए क्योंकि अपराध और दण्ड का एक विमर्श विकसित करना है, इसलिए उसके लिए अपने होने में ही स्पष्ट समझ, स्पष्ट परिभाषाएँ, स्पष्ट नामकरण अनिवार्य है, अन्यथा वह विधि नहीं हो सकती। जबकि साहित्य समझ के विरोधाभास या समझों की असंगति पैदा कर, बल्कि समझ की पर्याप्तता को ही प्रश्नांकित कर, समझदारी को ही अधूरा मानकर उसे गैरज़रूरी बना देता है। वह हर मुकाम पर समझ को अपर्याप्त और अधूरी मानकर चलता है। तो ऐसे में संसार ‘आतंकवाद’ के समाधान की अपेक्षा साहित्य से कैसे कर सकता है?

मदन: देखिये, अव्वल तो संसार साहित्य से कोई अपेक्षा नहीं कर रहा है। संसार अगर सबसे कम किसी से अपेक्षा करता है, तो वह साहित्य है…

दीपेन्द्र: शायद इसलिए कि संसार साहित्य-निरपेक्ष है…

मदन: शायद…। और संसार साहित्य से कोई अपेक्षा न करे, यह समझ संसार में पैदा करने का काम शायद साहित्य ने ही किया है। अपने प्रभाव में साहित्य एक फलप्रद विमर्श नहीं है। साहित्य का उद्देश्य समाधान देना नहीं है। साहित्य का शायद कोई उद्देश्य नहीं है, लेकिन समाधान देना तो कतई नहीं है। समाधान देने के उद्देश्य से समाज में बहुत सी संस्थाएँ-विद्याएँ मौजूद हैं। बेहतर क़ानून-व्यवस्था या फलाँ क़ानून को पुनर्जीवित करना या एक नया क़ानून बनाना…। ये कोशिशें कितनी दयनीय हैं, इसे हम विधि के इतिहास से समझ सकते हैं। मैं नहीं समझता कि विधि इतनी चाकचौबन्द पुराने ज़मानों में रही होगी, जितनी कि वह आज है। इलेक्ट्रॉनिक क़िलेबन्दी से लैस अमेरिका में ९/११ का घटित होना यह बताता है कि समाधान के वो रास्ते जिनपर हमारा समाज चलने को विवश है, कितने दयनीय और निरुपाय हैं। फिर भी समाधान देने का उनका जज़्बा बरकरार रहता है। और इस जज़्बे में विश्वास करने वालों में साहित्यकार भी शामिल हो सकते हैं। मसलन एक लेखक अपने उपन्यास में वो सारी चीज़ें कर रहा हो सकता है जिनकी बात हम कर रहे हैं, जिनके बारे में हमें लगता है कि अपने आदर्श रूप में साहित्य ऐसा करता है, पर वही उपन्यासकार समाज के उन सुरक्षा उपायों में विश्वास कर सकता है, जिनकी विफलता की बात हम कर रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि विधि की ज़रूरत नहीं है। विधि की ज़रूरत किसी उपन्यास के चरितनायक या उपन्यास के आत्म के लिए न हो, पर उस उपन्यासकार के लिए तब भी होगी। इसलिए इसमें किसी तरह के पुण्यात्मापन की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि लेखक तो बहुत पुण्यात्मा है, और वह तो साहित्य की दुनिया में रहता है और उसको विधि से कोई लेनादेना नहीं है…। ऐसा नहीं है। मैं तो उस प्रज्ञा की बात कर रहा हूँ जो एक कृति के माध्यम से हम तक पहुँचती है। वह शायद एक असम्भव प्रज्ञा है; वह एक ऐसी चीज़ है, जिसका शायद कोई अनुप्रयोग सम्भव नहीं है। वह हमेशा गल्प के क्षेत्र में है और शायद उसी क्षेत्र में बने रहने के लिए अभिशप्त है। पर गल्प के इस क्षेत्र का अस्तित्व तो है ही। और उसका अस्तित्व सिर्फ़ गल्प में ही नहीं है, बल्कि हमारे भीतर भी उसका अस्तित्व है। तभी इस दुनिया में साहित्य के रचयिता और पाठक होते हैं। उन्हीं के बीच एक संवाद की सम्भावना बनी होती है। क्योंकि गल्प के क्षेत्र में जो कुछ रचा जाता है, जो कुछ रचा जा सकता है, वह इसी उम्मीद से कि मनुष्य के भीतर कोई ऐसा अवकाश है जहाँ पर उसकी प्रतिश्रुति सुनी जा सकेगी। और वह मनुष्य जो एक लौकिक प्राणी होने के नाते, सामाजिक प्राणी, या एक नागरिक होने के नाते समाज के नियमों का पालन कर रहा है, उनसे तरह-तरह की अपेक्षाएँ कर रहा है, उनमें भागीदारी कर रहा है, उस मनुष्य के भीतर भी एक गुंजाइश ऐसी है जहाँ पर वह इन सबकी निरुपायता को समझ सकता है, और जिस अवकाश में स्थित होकर वह समझ सकता है कि इस समस्या का असल रूप क्या है।

दीपेन्द्र: ‘आतंकवाद’, एक तरह से, न्यूनतम रूप से, एक ‘सामुदायिक पहचान’ पर टिका हुआ लगता है, और यह सामुदायिक स्वत्व या तो अन्यत्व का अभिशाप झेल रहा है या किसी अन्य पहचान की प्रतिस्पर्धा में है। सामुदायिक पहचानों का यह संघर्ष ‘व्यक्ति’ की अपनी गहरी असुरक्षा का संकेतन करता लगता है; ‘व्यक्ति’ अपने भीतर इतना असुरक्षित महसूस कर रहा है कि ‘सामुदायिक पहचान’ में ही वह अपनी सुरक्षा महसूस कर रहा है; बल्कि उसका निर्माण वह अपनी आस्था से कर रहा है। पर जैसे दार्शनिक देरीदा अपनी पहचान बतलाते हैं कि मैं थोड़ा अरब हूँ, थोड़ा यहूदी हूँ, थोड़ा ब्लैक हूँ…आदि, तो अगर ऐसी बहुत सारी पहचानों के संश्लेषण को हर व्यक्ति स्वीकार कर ले, तो पहचानों के संघर्ष की स्थिति शायद न बने। राष्ट्र्र-राज्य पहचानों की सुनिश्चित इकाई पर टिका हुआ है, या वह पहचानों के संश्लेष का अपवर्जन करता है। साहित्य में पहचानों के संष्लेषण की सम्भावना इसलिए दिखलायी देती है क्योंकि वह मनुष्य की चेतना तक पहुँचने का प्रयास करता है, और उसकी पहचान की गढ़न की प्रक्रियाओं में गहरे उतरने की कोशिश करता है।

मदन: बल्कि वह शायद एक ऐसा रूप है जो पहचान के आग्रह के अपरिग्रह से सम्भव होता है। वह कई सारी पहचानों का संष्लेषण नहीं है बल्कि एक ऐसी इकाई है जोकि आपको पहचानों के समग्र के रूप में ‘दिखायी देती है’, क्योंकि आप उसमें विखण्डन पैदा करके उसको बहु-पहचान-मूलक शक्ल दे देते हैं।

जहाँ तक ‘आतंकवादियों’ द्वारा एक व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान के संकट से उबरने के लिए सामुदायिक पहचानों के वरण की आपकी बात है, तो हम नहीं जानते कि सैकड़ों ‘आतंकवादी’ कार्रवाइयों में मारे गये ‘आतंकवादी’ वाकई वैयक्तिक पहचान के किसी संकट का सामना कर रहे थे। इसी के साथ, अगर वह सामुदायिक पहचान है भी, तो उसके पीछे एक गहरी धार्मिक आस्था भी अक्सर दिखायी देती है, ख़ासतौर से उसमें जिसे हम मानव-बम कहते हैं। मानो वह ईश्वर के आदेश पर, या किसी दैवीय अनिवार्यता का निर्वाह करते हुए की गयी आत्मोत्सर्ग की कार्रवाई हो। धर्म की इन ‘आतंकवादी’ समुदायों की प्रच्छन्न व्याख्या चाहे कितनी ही अप्रमाणिक हो, इन समुदायों की धार्मिक आस्था असन्दिग्ध प्रतीत होती है। और इस धार्मिकता के भीतर ‘व्यक्ति’ या ‘वैयक्तिक पहचान’ शायद ही कोई मूल्य होगा। इसलिए यह एक अटकल ही है, जो आप कह रहे हैं, भले ही एक तार्किक रूप से विश्वासप्रद अटकल।

आपके कहने में यह भी कहीं ध्वनित है कि वैयक्तिक पहचान का यह संकट बड़े पैमाने पर महसूस किया जा रहा है। लेकिन, अगर ऐसा है तो, इस संकट का स्रोत क्या है? वह क्या चीज़ हो सकती है जो किसी समाज के भीतर व्यक्तियों में उनकी व्यक्तिमत्ता की क्षति के रूप में अनुभव की जा रही हो? इसका क्या कारण हो सकता है?

दीपेन्द्र: निजी पहचान तो अर्जित की जाती है, लेकिन यह सामुदायिक पहचान एक तरह से आरोपित की जाती है। और ‘आतंकवादियों’ के सन्दर्भ में यह आरोपण जिस कच्ची उम्र में होता है, उसे देखते हुए उस पहचान को आस्थापूर्वक मान लेना शायद ज़रूरी हो जाता है…।

मदन: पर जो लोग इस कृत्य में मुब्तिला हैं, उनके लिए वैयक्तिक पहचान का क्या वाकई कोई अर्थ है? और वैयक्तिक पहचान की यह धारणा किस की दी हुई है?

दीपेन्द्र: ज़ाहिर है, आधुनिकता की। और वह किसी तरह की सामुदायिक पहचान को नहीं मानती।

मदन: ऐसा कहना शायद आत्मछल होगा कि मुख्यतः जिस अन्य के प्रति उनका यह कृत्य सम्बोधित है, वह स्वयं सामुदायिक पहचान से बाहर है । वहाँ भी सामुदायिक पहचान प्रभावी है। वहाँ भी राष्ट्र्र, राज्य, हम, हम अमेरिकी आदि सब है…।

दीपेन्द्र: बल्कि जो विधि है, उसमें भी दिखता है ये…

मदन: साफ़तौर पर दिखता है। आप ये भी देखें कि ये सब के सब गहरे धार्मिक हैं। भले ही बहुत से पण्डित यह कहते रहें कि उनके धर्म का सम्बन्ध इस तरह की गतिविधियों से नहीं है। वे शायद ठीक भी कहते हों, लेकिन एक ख़ास तरह की धार्मिकता तब भी इन लोगों में मौजूद है। इस धार्मिक जज़्बे के सन्दर्भ में मुझे न सिर्फ वैयक्तिक पहचान के आग्रह की या उसकी क्षति के बोध की कोई गुंजाइश दिखायी नहीं देती, बल्कि इसके विपरीत वैयक्तिक पहचान को प्रतिरोध देने की भावना ज़्यादा दीखती है। और यह शायद स्वाभाविक है क्योंकि वैयक्तिकता का विचार उनकी धार्मिकता के सन्दर्भ में एक प्रतिरोध्य विचार है। इस सिलसिले में आप ओरहान पामुक के उपन्यास माई नेम इज़ रेड के भीतर चलने वाली बहसों को याद कर सकते हैं।…

बहरहाल, ‘आतंकवाद’ की समूची संघटना से व्यक्ति पूरी तरह से ग़ायब है। और साहित्य जो कर सकता है, उसमें शायद यह भी शामिल है कि वह ‘आतंकवाद’ के दोनों ओर फैले राष्ट्र्र, राज्य, सम्प्रदाय, धर्म, विचारधारा आदि के ईंट-गारे से बने सामान्यीकरण और समुदायपरकता के इस दुर्ग में सेंध लगाये और उसके भीतर व्यक्ति को तलाशने-पहचानने की कोशिश करे।

दीपेन्द्र: अभी बेंगलोर में प्रेमी युगलों पर जिस तरह के हमले हुए हैं, उनमें क्या एक तरह से आधुनिकता का अस्वीकार नहीं दिखता, कि अगर हमने इस आधुनिकता को मान लिया तो हमारी संस्कृति ख़त्म हो जाएगी? और इसलिए इन तथाकथित सांस्कृतिक संरक्षणवादियों का आधुनिकता के बरक्स अपनी संस्कृति को बचाने का प्रयास उत्तरआधुनिकता की ओर संकेत नहीं करता? हमारे यहाँ आधुनिकतावाद का सबसे बड़ा एजेण्ट शायद राज्य ही है, पर जो भी हो, आधुनिकता के पचास-साठ बरस गुज़र जाने के बाद, बेंगलोर जैसे मैट्रोपॉलिटन शहर में इस तरह की घटनाओं का होना क्या आधुनिकतावाद के प्रति एक सामुदायिक भय का संकेत नहीं है? और इस मायने में क्या यह भी एक ‘आतंकवाद’ नहीं है?

मदन: देखिये अब तक हम ‘आतंकवाद’ के बारे में जो बातें कर रहे थे, उनमें निहित तर्कों को हमने सीधे-सीधे हिन्दुस्तान में हो रही ‘आतंकवादी’ घटनाओं के सन्दर्भ में देखने की कोशिश नहीं की है। हमारा सामान्य परिप्रेक्ष्य वैश्विक रहा है। उसमें भी ईसाइयत या/और आधुनिकता बनाम इस्लाम के सन्दर्भ में ही हमने इसको समझने की कोशिश की है। इसलिए हिन्दुस्तान में जो कुछ हो रहा है वह ‘आतंकवाद’ के इस वैश्विक रूप से संगत नहीं लगता, सिवा इसके कि अमेरिका के साथ भारत के मधुर सम्बन्ध उसके लक्ष्य पर हों, जैसा कि पाकिस्तान के सन्दर्भ में भी है। क्योंकि, जैसा कि हमने शुरू में कहा, उनकी कार्रवाइयाँ सांकेतिक हैं; वे एक सभ्यता पर, एक विचारदृष्टि पर आघात करने की कोशिशें हैं। हालाँकि इसमें यह अन्धापन है कि इस कोशिश में वे मनुष्यों की नृशंस हत्याएँ करते हैं। अन्यथा मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान इस्लाम का उस तरह का प्रतिपक्ष है, जैसा कि अपने धार्मिक संस्कारों और साभ्यतिक आदर्शों में पश्चिम है। इसलिए यहाँ की ‘आतंकवादी’ घटनाएँ अलग व्याख्या की माँग करती हैं।

जहाँ तक बेंगलोर की घटनाओं का सवाल है, उनमें हिंसा तो है ही। ‘आतंकवाद’ वह उस अर्थ में नहीं है, लेकिन उसके भीतर सूक्ष्म रूप में वही संवेग हैं जो ‘आतंकवाद’ के संगठित रूप को जन्म देते हैं। एक ख़याल अपनी संस्कृति और धर्म का, उसकी रक्षा का, उसका रक्षक होने का…। यह संकट- पहचान का यह संकट -एक सामी संस्कृति के भीतर तो समझ में आने वाली बात लगती है, जहाँ पहचान एक संगठित धर्म के भीतर, और संगठित धर्म के द्वारा वैधीकृत होती है। लेकिन जिसे आप हिन्दू धर्म कहते हैं, हिन्दू संस्कृति कहते हैं, उसमें पहचान का वैसा संस्थानपरक आग्रह नहीं है…। इसलिए हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में इस तरह के सांस्कृतिक भय को इस्लामी कट्टरपन्थियों के भय के समतुल्य देखना मुझे ठीक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि इस्लामी कट्टरपन्थियों का सांस्कृतिक भय उनकी प्रतिरूप संस्कृति के सन्दर्भ में खरा प्रतीत होता है- उस भय से हमारी चाहे कितनी ही असहमति क्यों न हो और वह भय चाहे कितना ही निवारणीय क्यों न हो। उन्होंने उसकी क़ीमत भी चुकायी है-सिर्फ़ उस विनाश के अर्थ में नहीं जो ‘आतंकवाद’ के कारण उनका समाज भोग रहा है, बल्कि साभ्यतिक अर्थ में। आधुनिकता के अपरिग्रह के अर्थ में। एक ख़ास तरह का प्रतिरोध जो उन्होंने आधुनिक मूल्यों और आधुनिक असबाब को, कमॉडिटीज़ को, कुल मिलाकर आधुनिकतावाद के अनिष्ट को दिया है, उसके नतीजे में जो क़ीमत उन्होंने चुकायी है, वह बहुत बड़ी क़ीमत है।

दीपेन्द्र: हम बात कर रहे थे कि साहित्य का विमर्श हमेशा ही अव्यवहारिक होगा और इस नाते अप्रासंगिक भी होगा। लेकिन क्या अपनी इसी अव्यवहारिकता के नाते वह एक ऐसा बिन्दुपथ तैयार नहीं करता जिससे इस संसार की सूक्ष्म बुनावटों में अन्तर्निहित आतंक के मर्म तक वह हमें ले जाता है?

मदन: यह साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण कि वह जो भी संरचना गढ़ता है, या जो भी संरचना उसकी उभरती है, उसको निर्मित करने के क्षण में ही वह उसको तोड़ता भी है। वह उसको किसी भी तरह से अभेद्य और हमेशा के लिए संहत हो जाने वाला रूप नहीं लेने देता। वह हमेशा बनने के साथ-साथ मिटने की प्रक्रिया में होता है। यह चीज़ अस्तित्व के प्रति उसके दृष्टिकोण में भी प्रगट होती है, जहाँ वह उसके बनने की प्रक्रिया में निहित विघटन और विघटन की प्रक्रिया में निहित गठन को लक्ष्य करता है। और इसीलिए वह उसके उन सारे तत्त्वों को पकड़ने की कोशिश करेगा है, जिनमें से एक चीज़ वह भी कही जा सकती है जिसका संहत या अवधारणात्मक रूप ‘आतंकवाद’ है। वह चीज़ मानवीय अस्तित्व के भीतर ही कहीं है, और क्रियाशील है-साहित्य इसकी ओर निगाह डालने की कोशिश करेगा। आप जिस पहचान के संकट की बात कर रहे थे, उसके सन्दर्भ में कहें, तो वह पहचान की लालसा और उसमें निहित हताशा दोनों को एक ही मानव इकाई के भीतर समझने की कोशिश करेगा; एक ही वक़्त में नाम देने, परिभाषित करने या परिभाषित होने की कोशिश और परिभाषा में निहित पहचानहीनता या पहचान के लोप को पकड़ने की कोशिश।

दीपेन्द्र: आपकी इस बात से मुझे नाबाकोव का वह कथन याद आता है जिसमें वे कहते हैं कि उपन्यास का सौन्दर्य दरअसल कॉमनसेंस की सिटी (City) को ब्लास्ट करने में पैदा होता है। थोड़ा-सा और ध्यान से देखें तो उपन्यास के अपने सौन्दर्य के लिए ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ की अनिवार्यता है; उसके लिए उसका पॉलीफोनिक होना बहुत ज़रूरी है। तो एक तरह से उपन्यास उसके भीतर स्थित प्रतिवादी पक्ष से निरन्तर संवाद या असंवाद करते हुए, और लगातार अपने होने को प्रश्नांकित करते हुए विस्तार पाता है। और इसलिए वह किसी सामान्यीकरण की परिधि में नहीं आता। तो क्या इस नाते यह नहीं लगता कि उपन्यास की बुनावट चूँकि ऐसी है इसलिए वो सबसे ज़्यादा आत्मीयता से ‘आतंकवाद’ की संश्लिष्टता को अपने ढाँचे में ग्रहीत कर सकता है?

मदन: हाँ। इसी बात को थोड़े और रोचक ढंग से कहें तो वह ‘आतंकवाद’ के सन्दर्भ में स्वयं एक ‘आतंकवादी’ कार्रवाई की तरह हो सकता है। और वह कार्रवाई अवबोध और अभिव्यक्ति दोनों स्तरों पर हो सकती है। ‘आतंकवाद’ का साहित्येतर, प्रचलित विमर्श एक ‘कॉमनसेंसिकल’ विमर्श ही है; ‘आतंकवाद’ के ‘कॉमनसेंस’ का शहर। और अगर उसके सन्दर्भ में उपन्यास की किसी सम्भावना की कल्पना करें तो वह इस नगर में एक विस्फोट पैदा करने की कोशिश करेगा। यह विस्फोट दो स्तरों पर हो सकता हैः एक, वह ‘आतंकवाद’ के इस ‘कॉमनसेंसिकल’ विमर्श के चिथड़े उड़ा दे, पर, दूसरे, वह आत्मघाती कार्रवाई के रूप में भी हो सकता है; मतलब, वह ‘कॉमनसेंस’ के इस स्थल पर अपने शरीर पर ही विस्फोटक बाँधकर जा सकता है, और इस तरह वह अपने भी चिथड़े उड़ा सकता है, जैसा कि खाली जगह उपन्यास करता है। हालाँकि ‘कॉमनसेंस’ का एक निश्चित इलाका है जहाँ पर यह उपन्यास घटित होता है; वह इलाका जहाँ पर हम ‘आतंकवाद’ के प्रभाव को लक्षित करते हैं। बहरहाल वह इस इलाके में आत्मघाती विस्फोट करता है, और जितने चिथड़े उस ‘कॉमनसेंस’ के उड़ाता है, उतने ही चिथड़े अपने भी उड़ाता है। इसी में उपन्यास की मार्मिकता है। मुझे लगता है कि साहित्य की वैधता इसी में है। साहित्य की मीमांसा महज़ एक वस्तुपरक मीमांसा नहीं है, वह हमेशा ही, अपनी मीमांसा भी है। और मुझे लगता है कि ‘आतंकवाद’ का अगर कोई समाधान हो सकता है, तो वह इसी बात में हो सकता है कि जिन लोगों के खिलाफ़ ‘आतंकवाद’ है, उनके भीतर आत्मालोचना भी विकसित हो। आप अपनी अवधारणाओं, विश्वासों, मतों, आग्रहों और अपनी संस्थाओं के भीतर अगर आत्मालोचना का एक अनिवार्य अवकाश बनाकर रखते हैं, जैसा कि साहित्य करता है, तो ये चीज़ें निरन्तर अपने संघटन और विघटन की प्रक्रिया में होंगी और तब शायद इसकी उत्प्रेरणा नहीं होगी कि दूसरा आये और उनको तोड़े।

दीपेन्द्र: यहाँ मुझे एक दूसरा उपन्यास याद आता है, मार्क़्वेज़ का ऑटम ऑफ् दि पेट्रियार्क। उपन्यास में एक ऐसा सैनिक तानाशाह है जिसने सैकड़ों बर्बर हत्याएँ की हैं, दमन का भयावह वातावरण बनाया है और इसी वातावरण के निर्माण में वह अपने अस्तित्व की सार्थकता देख रहा है। बल्कि वह जितना दमन कर रहा है उतना ही उसे एक तरह का सुकून मिल रहा है। पर मार्क़्वेज़ ने इस उपन्यास में समूची वाक्यरचना को ही बदल दिया है। यही नहीं, बल्कि समय के संघटन को, जोकि चेतना में अन्तर्निहित होता है, भंग करते हुए, उसके सारे व्यवहार, सारे क्रियाकलापों को इतनी आत्मीयता से देखा है कि पितृसत्ता को आरोपित करने वाले इस सैनिक तानाशाह की चेतना के अन्तर्निहित विचलन बहुत ही मर्मस्पर्शी ढंग से उभरते हैं। यहाँ पर उपन्यास अपने कथ्य में प्रयोग कर रहा है और ऐसे असम्भव को कहने का प्रयास कर रहा है जिसकी गुत्थी या रहस्य स्वयं चेतना में उलझा हुआ है। चेतना के इस उलझाव के साथ-साथ वह हमें शक्ति की अभेद्य संरचना तक भी ले जाने की कोशिश करता है।

मदन: यानि एक क़िलेबन्दी है, तानाशाही की, जिसको भेदने की कोशिश उपन्यास कर रहा है। एक तानाशाह या अत्याचारी चेतना के सन्दर्भ में हमारा ‘कॉमनसेंसिकल’ विमर्श क्या करेगा? वह उसका एक प्रतिपक्ष गढ़ेगा; एक ऐसी चेतना की कल्पना करेगा जोकि इस तानाशाह चेतना की शिकार है। लेकिन मार्क़्वेज़ उसी तानाशाह चेतना में सेंध लगाने की कोशिश करते हैं। आप कह सकते हैं कि एक तरह का विस्फोट वह भी है। आप कह रहे हैं कि मार्क़्वेज़ ने इस उपन्यास में कथ्य के स्तर पर प्रयोग किया है। लेकिन मैंने जब इस उपन्यास को पढ़ने की कोशिश की थी, तो मुझे वह काफी दुरूह लगा था; उपन्यास की वाक्य-रचना मुझे बहुत जटिल प्रतीत हुई थी। मुझे लगता है कि इस तरह उपन्यास वाक्य-रचनापरक सरलता को भंग करता है, और हमारी चेतना की ‘कॉमनसेंसिकल’ वाक्य-रचना की अभ्यस्ति में दरार पैदा करता है, उसकी ‘कण्डीशनिंग’ को तोड़ता है। साहित्य दोहरे स्तर पर काम करता है। उपन्यास में जो कुछ घटित हो रहा है, वो अपनी जगह पर तो हो ही रहा है, लेकिन उसके लक्ष्य के सिरे पर, यानी पाठक के मानस में, भी वह एक दूसरे स्तर पर घटित हो रहा है। पर ऐसा वह उद्देश्यपरक ढंग से नहीं कर रहा है, बल्कि अपने विशिष्ट कथ्य के निर्वचन की प्रक्रिया में वह इसी तरह आकार ले सकता था कि उसका एक सह-प्रभाव उसके पाठक पर भी पड़े कि उसका भाषिक ‘कॉमनसेंस’ टूटे। और इसी अर्थ में वह एक ऐसा आघात है जो साथ ही साथ आत्माघात भी है। उपन्यास का स्वत्व हमेशा पाठक के स्वत्व में ही चरितार्थ होता है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि पाठक की चेतना पर यह उपन्यास कुछ इस तरह घटित होगा कि वह उसके भाषिक ‘कॉमनसेंस’ को भी वह तोड़ेगा और इस प्रक्रिया में वह उस पाठक के भीतर वैसा तानाशाह हो सकने की सम्भावना को भी स्वयं उस पाठक के लिए सामने लाएगा। क्योंकि किसी भी तरह की तानाशाही की दिशा में आपको अन्ततः तरह-तरह के कॉमनसेंस ही ले जाते हैं। संसार के बारे में एक तानाशाह का बोध ‘कॉमनसेंसिकल’ ही होता है; वह संसार की विशिष्टता को नहीं समझता। वह संसार की ‘कॉमनसेंसिकल’ व्याख्या करते हुए, उसको ‘कॉमनसेंस’ के स्तर पर ग्रहण करते हुए ही अपनी विशिष्टता को एक अत्याचारी विशिष्टता में बदलता है।

दीपेन्द्र: ‘आतंकवाद’ का अर्थ एक ध्वंसात्मक कार्रवाई के रूप में स्थापित है: व्यवस्था का, उसको वैध ठहराने वाले नागरिकों का, और सार्वजनिक सम्पत्ति का ध्वंस करना। लेकिन ‘आतंकवाद’ का एक निहितार्थ यह भी लगता है कि वह एक तरह का सन्नाटा या एक तरह की भाषाहीनता स्थापित करना चाहता है, जिसमें ‘आतंकवादी’ के अर्थ की एकवाच्यता स्थापित हो सके। दरअसल उसका आघात चेतना पर ही है। इस नाते ‘आतंकवाद’ उस भाषा पर भी हमला है, जिसका एक काम संसार में सम्बन्धों की स्थापना और उनको बनाये रखना भी है। इसके बरक्स उपन्यास है, जो दरअसल अपने रूप में ही भाषा की साधना करता है, मानवीय सम्बन्धों या उनमें पैदा हो रही दरारों की समझ विकसित करता है….

मदन: हम लोग उपन्यास पर ही इतना ज़ोर क्यों दे रहे हैं? क्या हम उपन्यास की जगह साहित्य-मात्र की बात इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उपन्यास में ही इस चीज़ की अधिक गुंजाइश है? खैर।

सन्नाटा पैदा करने वाली आपकी अटकल के सन्दर्भ में मुझे लगता है कि जहाँ तक उनकी कार्रवाई के प्रभाव का सवाल है, वहाँ तक आपकी बात सही हो सकती है। लेकिन यह प्रभाव पैदा करना उनका ध्येय है, ऐसा शायद नहीं है। अगर इस प्रभाव का उन्हें अहसास हो, तो हो सकता है, इसे वे अपने ध्येय में शायद शामिल भी करलें, लेकिन यह उनकी एक बौद्धिक युक्ति है, जैसा कि आपकी बात से निकलता है, इसमें मुझे सन्देह है। यह सही है कि एक विस्फोट होता है और वह एक स्तब्धता पैदा करता है। और उस स्तब्धता में जो भी आवाज़ें हैं वे बिला जाती हैं और आपका ध्यान पूरी तरह से उस आवाज़ पर जाता है जोकि दरअसल सुनायी नहीं देती। यानी वे अपनी खामोशी को श्रव्य बनाते हैं। क्योंकि वहाँ शायद कोई भाषा नहीं है। और यही उसके सन्दर्भ में शायद हमारी हताशा है। अगर भाषा हो तो आप उससे निबट सकते हैं; क्योंकि तब आप उसका अर्थ कर सकते हैं, उसके आधार पर कोई संवाद स्थापित कर सकते हैं। पर वहाँ एक खामोशी है, कम से कम अभिव्यक्ति के स्तर पर। आप कह सकते हैं कि ‘आतंकवादी’ संगठनों की ओर से आता हुआ सन्देश अपने आपको इस खामोशी की शक्ल में पेश कर रहा है। आप यह नहीं जानते हैं कि दरअसल वे क्या कहना चाह रहे है। हमें भ्रम होता है कि वह एक अर्थगर्भी खामोशी है और हम उसके बारे में अटकलें लगाते हैं। एक तरह का रहस्य, और इस रहस्य में एक तरह की दैवीयता भी है। इस वक़्त दुनिया में सक्रिय ‘आतंकवादियों’ में शायद ही कोई ऐसा है जो अपने सन्देश के स्रोत को लोकातीत न मानता हो।

खैर, अगर ऐसा है, यानी अगर वह एक रहस्यमय खामोशी है, अगर उसमें अर्थ और अर्थहीनता का द्वैध है, तो इस द्वैध के सन्दर्भ में साहित्य क्या कर सकता है? वह इस द्वैध के प्रति किस तरह प्रतिश्रुत होगा? व्यवस्था इस पर कान नहीं देना चाहती। वह मानती है कि इस खामोशी का एकमात्र उद्देश्य आतंक पैदा करना है, जोकि कोई भी खामोशी या, गीतांजलि के रूपक के सहारे कहें तो, कोई भी ‘खाली जगह’, पैदा करती है। साहित्य, मुझे लगता है, इस द्वैध खामोशी को ही सुनने, उसको प्रतिध्वनित करने की कोशिश है। दो तरह से: बम की भीषण अर्थहीन ध्वनि से उत्पन्न इस खामोशी का भाषिक ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ रचते हुए; अपने भीतर की अर्थपूर्ण द्वैध खामोशी (जोकि साहित्य के भीतर हमेशा ही होती है) को उसके बरक्स रखते हुए; और, दूसरे, जोकि पहले से भिन्न शायद नहीं है, उस खामोशी को अपना विषय बनाकर, उसको एक अर्थपूर्ण मौन में बदलते हुए, उसमें अर्थ की उत्प्रेक्षाएँ करते हुए। और ऐसा करते हुए वह उस चेतना को उद्दीप्त और जाग्रत करने की कोशिश करेगा जिसने सम्भवतः उसमें कोई अर्थ पैदा करना ही नहीं चाहा था। साहित्य उस रहस्य को भंग नहीं करेगा, लेकिन अपनी उत्प्रेक्षाओं के सहारे वह उसको अर्थबहुल बनाने की कोशिश करेगा।

यह बातचीत प्रतिलिपि पर कुछ समय प्रकाशित हो चुकी है, इस लेख के अलावा अन्‍य महत्‍वपूर्ण चर्चाओं, विमर्शों के लिए इस पत्रिका को देखा जा सकता है। प्रतिलिपि पर जाने के लिए यहां क्लिक करें।

Sunday, November 14, 2010

आतंकवाद पर विमर्श - एक

'हमारी सभ्यता उत्तरोत्तर एक अपाठक सभ्यता होती जा रही है'


मित्र संवाद हिन्‍दी का नया मुहावरा नहीं है। यह हिन्‍दी के दो मुर्धन्‍य साहित्‍यकारों-

रामविलास शर्मा और केदार नाथ अग्रवाल के बीच संवाद से हिन्‍दी को मिला है।

साहित्‍य, पत्रकारिता के क्षेत्र में न केवल इन विषयों के अंदरूनी पेंचों पर बल्कि समकालीन समस्‍याओं और मुददों पर गहन गंभीर चर्चाएं संवाद के जरिए होती रही हैं। प्रस्‍तुत है गीतांजलिश्री के उपन्‍यास 'खाली जगह' के बहाने हमारे समय की सबसे बड़ी समस्‍या आतंकवाद पर दो मित्रों के बीच संवाद की पहली किस्‍त। दीपेन्‍द्र सिंह बघेल और मदन सोनी जी भोपाल में रहते हैं और सामाजिक, सांस्‍क़तिक सरोकारों के लिए जाने जाते हैं।


दीपेन्द्र बघेल: जैसा कि आप जानते हैं, गिरिराज किराडू का आग्रह है कि हम आतंक पर केन्द्रित प्रतिलिपि के अंक के लिए गीतांजलि श्री के उपन्यास खाली जगह पर बातचीत करें। सो वह तो हमें करनी ही है, लेकिन मसला चूँकि आतंक का है, और स्वयं इस उपन्यास में चूँकि इस संघटना (आतंक) का एक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ मौजूद है, मुझे लगता है कि हम इस उपन्यास पर बात करने से पहले इस संघटना पर भी थोड़ी बात करें। और इस पर भी कि हमारे वक़्त के इस भयावह अनुभव के प्रति साहित्य की प्रतिश्रुति का क्या रूप हो सकता है। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि इसके प्रतिरोध में जो विमर्श (Discourse) बन रहा है, वह ज़्यादातर एक सूचनात्मक विमर्श है जिसमें मृत्यु एक आँकड़ा है और जीवन सुरक्षा की एक रणनीति। इस विमर्श में आतंक के अर्थ का न्यूनीकरण होता है और उसके सघन और गहरे अनुभव का दमन होता है। स्वयं ‘आतंक’ शब्द की व्यंजनाओं की हत्या इस विमर्श में होती है। आतंक मनुष्य के शाश्वत अनुभवों में शामिल है, और साहित्य इस अनुभव को, इसके बहुतेरे आशयों में, बहुतेरे कोणों से देखकर, विशिष्ट रूपों में प्रस्तुत करता रहा है। ‘आतंकवाद’ पर साहित्य की प्रतिश्रुति की सम्भावनाओं पर बात करना, इसीलिए इस संघटना पर केन्द्रित विमर्श में एक अधिक मानवीय और प्रामाणिक स्वर को शामिल करना होगा। और इस उपन्यास पर बातचीत के लिए एक संगत पृष्ठभूमि भी हमें इससे मिल सकेगी।

मदन सोनी: मैं सहमत हूँ।

दीपेन्द्र: तो किस तरह देखते हैं आप ‘आतंकवाद’ की इस संघटना को?

मदन: सबसे पहले हमें थोड़ी सतर्कता इस शब्द (‘आतंकवाद’) के प्रयोग को लेकर बरतनी ज़रूरी है। अभी आपने ‘आतंकवाद’-विरोधी विमर्श के सरलीकरणों की बात कही थी, पर क्या आपको नहीं लगता कि इस शब्द को बगैर किसी ऊहापोह के स्वीकार करते ही हम स्वयं इस रिडक्टिव विमर्श में, बल्कि एक तरह के ‘आतंकवादी’ विमर्श में, शामिल हो रहे होंगे? एक आतंक विमर्श का भी होता है जो तब प्रगट होता है जब हम अपने प्रतिपक्षी को, उसके मत की परवाह किये बगैर, अपने अनुभव, अपनी समझ, अपनी कसौटियों के आधार पर परिभाषित करते हैं और उस पर बलात एक नाम आरोपित करते हैं; जब हम उसकी पहचान के साथ हिंसा करते हैं। वे प्रजातन्त्र में विश्वास नहीं करते, पर उनकी कार्रवाईयों का यह इकतरफ़ा नामकरण करते हुए हम भी क्या प्रजातन्त्र में अपनी आस्था का परिचय देते हैं? इसलिए मेरा आग्रह है कि इस बातचीत में हम जब भी ‘आतंकवाद’ और ‘आतंकवादी’ शब्दों का प्रयोग करें, उन्हें अवतरण-चिह्नों के अन्तर्गत रखते हुए ही ऐसा करें। मैं ध्यान दिलाऊँ कि यह अकारण नहीं है कि इस उपन्यास में, बावजूद इसके कि वह जिस घटना के इर्दगिर्द बुना गया है वह एक भीषण बम-विस्फोट की घटना है, कहीं भी ‘आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।

‘आतंकवाद’ हमारे भूमण्डलीकृत संसार की संघटना है; वह भूमण्डलीकरण का सहउत्पाद है। भय, जिसका चरम, सघन और अविरत रूप आतंक में प्रगट होता है, इस भूमण्डलीकृत संसार में एक बेहद शक्तिशाली और कारगर अस्त्र के रूप में उभरा है। अपने मत, अपनी विचारधारा, अपने टेरिटोरियल और आर्थिक वर्चस्व को कायम करने का वह सबसे कारगर साधन साबित हुआ है। वह एक तरह से युद्ध के पारम्परिक साधन के विकल्प के रूप में उभरता लगता है। ज़ाहिर है कि यह एक अत्यन्त व्यापक संघटना है जिसे सिर्फ़ उस चीज़ तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता जिसे ‘आतंकवाद’ कहा जाता है। स्वयं ‘आतंकवाद’ को भी देखने का यह ढंग ठीक नहीं है जिसके अनुसार हम ‘आतंक फैलाने वाले’ और ‘आतंक के ‘शिकार’ की स्पष्ट कोटियाँ गढ़ते हैं। दरअसल आतंक की गिरफ्त में दोनों ही हैं। जो ‘आतंकवादी’ हैं वे भी ‘आतंकवाद’ के शिकार हैं; वे खुद भी कहीं बहुत गहरे में डरे हुए हैं। उनके मन में अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपने आत्मसम्मान के डूब जाने का, अपने धर्म के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने का, अपने देश या टेरिटॅरी के डूब जाने का आतंक है। उनको लगता है कि इस आतंक से उबर सकने के जो भी साधन हैं, वे या तो अपर्याप्त हैं, या वे उनके हाथ में नहीं हैं…

दीपेन्द्र: अगर हम मानव-निर्मित संस्थाओं और विधि की बुनावट को ध्यान से देखें, तो क्या ये सारी संस्थाएँ भी मात्र अपनी वैधता को कायम रखने के लिए भय का इस्तेमाल नहीं करती हैं?

मदन: बल्कि उसके भी पहले। संस्थाओं के निर्माण की ज़रूरत के मूल में ही शायद वह है। जितनी भी तरह की व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ हैं, वे सब किसी न किसी रूप में सुरक्षा की भावना से जुड़ी होती हैं, जिसके मूल में भय ही है। और उस भय का चरम रूप वही है: मृत्यु। हम भौतिक रूप से, नैतिक रूप से, दैविक रूप से मरने से डरते हैं। हम क़ानून भी इसलिए बनाते हैं क्योंकि हमें यह लगता है कि जो संस्था मृत्यु के विरुद्ध हमारी रक्षा कर रही है, अलग-अलग तरह की मृत्युओं के विरुद्ध, खुद इसको मृत्यु से बचाना ज़रूरी है। विधि की मुख्य भूमिका यही है। इस तरह आप यूँ कह सकते हैं कि पूरी की पूरी व्यवस्था भयमूलक है।

दीपेन्द्र: भय में आत्मसंरक्षण और आत्मसुरक्षा का भाव तो है, पर भावावेश की स्थितियों में उसमें एक तरह की यथार्थनिरपेक्षता भी दिखती है। कई बार वह यथार्थ से स्वायत्त भी होता है और काल्पनिक संयोजन भी करता है। अगर हम अन्य भावों से भय की तुलना करें, तो भय में कल्पना के निवेश की सबसे ज़्यादा गुंजाइश दीखती है। तो भय और गल्प को अगर हम जोड़कर देखें तो इनका चरम हमें साहित्य में ही देखने मिलता है। क्योंकि भय संसार में तो अयोग्यता है, एक तरह की अनफिटनेस है, लेकिन इसी भय की भावना को हम साहित्य में पूरा गौरव पाते हुए देखते हैं। कई उपन्यासों में भय की अलग-अलग भावावेशी स्थितियों के बहुत ही सूक्ष्म विवरण देखने को मिलते हैं।

मदन: कल्पना के लिए बहुत अधिक गुंजाइश उसमें शायद इसलिए भी होती है क्योंकि उसके पीछे एक अज्ञातकारणता है। जहाँ कारण ज्ञात नहीं है, वहाँ एक बहुत बड़ा शून्य है। और वह शून्य बहुत ही विमोहक होता है। वह आपकी कल्पना को प्रलोभित और उत्प्रेरित करता है। आप उस शून्य को भरने के लिए तरह-तरह के रूपाकार गढ़ते हैं। कहावत है: भय का भूत। हम भयभीत होते हैं और अपने भय का विषय गढ़ लेते हैं। लेकिन यह शायद भय के सन्दर्भ में ही नहीं है, अन्य भावों के सन्दर्भ में भी है। जैसे रति का अनुभव भी कल्पना को उत्प्रेरित करता है। उसके इर्दगिर्द भी फन्तासियाँ बुनी जाती हैं। इसी तरह उत्साह का भाव भी तरह तरह की फन्तासियों को उत्प्रेरित करता है। लेकिन यह बात सच है कि भय की इस सन्दर्भ में बहुत बड़ी भूमिका होती है, अपनी उसी अज्ञातकारणता की वजह से।

दीपेन्द्र: ‘आतंकवाद’ में निहित हिंसा के सन्दर्भ में एक प्रश्न यह भी बनता है कि राज्य जो हिंसा करता है, सशस्त्र बलों के माध्यम से, विधि के माध्यम से, उसे वैध माना जाता है; राज्य की बुनावट में ही उसके द्वारा की गयी हिंसा को वैधता दिया जाना शामिल है लेकिन जो राज्य-विरोधी हैं, उनका हिंसा का आचरण अवैध माना जाता है। तो हिंसा की वैधता और अवैधता का यह वर्गीकरण अपने आप में…।

मदन: हिंसा किसी भी रूप में हो, किसी भी पक्ष से हो, वह अन्ततः हिंसा है, और अवांछनीय, निन्दनीय चीज़ है। हर व्यक्ति, बल्कि संसार की हर चीज़ मरणधर्मा है। लेकिन इस सर्वव्यापी मृत्यु का कर्तृत्व किसी के पास नहीं है। उसका कर्तृत्व किसी ऐसे अन्य के हाथ में है जिसके बारे में हम नहीं जानते कि वह कौन है। लेकिन जब आप किसी के जीवन को खत्म करते हैं, या उसके जीवन को ख़तरा पैदा करते हैं, तो आप दरअसल इस अर्थ में भी हिंसा कर रहे होते हैं कि आप मृत्यु के इस कर्तृत्व को बलात् हथियाने की कोशिश कर रहे होते हैं।

जहाँ तक राज्य की हिंसा और राजद्रोहियों की हिंसा के बीच वैधता और अवैधता के भेद का सवाल है, मुझे लगता है कि इसको गढ़ने में उन तमाम लोगों का योगदान है, जो किसी न किसी रूप में, और जिस किसी भी विवशता के चलते, व्यवस्था में विश्वास करते हैं। जब तक आप किसी व्यवस्था में विश्वास करते हैं, तब तक आप उस व्यवस्था के द्वारा की गयी हिंसा और उस व्यवस्था के मूल में निहित हिंसा का मूलगामी विरोध नहीं कर सकते; बल्कि आप उस हिंसा की ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकते। इसका यह अर्थ नहीं कि आपको विरोध नहीं करना चाहिए। अपने को भारतीय कहने या मानने का अर्थ यह कतई नहीं है कि आपको अपने राज्य द्वारा राज्य की सीमा के भीतर या उसके बाहर किये जाने वाले किसी अतिचार या हिंसा का विरोध नहीं करना चाहिए। लेकिन यह विरोध आप पैडिस्टल पर खड़े होकर नहीं कर सकते। यह विरोध साथ ही साथ आपके स्वत्व के उस अंश का भी विरोध होना चाहिए जो अंश इस राज्य को बनाये रखने में मदद कर रहा है। जब तक कि आप उस व्यवस्था के भीतर हैं और किसी न किसी रूप में उससे लाभान्वित हो रहे हैं, जब तक आप उसके भीतर रहते हुए उसकी सेनाओं से, पुलिस से मिलने वाली सुरक्षा का, उसके द्वारा उपलब्ध करायी गयी तमाम अन्य सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं, तब तक उस व्यवस्था के कृत्यों में आपकी परोक्ष ही सही भागीदारी है। और अगर उसके कृत्यों में आपकी भागीदारी है, तो उसके द्वारा की जा रही, स्वयं आपके विरुद्ध की जा रही, हिंसा में भी आपकी भागीदारी होगी।

इस तर्क को आप राज्य के बाहर भी घटित कर सकते हैं। एक दूसरा राज्य है जो इस राज्य के बाहर है, लेकिन एकबार फिर, ये दोनों राज्य भी किसी एक वृहत्तर व्यवस्था का हिस्सा हैं। वे किसी तीसरी व्यवस्था का उसी तरह हिस्सा हैं, जैसे कि आप इस राज्य का हिस्सा हैं। तो कुल मिलाकर राज्य की हिंसा का मूलगामी विरोध तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि आप किसी परम स्वराज्य में या अ-राज्य में न रहते हों। जब कि आप ‘अराजकता’ की पराकाष्ठा पर न रह रहे हों। अराजकता की पराकाष्ठा यानी वह स्तर जहाँ एक शेर के द्वारा किया गया एक हिरण का शिकार हिंसा नहीं है। हिंसा का प्रत्यय हमारा गढ़ा हुआ है। हिंसा अनिवार्यतः मनुष्य की कृति है। वह एक सांस्कृतिक संघटना है।

दीपेन्द्र: अगर दुनिया में हथियारों के भण्डार को देखें, तो यह बात समझ में आती है कि उनसे दुनिया को हज़ारों बार नष्ट किया जा सकता है। हथियारों के भण्डारण का तर्क इस नतीजे की ओर ले जाता लगता है कि अहिंसा की मानवीय आकांक्षा को इन हथियारों ने पूरी तरह से निरर्थक सिद्ध कर दिया है, और हथियारों के इस के ढाँचे के सामने, या हथियारों की यान्त्रिक प्रौद्योगिकी के आगे मनुष्यत्व निरर्थक हो चुका है।

मदन: बिल्कुल। क्या यह सलाह गाँधी जी ने ही नहीं दी थी कि संसार के सारे हथियारों को समुद्र में फेंक देना चाहिए? जिसको आज हम निरस्त्रीकरण कहते हैं, और जो आज महज़ एक नारेबाज़ी बनकर रह गया है, उसकी असल सलाह वही थी; जिसका मतलब यह था कि हमें सब तरह की हिंसा को समुद्र में फेंक देना चाहिए। वह एक सम्पूर्ण अहिंसा का आग्रह था। यह एक असम्भव सी बात लगती है, क्योंकि यह मनुष्य की कल्पना से बाहर है कि वह अपने आपको हिंसा से इतने सम्पूर्ण रूप से अलग कर ले। हिंसा आप इसलिए करते हैं क्योंकि आप डरते हैं। गाँधी जी जब हथियारों को समुद्र में फेंकने की बात कर रहे थे, तो वे सम्पूर्ण भय को समुद्र में फेंकने की बात कर रहे थे। सारे देश जिस तर्क से हथियार बनाते या इकट्ठा करते हैं, वह हमेशा ही सुरक्षा का तर्क होता है। और सुरक्षा केवल अपनी भौगोलिक सीमाओं की नहीं बल्कि अपने तमाम तरह के हितों की सुरक्षा का तर्क उसमें शामिल होता है। इसमें केवल हथियार नहीं बल्कि कूटनीतियाँ, समझौते, प्रतिबन्ध आदि भी हिंसा का कारण बनते हैं। दूसरे को डराने, या धमकाने के लिए इन चीज़ों का भी इस्तेमाल किया जाता है। तो कुल मिलाकर सुरक्षा का तर्क भय पर खड़ा होता है और यह भय अन्ततः दूसरे में भय पैदा करने, और फिर उस दूसरे को अपने भय के निराकरण के लिए अपना सुरक्षातन्त्र खड़ा करने, यानी हथियारों का ज़खीरा खड़ा करने, का कारण बनता है। एक दुश्चक्र। आज का ‘आतंकवाद’ शायद इसी दुश्चक्र की उपज है।

दीपेन्द्र: नाभिकीय हथियारों के बारे में यह तर्क दिया जाता है कि तीसरा विश्वयुद्ध इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नाभिकीय हथियार ईज़ाद कर लिये गये हैं, और इन हथियारों ने ही युद्ध की सम्भावनाओं को स्थगित रखा हुआ है। क्या कारण है कि ‘आतंकवाद’-विरोधी विमर्श में प्रायः हथियारों की वैधता को लेकर सवाल नहीं उठाये जाते! मुझे लगता है कि इस विमर्श में जब तक निरस्त्रीकरण की आकांक्षा को जगह नहीं मिलती तब तक वह एक आत्मविभाजित विमर्श ही होगा।

मदन: हाँ, इससे तो मैं तत्काल सहमत हूँ। लेकिन इसमें आपने एक बड़ी दिलचस्प बात कही है कि यह कहा जाता है कि नाभिकीय आयुध तीसरे विश्वयुद्ध के न होने के लिए ज़िम्मेदार हैं। इससे ज़्यादा अन्तर्विरोधी और आत्मछल से भरी हुई कोई दूसरी बात नहीं हो सकती। हथियार हमेशा युद्ध को भड़काते हैं; वे हमेशा युद्ध की सम्भावना को बढ़ाते हैं, उसको ख़त्म नहीं कर सकते। यूँ भी, न सही विश्वयुद्ध, पर युद्ध तो हो ही रहे हैं, परमाणु हथियारों के बावजूद। विश्वयुद्ध के न होने से या उसके स्थगित होने से जो तथाकथित शान्ति है, उसको भयमूलक शान्ति ही कहा जाएगा, जोकि अपने आप में एक वदतोव्याघात (Contradiction in terms) होगा। शान्ति या अहिंसा भयमूलक नहीं हो सकती; वह भय-मुक्ति से ही सम्भव है, जबकि हथियार भय पैदा करते हैं। इसलिए परमाणु आयुध अगर कुछ कर रहे हैं, इस सन्दर्भ में, तो वे केवल तनाव को सघन, गहन और तीखा ही कर रहे हैं। तीसरी लड़ाई का न होना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि उसका आसन्न बने रहना है। तीसरे विश्वयुद्ध के न होने के कारण जो तथाकथित शान्ति है उसका कोई सम्बन्ध परमाणु हथियारों से नहीं है। यह कृत्रिम शान्ति है; तूफान के पहले की शान्ति। आप देखें कि शान्त रस का अनुभाव समभंग का होता है, उसमें कोई विक्षेप नहीं होता। वह शान्ति किसी भी तरह के उद्वेगों, उद्वेलनों से मुक्ति की स्थिति में आती है। भय की स्थिति परम विक्षेप की स्थिति होती है। और आप कह सकते हैं कि भय का सबसे बड़ा विक्षेप, इस वक़्त, सभ्यता के स्तर पर, ‘आतंकवाद’ हैं।

दूसरी बात यह कि तीसरी लड़ाई जो कर सकती है, मनुष्य का जो भौतिक विनाश उसमें होने की सम्भावना है, वह विनाश तो, खुदा का शुक्र है, तब तक रुका रहेगा जब तक कि ये पटाखे नहीं फूट जाते, लेकिन जिस भय ने इन हथियारों को पैदा किया है, और उन हथियारों की रक्षा के लिए, उनका औचित्य सिद्ध करने के लिए जो कुछ भी दुनिया के वे ताक़तवर लोग कर रहे हैं जिनके पास ये हथियार हैं, वह मनुष्यता के विनाश का एक दूसरा रूप है: सांस्कृतिक नरसंहार, ‘आतंकवाद’, वैश्विक आर्थिक मन्दी के चलते लाखों लोगों के बेरोज़गार हो जाने की सम्भावना, चारों ओर व्याप्त हो रही असंवेदनशीलता…। दुनिया बनी रहे, और यही शुभकामना हमको करनी चाहिए, लेकिन कभी-कभी यह भी लगता है कि जिस तरह की दुनिया बनी रहने वाली है, जिस तरह की दुनिया हम लोग बनी रहने देने वाले हैं, उस तरह की दुनिया के बने रहने का क्या अर्थ होगा! यह तो कोई ख़ास अर्थपूर्ण बात नहीं है कि मनुष्य की एक निष्क्रिय और निरर्थक उपस्थिति रह जाय, जिसमें कि वो कुछ भी न कर सके। सौभाग्य से इतनी भीषण नाउम्मीदी की हालत अभी नहीं है, और यह उम्मीद हम कर सकते हैं कि अगर पृथ्वी बची रही और उसमें इन्सान बचे रहे, और उनमें वे थोड़े से लोग ( जो उतने थोड़े भी नहीं हैं ) बचे रहे जिनको इन सब चीज़ों की चिन्ता है तो…। लेकिन इन लोगों का सांवेदनिक जीवन, इनकी जिजीविषा सुरक्षित रह सके, यह बहुत ज़रूरी है। इसका नष्ट होना ही दरअसल संसार का नष्ट होना है।

दीपेन्द्र: कल आपने एक अच्छी बात कही थी कि जिसे ‘आतंकवादी’ कहा जा रहा है, वह स्वयं आतंकग्रस्त है। इसी के साथ-साथ यह भी लगता है कि यह दरअसल कुछ समुदायों के आत्म-अलगाव की भी एक तरह की अभिव्यक्ति है; ऐसे समुदाय जो यह महसूस कर रहे हैं कि वे वैश्विक स्तर पर अन्याय का शिकार हैं, उनकी उपेक्षा हो रही है, उसको हाशिये पर धकेल दिया गया है, उनको अपवर्जित कर दिया गया है। ‘आतंकवाद’ को इन तमाम चीज़ों के ख़िलाफ़ आत्माभिव्यक्ति की कोशिश की तरह भी देखा जा सकता है।

मदन: निश्चय ही। एक बम-विस्फोट कर वे एक सन्देश देना चाहते हैं, जिसके लिए आपने एक शब्द इस्तेमाल किया है: अभिव्यक्ति। हालाँकि अभिव्यक्ति का यह ढंग अपने आप में नृशंसता के स्तर को छूता है, और उसमें अन्धापन और अविवेक भी साफ़ दिखायी देता है।

दीपेन्द्र: ‘सेक्युलरिज़्म’ आधुनिकता का एक प्रबल मूल्य है। आत्मसंरक्षण उसका एक दूसरा परम मूल्य है जिसमें व्यक्तिवाद भी स्थापित होता है। इस आत्मसंरक्षण के बरक्स ‘आतंकवाद’ की विचारधारा को देखें, तो जिसे ‘आतंकवादी’ कहा जा रहा है, उसने, लगता है, अपने मृत्यु-भय को उत्तीर्ण कर लिया है। न केवल मृत्यु-भय को उत्तीर्ण कर लिया है, बल्कि आत्म-उत्सर्ग में भी उसने अपने आपको झोंक दिया है; मानो अपने अस्तित्व की वैधता वह इस संसार में नहीं बल्कि किन्हीं अलौकिक स्रोतों में ढूँढ रहा है। तो इसको कैसे समझा जाय? यथार्थवादी दृष्टि से तो इसको मिथकीय वैधता कहा जाएगा। पर इस मिथकीय वैधता में इस कथित ‘आतंकवादी’ की परम आस्था भी है।

मदन: जिसको हम ‘सेक्युलरिज़्म’ कहते हैं वो मूलतः मनुष्य को, उसके कर्तृत्व को, सृष्टि के केन्द्र में मानने का, मनुष्य को अन्तिम रूप से कर्ता मानने का विचार-दर्शन है। ‘सेक्युलरिज़्म’ कहता है कि दुनिया को मनुष्य के दृष्टिकोण से देखा, समझा जाय और बदला जाय। व्यक्ति को इसी मनुष्य के सत्व के रूप में देखने की कोशिश की गयी है। इस दृष्टि से देखें तो ‘आतंकवादी’ गतिविधि में मुब्तिला इन्सान न केवल कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि वहाँ व्यक्तिवाद का भी उत्सर्ग है। और व्यक्तिवाद का यह उत्सर्ग कुल मिलाकर मनुष्यकर्तृत्ववाद का भी उत्सर्ग है। उत्सर्ग का प्रत्यय यहाँ बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह एक धर्ममूलक प्रत्यय है। मानव-बम के सन्दर्भ में आत्मघात सही शब्द नहीं है। मैं नहीं समझता की ‘आतंकवादियों’ के दर्शन में आत्महत्या के लिए कोई मूल्य का दर्जा प्राप्त हो सकता है। अगर आत्महत्या को कहीं कोई नैतिक स्वीकृति मिल सकती है तो वह आधुनिक सोच, आधुनिक मानस के भीतर ही मिल सकती है; उसी मानस के भीतर जो व्यक्तिवाद और ‘सेक्युलरिज़्म’ को महत्त्व देता है। धार्मिक दृष्टि से, आपको मिला हुआ जीवन, आपको मिली हुई देह ईश्वर की देन है और इसीलिए आपको कोई हक़ नहीं है कि आप ईश्वर के विधान में हस्तक्षेप करते हुए उस जीवन को अपनी इच्छा या अपनी तानाशाही से समाप्त कर सकें। इसलिए जब कोई इन्सान एक मानव-बम के रूप में विस्फोट करता है तो वह आत्महत्या नहीं करता, बल्कि वह कहीं न कहीं उत्सर्ग के विचार से प्रेरित होता है। वह धर्म की ख़ातिर अपना उत्सर्ग कर रहा होता है। क्योंकि उसका जो चरम दाँव है वो धर्म है। यह बिल्कुल अलग बात है कि वह धार्मिकता एक बहुत ही कट्टर स्तर पर उठी हुई होती है। पर इस कट्टरता के रूप हम इतिहास में बहुत पहले से देखते आये हैं। हम विशेष रूप से सामी धर्मों के इतिहास में यह देखते आये हैं कि धर्म या धार्मिक विश्वासों की रक्षा के लिए लोगों ने तमाम तरह की हिंसाएँ की हैं। तो कुल मिलाकर यह धार्मिकता या अलौकिकता और लौकिकता या सेक्युलरिज्म के बीच का द्वन्द्व है; आस्तिकता और नास्तिकता के बीच का द्वन्द्व। अगर ‘आतंकवादियों’ को इस बात का विश्वास हो जाए कि ईश्वर उनके इस कृत्य से प्रसन्न नहीं है, तो वे शायद पहले व्यक्ति होंगे जो इसको छोड़ देंगे।

दीपेन्द्र: अभी ‘आतंकवाद’ का जो विमर्श बन रहा है उसमें प्रायः व्यवस्था ही एक तरह से ‘आतंकवाद’ का नामकरण कर रही है। पर इस नामकरण के इतिहास को ध्यान से देखें तो जब ज्योनिस्ट मूव्हमेण्ट जर्मनी में चल रहा था और यहूदी लोगों को जब इज़राइल में बसाया गया, तो उसके पीछे पवित्र पुस्तक, मतलब बाईबिल, का ही ‘प्रॉमिस्ड लैण्ड’ का तर्क था और उसी तर्क के तहत यहूदियों के दैवीय अधिकार को अधिमान्यता देते हुए तथाकथित सेक्यूलर स्टेट ने वहाँ उनको बसाया, और फिलिस्तीनी लोग, जिनका उस ज़मीन पर नैसर्गिक अधिकार था, जो सदियों से वहाँ पर रह रहे थे, उन्हें वहाँ से बेदखल किया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि इसे अन्तरराष्ट्रीय विधि द्वारा मान्यता भी दी गयी। जिन फिलिस्तीनियों को बहिष्कृत किया गया, वे दरअसल एक निरुपाय या निर्विकल्प परिस्थिति में थे। उनके पास जीने का कोई भी विकल्प नहीं बचा था, न्याय की उनकी सारी गुहार लगातार विफल हो रही थी, तब जाकर सम्भवतः उन्होंने मजबूर होकर ‘आतंकवाद’ को अपना माध्यम बनाया। यूँ पश्चिमी सभ्यता की आत्मछवि यह है कि वह ‘रीज़न’ या शुद्ध बुद्धि के तर्क पर खड़ी है, लेकिन ध्यान से देखने पर हम पाएँगे कि इसमें अन्यता को निरन्तर खारिज़ किया गया है, और यूरो-अमरीकी सभ्यता ने लगातार शक्ति का केन्द्रीकरण और संरक्षण किया है। तो एक तरह से, यहाँ ‘रीज़न’ या बुद्धि का इस्तेमाल अपनी ताक़त को बढ़ाने के लिए किया गया है। ‘आतंकवाद’, इस परिप्रेक्ष्य में, अन्यता के निषेध को प्रतिरोध देने के रूप में भी सामने आता है।

मदन: इतिहास की विडम्बना देखिये कि किसी समय में इन्हीं यहूदियों के साथ यूरोप में वही सब अत्याचार हुए थे जो आज इज़राइल फिलिस्तीनियों के साथ कमोबेश कर रहा है। मेरा इशारा नाज़ियों द्वारा किये गये अत्याचारों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अगर इतिहास की मेरी जानकारी इस मामले में ग़लत नहीं है, तो पूरे यूरोप में ईसाई जगत भी यहूदियों के प्रति बहुत उदार नहीं रहा। मुसलमानों के प्रति तो वह घनघोर अनुदार रहा ही। और यह अनुदारता ‘रीज़न’ के युग में बरकरार रही है। आज इज़राइल जो फिलिस्तीनियों के साथ कर रहा है, उसमें, हम जानते हैं कि अकेला इज़राइल शामिल नहीं है। उसे बहुत बड़ा समर्थन उस दुनिया का प्राप्त है जिसको कि हम यूरो-अमरीकी दुनिया कहते हैं और जो ईसाई जगत भी है। यह वह दुनिया है जो ‘रीज़न’ का दावा करती है। जो कुछ भी इस ‘रीज़न’ के नाम पर या उसके बावजूद किया गया है, उसके साथ जब हम ‘रीज़न’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो यह अपने आप में वदतोव्याघात जैसा लगता है। या फिर यह कहना चाहिए कि यह ‘रीज़न’ का अपना अभिशाप है। एक पूरी की पूरी सभ्यता को उसके नैसर्गिक आवास से विस्थापित करना…। एक समय तक कम्युनिस्टों के द्वारा जो भी किया जाता था अमेरिका के हिसाब से वह आतंक का कृत्य हुआ करता था। यह अलग बात है कि कम्युनिस्ट साम्राज्य खुद अपने लोगों के साथ आतंक की पराकाष्ठा पर गया था। ये सब ‘रीज़न’ के ही रीज़न हैं। यह सब वहीं हुआ जहाँ तर्कबुद्धि को, शुद्ध बुद्धि को बहुत महत्त्व दिया गया। इनके बिना न आप साम्यवाद की कल्पना कर सकते हैं, न अमेरिका के महादेश होने की कल्पना कर सकते हैं, और न योरोप के इतने बड़े उपनिवेशवादी और दुनिया पर शासन करने की महत्त्वाकांक्षा पालने वाले महाद्वीप की कल्पना कर सकते हैं।

‘आतंकवादियों’ के मनोविज्ञान में कहीं न कहीं यह भी है कि योरोप द्वारा उनकी संस्कृति को, उनकी आस्था के सम्बलों को, उनके मूल्यों को, दुनिया से विस्थापित किया जा रहा है; एक तरह का सांस्कृतिक फिलिस्तीन आप इस दुनिया में जगह-जगह गढ़ रहे हैं। जिन लोगों ने इस ‘रीजन-ओरिएण्टेड’ आधुनिकता को स्वीकार कर लिया है, उनके लिए कोई मुश्किल नहीं है। लेकिन जिनने स्वीकार नहीं किया है, उनका अगर यह बोध हो कि उनको सांस्कृतिक रूप से विस्थापित किया जा रहा है, तो यह बहुत अस्वाभाविक नहीं है। इस नामकरण- ‘आतंकवाद’ -पर इस परिप्रेक्ष्य में भी सोचने की ज़रूरत है। एक देश लगातार रेटॉरिक उगलता रहता है कि एक दूसरे देश के पास मास-डिस्ट्रक्शन के हथियार हैं और वह दुनिया के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बना हुआ है। लेकिन यह देश जब हज़ारों मील दूर से आकर उसपर आक्रमण करता है, और अमेरिका ने ऐसा एक से अधिक जगहों पर किया है, तो इसको हम इस शब्द (‘आतंकवाद’) की ज़द में क्यों नहीं लाते? कोई नहीं कहता कि अमेरिका ने ‘आतंकवादी’ गतिविधि की है। कम से कम लोकप्रिय विमर्श में यह चीज़ नहीं है। परम्परागत युद्धों में महत्त्वाकांक्षाएँ और मूल्य आमतौर से बहुत साफ़ हुआ करते थे। उन्हें हम आज के, आधुनिक, विवेक से सामन्तवादी आदि कहते हैं। पर आज के युद्ध जो रीज़न के तर्क से किये जाते हैं, उन परम्परागत युद्धों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मनुष्यविरोधी ठहरते हैं। प्रजातन्त्र कितना ही बड़ा मूल्य हो, लेकिन आप यह बलात तय करने वाले कौन होते हैं कि प्रजातन्त्र जब तक सार्वभौम नहीं होगा तब तक वह एक खण्डित उपलब्धि ही होगी। आप सारी दुनिया में प्रजातन्त्र को स्थापित करने के लिए किन्हीं देशों के नागरिकों की हत्या करें, उनके देश को बमों से तबाह कर दें, उनकी आधार-रचना को इस तरह पंगु बना दें कि वे दशकों तक न उठ सकें…। आज जब हम इतिहास पढ़ते हैं तो इस बात को बड़े दर्द के साथ याद करते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध ने कितनी बड़ी तबाही की थी और हिटलर ने ये किया और कम्युनिज़्म ने वो किया आदि, लेकिन इस पर कम बात होती है कि ईराक की जो तबाही हाल ही के वर्षों में हुई उससे वह देश केवल भौतिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी कब-कैसे अपने आत्मविश्वास को पा सकेगा, और उस आत्मविश्वास को पाने में यह बलात आरोपित प्रजातन्त्र कितनी मदद कर पाएगा। क्योंकि यह प्रजातन्त्र उनकी अपनी व्यवस्था के भीतर से निकला हुआ नहीं है।

आधुनिक युग में हम अन्य से नफ़रत के अन्यान्य रूप देखते हैं, जिनमें ‘अनाधुनिक’ भी एक अन्य है, जिनमें पारम्परिक समाज भी एक अन्य है। कायदे से, अगर आधुनिकता सहिष्णुता और प्रजातन्त्र जैसे तत्त्वों से निर्मित है, अगर उसमें ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ एक बहुत बड़ा मूल्य है, तो फिर आधुनिकता के भीतर उसके ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ के लिए भी गुंजाइश होनी चाहिए। तभी वह अपने ही मूल्यों की कसौटी पर खरी मानी जाएगी। लेकिन क्या आधुनिकता के भीतर उसके ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ के लिए वाकई गुंजाइश है? गहरी धार्मिक आस्था का जीवन बिताने वाले पारम्परिक समाजों के लिए, आदिवासियों के लिए क्या उसमें गुंजाइश है – उन लोगों के लिए जो प्रगति को दो कौड़ी की चीज़ मानते हैं, जो सेक्युलरिज़्म को ग़लत मानते हैं? इस तरह के तमाम समुदाय आधुनिकता के ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ हैं, जिनको उसने हमेशा ही एक नफ़रत करने योग्य और अनिवार्यतः नेस्तनाबूत करने योग्य अन्य के रूप में देखा है।

दीपेन्द्र: आपने शुरू में कहा था कि ‘आतंकवाद’ उनके लिए हमारे द्वारा दिया गया नाम है। इस दृष्टि से देखें तो इस संघटना के इर्दगिर्द विकसित विमर्श के प्रतिमान, दरअसल, राष्ट्र-राज्य व्यवस्था ही विकसित कर रही है। और विमर्श की इन स्थापित व्यवस्थाओं में ‘आतंकवादियों’ की कोई आस्था नहीं है। इन परिस्थितियों को देखकर आपको नहीं लगता कि विमर्श के प्रतिमान भी बदलने चाहिए? अगर राष्ट्र्र-राज्य व्यवस्था उनके साथ संवाद करना चाहती है और समाधान की दिशा में आगे बढ़ना चाहती है तो विमर्श के स्थापित प्रतिमानों में कुछ दरारें लाना होंगी?

मदन: बिल्कुल। उनका कोई विमर्श नहीं है। उनकी कार्रवाई से मिले कुछ संकेतों के आधार पर, उनके पक्ष से हमारे द्वारा गढ़ा गया विमर्श है। हो सकता है जो बातचीत हम कर रहे हैं, वह भी उसी प्रकृति का विमर्श हो। शायद वे इस समूचे संकट को, विमर्श का विषय नहीं मानते, कार्रवाई का विषय मानते हैं। यह एक बहुत ख़तरनाक स्थिति है। अगर उनका कोई एक विमर्श होता तो वह इस समस्या के हल में शायद कुछ मदद कर सकता। तो पहला सवाल तो यही है कि क्या विमर्श में उनका विश्वास है। और अगर नहीं है, तो ये सोचने की बात है कि ऐसा क्यों है। अक्सर इस तरह की हिंसक गतिविधियों की शुरूआत दरअसल वहीं होती है जहाँ संवाद की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि संवाद पर से उनका विश्वास उठ जाने के नतीजे में ऐसा हुआ हुआ हो, जिसके नतीजे में वे सीधी कार्रवाई पर उतर आये? यह अटकल तो कम से कम लगायी जा सकती है। संस्कृति के इतिहास में इस बात की खोज बहुत आसानी से की जा सकती है कि पिछली कुछ सदियों में विमर्श की जो परम्परा विकसित हुई है, उसने अन्य को, अन्य के विचार को, अन्य की आस्था को, कितना अवकाश दिया है; कितनी कोशिश उनको विमर्श के दायरे में लाने की हुई है, और कितनी कोशिश विमर्श को इतना लचीला बनाने की हुई है कि अन्य का मत, अन्य का कन्विक्शन उसमें गुंजाइश पा सके। क्योंकि अगर वह गुंजाइश नहीं रखी गयी है, तो फिर उनसे उम्मीद करना कि वे विमर्श का रास्ता चुनें, कैसे सम्भव है? वे कार्रवाई के रास्ते ही आप तक पहुँचेंगे और कार्रवाई के रास्ते ही आप उनका सामना करेंगे, जोकि आप कर ही रहे हैं।

दीपेन्द्र: मुझे ऐसा लगता है कि विमर्श के स्थापित प्रतिमानों से अलग ‘आतंकवादी’ अपनी ओर से विमर्श का एक संकेत तो कर रहे हैं। वह संकेत उनकी कार्रवाई में निहित है। वह अपनी देह में ही एक संकेत की तरह प्रस्तावित की जा रही है। वह कार्रवाई किसी और बिन्दु की ओर संकेत कर रही है। और ऐसा करते हुए वह कार्रवाई ‘काउण्टर-साइन’ भी हो रही है, अर्थात उसकी जवाबदेही ली जा रही है। पर व्यवस्था उस संकेत को पढ़ना नहीं चाहती है। उल्टे उस संकेत की अवमानना कर रही। यह सही है कि यह संकेत बहुत कूटबद्ध है, पर निश्चित रूप से वह संकेत विमर्श की दिशा में है।

मदन: ठीक बात है। हम ‘आतंकवाद’ की भौतिक बनावट को, उसकी स्थूलता को सबसे ज़्यादा लक्षित करते हैं। हम बम को लक्षित करते हैं, उस शरीर को लक्षित करते हैं जिसने उसको बाँध रखा था, उन निशानों को जो घटना के बाद छूट जाते हैं, गाहे-ब-गाहे पकड़ लिये गये या मारे गये ‘आतंकवादी’ को, और उसकी वजह से हुई भौतिक तबाही को लक्षित करते हैं। आप कह सकते हैं कि हम यूँ ‘आतंकवाद’ की अभिधा पर ध्यान देते हैं, पर उसकी व्यंजना पर ध्यान नहीं देते हैं, जिसको आप ‘संकेत’ कह रहे हैं। यह संकेत बहुत कूटबद्ध है, यह बात सही है, लेकिन वह इतना भी कूटबद्ध नहीं है कि उसको पढ़ा न जा सकता हो- ख़ासकर एक ऐसे समाज के भीतर जो शुद्ध बुद्धि के डिजिटल स्तर पर उठा हुआ है। हम शायद उसको पढ़ना नहीं चाहते, जैसा कि आप कह रहे हैं। ‘आतंकवाद’ एक ऐसी स्क्रिप्ट या एक ऐसी पुस्तक है…

दीपेन्द्र: एक ऐसा ‘सिग्नीफायर’ …

मदन: हाँ, जिसका रचयिता तो है, लेकिन जिसका कोई पाठक नहीं है। तो वह एक अपठित, पढ़े जाने की इच्छा से वंचित संकेत या कूट है। इससे भी ज़्यादा, जो किया जा रहा है, वह उसका अपपाठ या कुपाठ है। और उसको तरीके से पढ़ने की कोशिश उसी वजह से नहीं है जिस वजह से ‘आतंकवाद’ पैदा होता है। जिस विमर्श के भीतर उसको पढ़ा जा सकता है वह विमर्श हमने विकसित ही नहीं किया है। हमने उसका अपवर्जन किया है। वह एक अपवर्जित अनुभव है। उस अनुभव की गुंजाइश आपकी आधुनिकतावादी विमर्श-परम्परा के भीतर नहीं है। और उसका अपठन या अपपठन उसको और ज़्यादा भड़काता है। यह कैसे सम्भव होता है कि वह अभागा हत्यारा हमारी संवेदना के दायरे में प्रवेश नहीं कर पाता जो अपने सीने से बम बाँधकर अपने को उड़ा देता है! इस व्यक्ति का, उसके इस अन्तर्विरोध का कि वह अस्तित्व के किसी रूप को हासिल करने के लिए अपना अस्तित्व खत्म कर रहा है, अपठित बना रहना, पढ़ने की हमारी सामर्थ्य की सीमा को बताता है। और उसको न पढ़े जाने के कारण ही शायद वह कूट दुरूह बनता है।

दीपेन्द्र: और उसको पढ़े जाने की शायद यह भी शर्त है कि आप अपने को पढ़ें। और आप अपने को पढ़ना नहीं चाहते।

मदन: बिल्कुल। यह पठन के कर्म में ही निहित है, क्योंकि कोई भी पठन साथ ही साथ आत्मपठन भी होता है। कोई भी व्यक्ति जिसमें अपना उत्सर्ग करने की, अपने को दाँव पर लगाने की, अपने को प्रश्नवेध्य बनाने की, सामर्थ्य नहीं है, वो पाठक नहीं हो सकता। और इस मामले में हमारी सभ्यता उत्तरोत्तर एक अपाठक सभ्यता होती जा रही है। वह पढ़ने की सामर्थ्य खोती जा रही है।

दीपेन्द्र: ‘एण्टी-रीडर’…

मदन: हाँ, एक तरह से। क्योंकि ‘नॉन-रीडर’ से ही ‘एण्टीरीडर’ की यात्रा शुरू होती है। ‘नॉन-रीडर’ अपनी ‘नॉन-रीडरशिप’ को सुरक्षित करने के लिए अन्ततः ‘एण्टीरीडर’ की भूमिका निभाने लगता है…

दीपेन्द्र: वह नहीं चाहता कि दूसरे लोग पढ़ें…तो वह पढ़ने को ही सेंसर करना चाहता है…

मदन: …जो कि हमारे वक़्त में होता रहा है। तो आपकी यह अटकल बिल्कुल सही है कि खुद को पढ़ने की असमर्थता इसके पीछे है। क्योंकि उसमें आपको खुद को दाँव पर लगाना होगा। जैसे ही आप उसको पढ़ेंगे आप खुद को पढ़ना शुरू कर देंगे। और आप फिर उस पूरे इतिहास में जाने को विवश होंगे जहाँ से यह गतिरोध शुरू हुआ; जहाँ से आपने उनके कूटों को पढ़ना बन्द कर दिया है। न केवल बन्द कर दिया है बल्कि आपने एक ऐसा अर्थतन्त्र गढ़ लिया जिसमें कि उनकी वाणी, उनकी आवाज़, उनके संकेत व्याख्येय ही नहीं हैं।

निश्चय ही ‘आतंकवाद’ जिस वैकल्पिक विमर्श की माँग करता है, वह ‘आतंकवाद’ के सम्पूर्ण निषेध के बिना सम्भव नहीं है, किन्तु तभी जब यह निषेध ‘आतंकवाद’ को समझने का भी पर्याय बन सके। इस वैकल्पिक विमर्श में फिर वे लोग शामिल होंगे जो भविष्य के सम्भावित ‘आतंकवादी’ हैं।

यह बातचीत प्रतिलिपि पर कुछ समय प्रकाशित हो चुकी है, इस लेख के अलावा अन्‍य महत्‍वपूर्ण चर्चाओं, विमर्शों के लिए इस पत्रिका को देखा जा सकता है। प्रतिलिपि पर जाने के लिए यहां क्लिक करें