Tuesday, November 2, 2010

यूं गया और यूं आया

भाई साब बहुत दिन बाद मिले। पता नहीं कहां चले गए थे।
भाईसाब ऐसे नहीं हैं जिनके कहीं चले जाने और बहुत दिन तक पता नहीं चलने को भूला जा सके। वैसे हमारी जीवनचर्या में बहुत से ऐसे पड़ाव आते हैं। जहां बहुत सारे लोगों से मिलकर बसाहट बनती है। उसमें से हम कुछ को याद रखते हैं । कुछ को याद दिलाने पर कहते हैं - हां हां वह भी तो हुआ करता था या थी, बहुत अच्‍छा, बुरा या कितना अच्‍छा गाता था टाइप से उनको हम याद कर लेते हैं।
लेकिन बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं जिनके होने से बनी दुनिया में हम रहते तो हैं, लेकिन हमारी स्‍मृति पर उनकी कोई छाप नहीं होती। वे दूधवाले, प्रेसवाले, ऑटो वाले, रिक्‍शेवाले, किरानेवाले, सफाईवाले, रद्दीवाले, रसोई की छोटी मोटी बिगड़ी को बनाने वाले नहीं होते। क्‍योंकि इन सभी के गीत हम गाते रहते हैं - कितना ठग है, लुटेरा है इत्‍ते से काम के लिए दस रुपए मांग रहा था.... उससे बच के रहना भइया बीस किलो की रद्दी को चार किलो में बदल देता है... आदि।
खैर, बात भाई साब की कर रहे थे। कमाल के हैं बिना बताए पता नहीं कहा डूब मार आते हैं। जब भी पूछा कहां गए थे- बस यहीं। जैसे कोई कहता है पांच मिनट में पहुंचता हूं या फिर दो मिनट में आया और फिर वह मिनट इतना लंबोतरा होता जाता है कि .... कहने की बात नहीं है। हम सबने इसे महसूस किया है। इस बार तो हद हो गई, इससे पहले कि मैं उनसे यह सवाल करता कहां चले गए थे। उन्‍होंने कहा एक जरूरी काम है यूं गया और यूं आया............

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