Sunday, November 14, 2010

आतंकवाद पर विमर्श - एक

'हमारी सभ्यता उत्तरोत्तर एक अपाठक सभ्यता होती जा रही है'


मित्र संवाद हिन्‍दी का नया मुहावरा नहीं है। यह हिन्‍दी के दो मुर्धन्‍य साहित्‍यकारों-

रामविलास शर्मा और केदार नाथ अग्रवाल के बीच संवाद से हिन्‍दी को मिला है।

साहित्‍य, पत्रकारिता के क्षेत्र में न केवल इन विषयों के अंदरूनी पेंचों पर बल्कि समकालीन समस्‍याओं और मुददों पर गहन गंभीर चर्चाएं संवाद के जरिए होती रही हैं। प्रस्‍तुत है गीतांजलिश्री के उपन्‍यास 'खाली जगह' के बहाने हमारे समय की सबसे बड़ी समस्‍या आतंकवाद पर दो मित्रों के बीच संवाद की पहली किस्‍त। दीपेन्‍द्र सिंह बघेल और मदन सोनी जी भोपाल में रहते हैं और सामाजिक, सांस्‍क़तिक सरोकारों के लिए जाने जाते हैं।


दीपेन्द्र बघेल: जैसा कि आप जानते हैं, गिरिराज किराडू का आग्रह है कि हम आतंक पर केन्द्रित प्रतिलिपि के अंक के लिए गीतांजलि श्री के उपन्यास खाली जगह पर बातचीत करें। सो वह तो हमें करनी ही है, लेकिन मसला चूँकि आतंक का है, और स्वयं इस उपन्यास में चूँकि इस संघटना (आतंक) का एक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ मौजूद है, मुझे लगता है कि हम इस उपन्यास पर बात करने से पहले इस संघटना पर भी थोड़ी बात करें। और इस पर भी कि हमारे वक़्त के इस भयावह अनुभव के प्रति साहित्य की प्रतिश्रुति का क्या रूप हो सकता है। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि इसके प्रतिरोध में जो विमर्श (Discourse) बन रहा है, वह ज़्यादातर एक सूचनात्मक विमर्श है जिसमें मृत्यु एक आँकड़ा है और जीवन सुरक्षा की एक रणनीति। इस विमर्श में आतंक के अर्थ का न्यूनीकरण होता है और उसके सघन और गहरे अनुभव का दमन होता है। स्वयं ‘आतंक’ शब्द की व्यंजनाओं की हत्या इस विमर्श में होती है। आतंक मनुष्य के शाश्वत अनुभवों में शामिल है, और साहित्य इस अनुभव को, इसके बहुतेरे आशयों में, बहुतेरे कोणों से देखकर, विशिष्ट रूपों में प्रस्तुत करता रहा है। ‘आतंकवाद’ पर साहित्य की प्रतिश्रुति की सम्भावनाओं पर बात करना, इसीलिए इस संघटना पर केन्द्रित विमर्श में एक अधिक मानवीय और प्रामाणिक स्वर को शामिल करना होगा। और इस उपन्यास पर बातचीत के लिए एक संगत पृष्ठभूमि भी हमें इससे मिल सकेगी।

मदन सोनी: मैं सहमत हूँ।

दीपेन्द्र: तो किस तरह देखते हैं आप ‘आतंकवाद’ की इस संघटना को?

मदन: सबसे पहले हमें थोड़ी सतर्कता इस शब्द (‘आतंकवाद’) के प्रयोग को लेकर बरतनी ज़रूरी है। अभी आपने ‘आतंकवाद’-विरोधी विमर्श के सरलीकरणों की बात कही थी, पर क्या आपको नहीं लगता कि इस शब्द को बगैर किसी ऊहापोह के स्वीकार करते ही हम स्वयं इस रिडक्टिव विमर्श में, बल्कि एक तरह के ‘आतंकवादी’ विमर्श में, शामिल हो रहे होंगे? एक आतंक विमर्श का भी होता है जो तब प्रगट होता है जब हम अपने प्रतिपक्षी को, उसके मत की परवाह किये बगैर, अपने अनुभव, अपनी समझ, अपनी कसौटियों के आधार पर परिभाषित करते हैं और उस पर बलात एक नाम आरोपित करते हैं; जब हम उसकी पहचान के साथ हिंसा करते हैं। वे प्रजातन्त्र में विश्वास नहीं करते, पर उनकी कार्रवाईयों का यह इकतरफ़ा नामकरण करते हुए हम भी क्या प्रजातन्त्र में अपनी आस्था का परिचय देते हैं? इसलिए मेरा आग्रह है कि इस बातचीत में हम जब भी ‘आतंकवाद’ और ‘आतंकवादी’ शब्दों का प्रयोग करें, उन्हें अवतरण-चिह्नों के अन्तर्गत रखते हुए ही ऐसा करें। मैं ध्यान दिलाऊँ कि यह अकारण नहीं है कि इस उपन्यास में, बावजूद इसके कि वह जिस घटना के इर्दगिर्द बुना गया है वह एक भीषण बम-विस्फोट की घटना है, कहीं भी ‘आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।

‘आतंकवाद’ हमारे भूमण्डलीकृत संसार की संघटना है; वह भूमण्डलीकरण का सहउत्पाद है। भय, जिसका चरम, सघन और अविरत रूप आतंक में प्रगट होता है, इस भूमण्डलीकृत संसार में एक बेहद शक्तिशाली और कारगर अस्त्र के रूप में उभरा है। अपने मत, अपनी विचारधारा, अपने टेरिटोरियल और आर्थिक वर्चस्व को कायम करने का वह सबसे कारगर साधन साबित हुआ है। वह एक तरह से युद्ध के पारम्परिक साधन के विकल्प के रूप में उभरता लगता है। ज़ाहिर है कि यह एक अत्यन्त व्यापक संघटना है जिसे सिर्फ़ उस चीज़ तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता जिसे ‘आतंकवाद’ कहा जाता है। स्वयं ‘आतंकवाद’ को भी देखने का यह ढंग ठीक नहीं है जिसके अनुसार हम ‘आतंक फैलाने वाले’ और ‘आतंक के ‘शिकार’ की स्पष्ट कोटियाँ गढ़ते हैं। दरअसल आतंक की गिरफ्त में दोनों ही हैं। जो ‘आतंकवादी’ हैं वे भी ‘आतंकवाद’ के शिकार हैं; वे खुद भी कहीं बहुत गहरे में डरे हुए हैं। उनके मन में अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपने आत्मसम्मान के डूब जाने का, अपने धर्म के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने का, अपने देश या टेरिटॅरी के डूब जाने का आतंक है। उनको लगता है कि इस आतंक से उबर सकने के जो भी साधन हैं, वे या तो अपर्याप्त हैं, या वे उनके हाथ में नहीं हैं…

दीपेन्द्र: अगर हम मानव-निर्मित संस्थाओं और विधि की बुनावट को ध्यान से देखें, तो क्या ये सारी संस्थाएँ भी मात्र अपनी वैधता को कायम रखने के लिए भय का इस्तेमाल नहीं करती हैं?

मदन: बल्कि उसके भी पहले। संस्थाओं के निर्माण की ज़रूरत के मूल में ही शायद वह है। जितनी भी तरह की व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ हैं, वे सब किसी न किसी रूप में सुरक्षा की भावना से जुड़ी होती हैं, जिसके मूल में भय ही है। और उस भय का चरम रूप वही है: मृत्यु। हम भौतिक रूप से, नैतिक रूप से, दैविक रूप से मरने से डरते हैं। हम क़ानून भी इसलिए बनाते हैं क्योंकि हमें यह लगता है कि जो संस्था मृत्यु के विरुद्ध हमारी रक्षा कर रही है, अलग-अलग तरह की मृत्युओं के विरुद्ध, खुद इसको मृत्यु से बचाना ज़रूरी है। विधि की मुख्य भूमिका यही है। इस तरह आप यूँ कह सकते हैं कि पूरी की पूरी व्यवस्था भयमूलक है।

दीपेन्द्र: भय में आत्मसंरक्षण और आत्मसुरक्षा का भाव तो है, पर भावावेश की स्थितियों में उसमें एक तरह की यथार्थनिरपेक्षता भी दिखती है। कई बार वह यथार्थ से स्वायत्त भी होता है और काल्पनिक संयोजन भी करता है। अगर हम अन्य भावों से भय की तुलना करें, तो भय में कल्पना के निवेश की सबसे ज़्यादा गुंजाइश दीखती है। तो भय और गल्प को अगर हम जोड़कर देखें तो इनका चरम हमें साहित्य में ही देखने मिलता है। क्योंकि भय संसार में तो अयोग्यता है, एक तरह की अनफिटनेस है, लेकिन इसी भय की भावना को हम साहित्य में पूरा गौरव पाते हुए देखते हैं। कई उपन्यासों में भय की अलग-अलग भावावेशी स्थितियों के बहुत ही सूक्ष्म विवरण देखने को मिलते हैं।

मदन: कल्पना के लिए बहुत अधिक गुंजाइश उसमें शायद इसलिए भी होती है क्योंकि उसके पीछे एक अज्ञातकारणता है। जहाँ कारण ज्ञात नहीं है, वहाँ एक बहुत बड़ा शून्य है। और वह शून्य बहुत ही विमोहक होता है। वह आपकी कल्पना को प्रलोभित और उत्प्रेरित करता है। आप उस शून्य को भरने के लिए तरह-तरह के रूपाकार गढ़ते हैं। कहावत है: भय का भूत। हम भयभीत होते हैं और अपने भय का विषय गढ़ लेते हैं। लेकिन यह शायद भय के सन्दर्भ में ही नहीं है, अन्य भावों के सन्दर्भ में भी है। जैसे रति का अनुभव भी कल्पना को उत्प्रेरित करता है। उसके इर्दगिर्द भी फन्तासियाँ बुनी जाती हैं। इसी तरह उत्साह का भाव भी तरह तरह की फन्तासियों को उत्प्रेरित करता है। लेकिन यह बात सच है कि भय की इस सन्दर्भ में बहुत बड़ी भूमिका होती है, अपनी उसी अज्ञातकारणता की वजह से।

दीपेन्द्र: ‘आतंकवाद’ में निहित हिंसा के सन्दर्भ में एक प्रश्न यह भी बनता है कि राज्य जो हिंसा करता है, सशस्त्र बलों के माध्यम से, विधि के माध्यम से, उसे वैध माना जाता है; राज्य की बुनावट में ही उसके द्वारा की गयी हिंसा को वैधता दिया जाना शामिल है लेकिन जो राज्य-विरोधी हैं, उनका हिंसा का आचरण अवैध माना जाता है। तो हिंसा की वैधता और अवैधता का यह वर्गीकरण अपने आप में…।

मदन: हिंसा किसी भी रूप में हो, किसी भी पक्ष से हो, वह अन्ततः हिंसा है, और अवांछनीय, निन्दनीय चीज़ है। हर व्यक्ति, बल्कि संसार की हर चीज़ मरणधर्मा है। लेकिन इस सर्वव्यापी मृत्यु का कर्तृत्व किसी के पास नहीं है। उसका कर्तृत्व किसी ऐसे अन्य के हाथ में है जिसके बारे में हम नहीं जानते कि वह कौन है। लेकिन जब आप किसी के जीवन को खत्म करते हैं, या उसके जीवन को ख़तरा पैदा करते हैं, तो आप दरअसल इस अर्थ में भी हिंसा कर रहे होते हैं कि आप मृत्यु के इस कर्तृत्व को बलात् हथियाने की कोशिश कर रहे होते हैं।

जहाँ तक राज्य की हिंसा और राजद्रोहियों की हिंसा के बीच वैधता और अवैधता के भेद का सवाल है, मुझे लगता है कि इसको गढ़ने में उन तमाम लोगों का योगदान है, जो किसी न किसी रूप में, और जिस किसी भी विवशता के चलते, व्यवस्था में विश्वास करते हैं। जब तक आप किसी व्यवस्था में विश्वास करते हैं, तब तक आप उस व्यवस्था के द्वारा की गयी हिंसा और उस व्यवस्था के मूल में निहित हिंसा का मूलगामी विरोध नहीं कर सकते; बल्कि आप उस हिंसा की ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकते। इसका यह अर्थ नहीं कि आपको विरोध नहीं करना चाहिए। अपने को भारतीय कहने या मानने का अर्थ यह कतई नहीं है कि आपको अपने राज्य द्वारा राज्य की सीमा के भीतर या उसके बाहर किये जाने वाले किसी अतिचार या हिंसा का विरोध नहीं करना चाहिए। लेकिन यह विरोध आप पैडिस्टल पर खड़े होकर नहीं कर सकते। यह विरोध साथ ही साथ आपके स्वत्व के उस अंश का भी विरोध होना चाहिए जो अंश इस राज्य को बनाये रखने में मदद कर रहा है। जब तक कि आप उस व्यवस्था के भीतर हैं और किसी न किसी रूप में उससे लाभान्वित हो रहे हैं, जब तक आप उसके भीतर रहते हुए उसकी सेनाओं से, पुलिस से मिलने वाली सुरक्षा का, उसके द्वारा उपलब्ध करायी गयी तमाम अन्य सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं, तब तक उस व्यवस्था के कृत्यों में आपकी परोक्ष ही सही भागीदारी है। और अगर उसके कृत्यों में आपकी भागीदारी है, तो उसके द्वारा की जा रही, स्वयं आपके विरुद्ध की जा रही, हिंसा में भी आपकी भागीदारी होगी।

इस तर्क को आप राज्य के बाहर भी घटित कर सकते हैं। एक दूसरा राज्य है जो इस राज्य के बाहर है, लेकिन एकबार फिर, ये दोनों राज्य भी किसी एक वृहत्तर व्यवस्था का हिस्सा हैं। वे किसी तीसरी व्यवस्था का उसी तरह हिस्सा हैं, जैसे कि आप इस राज्य का हिस्सा हैं। तो कुल मिलाकर राज्य की हिंसा का मूलगामी विरोध तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि आप किसी परम स्वराज्य में या अ-राज्य में न रहते हों। जब कि आप ‘अराजकता’ की पराकाष्ठा पर न रह रहे हों। अराजकता की पराकाष्ठा यानी वह स्तर जहाँ एक शेर के द्वारा किया गया एक हिरण का शिकार हिंसा नहीं है। हिंसा का प्रत्यय हमारा गढ़ा हुआ है। हिंसा अनिवार्यतः मनुष्य की कृति है। वह एक सांस्कृतिक संघटना है।

दीपेन्द्र: अगर दुनिया में हथियारों के भण्डार को देखें, तो यह बात समझ में आती है कि उनसे दुनिया को हज़ारों बार नष्ट किया जा सकता है। हथियारों के भण्डारण का तर्क इस नतीजे की ओर ले जाता लगता है कि अहिंसा की मानवीय आकांक्षा को इन हथियारों ने पूरी तरह से निरर्थक सिद्ध कर दिया है, और हथियारों के इस के ढाँचे के सामने, या हथियारों की यान्त्रिक प्रौद्योगिकी के आगे मनुष्यत्व निरर्थक हो चुका है।

मदन: बिल्कुल। क्या यह सलाह गाँधी जी ने ही नहीं दी थी कि संसार के सारे हथियारों को समुद्र में फेंक देना चाहिए? जिसको आज हम निरस्त्रीकरण कहते हैं, और जो आज महज़ एक नारेबाज़ी बनकर रह गया है, उसकी असल सलाह वही थी; जिसका मतलब यह था कि हमें सब तरह की हिंसा को समुद्र में फेंक देना चाहिए। वह एक सम्पूर्ण अहिंसा का आग्रह था। यह एक असम्भव सी बात लगती है, क्योंकि यह मनुष्य की कल्पना से बाहर है कि वह अपने आपको हिंसा से इतने सम्पूर्ण रूप से अलग कर ले। हिंसा आप इसलिए करते हैं क्योंकि आप डरते हैं। गाँधी जी जब हथियारों को समुद्र में फेंकने की बात कर रहे थे, तो वे सम्पूर्ण भय को समुद्र में फेंकने की बात कर रहे थे। सारे देश जिस तर्क से हथियार बनाते या इकट्ठा करते हैं, वह हमेशा ही सुरक्षा का तर्क होता है। और सुरक्षा केवल अपनी भौगोलिक सीमाओं की नहीं बल्कि अपने तमाम तरह के हितों की सुरक्षा का तर्क उसमें शामिल होता है। इसमें केवल हथियार नहीं बल्कि कूटनीतियाँ, समझौते, प्रतिबन्ध आदि भी हिंसा का कारण बनते हैं। दूसरे को डराने, या धमकाने के लिए इन चीज़ों का भी इस्तेमाल किया जाता है। तो कुल मिलाकर सुरक्षा का तर्क भय पर खड़ा होता है और यह भय अन्ततः दूसरे में भय पैदा करने, और फिर उस दूसरे को अपने भय के निराकरण के लिए अपना सुरक्षातन्त्र खड़ा करने, यानी हथियारों का ज़खीरा खड़ा करने, का कारण बनता है। एक दुश्चक्र। आज का ‘आतंकवाद’ शायद इसी दुश्चक्र की उपज है।

दीपेन्द्र: नाभिकीय हथियारों के बारे में यह तर्क दिया जाता है कि तीसरा विश्वयुद्ध इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नाभिकीय हथियार ईज़ाद कर लिये गये हैं, और इन हथियारों ने ही युद्ध की सम्भावनाओं को स्थगित रखा हुआ है। क्या कारण है कि ‘आतंकवाद’-विरोधी विमर्श में प्रायः हथियारों की वैधता को लेकर सवाल नहीं उठाये जाते! मुझे लगता है कि इस विमर्श में जब तक निरस्त्रीकरण की आकांक्षा को जगह नहीं मिलती तब तक वह एक आत्मविभाजित विमर्श ही होगा।

मदन: हाँ, इससे तो मैं तत्काल सहमत हूँ। लेकिन इसमें आपने एक बड़ी दिलचस्प बात कही है कि यह कहा जाता है कि नाभिकीय आयुध तीसरे विश्वयुद्ध के न होने के लिए ज़िम्मेदार हैं। इससे ज़्यादा अन्तर्विरोधी और आत्मछल से भरी हुई कोई दूसरी बात नहीं हो सकती। हथियार हमेशा युद्ध को भड़काते हैं; वे हमेशा युद्ध की सम्भावना को बढ़ाते हैं, उसको ख़त्म नहीं कर सकते। यूँ भी, न सही विश्वयुद्ध, पर युद्ध तो हो ही रहे हैं, परमाणु हथियारों के बावजूद। विश्वयुद्ध के न होने से या उसके स्थगित होने से जो तथाकथित शान्ति है, उसको भयमूलक शान्ति ही कहा जाएगा, जोकि अपने आप में एक वदतोव्याघात (Contradiction in terms) होगा। शान्ति या अहिंसा भयमूलक नहीं हो सकती; वह भय-मुक्ति से ही सम्भव है, जबकि हथियार भय पैदा करते हैं। इसलिए परमाणु आयुध अगर कुछ कर रहे हैं, इस सन्दर्भ में, तो वे केवल तनाव को सघन, गहन और तीखा ही कर रहे हैं। तीसरी लड़ाई का न होना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि उसका आसन्न बने रहना है। तीसरे विश्वयुद्ध के न होने के कारण जो तथाकथित शान्ति है उसका कोई सम्बन्ध परमाणु हथियारों से नहीं है। यह कृत्रिम शान्ति है; तूफान के पहले की शान्ति। आप देखें कि शान्त रस का अनुभाव समभंग का होता है, उसमें कोई विक्षेप नहीं होता। वह शान्ति किसी भी तरह के उद्वेगों, उद्वेलनों से मुक्ति की स्थिति में आती है। भय की स्थिति परम विक्षेप की स्थिति होती है। और आप कह सकते हैं कि भय का सबसे बड़ा विक्षेप, इस वक़्त, सभ्यता के स्तर पर, ‘आतंकवाद’ हैं।

दूसरी बात यह कि तीसरी लड़ाई जो कर सकती है, मनुष्य का जो भौतिक विनाश उसमें होने की सम्भावना है, वह विनाश तो, खुदा का शुक्र है, तब तक रुका रहेगा जब तक कि ये पटाखे नहीं फूट जाते, लेकिन जिस भय ने इन हथियारों को पैदा किया है, और उन हथियारों की रक्षा के लिए, उनका औचित्य सिद्ध करने के लिए जो कुछ भी दुनिया के वे ताक़तवर लोग कर रहे हैं जिनके पास ये हथियार हैं, वह मनुष्यता के विनाश का एक दूसरा रूप है: सांस्कृतिक नरसंहार, ‘आतंकवाद’, वैश्विक आर्थिक मन्दी के चलते लाखों लोगों के बेरोज़गार हो जाने की सम्भावना, चारों ओर व्याप्त हो रही असंवेदनशीलता…। दुनिया बनी रहे, और यही शुभकामना हमको करनी चाहिए, लेकिन कभी-कभी यह भी लगता है कि जिस तरह की दुनिया बनी रहने वाली है, जिस तरह की दुनिया हम लोग बनी रहने देने वाले हैं, उस तरह की दुनिया के बने रहने का क्या अर्थ होगा! यह तो कोई ख़ास अर्थपूर्ण बात नहीं है कि मनुष्य की एक निष्क्रिय और निरर्थक उपस्थिति रह जाय, जिसमें कि वो कुछ भी न कर सके। सौभाग्य से इतनी भीषण नाउम्मीदी की हालत अभी नहीं है, और यह उम्मीद हम कर सकते हैं कि अगर पृथ्वी बची रही और उसमें इन्सान बचे रहे, और उनमें वे थोड़े से लोग ( जो उतने थोड़े भी नहीं हैं ) बचे रहे जिनको इन सब चीज़ों की चिन्ता है तो…। लेकिन इन लोगों का सांवेदनिक जीवन, इनकी जिजीविषा सुरक्षित रह सके, यह बहुत ज़रूरी है। इसका नष्ट होना ही दरअसल संसार का नष्ट होना है।

दीपेन्द्र: कल आपने एक अच्छी बात कही थी कि जिसे ‘आतंकवादी’ कहा जा रहा है, वह स्वयं आतंकग्रस्त है। इसी के साथ-साथ यह भी लगता है कि यह दरअसल कुछ समुदायों के आत्म-अलगाव की भी एक तरह की अभिव्यक्ति है; ऐसे समुदाय जो यह महसूस कर रहे हैं कि वे वैश्विक स्तर पर अन्याय का शिकार हैं, उनकी उपेक्षा हो रही है, उसको हाशिये पर धकेल दिया गया है, उनको अपवर्जित कर दिया गया है। ‘आतंकवाद’ को इन तमाम चीज़ों के ख़िलाफ़ आत्माभिव्यक्ति की कोशिश की तरह भी देखा जा सकता है।

मदन: निश्चय ही। एक बम-विस्फोट कर वे एक सन्देश देना चाहते हैं, जिसके लिए आपने एक शब्द इस्तेमाल किया है: अभिव्यक्ति। हालाँकि अभिव्यक्ति का यह ढंग अपने आप में नृशंसता के स्तर को छूता है, और उसमें अन्धापन और अविवेक भी साफ़ दिखायी देता है।

दीपेन्द्र: ‘सेक्युलरिज़्म’ आधुनिकता का एक प्रबल मूल्य है। आत्मसंरक्षण उसका एक दूसरा परम मूल्य है जिसमें व्यक्तिवाद भी स्थापित होता है। इस आत्मसंरक्षण के बरक्स ‘आतंकवाद’ की विचारधारा को देखें, तो जिसे ‘आतंकवादी’ कहा जा रहा है, उसने, लगता है, अपने मृत्यु-भय को उत्तीर्ण कर लिया है। न केवल मृत्यु-भय को उत्तीर्ण कर लिया है, बल्कि आत्म-उत्सर्ग में भी उसने अपने आपको झोंक दिया है; मानो अपने अस्तित्व की वैधता वह इस संसार में नहीं बल्कि किन्हीं अलौकिक स्रोतों में ढूँढ रहा है। तो इसको कैसे समझा जाय? यथार्थवादी दृष्टि से तो इसको मिथकीय वैधता कहा जाएगा। पर इस मिथकीय वैधता में इस कथित ‘आतंकवादी’ की परम आस्था भी है।

मदन: जिसको हम ‘सेक्युलरिज़्म’ कहते हैं वो मूलतः मनुष्य को, उसके कर्तृत्व को, सृष्टि के केन्द्र में मानने का, मनुष्य को अन्तिम रूप से कर्ता मानने का विचार-दर्शन है। ‘सेक्युलरिज़्म’ कहता है कि दुनिया को मनुष्य के दृष्टिकोण से देखा, समझा जाय और बदला जाय। व्यक्ति को इसी मनुष्य के सत्व के रूप में देखने की कोशिश की गयी है। इस दृष्टि से देखें तो ‘आतंकवादी’ गतिविधि में मुब्तिला इन्सान न केवल कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि वहाँ व्यक्तिवाद का भी उत्सर्ग है। और व्यक्तिवाद का यह उत्सर्ग कुल मिलाकर मनुष्यकर्तृत्ववाद का भी उत्सर्ग है। उत्सर्ग का प्रत्यय यहाँ बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह एक धर्ममूलक प्रत्यय है। मानव-बम के सन्दर्भ में आत्मघात सही शब्द नहीं है। मैं नहीं समझता की ‘आतंकवादियों’ के दर्शन में आत्महत्या के लिए कोई मूल्य का दर्जा प्राप्त हो सकता है। अगर आत्महत्या को कहीं कोई नैतिक स्वीकृति मिल सकती है तो वह आधुनिक सोच, आधुनिक मानस के भीतर ही मिल सकती है; उसी मानस के भीतर जो व्यक्तिवाद और ‘सेक्युलरिज़्म’ को महत्त्व देता है। धार्मिक दृष्टि से, आपको मिला हुआ जीवन, आपको मिली हुई देह ईश्वर की देन है और इसीलिए आपको कोई हक़ नहीं है कि आप ईश्वर के विधान में हस्तक्षेप करते हुए उस जीवन को अपनी इच्छा या अपनी तानाशाही से समाप्त कर सकें। इसलिए जब कोई इन्सान एक मानव-बम के रूप में विस्फोट करता है तो वह आत्महत्या नहीं करता, बल्कि वह कहीं न कहीं उत्सर्ग के विचार से प्रेरित होता है। वह धर्म की ख़ातिर अपना उत्सर्ग कर रहा होता है। क्योंकि उसका जो चरम दाँव है वो धर्म है। यह बिल्कुल अलग बात है कि वह धार्मिकता एक बहुत ही कट्टर स्तर पर उठी हुई होती है। पर इस कट्टरता के रूप हम इतिहास में बहुत पहले से देखते आये हैं। हम विशेष रूप से सामी धर्मों के इतिहास में यह देखते आये हैं कि धर्म या धार्मिक विश्वासों की रक्षा के लिए लोगों ने तमाम तरह की हिंसाएँ की हैं। तो कुल मिलाकर यह धार्मिकता या अलौकिकता और लौकिकता या सेक्युलरिज्म के बीच का द्वन्द्व है; आस्तिकता और नास्तिकता के बीच का द्वन्द्व। अगर ‘आतंकवादियों’ को इस बात का विश्वास हो जाए कि ईश्वर उनके इस कृत्य से प्रसन्न नहीं है, तो वे शायद पहले व्यक्ति होंगे जो इसको छोड़ देंगे।

दीपेन्द्र: अभी ‘आतंकवाद’ का जो विमर्श बन रहा है उसमें प्रायः व्यवस्था ही एक तरह से ‘आतंकवाद’ का नामकरण कर रही है। पर इस नामकरण के इतिहास को ध्यान से देखें तो जब ज्योनिस्ट मूव्हमेण्ट जर्मनी में चल रहा था और यहूदी लोगों को जब इज़राइल में बसाया गया, तो उसके पीछे पवित्र पुस्तक, मतलब बाईबिल, का ही ‘प्रॉमिस्ड लैण्ड’ का तर्क था और उसी तर्क के तहत यहूदियों के दैवीय अधिकार को अधिमान्यता देते हुए तथाकथित सेक्यूलर स्टेट ने वहाँ उनको बसाया, और फिलिस्तीनी लोग, जिनका उस ज़मीन पर नैसर्गिक अधिकार था, जो सदियों से वहाँ पर रह रहे थे, उन्हें वहाँ से बेदखल किया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि इसे अन्तरराष्ट्रीय विधि द्वारा मान्यता भी दी गयी। जिन फिलिस्तीनियों को बहिष्कृत किया गया, वे दरअसल एक निरुपाय या निर्विकल्प परिस्थिति में थे। उनके पास जीने का कोई भी विकल्प नहीं बचा था, न्याय की उनकी सारी गुहार लगातार विफल हो रही थी, तब जाकर सम्भवतः उन्होंने मजबूर होकर ‘आतंकवाद’ को अपना माध्यम बनाया। यूँ पश्चिमी सभ्यता की आत्मछवि यह है कि वह ‘रीज़न’ या शुद्ध बुद्धि के तर्क पर खड़ी है, लेकिन ध्यान से देखने पर हम पाएँगे कि इसमें अन्यता को निरन्तर खारिज़ किया गया है, और यूरो-अमरीकी सभ्यता ने लगातार शक्ति का केन्द्रीकरण और संरक्षण किया है। तो एक तरह से, यहाँ ‘रीज़न’ या बुद्धि का इस्तेमाल अपनी ताक़त को बढ़ाने के लिए किया गया है। ‘आतंकवाद’, इस परिप्रेक्ष्य में, अन्यता के निषेध को प्रतिरोध देने के रूप में भी सामने आता है।

मदन: इतिहास की विडम्बना देखिये कि किसी समय में इन्हीं यहूदियों के साथ यूरोप में वही सब अत्याचार हुए थे जो आज इज़राइल फिलिस्तीनियों के साथ कमोबेश कर रहा है। मेरा इशारा नाज़ियों द्वारा किये गये अत्याचारों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अगर इतिहास की मेरी जानकारी इस मामले में ग़लत नहीं है, तो पूरे यूरोप में ईसाई जगत भी यहूदियों के प्रति बहुत उदार नहीं रहा। मुसलमानों के प्रति तो वह घनघोर अनुदार रहा ही। और यह अनुदारता ‘रीज़न’ के युग में बरकरार रही है। आज इज़राइल जो फिलिस्तीनियों के साथ कर रहा है, उसमें, हम जानते हैं कि अकेला इज़राइल शामिल नहीं है। उसे बहुत बड़ा समर्थन उस दुनिया का प्राप्त है जिसको कि हम यूरो-अमरीकी दुनिया कहते हैं और जो ईसाई जगत भी है। यह वह दुनिया है जो ‘रीज़न’ का दावा करती है। जो कुछ भी इस ‘रीज़न’ के नाम पर या उसके बावजूद किया गया है, उसके साथ जब हम ‘रीज़न’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो यह अपने आप में वदतोव्याघात जैसा लगता है। या फिर यह कहना चाहिए कि यह ‘रीज़न’ का अपना अभिशाप है। एक पूरी की पूरी सभ्यता को उसके नैसर्गिक आवास से विस्थापित करना…। एक समय तक कम्युनिस्टों के द्वारा जो भी किया जाता था अमेरिका के हिसाब से वह आतंक का कृत्य हुआ करता था। यह अलग बात है कि कम्युनिस्ट साम्राज्य खुद अपने लोगों के साथ आतंक की पराकाष्ठा पर गया था। ये सब ‘रीज़न’ के ही रीज़न हैं। यह सब वहीं हुआ जहाँ तर्कबुद्धि को, शुद्ध बुद्धि को बहुत महत्त्व दिया गया। इनके बिना न आप साम्यवाद की कल्पना कर सकते हैं, न अमेरिका के महादेश होने की कल्पना कर सकते हैं, और न योरोप के इतने बड़े उपनिवेशवादी और दुनिया पर शासन करने की महत्त्वाकांक्षा पालने वाले महाद्वीप की कल्पना कर सकते हैं।

‘आतंकवादियों’ के मनोविज्ञान में कहीं न कहीं यह भी है कि योरोप द्वारा उनकी संस्कृति को, उनकी आस्था के सम्बलों को, उनके मूल्यों को, दुनिया से विस्थापित किया जा रहा है; एक तरह का सांस्कृतिक फिलिस्तीन आप इस दुनिया में जगह-जगह गढ़ रहे हैं। जिन लोगों ने इस ‘रीजन-ओरिएण्टेड’ आधुनिकता को स्वीकार कर लिया है, उनके लिए कोई मुश्किल नहीं है। लेकिन जिनने स्वीकार नहीं किया है, उनका अगर यह बोध हो कि उनको सांस्कृतिक रूप से विस्थापित किया जा रहा है, तो यह बहुत अस्वाभाविक नहीं है। इस नामकरण- ‘आतंकवाद’ -पर इस परिप्रेक्ष्य में भी सोचने की ज़रूरत है। एक देश लगातार रेटॉरिक उगलता रहता है कि एक दूसरे देश के पास मास-डिस्ट्रक्शन के हथियार हैं और वह दुनिया के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बना हुआ है। लेकिन यह देश जब हज़ारों मील दूर से आकर उसपर आक्रमण करता है, और अमेरिका ने ऐसा एक से अधिक जगहों पर किया है, तो इसको हम इस शब्द (‘आतंकवाद’) की ज़द में क्यों नहीं लाते? कोई नहीं कहता कि अमेरिका ने ‘आतंकवादी’ गतिविधि की है। कम से कम लोकप्रिय विमर्श में यह चीज़ नहीं है। परम्परागत युद्धों में महत्त्वाकांक्षाएँ और मूल्य आमतौर से बहुत साफ़ हुआ करते थे। उन्हें हम आज के, आधुनिक, विवेक से सामन्तवादी आदि कहते हैं। पर आज के युद्ध जो रीज़न के तर्क से किये जाते हैं, उन परम्परागत युद्धों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मनुष्यविरोधी ठहरते हैं। प्रजातन्त्र कितना ही बड़ा मूल्य हो, लेकिन आप यह बलात तय करने वाले कौन होते हैं कि प्रजातन्त्र जब तक सार्वभौम नहीं होगा तब तक वह एक खण्डित उपलब्धि ही होगी। आप सारी दुनिया में प्रजातन्त्र को स्थापित करने के लिए किन्हीं देशों के नागरिकों की हत्या करें, उनके देश को बमों से तबाह कर दें, उनकी आधार-रचना को इस तरह पंगु बना दें कि वे दशकों तक न उठ सकें…। आज जब हम इतिहास पढ़ते हैं तो इस बात को बड़े दर्द के साथ याद करते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध ने कितनी बड़ी तबाही की थी और हिटलर ने ये किया और कम्युनिज़्म ने वो किया आदि, लेकिन इस पर कम बात होती है कि ईराक की जो तबाही हाल ही के वर्षों में हुई उससे वह देश केवल भौतिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी कब-कैसे अपने आत्मविश्वास को पा सकेगा, और उस आत्मविश्वास को पाने में यह बलात आरोपित प्रजातन्त्र कितनी मदद कर पाएगा। क्योंकि यह प्रजातन्त्र उनकी अपनी व्यवस्था के भीतर से निकला हुआ नहीं है।

आधुनिक युग में हम अन्य से नफ़रत के अन्यान्य रूप देखते हैं, जिनमें ‘अनाधुनिक’ भी एक अन्य है, जिनमें पारम्परिक समाज भी एक अन्य है। कायदे से, अगर आधुनिकता सहिष्णुता और प्रजातन्त्र जैसे तत्त्वों से निर्मित है, अगर उसमें ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ एक बहुत बड़ा मूल्य है, तो फिर आधुनिकता के भीतर उसके ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ के लिए भी गुंजाइश होनी चाहिए। तभी वह अपने ही मूल्यों की कसौटी पर खरी मानी जाएगी। लेकिन क्या आधुनिकता के भीतर उसके ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ के लिए वाकई गुंजाइश है? गहरी धार्मिक आस्था का जीवन बिताने वाले पारम्परिक समाजों के लिए, आदिवासियों के लिए क्या उसमें गुंजाइश है – उन लोगों के लिए जो प्रगति को दो कौड़ी की चीज़ मानते हैं, जो सेक्युलरिज़्म को ग़लत मानते हैं? इस तरह के तमाम समुदाय आधुनिकता के ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ हैं, जिनको उसने हमेशा ही एक नफ़रत करने योग्य और अनिवार्यतः नेस्तनाबूत करने योग्य अन्य के रूप में देखा है।

दीपेन्द्र: आपने शुरू में कहा था कि ‘आतंकवाद’ उनके लिए हमारे द्वारा दिया गया नाम है। इस दृष्टि से देखें तो इस संघटना के इर्दगिर्द विकसित विमर्श के प्रतिमान, दरअसल, राष्ट्र-राज्य व्यवस्था ही विकसित कर रही है। और विमर्श की इन स्थापित व्यवस्थाओं में ‘आतंकवादियों’ की कोई आस्था नहीं है। इन परिस्थितियों को देखकर आपको नहीं लगता कि विमर्श के प्रतिमान भी बदलने चाहिए? अगर राष्ट्र्र-राज्य व्यवस्था उनके साथ संवाद करना चाहती है और समाधान की दिशा में आगे बढ़ना चाहती है तो विमर्श के स्थापित प्रतिमानों में कुछ दरारें लाना होंगी?

मदन: बिल्कुल। उनका कोई विमर्श नहीं है। उनकी कार्रवाई से मिले कुछ संकेतों के आधार पर, उनके पक्ष से हमारे द्वारा गढ़ा गया विमर्श है। हो सकता है जो बातचीत हम कर रहे हैं, वह भी उसी प्रकृति का विमर्श हो। शायद वे इस समूचे संकट को, विमर्श का विषय नहीं मानते, कार्रवाई का विषय मानते हैं। यह एक बहुत ख़तरनाक स्थिति है। अगर उनका कोई एक विमर्श होता तो वह इस समस्या के हल में शायद कुछ मदद कर सकता। तो पहला सवाल तो यही है कि क्या विमर्श में उनका विश्वास है। और अगर नहीं है, तो ये सोचने की बात है कि ऐसा क्यों है। अक्सर इस तरह की हिंसक गतिविधियों की शुरूआत दरअसल वहीं होती है जहाँ संवाद की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि संवाद पर से उनका विश्वास उठ जाने के नतीजे में ऐसा हुआ हुआ हो, जिसके नतीजे में वे सीधी कार्रवाई पर उतर आये? यह अटकल तो कम से कम लगायी जा सकती है। संस्कृति के इतिहास में इस बात की खोज बहुत आसानी से की जा सकती है कि पिछली कुछ सदियों में विमर्श की जो परम्परा विकसित हुई है, उसने अन्य को, अन्य के विचार को, अन्य की आस्था को, कितना अवकाश दिया है; कितनी कोशिश उनको विमर्श के दायरे में लाने की हुई है, और कितनी कोशिश विमर्श को इतना लचीला बनाने की हुई है कि अन्य का मत, अन्य का कन्विक्शन उसमें गुंजाइश पा सके। क्योंकि अगर वह गुंजाइश नहीं रखी गयी है, तो फिर उनसे उम्मीद करना कि वे विमर्श का रास्ता चुनें, कैसे सम्भव है? वे कार्रवाई के रास्ते ही आप तक पहुँचेंगे और कार्रवाई के रास्ते ही आप उनका सामना करेंगे, जोकि आप कर ही रहे हैं।

दीपेन्द्र: मुझे ऐसा लगता है कि विमर्श के स्थापित प्रतिमानों से अलग ‘आतंकवादी’ अपनी ओर से विमर्श का एक संकेत तो कर रहे हैं। वह संकेत उनकी कार्रवाई में निहित है। वह अपनी देह में ही एक संकेत की तरह प्रस्तावित की जा रही है। वह कार्रवाई किसी और बिन्दु की ओर संकेत कर रही है। और ऐसा करते हुए वह कार्रवाई ‘काउण्टर-साइन’ भी हो रही है, अर्थात उसकी जवाबदेही ली जा रही है। पर व्यवस्था उस संकेत को पढ़ना नहीं चाहती है। उल्टे उस संकेत की अवमानना कर रही। यह सही है कि यह संकेत बहुत कूटबद्ध है, पर निश्चित रूप से वह संकेत विमर्श की दिशा में है।

मदन: ठीक बात है। हम ‘आतंकवाद’ की भौतिक बनावट को, उसकी स्थूलता को सबसे ज़्यादा लक्षित करते हैं। हम बम को लक्षित करते हैं, उस शरीर को लक्षित करते हैं जिसने उसको बाँध रखा था, उन निशानों को जो घटना के बाद छूट जाते हैं, गाहे-ब-गाहे पकड़ लिये गये या मारे गये ‘आतंकवादी’ को, और उसकी वजह से हुई भौतिक तबाही को लक्षित करते हैं। आप कह सकते हैं कि हम यूँ ‘आतंकवाद’ की अभिधा पर ध्यान देते हैं, पर उसकी व्यंजना पर ध्यान नहीं देते हैं, जिसको आप ‘संकेत’ कह रहे हैं। यह संकेत बहुत कूटबद्ध है, यह बात सही है, लेकिन वह इतना भी कूटबद्ध नहीं है कि उसको पढ़ा न जा सकता हो- ख़ासकर एक ऐसे समाज के भीतर जो शुद्ध बुद्धि के डिजिटल स्तर पर उठा हुआ है। हम शायद उसको पढ़ना नहीं चाहते, जैसा कि आप कह रहे हैं। ‘आतंकवाद’ एक ऐसी स्क्रिप्ट या एक ऐसी पुस्तक है…

दीपेन्द्र: एक ऐसा ‘सिग्नीफायर’ …

मदन: हाँ, जिसका रचयिता तो है, लेकिन जिसका कोई पाठक नहीं है। तो वह एक अपठित, पढ़े जाने की इच्छा से वंचित संकेत या कूट है। इससे भी ज़्यादा, जो किया जा रहा है, वह उसका अपपाठ या कुपाठ है। और उसको तरीके से पढ़ने की कोशिश उसी वजह से नहीं है जिस वजह से ‘आतंकवाद’ पैदा होता है। जिस विमर्श के भीतर उसको पढ़ा जा सकता है वह विमर्श हमने विकसित ही नहीं किया है। हमने उसका अपवर्जन किया है। वह एक अपवर्जित अनुभव है। उस अनुभव की गुंजाइश आपकी आधुनिकतावादी विमर्श-परम्परा के भीतर नहीं है। और उसका अपठन या अपपठन उसको और ज़्यादा भड़काता है। यह कैसे सम्भव होता है कि वह अभागा हत्यारा हमारी संवेदना के दायरे में प्रवेश नहीं कर पाता जो अपने सीने से बम बाँधकर अपने को उड़ा देता है! इस व्यक्ति का, उसके इस अन्तर्विरोध का कि वह अस्तित्व के किसी रूप को हासिल करने के लिए अपना अस्तित्व खत्म कर रहा है, अपठित बना रहना, पढ़ने की हमारी सामर्थ्य की सीमा को बताता है। और उसको न पढ़े जाने के कारण ही शायद वह कूट दुरूह बनता है।

दीपेन्द्र: और उसको पढ़े जाने की शायद यह भी शर्त है कि आप अपने को पढ़ें। और आप अपने को पढ़ना नहीं चाहते।

मदन: बिल्कुल। यह पठन के कर्म में ही निहित है, क्योंकि कोई भी पठन साथ ही साथ आत्मपठन भी होता है। कोई भी व्यक्ति जिसमें अपना उत्सर्ग करने की, अपने को दाँव पर लगाने की, अपने को प्रश्नवेध्य बनाने की, सामर्थ्य नहीं है, वो पाठक नहीं हो सकता। और इस मामले में हमारी सभ्यता उत्तरोत्तर एक अपाठक सभ्यता होती जा रही है। वह पढ़ने की सामर्थ्य खोती जा रही है।

दीपेन्द्र: ‘एण्टी-रीडर’…

मदन: हाँ, एक तरह से। क्योंकि ‘नॉन-रीडर’ से ही ‘एण्टीरीडर’ की यात्रा शुरू होती है। ‘नॉन-रीडर’ अपनी ‘नॉन-रीडरशिप’ को सुरक्षित करने के लिए अन्ततः ‘एण्टीरीडर’ की भूमिका निभाने लगता है…

दीपेन्द्र: वह नहीं चाहता कि दूसरे लोग पढ़ें…तो वह पढ़ने को ही सेंसर करना चाहता है…

मदन: …जो कि हमारे वक़्त में होता रहा है। तो आपकी यह अटकल बिल्कुल सही है कि खुद को पढ़ने की असमर्थता इसके पीछे है। क्योंकि उसमें आपको खुद को दाँव पर लगाना होगा। जैसे ही आप उसको पढ़ेंगे आप खुद को पढ़ना शुरू कर देंगे। और आप फिर उस पूरे इतिहास में जाने को विवश होंगे जहाँ से यह गतिरोध शुरू हुआ; जहाँ से आपने उनके कूटों को पढ़ना बन्द कर दिया है। न केवल बन्द कर दिया है बल्कि आपने एक ऐसा अर्थतन्त्र गढ़ लिया जिसमें कि उनकी वाणी, उनकी आवाज़, उनके संकेत व्याख्येय ही नहीं हैं।

निश्चय ही ‘आतंकवाद’ जिस वैकल्पिक विमर्श की माँग करता है, वह ‘आतंकवाद’ के सम्पूर्ण निषेध के बिना सम्भव नहीं है, किन्तु तभी जब यह निषेध ‘आतंकवाद’ को समझने का भी पर्याय बन सके। इस वैकल्पिक विमर्श में फिर वे लोग शामिल होंगे जो भविष्य के सम्भावित ‘आतंकवादी’ हैं।

यह बातचीत प्रतिलिपि पर कुछ समय प्रकाशित हो चुकी है, इस लेख के अलावा अन्‍य महत्‍वपूर्ण चर्चाओं, विमर्शों के लिए इस पत्रिका को देखा जा सकता है। प्रतिलिपि पर जाने के लिए यहां क्लिक करें

3 comments:

  1. जरूरी और महत्‍वपूर्ण बातचीत है। पहले ही प्रतिलिपि पर पढ़ रखी है।

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  2. भाई साब आपका फोटो हमने अपने ब्‍लाग गुल्‍लक में लगाया है। आकर देख जाएं। गुल्‍लक की लिंक न हो तो यह रही- http://utsahi.blogspot.com

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  3. जी, शुक्रिया देख लिया। याद रखने और सजों कर रखने के लिए बहुत बहुत शुकिया

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