''साहित्य उस व्यक्ति की चेतना के उन तत्त्वों के प्रति संवेदनशील हो सकता है, उनको सम्बोधित कर सकता है जो कि इन सारी चीज़ों के प्रति वध्य बना दिये गये होते हैं। साहित्य उन स्थलों की पहचान कर सकता है जो कि हमेशा ही वध्य होते हैं, या जिनके वध्य होने की सम्भावना समाज में हमेशा होती है। वह वध्यता जो कि मनुष्यता की अनिवार्य पहचान है; धर्म के प्रति, जाति के प्रति, विचारधाराओं के प्रति, पन्थों और मतों के प्रति उसकी संवेदनशीलता। उन नाजुक, वध्यस्थलों को समझने का, और उनकी नज़ाकत को चरितार्थ करने का काम साहित्य कर सकता है। वह अपने पाठक को उस व्यक्ति के प्रति भी संवेदनशील बना सकता है जिस व्यक्ति के प्रति इस तरह की घटनाएँ हमारे समाज को असंवेदनशील बना देती हैं, जोकि इन घटनाओं का सबसे दारुण पक्ष है, क्योंकि यह असंवेदनशीलता भी कहीं न कहीं उन घटनाओं के कारकों में योगदान करती है।''
प्रस्तुत है आतंकवाद पर दीपेन्द्र और मदन सोनी के बीच हुए संवाद यानी मित्र संवाद की दूसरी कड़ी
दीपेन्द्र : ‘आतंकवाद’ पर केन्द्रित ख़ासकर समाजवैज्ञानिक विमर्शों में ‘आतंकवाद’ को समझने की एक तरह से विचारधारात्मक एकांगी दृष्टि दिखायी देती है। मनुष्य की चेतना के भीतर घटित हो रही घटनाओं के सूक्ष्म विवरण उनमें नहीं होते। इसलिए परिस्थितियों के मर्म को समझने में उनसे विशेष मदद नहीं मिलती। इसके बरक्स साहित्य में इस संघटना को बहुत से कोणों से, बहुआयामी और संष्लिष्ट दृष्टि से, देखे जाने की सम्भावना दिखती है। इस संघटना के सन्दर्भ में साहित्य के ‘रेस्पॉन्स’ का क्या रूप हो सकता है?
मदन: ‘आतंकवाद’ के सन्दर्भ में साहित्य की प्रतिश्रुति कम से कम दो तरह की हो सकती है। इनमें से एक तो वही है जो गीतांजलि श्री के उपन्यास में उभरती है, जो उस चेतना को लेखे में लेता है जिसे हम ‘आतंकवाद’ की शिकार चेतना के रूप में पहचानते हैं। पर मुझे लगता है कि एक और महत्त्वपूर्ण ढंग हो सकता है, और वह उस व्यक्ति के मर्म में पैठने का होगा जो कि् ‘आतंकवाद’ का एक तरह से अनपहचाना शिकार है, यानी वह व्यक्ति जिसे ‘आतंकवादी’ गतिविधि का उपकरण बनाया जाता है; वह जो ‘आतंकवाद’ को उसके अन्तिम रूप में अंजाम देता है; जिसे किसी तरह का भौतिक या आध्यात्मिक लालच देकर यह कार्रवाई करायी गयी है। उस वाहक के मनोविज्ञान में, उसके आत्म में, उसके मर्म में पैठने की कोशिश कोई कर सकता है, तो वह, मुझे लगता है, साहित्य ही है। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, यह व्यक्ति भी उस कार्रवाई का शिकार होता है, और तब भी होता है जबकि वह एक ‘मानव-बम’ नहीं होता। साहित्य उस व्यक्ति की चेतना के उन तत्त्वों के प्रति संवेदनशील हो सकता है, उनको सम्बोधित कर सकता है जो कि इन सारी चीज़ों के प्रति वध्य बना दिये गये होते हैं। साहित्य उन स्थलों की पहचान कर सकता है जो कि हमेशा ही वध्य होते हैं, या जिनके वध्य होने की सम्भावना समाज में हमेशा होती है। वह वध्यता जो कि मनुष्यता की अनिवार्य पहचान है; धर्म के प्रति, जाति के प्रति, विचारधाराओं के प्रति, पन्थों और मतों के प्रति उसकी संवेदनशीलता। उन नाजुक, वध्यस्थलों को समझने का, और उनकी नज़ाकत को चरितार्थ करने का काम साहित्य कर सकता है। वह अपने पाठक को उस व्यक्ति के प्रति भी संवेदनशील बना सकता है जिस व्यक्ति के प्रति इस तरह की घटनाएँ हमारे समाज को असंवेदनशील बना देती हैं, जोकि इन घटनाओं का सबसे दारुण पक्ष है, क्योंकि यह असंवेदनशीलता भी कहीं न कहीं उन घटनाओं के कारकों में योगदान करती है। साहित्य इस तरह ‘आतंकवाद’ के इर्दगिर्द एक अधिक मानवीय विमर्श बुन सकता है।
दीपेन्द्र: मुझे तॉल्स्तॉय की कहानी ‘क्रूज़र सोनाटा’ याद आती है जिसमें एक व्यक्ति ने अभी हाल ही में भावावेश में आकर अपनी पत्नी की हत्या की है, पर जब वह अपनी पत्नी का स्मरण कर रहा है, तो जान पड़ता है कि उसके साथ उसका सम्बन्ध बहुत ही असाधारण और अद्भुत था, और उस स्मरण में पत्नी की बहुत ही आत्मीय स्मृतियाँ उभरती हैं। पूरी कहानी पढ़ने के दौरान इस बात का निर्धारण बहुत मुश्किल हो जाता है कि इस व्यक्ति की चेतना के किस अंश को अपराधी माना जाय और किस अंश को निर्दोष माना जाय। विधि व्यक्ति को एक समग्र अखण्डित इकाई के रूप में देखना चाहती है, जोकि उसको दण्डित करने के लिए ज़रूरी है। पर साहित्य मनुष्य की परिभाषा को ही इतना समस्यामूलक बना देता है या उसमें विखण्डन पैदा कर उसको इतने सारे तत्त्वों के रूप में पेश कर देता है कि उसको फैसले और दण्ड का विषय बना पाना मुश्किल होता है। व्यक्ति के अलग-अलग बिखरे हुए अंशों को साहित्य एक समग्र इकाई में परिभाषित नहीं करना चाहता क्योंकि वह अपने स्वभाव से ही सामान्यीकरण के ख़िलाफ़ होता है। ऐसे में साहित्य का विमर्श ‘आतंकवाद’ की परिघटना की समझ को विकसित करने में प्रासंगिक कैसे हो सकता है?
मदन: साहित्य कभी भी ‘आतंकवाद’ का निर्धारण करने या उसको परिभाषित करने का काम नहीं करेगा। वह कोई अदालत नहीं है, कोई नैतिक संहिता नहीं है, जहाँ पर ‘आतंकवादी’ को या किसी को भी दण्डित किया जाना है। जैसा कि हम शुरू में कह रहे थे, आप ‘आतंकवाद’ शब्द का इस्तेमाल करते ही उसको परिभाषित करते हैं, जोकि अपने आप में एक तरह की हिंसा है। तो ये कोशिशें अपने आप में उन कारकों में शामिल हैं जो ‘आतंकवाद’ को जन्म देते हैं। ये भी विमर्श के क्षेत्र में ‘आतंकवादी’ कार्रवाइयाँ हैं। क्योंकि जैसे ही आप परिभाषित करते हैं, आप परिसीमित भी करते हैं; जैसे ही आप एक नाम देते हैं, वैसे ही आप उन सारी सम्भावनाओं को ख़त्म कर देते हैं या उस एक नाम में सिमटा देते हैं जोकि किन्हीं अन्य नामों से पुकारी जा सकती थीं। एक पहचान को स्थिर करते हुए आप बहुत सारी पहचानों का अपवर्जन करते हैं, या उनको हाषिये पर धकेल देते हैं। और इस तरह आप उस असन्तोष को जन्म देते हैं जोकि अपने विकृत रूप में पहचान के ‘काउण्टर-एसर्सन’ में बदलता है। साहित्येतर विमर्शों की समस्या यही है। साहित्य इसीलिए कभी ‘आतंकवाद’ को परिभाषित करने, उसका निर्धारण करने, की कोशिश नहीं करेगा। वह शायद एक ऐसे संश्लिष्ट मनुष्य को चरितार्थ करने की कोशिश करेगा जो एक साथ ‘आतंकी’, भी है और ‘आतंकवाद’ का शिकार भी है, पीड़ा पहुँचाने वाला भी है और पीड़ित भी। इसीके साथ-साथ वह उस संघटना को ख़ुद हमारे भीतर लोकेट करने की कोशिश करेगा। वह कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति को सामने नहीं लाएगा जिसकी ओर कृति का सेल्फ़ अँगुली उठाकर उसको ‘आतंकवादी’ कह सके। साहित्य की अँगुली हमेशा अपनी ओर उठेगी। वह एक ऐसी स्थिति पैदा करेगा जिसमें कि आप अपने को उस जगह खड़ा पाएँ जिस ओर आपकी अँगुली उठी हुई है; जिस जगह खड़े होकर किसी व्यक्ति ने बम का धमाका किया है। उस जगह जहाँ शिकार और शिकारी एक-दूसरे के सन्दर्भ में शब्द और अर्थ की तरह एक दूसरे से गुँथे हों। साहित्य इनके सा-हित्य को चरितार्थ करेगा। साहित्य आपको उस जगह खड़ा करेगा जहाँ पर इस विस्फोटक व्यक्ति को तैयार किया था। ‘आतंकवाद’ के कारण और कार्य के संश्लेषण को किसी चरित्र, या किसी मानवीय स्थिति में रूपायित करना और इससे भी अधिक इस समूची संघटना को एक अस्तित्वपरक संकट के रूप में सामने लाने की कोशिश करना, सब तरह के जोखिम उठाते हुए-साहित्य की भूमिका, इस सन्दर्भ में, शायद कुछ इस तरह की होगी। जब तक हम एक ऐसे स्वत्व को सामने नहीं लाते हैं जिसके भीतर यह सब एक साथ घटित हो रहा है तब तक हम इस जटिल संघटना को नहीं समझ सकते। इस संश्लेषण में साहित्य किसी दैवी कर्ता की तरह सफल नहीं भी होगा, तो वह अकुण्ठ भाव से अपनी विफलता को भी दिखायेगा।
दीपेन्द्र: मेरा आशय यह था कि विधि के लिए क्योंकि अपराध और दण्ड का एक विमर्श विकसित करना है, इसलिए उसके लिए अपने होने में ही स्पष्ट समझ, स्पष्ट परिभाषाएँ, स्पष्ट नामकरण अनिवार्य है, अन्यथा वह विधि नहीं हो सकती। जबकि साहित्य समझ के विरोधाभास या समझों की असंगति पैदा कर, बल्कि समझ की पर्याप्तता को ही प्रश्नांकित कर, समझदारी को ही अधूरा मानकर उसे गैरज़रूरी बना देता है। वह हर मुकाम पर समझ को अपर्याप्त और अधूरी मानकर चलता है। तो ऐसे में संसार ‘आतंकवाद’ के समाधान की अपेक्षा साहित्य से कैसे कर सकता है?
मदन: देखिये, अव्वल तो संसार साहित्य से कोई अपेक्षा नहीं कर रहा है। संसार अगर सबसे कम किसी से अपेक्षा करता है, तो वह साहित्य है…
दीपेन्द्र: शायद इसलिए कि संसार साहित्य-निरपेक्ष है…
मदन: शायद…। और संसार साहित्य से कोई अपेक्षा न करे, यह समझ संसार में पैदा करने का काम शायद साहित्य ने ही किया है। अपने प्रभाव में साहित्य एक फलप्रद विमर्श नहीं है। साहित्य का उद्देश्य समाधान देना नहीं है। साहित्य का शायद कोई उद्देश्य नहीं है, लेकिन समाधान देना तो कतई नहीं है। समाधान देने के उद्देश्य से समाज में बहुत सी संस्थाएँ-विद्याएँ मौजूद हैं। बेहतर क़ानून-व्यवस्था या फलाँ क़ानून को पुनर्जीवित करना या एक नया क़ानून बनाना…। ये कोशिशें कितनी दयनीय हैं, इसे हम विधि के इतिहास से समझ सकते हैं। मैं नहीं समझता कि विधि इतनी चाकचौबन्द पुराने ज़मानों में रही होगी, जितनी कि वह आज है। इलेक्ट्रॉनिक क़िलेबन्दी से लैस अमेरिका में ९/११ का घटित होना यह बताता है कि समाधान के वो रास्ते जिनपर हमारा समाज चलने को विवश है, कितने दयनीय और निरुपाय हैं। फिर भी समाधान देने का उनका जज़्बा बरकरार रहता है। और इस जज़्बे में विश्वास करने वालों में साहित्यकार भी शामिल हो सकते हैं। मसलन एक लेखक अपने उपन्यास में वो सारी चीज़ें कर रहा हो सकता है जिनकी बात हम कर रहे हैं, जिनके बारे में हमें लगता है कि अपने आदर्श रूप में साहित्य ऐसा करता है, पर वही उपन्यासकार समाज के उन सुरक्षा उपायों में विश्वास कर सकता है, जिनकी विफलता की बात हम कर रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि विधि की ज़रूरत नहीं है। विधि की ज़रूरत किसी उपन्यास के चरितनायक या उपन्यास के आत्म के लिए न हो, पर उस उपन्यासकार के लिए तब भी होगी। इसलिए इसमें किसी तरह के पुण्यात्मापन की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि लेखक तो बहुत पुण्यात्मा है, और वह तो साहित्य की दुनिया में रहता है और उसको विधि से कोई लेनादेना नहीं है…। ऐसा नहीं है। मैं तो उस प्रज्ञा की बात कर रहा हूँ जो एक कृति के माध्यम से हम तक पहुँचती है। वह शायद एक असम्भव प्रज्ञा है; वह एक ऐसी चीज़ है, जिसका शायद कोई अनुप्रयोग सम्भव नहीं है। वह हमेशा गल्प के क्षेत्र में है और शायद उसी क्षेत्र में बने रहने के लिए अभिशप्त है। पर गल्प के इस क्षेत्र का अस्तित्व तो है ही। और उसका अस्तित्व सिर्फ़ गल्प में ही नहीं है, बल्कि हमारे भीतर भी उसका अस्तित्व है। तभी इस दुनिया में साहित्य के रचयिता और पाठक होते हैं। उन्हीं के बीच एक संवाद की सम्भावना बनी होती है। क्योंकि गल्प के क्षेत्र में जो कुछ रचा जाता है, जो कुछ रचा जा सकता है, वह इसी उम्मीद से कि मनुष्य के भीतर कोई ऐसा अवकाश है जहाँ पर उसकी प्रतिश्रुति सुनी जा सकेगी। और वह मनुष्य जो एक लौकिक प्राणी होने के नाते, सामाजिक प्राणी, या एक नागरिक होने के नाते समाज के नियमों का पालन कर रहा है, उनसे तरह-तरह की अपेक्षाएँ कर रहा है, उनमें भागीदारी कर रहा है, उस मनुष्य के भीतर भी एक गुंजाइश ऐसी है जहाँ पर वह इन सबकी निरुपायता को समझ सकता है, और जिस अवकाश में स्थित होकर वह समझ सकता है कि इस समस्या का असल रूप क्या है।
दीपेन्द्र: ‘आतंकवाद’, एक तरह से, न्यूनतम रूप से, एक ‘सामुदायिक पहचान’ पर टिका हुआ लगता है, और यह सामुदायिक स्वत्व या तो अन्यत्व का अभिशाप झेल रहा है या किसी अन्य पहचान की प्रतिस्पर्धा में है। सामुदायिक पहचानों का यह संघर्ष ‘व्यक्ति’ की अपनी गहरी असुरक्षा का संकेतन करता लगता है; ‘व्यक्ति’ अपने भीतर इतना असुरक्षित महसूस कर रहा है कि ‘सामुदायिक पहचान’ में ही वह अपनी सुरक्षा महसूस कर रहा है; बल्कि उसका निर्माण वह अपनी आस्था से कर रहा है। पर जैसे दार्शनिक देरीदा अपनी पहचान बतलाते हैं कि मैं थोड़ा अरब हूँ, थोड़ा यहूदी हूँ, थोड़ा ब्लैक हूँ…आदि, तो अगर ऐसी बहुत सारी पहचानों के संश्लेषण को हर व्यक्ति स्वीकार कर ले, तो पहचानों के संघर्ष की स्थिति शायद न बने। राष्ट्र्र-राज्य पहचानों की सुनिश्चित इकाई पर टिका हुआ है, या वह पहचानों के संश्लेष का अपवर्जन करता है। साहित्य में पहचानों के संष्लेषण की सम्भावना इसलिए दिखलायी देती है क्योंकि वह मनुष्य की चेतना तक पहुँचने का प्रयास करता है, और उसकी पहचान की गढ़न की प्रक्रियाओं में गहरे उतरने की कोशिश करता है।
मदन: बल्कि वह शायद एक ऐसा रूप है जो पहचान के आग्रह के अपरिग्रह से सम्भव होता है। वह कई सारी पहचानों का संष्लेषण नहीं है बल्कि एक ऐसी इकाई है जोकि आपको पहचानों के समग्र के रूप में ‘दिखायी देती है’, क्योंकि आप उसमें विखण्डन पैदा करके उसको बहु-पहचान-मूलक शक्ल दे देते हैं।
जहाँ तक ‘आतंकवादियों’ द्वारा एक व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान के संकट से उबरने के लिए सामुदायिक पहचानों के वरण की आपकी बात है, तो हम नहीं जानते कि सैकड़ों ‘आतंकवादी’ कार्रवाइयों में मारे गये ‘आतंकवादी’ वाकई वैयक्तिक पहचान के किसी संकट का सामना कर रहे थे। इसी के साथ, अगर वह सामुदायिक पहचान है भी, तो उसके पीछे एक गहरी धार्मिक आस्था भी अक्सर दिखायी देती है, ख़ासतौर से उसमें जिसे हम मानव-बम कहते हैं। मानो वह ईश्वर के आदेश पर, या किसी दैवीय अनिवार्यता का निर्वाह करते हुए की गयी आत्मोत्सर्ग की कार्रवाई हो। धर्म की इन ‘आतंकवादी’ समुदायों की प्रच्छन्न व्याख्या चाहे कितनी ही अप्रमाणिक हो, इन समुदायों की धार्मिक आस्था असन्दिग्ध प्रतीत होती है। और इस धार्मिकता के भीतर ‘व्यक्ति’ या ‘वैयक्तिक पहचान’ शायद ही कोई मूल्य होगा। इसलिए यह एक अटकल ही है, जो आप कह रहे हैं, भले ही एक तार्किक रूप से विश्वासप्रद अटकल।
आपके कहने में यह भी कहीं ध्वनित है कि वैयक्तिक पहचान का यह संकट बड़े पैमाने पर महसूस किया जा रहा है। लेकिन, अगर ऐसा है तो, इस संकट का स्रोत क्या है? वह क्या चीज़ हो सकती है जो किसी समाज के भीतर व्यक्तियों में उनकी व्यक्तिमत्ता की क्षति के रूप में अनुभव की जा रही हो? इसका क्या कारण हो सकता है?
दीपेन्द्र: निजी पहचान तो अर्जित की जाती है, लेकिन यह सामुदायिक पहचान एक तरह से आरोपित की जाती है। और ‘आतंकवादियों’ के सन्दर्भ में यह आरोपण जिस कच्ची उम्र में होता है, उसे देखते हुए उस पहचान को आस्थापूर्वक मान लेना शायद ज़रूरी हो जाता है…।
मदन: पर जो लोग इस कृत्य में मुब्तिला हैं, उनके लिए वैयक्तिक पहचान का क्या वाकई कोई अर्थ है? और वैयक्तिक पहचान की यह धारणा किस की दी हुई है?
दीपेन्द्र: ज़ाहिर है, आधुनिकता की। और वह किसी तरह की सामुदायिक पहचान को नहीं मानती।
मदन: ऐसा कहना शायद आत्मछल होगा कि मुख्यतः जिस अन्य के प्रति उनका यह कृत्य सम्बोधित है, वह स्वयं सामुदायिक पहचान से बाहर है । वहाँ भी सामुदायिक पहचान प्रभावी है। वहाँ भी राष्ट्र्र, राज्य, हम, हम अमेरिकी आदि सब है…।
दीपेन्द्र: बल्कि जो विधि है, उसमें भी दिखता है ये…
मदन: साफ़तौर पर दिखता है। आप ये भी देखें कि ये सब के सब गहरे धार्मिक हैं। भले ही बहुत से पण्डित यह कहते रहें कि उनके धर्म का सम्बन्ध इस तरह की गतिविधियों से नहीं है। वे शायद ठीक भी कहते हों, लेकिन एक ख़ास तरह की धार्मिकता तब भी इन लोगों में मौजूद है। इस धार्मिक जज़्बे के सन्दर्भ में मुझे न सिर्फ वैयक्तिक पहचान के आग्रह की या उसकी क्षति के बोध की कोई गुंजाइश दिखायी नहीं देती, बल्कि इसके विपरीत वैयक्तिक पहचान को प्रतिरोध देने की भावना ज़्यादा दीखती है। और यह शायद स्वाभाविक है क्योंकि वैयक्तिकता का विचार उनकी धार्मिकता के सन्दर्भ में एक प्रतिरोध्य विचार है। इस सिलसिले में आप ओरहान पामुक के उपन्यास माई नेम इज़ रेड के भीतर चलने वाली बहसों को याद कर सकते हैं।…
बहरहाल, ‘आतंकवाद’ की समूची संघटना से व्यक्ति पूरी तरह से ग़ायब है। और साहित्य जो कर सकता है, उसमें शायद यह भी शामिल है कि वह ‘आतंकवाद’ के दोनों ओर फैले राष्ट्र्र, राज्य, सम्प्रदाय, धर्म, विचारधारा आदि के ईंट-गारे से बने सामान्यीकरण और समुदायपरकता के इस दुर्ग में सेंध लगाये और उसके भीतर व्यक्ति को तलाशने-पहचानने की कोशिश करे।
दीपेन्द्र: अभी बेंगलोर में प्रेमी युगलों पर जिस तरह के हमले हुए हैं, उनमें क्या एक तरह से आधुनिकता का अस्वीकार नहीं दिखता, कि अगर हमने इस आधुनिकता को मान लिया तो हमारी संस्कृति ख़त्म हो जाएगी? और इसलिए इन तथाकथित सांस्कृतिक संरक्षणवादियों का आधुनिकता के बरक्स अपनी संस्कृति को बचाने का प्रयास उत्तरआधुनिकता की ओर संकेत नहीं करता? हमारे यहाँ आधुनिकतावाद का सबसे बड़ा एजेण्ट शायद राज्य ही है, पर जो भी हो, आधुनिकता के पचास-साठ बरस गुज़र जाने के बाद, बेंगलोर जैसे मैट्रोपॉलिटन शहर में इस तरह की घटनाओं का होना क्या आधुनिकतावाद के प्रति एक सामुदायिक भय का संकेत नहीं है? और इस मायने में क्या यह भी एक ‘आतंकवाद’ नहीं है?
मदन: देखिये अब तक हम ‘आतंकवाद’ के बारे में जो बातें कर रहे थे, उनमें निहित तर्कों को हमने सीधे-सीधे हिन्दुस्तान में हो रही ‘आतंकवादी’ घटनाओं के सन्दर्भ में देखने की कोशिश नहीं की है। हमारा सामान्य परिप्रेक्ष्य वैश्विक रहा है। उसमें भी ईसाइयत या/और आधुनिकता बनाम इस्लाम के सन्दर्भ में ही हमने इसको समझने की कोशिश की है। इसलिए हिन्दुस्तान में जो कुछ हो रहा है वह ‘आतंकवाद’ के इस वैश्विक रूप से संगत नहीं लगता, सिवा इसके कि अमेरिका के साथ भारत के मधुर सम्बन्ध उसके लक्ष्य पर हों, जैसा कि पाकिस्तान के सन्दर्भ में भी है। क्योंकि, जैसा कि हमने शुरू में कहा, उनकी कार्रवाइयाँ सांकेतिक हैं; वे एक सभ्यता पर, एक विचारदृष्टि पर आघात करने की कोशिशें हैं। हालाँकि इसमें यह अन्धापन है कि इस कोशिश में वे मनुष्यों की नृशंस हत्याएँ करते हैं। अन्यथा मैं नहीं समझता कि हिन्दुस्तान इस्लाम का उस तरह का प्रतिपक्ष है, जैसा कि अपने धार्मिक संस्कारों और साभ्यतिक आदर्शों में पश्चिम है। इसलिए यहाँ की ‘आतंकवादी’ घटनाएँ अलग व्याख्या की माँग करती हैं।
जहाँ तक बेंगलोर की घटनाओं का सवाल है, उनमें हिंसा तो है ही। ‘आतंकवाद’ वह उस अर्थ में नहीं है, लेकिन उसके भीतर सूक्ष्म रूप में वही संवेग हैं जो ‘आतंकवाद’ के संगठित रूप को जन्म देते हैं। एक ख़याल अपनी संस्कृति और धर्म का, उसकी रक्षा का, उसका रक्षक होने का…। यह संकट- पहचान का यह संकट -एक सामी संस्कृति के भीतर तो समझ में आने वाली बात लगती है, जहाँ पहचान एक संगठित धर्म के भीतर, और संगठित धर्म के द्वारा वैधीकृत होती है। लेकिन जिसे आप हिन्दू धर्म कहते हैं, हिन्दू संस्कृति कहते हैं, उसमें पहचान का वैसा संस्थानपरक आग्रह नहीं है…। इसलिए हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में इस तरह के सांस्कृतिक भय को इस्लामी कट्टरपन्थियों के भय के समतुल्य देखना मुझे ठीक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि इस्लामी कट्टरपन्थियों का सांस्कृतिक भय उनकी प्रतिरूप संस्कृति के सन्दर्भ में खरा प्रतीत होता है- उस भय से हमारी चाहे कितनी ही असहमति क्यों न हो और वह भय चाहे कितना ही निवारणीय क्यों न हो। उन्होंने उसकी क़ीमत भी चुकायी है-सिर्फ़ उस विनाश के अर्थ में नहीं जो ‘आतंकवाद’ के कारण उनका समाज भोग रहा है, बल्कि साभ्यतिक अर्थ में। आधुनिकता के अपरिग्रह के अर्थ में। एक ख़ास तरह का प्रतिरोध जो उन्होंने आधुनिक मूल्यों और आधुनिक असबाब को, कमॉडिटीज़ को, कुल मिलाकर आधुनिकतावाद के अनिष्ट को दिया है, उसके नतीजे में जो क़ीमत उन्होंने चुकायी है, वह बहुत बड़ी क़ीमत है।
दीपेन्द्र: हम बात कर रहे थे कि साहित्य का विमर्श हमेशा ही अव्यवहारिक होगा और इस नाते अप्रासंगिक भी होगा। लेकिन क्या अपनी इसी अव्यवहारिकता के नाते वह एक ऐसा बिन्दुपथ तैयार नहीं करता जिससे इस संसार की सूक्ष्म बुनावटों में अन्तर्निहित आतंक के मर्म तक वह हमें ले जाता है?
मदन: यह साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण कि वह जो भी संरचना गढ़ता है, या जो भी संरचना उसकी उभरती है, उसको निर्मित करने के क्षण में ही वह उसको तोड़ता भी है। वह उसको किसी भी तरह से अभेद्य और हमेशा के लिए संहत हो जाने वाला रूप नहीं लेने देता। वह हमेशा बनने के साथ-साथ मिटने की प्रक्रिया में होता है। यह चीज़ अस्तित्व के प्रति उसके दृष्टिकोण में भी प्रगट होती है, जहाँ वह उसके बनने की प्रक्रिया में निहित विघटन और विघटन की प्रक्रिया में निहित गठन को लक्ष्य करता है। और इसीलिए वह उसके उन सारे तत्त्वों को पकड़ने की कोशिश करेगा है, जिनमें से एक चीज़ वह भी कही जा सकती है जिसका संहत या अवधारणात्मक रूप ‘आतंकवाद’ है। वह चीज़ मानवीय अस्तित्व के भीतर ही कहीं है, और क्रियाशील है-साहित्य इसकी ओर निगाह डालने की कोशिश करेगा। आप जिस पहचान के संकट की बात कर रहे थे, उसके सन्दर्भ में कहें, तो वह पहचान की लालसा और उसमें निहित हताशा दोनों को एक ही मानव इकाई के भीतर समझने की कोशिश करेगा; एक ही वक़्त में नाम देने, परिभाषित करने या परिभाषित होने की कोशिश और परिभाषा में निहित पहचानहीनता या पहचान के लोप को पकड़ने की कोशिश।
दीपेन्द्र: आपकी इस बात से मुझे नाबाकोव का वह कथन याद आता है जिसमें वे कहते हैं कि उपन्यास का सौन्दर्य दरअसल कॉमनसेंस की सिटी (City) को ब्लास्ट करने में पैदा होता है। थोड़ा-सा और ध्यान से देखें तो उपन्यास के अपने सौन्दर्य के लिए ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ की अनिवार्यता है; उसके लिए उसका पॉलीफोनिक होना बहुत ज़रूरी है। तो एक तरह से उपन्यास उसके भीतर स्थित प्रतिवादी पक्ष से निरन्तर संवाद या असंवाद करते हुए, और लगातार अपने होने को प्रश्नांकित करते हुए विस्तार पाता है। और इसलिए वह किसी सामान्यीकरण की परिधि में नहीं आता। तो क्या इस नाते यह नहीं लगता कि उपन्यास की बुनावट चूँकि ऐसी है इसलिए वो सबसे ज़्यादा आत्मीयता से ‘आतंकवाद’ की संश्लिष्टता को अपने ढाँचे में ग्रहीत कर सकता है?
मदन: हाँ। इसी बात को थोड़े और रोचक ढंग से कहें तो वह ‘आतंकवाद’ के सन्दर्भ में स्वयं एक ‘आतंकवादी’ कार्रवाई की तरह हो सकता है। और वह कार्रवाई अवबोध और अभिव्यक्ति दोनों स्तरों पर हो सकती है। ‘आतंकवाद’ का साहित्येतर, प्रचलित विमर्श एक ‘कॉमनसेंसिकल’ विमर्श ही है; ‘आतंकवाद’ के ‘कॉमनसेंस’ का शहर। और अगर उसके सन्दर्भ में उपन्यास की किसी सम्भावना की कल्पना करें तो वह इस नगर में एक विस्फोट पैदा करने की कोशिश करेगा। यह विस्फोट दो स्तरों पर हो सकता हैः एक, वह ‘आतंकवाद’ के इस ‘कॉमनसेंसिकल’ विमर्श के चिथड़े उड़ा दे, पर, दूसरे, वह आत्मघाती कार्रवाई के रूप में भी हो सकता है; मतलब, वह ‘कॉमनसेंस’ के इस स्थल पर अपने शरीर पर ही विस्फोटक बाँधकर जा सकता है, और इस तरह वह अपने भी चिथड़े उड़ा सकता है, जैसा कि खाली जगह उपन्यास करता है। हालाँकि ‘कॉमनसेंस’ का एक निश्चित इलाका है जहाँ पर यह उपन्यास घटित होता है; वह इलाका जहाँ पर हम ‘आतंकवाद’ के प्रभाव को लक्षित करते हैं। बहरहाल वह इस इलाके में आत्मघाती विस्फोट करता है, और जितने चिथड़े उस ‘कॉमनसेंस’ के उड़ाता है, उतने ही चिथड़े अपने भी उड़ाता है। इसी में उपन्यास की मार्मिकता है। मुझे लगता है कि साहित्य की वैधता इसी में है। साहित्य की मीमांसा महज़ एक वस्तुपरक मीमांसा नहीं है, वह हमेशा ही, अपनी मीमांसा भी है। और मुझे लगता है कि ‘आतंकवाद’ का अगर कोई समाधान हो सकता है, तो वह इसी बात में हो सकता है कि जिन लोगों के खिलाफ़ ‘आतंकवाद’ है, उनके भीतर आत्मालोचना भी विकसित हो। आप अपनी अवधारणाओं, विश्वासों, मतों, आग्रहों और अपनी संस्थाओं के भीतर अगर आत्मालोचना का एक अनिवार्य अवकाश बनाकर रखते हैं, जैसा कि साहित्य करता है, तो ये चीज़ें निरन्तर अपने संघटन और विघटन की प्रक्रिया में होंगी और तब शायद इसकी उत्प्रेरणा नहीं होगी कि दूसरा आये और उनको तोड़े।
दीपेन्द्र: यहाँ मुझे एक दूसरा उपन्यास याद आता है, मार्क़्वेज़ का ऑटम ऑफ् दि पेट्रियार्क। उपन्यास में एक ऐसा सैनिक तानाशाह है जिसने सैकड़ों बर्बर हत्याएँ की हैं, दमन का भयावह वातावरण बनाया है और इसी वातावरण के निर्माण में वह अपने अस्तित्व की सार्थकता देख रहा है। बल्कि वह जितना दमन कर रहा है उतना ही उसे एक तरह का सुकून मिल रहा है। पर मार्क़्वेज़ ने इस उपन्यास में समूची वाक्यरचना को ही बदल दिया है। यही नहीं, बल्कि समय के संघटन को, जोकि चेतना में अन्तर्निहित होता है, भंग करते हुए, उसके सारे व्यवहार, सारे क्रियाकलापों को इतनी आत्मीयता से देखा है कि पितृसत्ता को आरोपित करने वाले इस सैनिक तानाशाह की चेतना के अन्तर्निहित विचलन बहुत ही मर्मस्पर्शी ढंग से उभरते हैं। यहाँ पर उपन्यास अपने कथ्य में प्रयोग कर रहा है और ऐसे असम्भव को कहने का प्रयास कर रहा है जिसकी गुत्थी या रहस्य स्वयं चेतना में उलझा हुआ है। चेतना के इस उलझाव के साथ-साथ वह हमें शक्ति की अभेद्य संरचना तक भी ले जाने की कोशिश करता है।
मदन: यानि एक क़िलेबन्दी है, तानाशाही की, जिसको भेदने की कोशिश उपन्यास कर रहा है। एक तानाशाह या अत्याचारी चेतना के सन्दर्भ में हमारा ‘कॉमनसेंसिकल’ विमर्श क्या करेगा? वह उसका एक प्रतिपक्ष गढ़ेगा; एक ऐसी चेतना की कल्पना करेगा जोकि इस तानाशाह चेतना की शिकार है। लेकिन मार्क़्वेज़ उसी तानाशाह चेतना में सेंध लगाने की कोशिश करते हैं। आप कह सकते हैं कि एक तरह का विस्फोट वह भी है। आप कह रहे हैं कि मार्क़्वेज़ ने इस उपन्यास में कथ्य के स्तर पर प्रयोग किया है। लेकिन मैंने जब इस उपन्यास को पढ़ने की कोशिश की थी, तो मुझे वह काफी दुरूह लगा था; उपन्यास की वाक्य-रचना मुझे बहुत जटिल प्रतीत हुई थी। मुझे लगता है कि इस तरह उपन्यास वाक्य-रचनापरक सरलता को भंग करता है, और हमारी चेतना की ‘कॉमनसेंसिकल’ वाक्य-रचना की अभ्यस्ति में दरार पैदा करता है, उसकी ‘कण्डीशनिंग’ को तोड़ता है। साहित्य दोहरे स्तर पर काम करता है। उपन्यास में जो कुछ घटित हो रहा है, वो अपनी जगह पर तो हो ही रहा है, लेकिन उसके लक्ष्य के सिरे पर, यानी पाठक के मानस में, भी वह एक दूसरे स्तर पर घटित हो रहा है। पर ऐसा वह उद्देश्यपरक ढंग से नहीं कर रहा है, बल्कि अपने विशिष्ट कथ्य के निर्वचन की प्रक्रिया में वह इसी तरह आकार ले सकता था कि उसका एक सह-प्रभाव उसके पाठक पर भी पड़े कि उसका भाषिक ‘कॉमनसेंस’ टूटे। और इसी अर्थ में वह एक ऐसा आघात है जो साथ ही साथ आत्माघात भी है। उपन्यास का स्वत्व हमेशा पाठक के स्वत्व में ही चरितार्थ होता है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि पाठक की चेतना पर यह उपन्यास कुछ इस तरह घटित होगा कि वह उसके भाषिक ‘कॉमनसेंस’ को भी वह तोड़ेगा और इस प्रक्रिया में वह उस पाठक के भीतर वैसा तानाशाह हो सकने की सम्भावना को भी स्वयं उस पाठक के लिए सामने लाएगा। क्योंकि किसी भी तरह की तानाशाही की दिशा में आपको अन्ततः तरह-तरह के कॉमनसेंस ही ले जाते हैं। संसार के बारे में एक तानाशाह का बोध ‘कॉमनसेंसिकल’ ही होता है; वह संसार की विशिष्टता को नहीं समझता। वह संसार की ‘कॉमनसेंसिकल’ व्याख्या करते हुए, उसको ‘कॉमनसेंस’ के स्तर पर ग्रहण करते हुए ही अपनी विशिष्टता को एक अत्याचारी विशिष्टता में बदलता है।
दीपेन्द्र: ‘आतंकवाद’ का अर्थ एक ध्वंसात्मक कार्रवाई के रूप में स्थापित है: व्यवस्था का, उसको वैध ठहराने वाले नागरिकों का, और सार्वजनिक सम्पत्ति का ध्वंस करना। लेकिन ‘आतंकवाद’ का एक निहितार्थ यह भी लगता है कि वह एक तरह का सन्नाटा या एक तरह की भाषाहीनता स्थापित करना चाहता है, जिसमें ‘आतंकवादी’ के अर्थ की एकवाच्यता स्थापित हो सके। दरअसल उसका आघात चेतना पर ही है। इस नाते ‘आतंकवाद’ उस भाषा पर भी हमला है, जिसका एक काम संसार में सम्बन्धों की स्थापना और उनको बनाये रखना भी है। इसके बरक्स उपन्यास है, जो दरअसल अपने रूप में ही भाषा की साधना करता है, मानवीय सम्बन्धों या उनमें पैदा हो रही दरारों की समझ विकसित करता है….
मदन: हम लोग उपन्यास पर ही इतना ज़ोर क्यों दे रहे हैं? क्या हम उपन्यास की जगह साहित्य-मात्र की बात इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उपन्यास में ही इस चीज़ की अधिक गुंजाइश है? खैर।
सन्नाटा पैदा करने वाली आपकी अटकल के सन्दर्भ में मुझे लगता है कि जहाँ तक उनकी कार्रवाई के प्रभाव का सवाल है, वहाँ तक आपकी बात सही हो सकती है। लेकिन यह प्रभाव पैदा करना उनका ध्येय है, ऐसा शायद नहीं है। अगर इस प्रभाव का उन्हें अहसास हो, तो हो सकता है, इसे वे अपने ध्येय में शायद शामिल भी करलें, लेकिन यह उनकी एक बौद्धिक युक्ति है, जैसा कि आपकी बात से निकलता है, इसमें मुझे सन्देह है। यह सही है कि एक विस्फोट होता है और वह एक स्तब्धता पैदा करता है। और उस स्तब्धता में जो भी आवाज़ें हैं वे बिला जाती हैं और आपका ध्यान पूरी तरह से उस आवाज़ पर जाता है जोकि दरअसल सुनायी नहीं देती। यानी वे अपनी खामोशी को श्रव्य बनाते हैं। क्योंकि वहाँ शायद कोई भाषा नहीं है। और यही उसके सन्दर्भ में शायद हमारी हताशा है। अगर भाषा हो तो आप उससे निबट सकते हैं; क्योंकि तब आप उसका अर्थ कर सकते हैं, उसके आधार पर कोई संवाद स्थापित कर सकते हैं। पर वहाँ एक खामोशी है, कम से कम अभिव्यक्ति के स्तर पर। आप कह सकते हैं कि ‘आतंकवादी’ संगठनों की ओर से आता हुआ सन्देश अपने आपको इस खामोशी की शक्ल में पेश कर रहा है। आप यह नहीं जानते हैं कि दरअसल वे क्या कहना चाह रहे है। हमें भ्रम होता है कि वह एक अर्थगर्भी खामोशी है और हम उसके बारे में अटकलें लगाते हैं। एक तरह का रहस्य, और इस रहस्य में एक तरह की दैवीयता भी है। इस वक़्त दुनिया में सक्रिय ‘आतंकवादियों’ में शायद ही कोई ऐसा है जो अपने सन्देश के स्रोत को लोकातीत न मानता हो।
खैर, अगर ऐसा है, यानी अगर वह एक रहस्यमय खामोशी है, अगर उसमें अर्थ और अर्थहीनता का द्वैध है, तो इस द्वैध के सन्दर्भ में साहित्य क्या कर सकता है? वह इस द्वैध के प्रति किस तरह प्रतिश्रुत होगा? व्यवस्था इस पर कान नहीं देना चाहती। वह मानती है कि इस खामोशी का एकमात्र उद्देश्य आतंक पैदा करना है, जोकि कोई भी खामोशी या, गीतांजलि के रूपक के सहारे कहें तो, कोई भी ‘खाली जगह’, पैदा करती है। साहित्य, मुझे लगता है, इस द्वैध खामोशी को ही सुनने, उसको प्रतिध्वनित करने की कोशिश है। दो तरह से: बम की भीषण अर्थहीन ध्वनि से उत्पन्न इस खामोशी का भाषिक ‘काउण्टरप्वाइण्ट’ रचते हुए; अपने भीतर की अर्थपूर्ण द्वैध खामोशी (जोकि साहित्य के भीतर हमेशा ही होती है) को उसके बरक्स रखते हुए; और, दूसरे, जोकि पहले से भिन्न शायद नहीं है, उस खामोशी को अपना विषय बनाकर, उसको एक अर्थपूर्ण मौन में बदलते हुए, उसमें अर्थ की उत्प्रेक्षाएँ करते हुए। और ऐसा करते हुए वह उस चेतना को उद्दीप्त और जाग्रत करने की कोशिश करेगा जिसने सम्भवतः उसमें कोई अर्थ पैदा करना ही नहीं चाहा था। साहित्य उस रहस्य को भंग नहीं करेगा, लेकिन अपनी उत्प्रेक्षाओं के सहारे वह उसको अर्थबहुल बनाने की कोशिश करेगा।
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