Wednesday, November 3, 2010

कहकहे सन्‍नाटे में बदल रहे है

भाईसाब लौट आए। कितनी देर में आए कहना ठीक नहीं रहेगा। ललाट की रेखाएं तनीं थीं। गुमसुम थे। चाह रहे थे किसी को पता नहीं चले।
लेकिन उनको देखर जगजीत सिंह का गाया एक टुकड़ा बरबस याद आ रहा था - तुम इतना जो मुस्‍कुरा रहे हो....
बात क्‍या है भाईसाब। कह दो।कहा गया है कहने सुनने से दुख बंट जाता है। मन में रह जाएगा तो अंदर तोड़ फोड़ करेगा।
कुछ नहीं । यूं ही बस। घर में सब ठीक-ठाक नहीं चल रहा। संबंध बड़ी नाजुक चीज है। आपको कभी पैर में ठेस लगी ? बड़ी दुखदायी होती है। बहुत बचाकर चलते हो तब भी कहीं न कहीं ठोकर लग ही जाती है। लहुलुहान होते हैं। बचने की कोशिश करते हैं। अकारण ही लहुलुहान होता रहता है। मुश्किल से सूखता है वह घाव।
पहले हमारे यहां कंप्‍यूटर नहीं था। तब उसको लेकर लड़ाई थी। कंप्‍यूटर दो हुए तो इंटरनेट आ गया। कौन कितनी देर कनेक्‍ट रहेगा उसका झगड़ा। वाइ फाई करा लिया। अब कौन कितना सार्थक काम कर रहा है इस बात का झगड़ा। दोनों वर्चुअल दुनिया में रहने लगे। तब असली दुनिया में किसकी कितनी जिम्‍मेवारी होगी इसका झगड़ा। इसमें मामला निबटा तो कौन अपनी जिम्‍मेवारी को ठीक तरीके से निभाता है इसको लेकन तनाव। नौकरी नहीं थी तो झगड़ा नौकरी है तो झगड़ा। बच्‍चा नहीं था तो झगड़ा बच्‍चा है तो झगड़ा.......
बस ..बस ...बस... भाईसाब ।
झगड़े की लंबी फेहरिश्‍त है। उन विषयों को सुनाने लगूं तो पिछली मुलाकात के दिन से कल सुबह वे मिले थे मुझसे उतने दिनों की जितनी गिनती है, उससे कहीं अधिक थे झगड़ों के विषय। मन कर रहा था पूछूं भाईसाब कोई तो ऐसा दिन होगा, तीज त्‍योहार होगा, कभी तो कोई ऐसा पल रहा होगा, जब इस मूड से बाहर निकल पाएं हों.......लेकिन बस सोचकर रह गया। हालांकि पूरी बात नहीं हो पायी थी, फिर भी लग रहा था तनाव का पारा कुछ तो नीचे उतरा है। सुनना बहुत जरूरी है । लेकिन कौन किसकी सुनता है। सभी कहते जा रहे हैं। कहकहे सन्‍नाटे में बदल रहे

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