लेकिन भाई साब हद करते हैं। इस बार भी उन्हें कपड़े मिले तो उन्होंने छोटे भाई की ओर बढ़ा दिए - कुछ दिन पहन लो रंग उतर जाएगा तो मैं ले लूंगा।
पता नहीं चमकीली चीजों से उन्हें घबराहट सी होती है। झक्क सफेदी और कलफवाले कपड़े देख कर भन्ना उठते हैं। कुछ लोग इसे समाजवादियों का नाटक कहते हैं। कुछ लोग इस बात का हवाला भी देते हैं कि ये समाजवादी राजधानी से चुनाव क्षेत्र के नजदीकी स्टेशन तक तो थ्री पीस में जाते हैं, लेकिन रेस्ट हाउस में तुड़े-मुड़े कपड़े पहनकर जनता के प्रतिनिधि बन जाते हैं.......आदि।
हमने कहा भाईसाब समाज-काज में हो। लोगों के साथ उठना बैठना है। साफ, धुले, इस्त्री किए हुए कपड़े पहनने में क्या हर्ज है। हमारे एक गृहमंत्री हुआ करते थे, वह तो दिन में न जाने कितने बार कपड़े बदलते थे। तीज-त्योहारों का स्वागत तो नए वस्त्रों में ही किया जाता है न।
क्या करें भइया। अपने को जमता ही नहीं। हमारी आंखें जनता के धूसर रंग की तरफ हैं। कलफदार होकर हम उनकी बातें कैसे कर सकते हैं। उनके बीच जा भी कैसे सकते हैं? झोपड़पट्टी के सामने मॉल खड़ा करना वहां के लोगों का अपमान है या सम्मान ?
No comments:
Post a Comment