Wednesday, November 10, 2010

फुलझडि़यां तो ले सकते हैं न

भाईसाब घर जाने वाले थे। दीपावली के बहाने।
घर में अम्‍मा हैं। भाभी हैं। और प्‍यारे से भतीजे-भतीजियां। वैसे तो वह बाजार से घबराते हैं। जब तक कि जरूरत की इंतहा नहीं हो जाए बाजार नहीं जाते। बाजार गए भी तो तीर की तरह उसी दुकान में घुसते हैं, जहां से वह सामान मिल सकता है। और फिर बिना कोई मोल-भाव किए एक हाथ में सामान लेकर दूसरे से दाम गिनते हैं और जितना जल्‍दी हो सके बाजार से बाहर।
लेकिन पर्व त्‍योहार पर घर जाना, तब बाजार को नकार पाना मुश्किल हो जाता है। लोकाचार है। खाली हाथ नहीं जा सकते। मिठाई, कपड़े, दीये, दीयों की लडि़यां, पटाखे, फुलझडि़यां......
एक मिनट, एक मिनट .....
भाईसाब ये पटाखे ?
हां, मना नहीं कर सकते। बच्‍चे हैं दोस्‍त उनको इन आवाजों में मज़ा आता है।
क्‍यों नहीं मना कर सकते। अपने घर में मना नहीं करेंगे तो क्‍या दूसरे ..... । वैसे भी यह तो दीयों का त्‍योहार है- रौशनी का। फिर यह धूम-धड़ाका करके दूसरे की नींद क्‍यों हराम करना।
नहीं, यह ध्‍वनि का त्‍योहार भी है। असल में हमारी परंपरा में हरेक चीज के अतिरेक में जाने का मौका है। साल भर तक चुप्‍पी साधो और एक दिन धूम-धड़ाके में डूब जाओ। रंगों से सतरंगे बनो और फिर झक्‍क सफेद बनकर बाहर निकलो.....
वाह वा .... वाह ...वा बहुत खूब। क्‍यों साल भर भूखे रहो और एक दिन खाकर अस्‍पताल में भरती हो जाओ। यह कौन-सी परंपरा है भई। कहीं संतुलन भी कोई चीज होती है, हर जगह अतिरेक क्‍यों ? पता है कल रात पड़ोसियों ने क्‍या किया? छोटी दीपावली पर अकेले पांच हजार की लड़ी जलाई.....पूरे 25 मिनट तक तड़तड़ाहट चलती रही। बच्‍चे मारे डर के रोने लगे। सड़क से जा रहे लोग किनारे पर खड़े हो गए। हमें घबराहट होने लगी। आखिर एक ही किस्‍म की आवाज कितनी देर तक कोई सुन सकता है। फिर बोनस में धुआं इतना की दम घुटने लगती है। बिना धुएं और धड़क्‍के की दीपावली नहीं मन सकती । इसमें कौन सा मज़ा है बंधु , यह तो वहशीपना है। लोग आपकी इस करतूत से परेशान हो रहे हैं और आपको उनकी तकलीफ से हंसी आ रही है.....। यह तो बुल फाइटिंग की तरह है। पशु लहुलुहान होता है, परेशान होता है और आदमियों की जमात तालियां बजाती है।

........तो आप कह रहे हो कि पटाखे रहने दूं। फुलझड़ी तो ले जा सकता हुं न ?

2 comments:

  1. तो लो हम तो घर ही नहीं गए इस दीपावली पर भाई साब।

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