Saturday, November 20, 2010

आतंकवाद पर विमर्श - अंतिम

'खाली जगह जहां से संसार को महसूस किया जा सकता है'

‘'आतंकवाद’ से जो आशंकाएँ पैदा होती हैं, उससे पूरा समाज आत्मरक्षात्मक हो जाता है, और अपने आत्म को हर सिरे से संरक्षित, सुरक्षित करने की तमाम प्रविधियाँ तलाशने लगता है। पर आत्मसंरक्षण की इसी प्रक्रिया में आत्म का दायरा संकुचित भी होने लगता है, क्योंकि संसार के साथ उसका सम्बन्ध एक तरह से असुरक्षित होने लगता है। लेकिन इसी के बरक्स, और मैं फिर उसी सवाल पर लौट रहा हूँ, कि यह माँ आत्मसुरक्षा की स्थापित प्रविधियों का अतिक्रमण करते हुए, अपने आत्म का विस्तार करते हुए एक नितान्त परम अज्ञात को अपना लेती है और उसी में अपने अस्तित्व की सार्थकता का निवेश करती है। तो इसमें क्या यह अभिप्रेत नहीं है कि यहआत्मसंरक्षण का एक सर्वथा रेडिकल ढंग है''


गीतांजलि श्री के उपन्‍यास खाली जगह के बहाने आतंकवाद पर दीपेन्‍द्र और मदन सोनी के बीच हुए 'मित्र संवाद' की तीसरी एवं आखरी कड़ी -


दीपेन्द्र: क्या खाली जगह को ‘आतंकवाद’ के मानसिक प्रभाव के रूप में पढ़ा जा सकता है?

मदन: हाँ, एक तरह से। जैसा कि हम बात कर रहे थे कि अगर ‘आतंकवाद’ की संघटना के दो सिरे मानकर चलें जिसमें से एक उसके कर्तृत्व का सिरा है और दूसरा उसके प्रभाव का सिरा है, तो यह उपन्यास अपने को मुख्यतः उस दूसरे सिरे पर केन्द्रित करता है। पर इससे कहीं ज़्यादा यह उपन्यास हमें एक ऐसी जगह ले जाता है, एक ऐसे भावनात्मक और मानसिक संसार में, जहाँ ये दोनों पक्ष एक दूसरे में गड्डमड्ड हो जाते हैं।

दीपेन्द्र: उपन्यास में ‘खाली जगह’ पद की अनेक व्यंजनाएँ उभरती लगती हैं। पहली तो शायद यही है कि संसार से दूर बिल्कुल अलग एक ऐसी खाली जगह है जहाँ से सांसारिकता को देखा जा सकता है। दूसरी, वह जगह है जहाँ से संसार को महसूस करते हुए लिखा जा सकता है। तीसरी शायद यह होगी कि खाली जगह एक तरह से मृत्यु की प्रतीक्षा की जगह भी है, जहाँ इसका आख्याता अन्य हो जाने की पीड़ा को निरन्तर झेलता हुआ अपने असहनीय जीवन से मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा है। पर मुक्ति की प्रतीक्षा की यह प्रक्रिया चूँकि उसके लेखन में घटित हो रही है, लेखन उसके जीवन में एक ऐसी जगह के रूप में उभरता है जहाँ चरम आघात झेलने के बावजूद वह अपनी चेतना को जिलाये रख सकता है।

आप अपनी औपन्यासिक समीक्षाओं में लेखन को अक्सर ही एक पात्र के रूप में देखते रहे हैं, लेखन की इस उपन्यास में क्या भूमिका आपको दीखती है?

मदन: सबसे पहले तो हम इस उपन्यास का संक्षिप्त खाका देखें। किसी विश्वविद्यालय का एक कैफे है जिसमें किसी पाठ्यक्रम के सिलसिले में कोई प्रवेश परीक्षा होने वाली है और जिसके लिए बाहर से बहुत से लड़के आये हैं। वे लड़के उस कैफे में हैं, तभी वहाँ पर अचानक एक बम-विस्फोट होता है। उसमें बहुत से लोग मारे जाते हैं और पूरा कैफे तहस-नहस हो जाता है। वहीं एक कोने में, एक ‘खाली जगह’ में, तीन बरस का एक बच्चा, जोकि इस उपन्यास का जो नायक है और जो, उस घटना के बीत जाने के बरसों बाद, उत्तमपुरुष शैली में अपने अनुभवों का बयान कर रहा है, जीवित और सम्भवतः मूर्च्छित अवस्था में पड़ा पाया जाता है। उस बच्चे का न तो कोई दावेदार है और न ही किसी को इसकी जानकारी है कि वह कौन है और कहाँ से आया है। खुद उस बच्चे को भी इसकी कोई स्मृति नहीं है। मारे गये लोगों में अठारह बरस का एक लड़का भी शामिल है जिसकी तलाश में उसके माँ-बाप वहाँ आते हैं और वे अपने मृत बेटे के बिखरे हुए अवशेषों के साथ-साथ इस जीवित बच रहे तीन बरस के बच्चे को भी अपने साथ ले जाते हैं। वे अपने मृत बेटे की स्मृति में उसका पालन-पोषण करते हैं और वह उस मृत लड़के की स्मृतियों की छाया में, उसकी चीज़ों, आदतों, रुचियों की छाया में बड़ा होता रहता है। वह न केवल उस अठारह साल के लड़के की एवज़ में ले आया गया है, बल्कि उसका पूरा विकास भी जैसे उसकी एवज में होता है। वह निरन्तर और वर्षों लगभग खामोश रहकर अपनी इस विचित्र नियति का त्रास भोगता रहता है, जिसने उसको एक छाया-अस्तित्व के रूप में सिकुड़ कर रह गया, पहचानहीन जीवन जीने को विवश कर दिया है। अन्ततः जब वह भी अठारह साल का हो जाता है तो वह, माँ-बाप की इच्छा के विरुद्ध, उसी शहर के उसी विश्वविद्यालय में, जहाँ बम-विस्फोट की वह घटना घटी थी, जाकर पढ़ने की ज़िद करता है, जिसके मूल में दरअसल अपनी जड़ों को तलाशने की उसकी आकांक्षा है। इस बीच परिवार में एक लड़की, जो उम्र में लड़के से कुछ बड़ी है, आ चुकी होती है। लड़की उसी शहर की है जहाँ वह घटना घटी थी। लड़की इस लड़के के जीवन में पहला ऐसा इन्सान है जिसके सम्पर्क में वह अपने पहचानहीन छाया-अस्तित्व के त्रास से मुक्ति की उम्मीद करता है, क्योंकि वह महसूस करता है कि वह उसके स्वतन्त्र, अनन्य वुजूद को पहचान रही है। दोनों के बीच अनुराग विकसित होता है। वह लड़के के माँ-बाप को उसकी देखरेख का आश्वासन देकर लड़के को उस शहर में भेजने के लिए राजी कर लेती है। घटनाक्रम एक (अति-)नाटकीय मोड़ लेता है: शहर में पहुँचकर वह लड़की के साथ विश्वविद्यालय के उसी कैफे में जाता है, और एक बार फिर एक बम-विस्फोट होता है और इस बार वह फिर बच जाता है। और वह लड़की मारी जाती है। लेकिन इस बम-विस्फोट से ठीक पहले लड़के को उससे भी ज़्यादा बड़ा आघात पहुँचाने वाली एक और घटना तब घटित होती है, जब कैफे में उसके सामने बैठी वह लड़की उसे बताती है कि दरअसल वह उस मृत लड़के की भी प्रेयसी थी और बम-विस्फोट में उस लड़के के मारे जाने के क्षण में वह उसी कैफे में उसके साथ थी। लड़के के जीवन में उसके विशिष्ट, अनन्य अस्तित्व की पहचान की जो उम्मीद इस लड़की के कारण जागती है, वह लड़की के इस रहस्योद्घाटन के साथ समाप्त हो जाती है।

तो ‘खाली जगह’ की, जैसा कि आपने कहा, अनेक व्यंजनाएँ हैं। यह उस लड़के की मृत्यु से पैदा हुई खाली जगह है जिसको यह दूसरा लड़का रूपायित या प्रतिबिम्बित कर रहा है। विडम्बना बहुत स्पष्ट है: हाड़-मांस की एक जीती-जागती उपस्थिति दरअसल एक अनुपस्थिति को रूपायित कर रही है; एक अस्तित्व अनस्तित्व को प्रतिबिम्बित कर रहा है।

यहाँ मुझे बोर्खेस की एक कहानी याद आती है। कहानी की स्मृति कुछ धुँधली सी ही है, लेकिन शायद उसमें एक व्यक्ति अपनी कल्पना में एक दूसरे व्यक्ति को जन्म देता है। जन्म देने के बाद इसको लगता है कि अगर उसको यह बात पता चल गयी कि वह एक जीता-जागता हाड़-मांस का जीव न होकर एक कल्पना-मात्र है, तो यह उसके लिए बहुत तकलीफ़देह और अपमान की बात होगी। इसलिए यह उसको जीते-जागते वास्तविक लोगों की दुनिया से दूर जंगल में एक झोपड़ी में रखकर उसका पालन-पोषण करता है ताकि उसको अपने अस्तित्व की वास्तविकता-अवास्तविकता को लेकर किसी तरह के संकट का सामना न करना पड़े। संयोग से एक बार उस जंगल में आग लगती है, और इसको अहसास होता है कि चूँकि उसकी वह सन्तान अवास्तविक है, उस पर आग का कोई असर नहीं होगा। इसलिए, इसके पहले कि वह आग के सम्पर्क में आये और उसको उसकी अवास्तविकता का अहसास हो, यह व्यक्ति उसको आग से दूर ले जाने उसके पास जाता है। लेकिन होता यह है कि वहाँ पहुँचते-पहुँचते वह अवास्तविक, कल्पित व्यक्ति तो आग में जल जाता है, लेकिन यह जो इस कल्पित इन्सान का पिता और वास्तविक मनुष्य था, आग के बीच होने के बावजूद जलता नहीं है।

दोनों ही घटनाओं में, दूसरे लोगों के मारे जाने के बावजूद, बच जाता है। जैसे कि उसका अस्तित्व ही नहीं है। ‘खाली जगह’ नामक पद इस स्थिति को भी व्यंजित करता है।

दीपेन्द्र: इस उपन्यास में मातृत्व और पितृत्व अपने विशिष्ट रूपों में दिखलायी देते हैं जहाँ पुत्र के अभाव को झेल रहे माँ और पिता अपनी चेतना में काफी वध्य होते हैं और अपने जीने को किसी तरह सहने योग्य बनाये हुए हैं। आघात मनुष्य की चेतना पर कितना गहरा हो सकता है, इसका बहुत ही सूक्ष्म ब्यौरा इस उपन्यास के माध्यम से हमें मिलता है…।

मदन: हाँ। पर उपन्यास जहाँ फोकस कर रहा है, वह दरअसल माँ-बाप की चेतना नहीं है बल्कि उस लड़के की चेतना है जोकि उनके साथ रह रहा है, और जिनको वह माँ-बाप कह भी नहीं सकता है। इन दोनों के प्रति उसके मन में प्रेम है। लेकिन जितना वात्सल्य और स्नेह उसको इन दोनों से मिल रहा है, उसको पूरी तरह से समझने, महसूस करने के बावजूद वह उस अनुपात में उसका प्रतिदान नहीं कर पाता है। क्यों? क्या इसलिए नहीं कि यह प्रतिदान वही कर सकता है जोकि है? माँ और बाप, ज़ाहिर है, एक ऐसे ही व्यक्ति के हो सकते हैं जो स्वयं हो। लेकिन इस लड़के को किसी और चीज़ ने जन्म दिया है, और वो चीज़ है: बम। इस तरह उसको मृत्यु के कारण ने जन्म दिया है। वह दरअसल बम की सन्तान है। वे लोग तो उसके वर्चुअल माँ-बाप हैं। यह उसका अस्तित्वपरक संकट है। इस संकट को हम उपन्यास में शुरू से ही लक्ष्य करते हैं, तभी से जब उसको घर लाया जाता है। बम-विस्फोट की घटना ने उसको एक ऐसी जगह लाकर छोड़ दिया है जहाँ पर उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है, जहाँ पर उसकी अपनी कोई पहचान नहीं है। उस अठारह साल के लड़के की तस्वीर वहाँ लगी हुई है, जो हर वक़्त उसके सामने है, उसकी रुचि की चीज़ें इसको खिलायी-पिलायी जाती हैं, इसको देखकर हर कोई उसको याद करता है, उसके जन्मदिन पर इसका जन्मदिन मनाया जाता है… कुल मिलाकर इसका पूरा जीवन उसकी छाया में जिया जा रहा है। एक छाया-अस्तित्व। पूरे वक़्त उसका संघर्ष यह है कि वह कैसे अपने स्वत्व को, उसकी भौतिकता में, उसकी रूहानियत में, उसकी भावनात्मकता में अनुभव कर सके। जैसा कि हम ज़िक्र कर चुके हैं, उस कैफे में दुबारा लौटते हुए वह अपनी जड़ों की तलाश में लौट रहा होता है; या शायद यह जानने कि यह जो उसका अनस्तित्व-अस्तित्व है इसकी जड़ कहाँ है। और वहाँ पहुँचने पर उसको, मानों तर्कसंगत तौर पर, एक बार फिर वही मिलता है, जिसने उसको जन्म दिया था: बम।

दीपेन्द्र: एक बात यह भी सोचने की है कि उपन्यास में बम-विस्फोटों की ये घटनाएँ क्या इतनी विशिष्ट कही जा सकती हैं कि हम उपन्यास के चरितनायक के इस संकट को विशिष्ट रूप से ‘आतंकवाद’ से पैदा संकट की तरह ही देखें। यानी चरितनायक के इस संकट के सन्दर्भ में ये बम-विस्फोट किन्हीं दूसरी दुर्घटनाओं के समतुल्य भी तो देखे जा सकते हैं।

मदन: मेरा ख़याल है कि नहीं। चरितनायक के इस संकट के सन्दर्भ में ये बम-विस्फोट उस चीज़ से गहरा ताल्लुक रखते हैं जिसे ‘आतंकवाद’ कहा जाता है। उसका संकट, जैसा कि हम सहज ही लक्ष्य कर रहे हैं, अपनी, या अपने अस्तित्व की, उस पहचान का ही तो संकट है, जो ‘आतंकवाद’ के मूल में भी मौजूद है। ‘आतंकवादी’ बम के घटक भी तो यही हैं: पहचान के नष्ट हो जाने का भय, दूसरे के द्वारा, या दूसरे की तरह परिभाषित होने को लेकर प्रतिरोध, अपनी विशिष्ट पहचान का दृढ़ आग्रह…। यह पहचान व्यक्तिवाचक, जातिवाचक, साम्प्रदायिक, राष्ट्रीय किसी भी तरह की हो सकती है। यह बम जब फटता है तो इन्हीं सब इकाइयों के विघटन का ख़तरा भी पैदा कर देता है। आप यह कह सकते हैं कि बम के इन्हीं में से कुछ घटक अपने व्युत्क्रमित रूप में उपन्यास के इस चरितनायक के संकट के घटक बन जाते हैं। आप देखें कि इस उपन्यास में किसी शहर का नाम नहीं हैं, उसमें कोई व्यक्तिवाचक नाम नहीं है, न चरितनायक का नाम आपको पता है, न उस लड़के का जो मारा गया है, न उसके माँ-बाप का, न ही आपको पता चलता है कि उनकी जाति क्या है, सम्प्रदाय क्या है, धर्म क्या है। इसकी बजाय वे सब सर्वनाम में याद किये जाते हैं: मैं, वह, उसका, उसकी…। या जातिवाचक नामों में: माँ, बाप, लड़का, लड़की…। तो उपन्यास में दो तरह से इसकी व्यंजनाएँ उभरती हैं: एक व्यक्तिवाचक नामों के विलोपन से; जैसे यह कहने की कोशिश है कि सारी पहचानें, सारे नाम सर्वनामों में या जातिवाचक पहचानों में बदल गये हैं; हिंसा के इस माहौल में हर संघटना, हर इकाई जैसे अपना नाम खो चुकी है। और दूसरी व्यंजना यह भी निकलती है कि चरितनायक के साथ जो कुछ घटित हो रहा है, वही इस उपन्यास के साथ भी घटित हो रहा है; क्योंकि उपन्यास में नामों का न होना, उपन्यास के अपने नामों का न होना, उसमें चरित्रों के नामों का न होना उपन्यास का भी एक तरह से अनाम होना है। तो जैसे नामहीनता या पहचानहीनता का जो संकट चरितनायक भोग रहा है, उपन्यास भी उस संकट में भागीदारी कर रहा है। इसीलिए इस ‘खाली जगह’ की एक व्यंजना यह भी है कि यह खाली जगह उपन्यास है। अगर हम इसको थोड़ा और सामान्यीकृत करके कहें तो, यह खाली जगह साहित्य है। वह हमेशा ही एक खाली जगह है क्योंकि वह हमेशा ही उस चीज़ की एक छाया है जिसको हम वास्तविक अस्तित्व कहते हैं; लेकिन एक ऐसी छाया जिसके साथ हमें हमेशा एक जीवित, धड़कती हुई सत्ता को बोध होता है। साहित्य की यह विडम्बना है कि वह एक ऐसा अस्तित्व है, जो हमेशा किसी दूसरे अस्तित्व का छाया-जीवन जीता है और इस दूसरे की पहचान का माध्यम बनने में ही जैसे अपनी पहचान को चरितार्थ करता है। तो इस अर्थ में यह उपन्यास अपने कथ्य में भागीदारी करता है और खुद एक तरह की नामहीनता का शिकार होता है, और एक बहुत बड़ा जोखिम इस रूप में उठाता है कि कुछ लोगों को वह अमूर्त या ‘ऑब्स्क्योर’ लग सकता है (प्रसंगवश, ‘आतंकवादियों’ को ‘ऑब्स्क्योरेण्टिस्ट’ कहा जाता है)। पर लेखक ने न केवल इसकी परवाह नहीं की है बल्कि जैसे स्वीकार कर लिया है कि ‘न सताइश कि तमन्ना है, न सिले की परवा / गर मेरे अशआर में मानी नहीं न सही’। बहरहाल, हमने कहा कि उपन्यास साहित्य के रूप में एक खाली जगह है और इस उपन्यास का शीर्षक भी यही है। यानी ‘खाली जगह’ एक खाली जगह का शीर्षक है; मानों खाली जगह होने का इस उपन्यास का तत्त्व ही उसके शीर्षक के रूप में उसकी सतह पर तैर कर आ गया हो।

दीपेन्द्र: उपन्यास एक ऐसे गहनतम पुत्र-शोक को बहुत गहराई से समझने का उद्यम कर रहा है जिसके कारण तीन चेतनाएँ लगभग असामान्य हो गयी हैं जिनको उपन्यास का आख्याता, जो एक तरह का वर्चुअल पुत्र है, लेखे में लेने का प्रयास कर रहा है। तो एक तरह से यह लगता है कि लेखन बम का प्रतिपक्ष तो शायद नहीं है, पर उसके आघात से पैदा हुए शोक को सहने या उबरने में वह मदद शायद करता है। पर इस लेखन का विज़न एक तरह से ट्रैजिक-कॉमिक है: आख्याता चरम शोक से गुजर रहा है, एक तरह से पारिवारिक अवैधता को भी वह झेल रहा है, इस अवैधता का प्रतिवाद करने के लिए अपने आप को लगातार लिख रहा है, और इस दौरान, मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए भी, वह अपने आप को जिलाये हुए है। तो क्या इसमें एक तरह से यह ध्वनित नहीं होता कि लेखन नामक यह खाली जगह ही है, जहाँ व्यक्ति अपने आप को जिलाये रख सकता है-बम के मौत के सन्देश के खिलाफ़?

मदन: यह कहना कि साहित्य या लेखन ही वह जगह है जहाँ पर व्यक्ति मृत्यु के खिलाफ़ अपने को जिलाये रख सकता है, या कि जहाँ वह उस शोक को सहने योग्य बना रह सकता है, लगता तो अच्छा है, लेकिन इसमें हम लेखन का थोड़ा सा रोमानीकरण भी कर रहे हो सकते हैं।

दीपेन्द्र: पर यह व्यक्ति संवाद से बिल्कुल वंचित है, उसकी चेतना का रूप ही कुछ ऐसा बन गया है कि किसी से संवाद ही नहीं कर पा रहा है, उसके पास अपने आपसे संवाद करने का ही विकल्प बचा है। तो इस तरह से लेखन उसके लिए आत्मालाप का एक माध्यम है।

मदन: मैं आपकी बात का मर्म शायद समझ रहा हूँ, पर मैं अपनी पिछली बात को ही दोहराते हुए उसमें कुछ बढ़त करूँगा। मुझे लगता है कि जहाँ तक इस आख्याता का सवाल है, शोक से ज़्यादा उसके शोक का कारण यहाँ महत्त्वपूर्ण है, और वह है एक बहुत ही गम्भीर किस्म का अस्तित्व या पहचान का संकट। और इस संकट का स्तर सामाजिक, सांस्कृतिक नहीं है, जैसा कि हम मसलन गोरा उपन्यास में देखते हैं। वहाँ पर वह एक धर्म और जाति से जुड़ा संकट है। यहाँ यह नहीं है। यहाँ यह संकट गहरा इस अर्थ में है कि वह महसूस कर रहा है कि वह है या नहीं है। वह इतनी कम उम्र में वहाँ ले आया गया है कि उसके पास अपने उत्स तक की कोई स्मृति नहीं हैं। उपन्यास एक बहुत गहरी अस्तित्वपरक रूपक-कथा (एलेगॅरी) के रूप में उभरता है। वह हमारे सामने एक ऐसे व्यक्ति को रख रहा है जिसको न केवल स्वयं अपनी जड़ों के बारे में पता नहीं है, बल्कि, एक तरह से, वह जिसके भी सम्पर्क में जाता है, अपनी जड़हीनता को, अपनी पहचान के विस्थापन को उसमें संक्रमित कर देता है। उसके सन्दर्भ में उसके माँ-बाप भी अपने मातृत्व-पितृत्व को संकटापन्न स्थिति में पाते हैं। पहचान का संकट उनका भी है। वे किसके माँ-बाप हैं: उसके जो मर गया है या उसके जिसको वे उसकी जगह पाल रहे हैं। तो, लेखन ऐसे एक बहुत ही सघन किस्म के अस्तित्वपरक पहचान के संकट से पैदा शोक को सहने की सामर्थ्य दे सकता है या उसके बावजूद जीने की कोई जगह उपलब्ध करा सकता है, ऐसा कहने की बजाय, मुझे लगता है कि ज़्यादा सटीक यह कहना होगा कि ऐसी मनःस्थिति, या ऐसी अस्तित्वपरक स्थिति के भीतर से ही साहित्य पैदा होता है। अगर इस तरह के कथन में कोई सार्थकता है तो मैं यही कहना चाहूँगा कि साहित्य आपको सहने की सामर्थ्य या गुंजाइश नहीं देता, वह सहने की प्रक्रिया में पैदा होता है। यह लड़का अगर अपने समाज से संवाद नहीं कर पा रहा है, तो इसलिए कि वह अपने अस्तित्व के सुनिश्चित बोध के उस न्यूनतम स्तर पर नहीं है जो ऐसे संवाद का आत्मविश्वास जगाता है। लेकिन होने के इस मान पर वह अपने साथ तो संवाद कर ही सकता है, जोकि वह कर रहा है: उसका लेखन या बयान यही आत्मसंवाद है। ऐसी चरम हताशा की स्थिति में व्यक्ति उस चीज़ का स्रोत बनता है जिसको हम लेखन कहते हैं।

और यह बहुत युक्तिसंगत भी लगता है, क्योंकि एक ऐसी चरम हताशा जोकि इस अनिश्चय से पैदा हो रही है कि वह है या नहीं, ही उस चीज़, यानी साहित्य, को भी जन्म दे सकती है जोकि अन्ततः इसी अहसास का ही एक रूपंकरण है कि वह है या नहीं है। अस्तित्व-अनस्तित्व के बीच के दोलन के भीतर से ही इस दोलन का एक दूसरा रूप निकल सकता है। उपन्यास अपने वास्तविक स्वत्व को पाने की कोशिश में अपनी एक प्रतिच्छाया गढ़ता है, तीन साल के इस बच्चे के रूप में, जो एक तथाकथित वास्तविक अस्तित्व की छाया के रूप में जी रहा है, और यह उपन्यास उस छाया की छाया के रूप में जन्म ले रहा है।

दीपेन्द्र: इस उपन्यास में मातृत्व भी अपनी विशिष्ट लक्षणाओं में स्वायत्त होता दिखलायी देता है। और यह ऐसा मूलगामी किस्म का मातृत्व है, जहाँ पुत्र-शोक के बावजूद माँ तीन बरस के एक लड़के को अपनाती है और अपने मृत बेटे की स्मृतियों के तप से इस बच्चे की परवरिश करते हुए अपनी स्मृतियों को नैरन्तर्य दे पा रही है। तो क्या आपको नहीं लगता कि यहाँ मातृत्व अपनी चरम ऊँचाई पर पहुँचा हुआ है जहाँ वह एक दूसरे बच्चे को बिना शर्त अपनाती है?

मदन: हाँ, मैं सहमत हूँ। मातृत्व का अनुभव हमेशा सन्तान के सापेक्ष होता है, लेकिन यहाँ जिस बच्चे के सन्दर्भ में उसका वात्सल्य प्रगट हो रहा है, वह उसका बेटा नहीं है। वह न केवल उसका बेटा नहीं है बल्कि एक ऐसा बच्चा भी वह है, जोकि जिस हद तक अपने अस्तित्व या अपनी पहचान के होने-न-होने का संघर्ष कर रहा है उसी हद तक वह माँ और पिता की परिभाषाओं को भी अस्थिर कर रहा है। तो एक ऐसी सन्तान जोकि लगातार मातृत्व और पितृत्व की पहचानों को सुनिश्चित नहीं होने दे रही है…

दीपेन्द्र: समस्याग्रस्त कर रही है…

मदन: …बिल्कुल…तो अगर हम इस मातृत्व को विनाश, वियोग और विस्थापन के, पहचानों के धुँधला जाने, नष्ट हो जाने के, इस पूरे परिप्रक्ष्य में रखकर देखें, तो मातृत्व एकमात्र चीज़ है जो इन सब के विरुद्ध प्रतिरोध के रूप में उभरता है। वह एक मूल्य के रूप में उभर कर आता है। उपन्यास मानो यह कहता है कि अस्तित्व के इस समूचे निषेध के बरक्स केवल मातृत्व ही है जो इस निषेध को प्रतिरोध दे सकता है। और कहीं न कहीं वह इस बात की ओर भी इंगित है कि अस्तित्व का बुनियादी विस्थापन दरअसल मातृत्व से विस्थापन ही है, कि आप अपने मातृ स्रोत से कट गये हैं, माँ के गर्भ से बाहर फेंक दिये गये हैं, कि मातृत्व की विस्मृति ने आपको उस जगह ला दिया है जहाँ पर कि आप एक संहारक, हिंसक रूप ले लेते हैं-एक ऐसा संहारक, विध्वंसक रूप जिसने अपने आपको कुछ इस तरह छितरा दिया है कि वह एक व्यापक स्तर तक फैलकर विध्वंस, संहार और आतंक की सन्तानें पैदा कर रहा है। तो उपन्यास मातृत्व के इस लगभग इकतरफ़ा और मुक्त दान के माध्यम से जैसे यह कहता प्रतीत होता है कि हमें अपने अस्तित्व के, अपने सभ्यता और संस्कृति के मूल में मातृत्व के इस तत्त्व को खोजने, इसका पुनर्वास करने की ज़रूरत है। और वह भी उस चुनौती के बिन्दु पर जहाँ पर मातृत्व खुद निरन्तर अस्थिर हो रहा है।

इसके बरक्स आपके मन में पितृत्व को लेकर सवाल उठ सकता है….

दीपेन्द्र: हाँ। उपन्यास का आख्याता स्पष्ट ही विरोधाभासी स्थितियों में है। उसकी चेतना निरन्तर निलम्बन की स्थितियों में है। जहाँ माँ से उसे एक तरह की स्वीकार्यता, एक तरह की वैधता, मिल रही है, वहीं पिता उसको मन से स्वीकार नहीं कर पा रहा है। और उसका शोक भी बहुत स्वाभाविक, बहुत ही यथार्थपरक लगता है। वह अपनी चेतना में पूरी तरह से विचलित हो गया है। अपने शोक से उबरने के लिए वह अपनी दैहिक आकांक्षा की पूर्ति का सहारा लेने की कोशिश भी करता है, लेकिन उसके ये प्रयास विफल हो जाते हैं। उपन्यास में इस प्रसंग को बहुत मर्मस्पर्शी ढंग से लिखा गया है। तो पिता का रूप यहाँ बहुत ही वध्य दिखलायी देता है। आप इसको किस तरह से देखते हैं?

मदन: आप उत्प्रेक्षाएँ ही कर सकते हैं। जो स्थिति है, वह तो आपने बतायी ही है कि पिता उसको, माँ की तरह, सच्चे मन से स्वीकार नहीं कर पा रहा है। लेकिन हमारे समाज में सन्तान के सन्दर्भ में माँ और पिता की क्या स्थितियाँ हैं? अगर हम इस सवाल पर थोड़ा ध्यान दें, तो हमारे समाज में, और सिर्फ भारतीय समाज में नहीं, एक विचित्र सी स्थिति है जिसमें कि यह माना जाता है कि सन्तान का स्रोत पिता है। तमाम तरह के वैज्ञानिक-जीववैज्ञानिक तथ्यों के बावजूद सामान्य मनोविज्ञान यही है।

दीपेन्द्र: सांस्कृतिक मिथक…

मदन: जी। और यह अकारण नहीं है कि हमारे नाम ज़्यादातर पिता के नाम पर चलते हैं। इसे आप कुछ इस तरह भी कह सकते हैं कि जैसे अस्तित्व का स्रोत भी हमारे समाज में पुरुष को मान लिया गया है। यह भी वैसा ही सांस्कृतिक मिथक है। अकारण नहीं कि अधिकांश संस्कृतियाँ जब अस्तित्व के किसी अतिक्रामी स्रोत को नाम देने की कोशिश करती हैं, तो उसको ‘परम पिता’ आदि कहती हैं। दूसरी ओर मातृत्व को एक क्षेत्र (खेत) के रूप में देखा जाता है, जिसमें कि पिता द्वारा बीज रोप दिया जाता है। वह एक जगह है-एक ‘खाली जगह’, आप कह सकते हैं-जहाँ पर आप बीज का आरोपण कर देते है। पौरुष का अहंकार शायद इसी मान्यता में है कि वह खाली जगह को भरता है। संयोग से इस उपन्यास में भी, आप देखें कि वह लड़की भी हो सकती थी, उस खाली जगह को रूपायित करने या भरने वाली। क्यों नहीं हो सकती थी? माँ से भिन्न, पिता अगर इस बच्चे को पूरे मन से स्वीकार नहीं कर पा रहा है, और उसके लिए वह ‘खाली जगह’ जस की तस बनी हुई है, तो शायद इसीलिए कि वह खाली जगह उसकी सन्तान के चले जाने से बनी है। कहीं न कहीं पिता अपने बेटे की मृत्यु में अपनी मृत्यु देख रहा है, क्योंकि वही उसका प्रतिनिधित्व कर रहा था। तो बहरहाल जो चला गया है, जिसके चले जाने के कारण वह ‘खाली जगह’ पैदा हुई है वह तो था ही पुरुष, (उसकी सत्ता का प्रतिनिधि), वह भी पुरुष ही है जो उस ‘खाली जगह’ को भर रहा है। उस खाली जगह में एक बार फिर पुरुष का जन्म ही होता है। माँ तो उसको इसलिए स्वीकार कर लेती है कि उस खाली जगह में जैसे पिछला बच्चा आया था, वैसे ही यह बच्चा भी आ गया है। उसके खाली जगह होने में और उसके भर जाने में बहुत बड़ा व्यतिरेक उसके लिए पैदा नहीं हुआ है। लेकिन पिता के सन्दर्भ में वह एक बड़ा व्यतिरेक है, क्योंकि जो बच्चा अब वहाँ है, वह उसका नहीं है। ज़ाहिर है, हम उत्प्रेक्षाएँ ही कर रहे हैं, पर आप देखिये कि, जैसा कि आपने संकेत किया, बीच में एक ऐसा प्रसंग आता है, जहाँ पिता अपने आपको यौन-कर्म में समर्थ नहीं पाता, मानों उसका बेटा मरकर उसके पौरुष को अपने साथ ले गया है। तो इस मानी में उपन्यास स्त्रीत्व के, मातृत्व के, मूल्य को बहुत सूक्ष्म ढंग से, बिना किसी भी तरह की नारेबाज़ी के, कुछ इस तरह रखता है कि पितृसत्तात्मक मूल्य उससे प्रश्नांकित हो सकें।

दीपेन्द्र: शायद ऐसा इसलिए है कि पिता एक तरह से वैयक्तिक चेतना को सार्वजनिक क्षेत्र में प्रदर्शित कर रहा है। उसका शोक सार्वजनिक क्षेत्र में उद्घाटित होते हुए भी दिख रहा है। पर माँ का शोक सार्वजनिक क्षेत्र में बिल्कुल अप्रकट है। क्या ऐसा इसलिए है कि पितृसत्ता पर हमारी सामाजिक संस्थाओं का दबाव है? क्या इसलिए वह अपनी संवेदना को विस्तार नहीं दे पा रहा है, और इसलिए पितृसत्ता की रूढ़ि का अनुसरण कर रहा है? जबकि माँ क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र से उदासीन है उसके अस्तित्व की संवेदना से उसके तार जुड़े हुए हैं, और इसलिए वह अपने मातृत्व के जैविक स्तर का अतिक्रमण करते हुए उसको विस्तार दे पा रही है?

मदन: हाँ, आप ऐसा कह सकते हैं। हालाँकि मैं यह कहूँगा कि पितृसत्ता पर सामाजिक संस्थाओं का नहीं, सामाजिक संस्थाओं पर पितृसत्ता का दबाव है। से संस्थाएँ स्वयं पितृसत्तात्मक हैं-तमाम तरह की सामाजिक संस्थाएँ जिनमें मैं उन सामाजिक संस्थाओं को भी शामिल करूँगा, जिनके मूलाधार पेगन रहे हैं, और जहाँ पर ऐसा नहीं होना चाहिए था। हम जानते हैं कि भारतीय समाज ने एक लम्बे समय तक अपने को एक मातृसत्तात्मक समाज के रूप में एसर्ट करने, थामे रखने की कोशिश की।

आपने सार्वजनिकता की बात कही है। इस सिलसिले में मुझे यह भी सूझता है कि इसमें विशिष्ट और सामान्य का भेद है। माँ के लिए यह अनुभव अत्यन्त विशिष्ट है, और वही उसकी प्रतिक्रियाओं में प्रकट होता है। पिता उसके समाजोन्मुख न हो पाने, उसके खामोश बने रहने आदि को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया करता है, क्षुब्ध होता है, वे सब उसको एक सामाजिक प्राणी में न बदलते देख पाने के कारण पैदा होती हैं। क्योंकि उसके लिए यह सामाजिकता, या सामुदायिकता एक बहुत बड़ा मूल्य है।

दीपेन्द्र: एक तरह से देखें तो ‘आतंकवाद’ से जो आशंकाएँ पैदा होती हैं, उससे पूरा समाज आत्मरक्षात्मक हो जाता है, और अपने आत्म को हर सिरे से संरक्षित, सुरक्षित करने की तमाम प्रविधियाँ तलाशने लगता है। पर आत्मसंरक्षण की इसी प्रक्रिया में आत्म का दायरा संकुचित भी होने लगता है, क्योंकि संसार के साथ उसका सम्बन्ध एक तरह से असुरक्षित होने लगता है। लेकिन इसी के बरक्स, और मैं फिर उसी सवाल पर लौट रहा हूँ, कि यह माँ आत्मसुरक्षा की स्थापित प्रविधियों का अतिक्रमण करते हुए, अपने आत्म का विस्तार करते हुए एक नितान्त परम अज्ञात को अपना लेती है और उसी में अपने अस्तित्व की सार्थकता का निवेश करती है। तो इसमें क्या यह अभिप्रेत नहीं है कि यह आत्मसंरक्षण का एक सर्वथा रेडिकल ढंग है?

मदन: हाँ, और इसमें जो बात बहुत महत्त्वपूर्ण है वह यह है कि एक क्षेत्र या एक खाली जगह या एक गर्भ या अवतल आधार के रूप में उसको इससे बहुत फर्क नहीं पड़ रहा है कि वह किस जाति का, किस पन्थ या धर्म का है, या किस शुक्र का बीज है। वह इन सबसे निरपेक्ष होकर स्वयं को समर्पित कर सकती है, उस बीज को विकसित होने देने के लिए। वह अपना काम इन तमाम पहचानमूलक संकोचों की परवाह किये बिना कर सकती है। यहाँ हम एक बार फिर गोरा को याद कर सकते हैं। गोरामें भी आनन्दमयी और कृष्णदयाल दोनों ही जानते हैं कि गोरा उनकी अपनी सन्तान नहीं है। लेकिन गोरा के साथ दोनों के रिश्ते का फ़र्क देखिये! तो बहरहाल मातृत्व की यह प्रतिमा अपनी चरितार्थता ही इसमें देखती है कि वह इन सारे प्रतिबन्धों से ऊपर उठकर उस चीज़ के विस्तार के लिए गुंजाइश दे जिसको आप अस्तित्व कहते हैं।

दीपेन्द्र: यहाँ पर एक संयोग और याद आ रहा हैः आपने कविता का व्योम और व्योम की कविता में प्रगतिशील कविता की समीक्षा करते हुए ब्रेख्त का उदाहरण दिया था कि प्रगतिशील कविता में दरअसल मातृत्व की कमी है और इस नाते आपने ब्रेख्त केमदर करेज की भी याद की थी। तो क्या इस उपन्यास में भी ‘मदर करेज’ का एक विशिष्ट रूप दिखलायी नहीं देता?

मदन: बिल्कुल दिखलायी देता है। वह मदर-करेज ही है। ‘करेज’ सच्चे अर्थों में शायद तभी परिभाषित होगा जब वह ‘मदर-करेज’ हो। साहस तब तक साहस नहीं है जब तक कि आप वह जोखिम नहीं उठाते जो कि आपकी पहचान को तहस-नहस कर दे, जब तक कि आप इन पहचानों से उपर उठने की कोशिश नहीं करते कि किसने जन्म दिया, किस जाति का है, किस समाज का है, किस धर्म का है…; जब तक आप इन और ऐसी तमाम सामाजिक या सामाजिक तौर पर गढ़ी गयी शर्तों को चुनौती नहीं देते हैं। साहस इसी अर्थ में मातृत्व से जुड़ा हुआ है। साहस की हमारे समाज की परिभाषा हमेशा पितृसत्तात्मक होती है। जैसे साहस पौरुष का लक्षण हो। और अगर वह किसी स्त्री में भी दिखायी दे जाता है तो उसको तब तक स्वीकार नहीं किया जाता जब तक कि उसको मर्दाना न कह दिया जाय।

दीपेन्द्र: उपन्यास का आख्याता एक तरह से मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है और इस नाते यह उपन्यास अस्तित्व के उस कोने को प्रकाशित करता है जहाँ मृत्यु की प्रतीक्षा अन्तर्निहित है। यूँ तो सारे अस्तित्व में ही मृत्यृ-प्रतीक्षा रहती है, पर इस उपन्यास में मृत्यु की प्रतीक्षा बहुत गोचर और मुखर है। और इसी मृत्यु-प्रतीक्षा में एक तरह से जीवन अपने निलम्बित स्वरूप में दिखलायी देता है और उसमें गढ़ा भी जाता है। इसी के साथ, इस व्यक्ति की आकांक्षा अपनी विषिष्टता को अनुभव करने की है जबकि संसार उसको उसकी विशिष्टता से निरन्तर वंचित कर रहा है। मृत्यु-प्रतीक्षा और अपनी विषिष्टता को अनुभव करने की आकांक्षा दोनों ही चीज़ों का माध्यम उसके लिए लेखन है। वहीं, वह लड़का भी जिसकी मृत्यु हो चुकी है, उसके दिमाग़ में भी एकदम विचित्र या अनूठी चीज़ों के प्रति आकर्षण है; वह भी लिखता था, और उन चीज़ों के बारे में लिखता था जो संसार की किन्हीं कोटियों में बाँटी ही नहीं जा सकतीं। तो यह उपन्यास एक तरह से यह बतलाने की कोशिश कर रहा है कि अस्तित्व के भीतर विशिष्टता है और यह विशिष्टता लेखन के माध्यम से आत्मसंवाद में प्रकट हो सकती है।

मदन :यह बात तो आपकी मुझे ठीक लगती है कि यह विशिष्टता का अनुभव या उसका दबाव ही है जोकि उन चीज़ों में प्रगट होता है जिनको हम साहित्य की सामान्य कोटि के भीतर कविता, कहानी उपन्यास जैसे रूपों में रखते हैं। आपकी जिस बात से मेरी सहमति कम बनती है वह यह है कि यह लड़का मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। मुझे लगता है कि वहाँ मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं है। सामान्य तौर पर भी, मृत्यु के साथ लोगों का सम्बन्ध उसकी अवश्यम्भाविता को झुठलाने और उसको भुलाने का होता है, उसका सामना करने का नहीं होता। सामान्यतः उसको एक ऐसी चीज़ के रूप में देखने की कोशिश की जाती है जैसे कि वह हम से बाहर है। यानी वह होने की एक ही संघटना का अंग नहीं है। लेकिन अगर हम मृत्यु को अस्तित्व का अनिवार्य अंग मान लेते हैं, तो फिर उसका क्या रूप बनता है? वह हमेशा होने-न-होने का रूप बनता है। आपका होना दरअसल भेदपरक (डिफ़रेंसियल) है; मृत्यु के न होने के सापेक्ष है; और आपका न होना आपके अस्तित्व के नाते स्थगित है। कुल मिलाकर अस्तित्व का रूप एक निरपेक्ष और स्थिर पहचान का नहीं है। वह एक अनिश्चय की स्थिति है। इस अस्थिर, अनिश्चित पहचान का रूप ही दरअसल उस चेतना को प्रतिबिम्बित करता है जो कि मृत्यु और अस्तित्व दोनों को एक दूसरे के सहअस्तित्व, परस्पर-व्याप्ति और सायुज्य में देखती है। और इस चेतना के भीतर से जब वह चीज़ पैदा होती है जिसको हम साहित्य कहते हैं, तो हमारे समक्ष इस चेतना का एक वस्तुपरक रूप प्रगट होता है, जिसमें हम स्पष्ट तौर पर उस अस्थिर और अनिश्चित पहचान को चरितार्थ या मूर्त होते देखते हैं। अस्तित्व के और मृत्यु के सन्दर्भ में साहित्य को कुछ इस रूप में कल्पित करना मुझे ठीक लगता है।

तो उपन्यास के इस चरितनायक की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि परिस्थितियों ने उसको उस जगह ला दिया है जहाँ पर वह एक अस्थिर, असुरक्षित और काँपती हुई चेतना को रूपायित कर रहा है; जहाँ वह पूरे वक़्त होने-न-होने की एक अविभाज्य मनःस्थिति में है। मृत्यु का न होने का पक्ष, और अस्तित्व का होने का पक्ष, अनुपस्थिति और उपस्थिति: ये दोनों जब मिलतीं हैं, तो वे एक ऐसी खाली जगह में रूपान्तरित होती हैं जो एक भौतिक देह में रूपायित है। ज़ाहिर है यह एक बहुत ही विरोधाभासी, अन्तर्विरोधी सी बात लगती है, क्योंकि तब, आप कहेंगे, यह कैसी खाली जगह! लेकिन मैं समझता हूँ कि यह बात स्पष्ट होना चाहिए कि देह यहाँ खाली जगह को प्रतिबिम्बित कर रही है। जैसे कि भाषा जो अपनी भौतिक (ध्वनिपरक/आरेखात्मक) उपस्थिति से एक समूची अनुपस्थित दुनिया का आभास हमें देती है। याद करें उस प्रसंग को जब वह लड़की उसके साथ दैहिक संसर्ग कर रही है। सहसा आप पाते हैं कि उसका समूचा आवेग आईने की वर्चुअल स्पेस में घटित हो रहा है। आईना वहाँ माध्यम नहीं है, बल्कि वह आईने में ही घटित हो रहा है। इस प्रसंग को अगर हम लड़के के अस्तित्व की उक्त ख़ास अवस्थिति के सन्दर्भ में देखें, तो यह बहुत ही सटीक प्रतीत होता है, क्योंकि अनुपस्थिति-उपस्थिति की क्रीड़ा का यह यथार्थ अगर कहीं प्रतिबिम्बित हो सकता है, तो वह आईने में ही हो सकता है; या फिर साहित्य में।

दीपेन्द्र: फ्रायड मानता है कि ‘डैथ ड्राइव’ एक अन्तर्निहित चीज़ है और वह मनुष्य की उन क्रियाओं में अनेकशः परिलक्षित होती है जो वह अपने स्वत्व से पलायन करने के लिए करता है। यह चीज़ इस उपन्यास में बहुत मुखर ढंग से प्रकाशित होती दीखती है जहाँ यह लड़का निरन्तर बम की प्रतीक्षा कर रहा है और अन्त में उसे पछतावा भी होता है कि बम का शिकार वह क्यों नहीं हुआ। पर मैं यह कहने की कोशिश कर रहा था कि इसी मृत्यु-प्रतीक्षा में वह अपनी जीवन-शक्ति भी जुटा रहा है। तो एक तरह से इस लड़के की चेतना में जीवनपरक और मृत्युपरक स्थितियों का द्वन्द्व गोचर होता हुआ दिखलायी देता है। इसी तरह से प्रेम और मृत्यु का द्वन्द्व भी इस व्यक्ति में घटित होता दिखलायी देता है। मृत्यु से उसकी चेतना आविष्ट हो रही है और ऐसे समय में प्रेम उसके जीवन में प्रवेश करता है और मृत्यु और प्रेम का द्वन्द्व उसको ऐसे अप्रत्याशित क्षेत्र में ला खड़ा करता है जहाँ उसको अपनी पहचान शायद फिर से गढ़नी होगी। संक्षेप में यह कि क्या उपन्यास, एक तरह से, जीवन और मृत्यु के संवेगों के द्वन्द्व को निदर्शित करता हुए दिखलायी नहीं देता?

मदन: हाँ, आप ऐसा कह सकते हैं। मैंने इस प्रेम प्रसंग को इस रूप में नहीं देखा है। हमारी व्याख्याएँ काफी हद तक हमारा इच्छित चिन्तन होती हैं। ख़ैर, मैं जिस रूप में उसको देखना चाहता हूँ या जिस रूप में वह मुझको दिखायी देता है, वह कुछ विचित्र-सा है। यह लड़की उसके लिए आखिरी सहारा है जिससे उसको यह उम्मीद बँधती है कि वह उसको उसकी अद्वितीयता में पहचानेगी, या जो आत्मपहचान में उसकी मदद कर सकेगी। और इसीलिए वह ज़िद करता है, उस शहर में जाने की। तो वह उस शहर, उस कैफे में तो लौट ही रहा है, लेकिन एक ऐसे अनुभव में भी लौट रहा है जो उसको उसकी अद्वितीय पहचान दे रहा है। यह अनुभव है प्रेम का है। लेकिन अगर हम इस बात पर सहमत हों कि अस्तित्व अपने आप में वैसा ही है जैसा कि इस लड़के के रूप में हमें दिखायी दे रहा है जिसमें कि व्यक्ति है भी और नहीं भी है, तो यह लड़का यहाँ अस्तित्व के इस यथार्थ का निषेध करने का आखिरी यत्न करता है। और इस निषेध के लिए वह ठीक उस जगह से जा रहा है जहाँ उसकी वास्तविकता का असल स्रोत है; जहाँ उसकी अस्तित्वपरक वास्तविकता का मातृत्व है। वह माँ से दूर जा रहा है, उस माँ से जोकि उसको उसी रूप में रखना चाह रही है जैसा कि वह है; वह मातृत्व के उस फिगर से दूर जा रहा है जोकि अस्तित्व को उसके यथार्थ में स्वीकार करना चाह रहा है। विचित्र स्थिति है: वह माँ से दूर जा रहा है, पर क्योंकि उसको लगता है कि जहाँ वह जा रहा है, वहाँ उसका वास्तविक स्रोत है, अपने तईं वह माँ के पास जा रहा है। लेकिन विडम्बना यह है कि वह उस पहचान से इंकार करने वहाँ जा रहा है जोकि उसको उसी स्रोत से प्राप्त हुई है। वह वहाँ एक मुक्त हस्त, मुक्त मन, मुक्त गर्भ स्रोत का निषेध करने जा रहा है। वह स्रोत/माँ की ओर जाते हुए स्रोत/माँ का निषेध कर रहा है: सिर्फ़ माँ से दूर जाने के अर्थ में नहीं माँ के करीब जाने के अर्थ में भी। वह एक माँ से दूसरी माँ तक जा रहा है। एक माँ जहाँ से उसको यह अनुभव मिला है, दूसरी माँ जिसने उस अनुभव को स्वीकार किया है। पर अन्ततः वह एक स्त्री (यानी उस लड़की) के पास ही जा रहा है, भले ही एक ऐसी स्त्री के पास जिसके बारे में उसको पूरा विश्वास है कि वह उसकी माँ से एक भिन्न स्त्री है, क्योंकि वह उसको उसकी अद्वितीयता में स्वीकार कर रही है। उसको लगता है कि मातृत्व इस बात में है।

लेकिन वहाँ पहुँचने के बाद वह पाता है कि वहाँ उस लड़की के वेश में दरअसल वही औरत बैठी हुई है जो यह जानती है कि वह वह नहीं है, और तब भी उसको स्वीकार करती है। और अन्ततः जब वह बम-विस्फोट में मारी जाती है, उसका यह मारा जाना दरअसल लड़के की उस ग़लत उम्मीद का मारा जाना है जिसमें एक निर्भ्रान्त, नीरन्ध, स्थिर, सुपरिभाषित, सुपरिसीमित अस्तित्व की अपेक्षा है। वह उस उम्मीद का वध है, उस दूसरे बम विस्फोट में। इसके बाद वह, एक तरह से अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार कर लेता है: ‘‘…और मुझे तो अभी बचना है, अगले विस्फोट में भी, दावा करता हूँ!)”

यह दूसरा बम विस्फोट औपन्यासिक दृष्टि से बहुत ठीक शायद नहीं है। जिस कलात्मक अमूर्तन में यह उपन्यास घटित होता है, उसे देखते हुए एक ठोस किस्म के संयोग या तथ्य पर इतना बल देना मुझे अन्यथा बहुत ठीक नहीं लगता। लेकिन एक रूपक के स्तर पर यह दूसरा विस्फोट एक अत्यन्त विश्वासप्रद दार्शनिक संकेत से भरा हुआ है। पहला विस्फोट लड़के को उसके अस्तित्व के यथार्थ में प्रतिष्ठित करता है, तो दूसरा विस्फोट उसको उस यथार्थ के निषेध से विचलित करता है।

दीपेन्द्र: मैं एक बार फिर लौटता हूँ। यह व्यक्ति एक दुखान्त परिस्थिति से दूसरी दुखान्त परिस्थिति में जाता हुआ तो दिखलायी पड़ता है, लेकिन जो चीज़ उसको सुकून दे रही है, वो एक तरह का उसका ‘कॉमिक विजन’ भी है। मतलब, नितान्त दुखद परिस्थितियों में रहते हुए भी वह उनसे ग्रस्त नहीं होता, बल्कि ‘कॉमिक विजन’ का सहारा लेते हुए उनसे मुक्त होने का यत्न करता है। क्या आपको नहीं लगता कि उपन्यास एक ‘ट्रैज़िक-कॉमिक विजन’ के साथ लिखा गया है?

मदन: एक बार फिर मैं आपके निष्कर्ष से सहमत हूँ लेकिन इस तक पहुँचने के लिए उपन्यास की जिस चीज़ का आप सहारा ले रहे हैं उस पर मेरी राय थोड़ी भिन्न है। निश्चय ही उसमें एक ‘ट्रैज़िक-कॉमिक विजन’ है। अस्तित्व अपनी वास्तविकता में ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ ही है। यह अपने आप में एक ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ सी ही स्थिति है कि वह एक दूसरे आदमी की छाया में और उसके नाम पर जीने को विवश है। इस तरह की स्थिति पर आपको हँसी ही आयेगी। पर यह ‘ट्रैज़िक’ भी है क्योंकि उस व्यक्ति के अन्तःकरण पर क्या गुज़र रही है, इसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन अगर हम इस ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ को उसके बयान के उन लक्षणों में पकड़ने की कोशिश करें जहाँ पर शब्दों, मुहावरों के साथ खिलवाड़ की गयी है, तो वहाँ मुझे उसमें गम्भीरता दिखायी नहीं देती। मुझे नहीं लगता कि वे इस ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ स्थिति को सही ढंग से प्रतिबिम्बित करते हैं। उपन्यास के गाम्भीर्य के साथ उनकी मैत्री बैठती नहीं दीखती। प्रसंगवश, ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ परिस्थितियों को ‘ट्रैज़िक-कॉमिक’ शैली में पकड़ने की कला अगर हिन्दी में कहीं दिखायी देती है तो वह कृष्ण बलदेव वैद के यहाँ दिखायी देती है। आप उनके ‘विजन’ या उन परिस्थितियों से, या उनसे व्यंजित होते अस्तित्वबोध से असहमत हो सकते हैं। लेकिन वे परिस्थितियाँ और उनको प्रगट करने वाला शिल्प अविभाज्य रूप से जुड़े होते हैं; वे एक दूसरे के सन्दर्भ में अपरिहार्य लगते हैं। पर इस उपन्यास में ये चीज़ें उसकी लय में अनावश्यक व्यवधान डालती हैं। यहाँ वह खिलवाड़ उस व्यक्ति के बयान का अंग होती हुई भी उसके उसके अस्तित्वपरक संकट के सन्दर्भ में हल्के-फुल्के ‘इण्टरल्यूड’ की तरह लगती है।

दीपेन्द्र: बाह्य विस्फोट (इक्स्प्लोज़ॅन) और आन्तरिक विस्फोट (इम्प्लोज़ॅन) की इस उपन्यास में समानान्तरता हमें साहित्य की अपनी प्रकृति की याद दिलाती है, जो दोनों को धारण करता है…

मदन: ठीक बात है। यहाँ बाह्य विस्फोट आन्तरिक विस्फोट को जन्म देता है। आप संसार की बनावट को देखें तो उसमें दोनों का यही शायद यही सम्बन्ध दिखायी दे। कम से कम एक दृष्टि तो ऐसा ही मानती लगती है कि बाह्य विस्फोट आन्तरिक विस्फोट की प्रतिध्वनि या प्रतिरूप या प्रतिक्रिया है। शुद्ध भौतिकवादी दृष्टि इसको उलट रूप में देखेगी। पर अगर दोनों में से किसी एक बात को मानने में हमें असन्तोष होता है, और यह असन्तोष हमेशा पैदा होता रहा है, तो मुझे ज़्यादा बेहतर यह लगता है, और साहित्य इसकी ताईद करता है, कि बाह्य विस्फोट आन्तरिक विस्फोट को जन्म देता है, वह उसका स्रोत है पर आन्तरिक विस्फोट बाह्य विस्फोट का रूपक, या प्रतिध्वनि, या अनुगूँज भी है। और ये दोनों चीज़ें एक साथ घटित होती हैं। और इनको एकसाथ घटित होने देने का अवकाश साहित्य में होता है।

दीपेन्द्र: आन्तरिक विस्फोटों की अदृश्यता और अश्रव्यता को शायद भाषा के माध्यम से ही बोधगम्य बनाया जा सकता है।

मदन: बिल्कुल। अगर वह विस्फोट चेतना में घटित हो रहा है, और उसके चिथड़े-चिथड़े उड़ रहे हैं, तो उससे बनने वाले निशानों को भाषा में ही पकड़ा जा सकता है। जबकि बाह्य विस्फोटों का हस्ताक्षर भिन्न भी हो सकता है, जैसा कि हम उसको इस उपन्यास के कैफे में देखते हैं। उपन्यास में ये दोनों ही चीज़ें हैं: उपन्यास शुरू होता है एक बाह्य विस्फोट के साथ, और ख़त्म होता है एक आन्तरिक विस्फोट के साथ। अगर इसको एकरैखिक ढंग से पढ़ेंगे तो आप पाएँगे कि उपन्यास की यात्रा बाह्य विस्फोट से आन्तरिक विस्फोट तक की है। लेकिन मैं समझता हूँ कि यह उपन्यास का, और सामान्य तौर पर साहित्य का, सम्यक पाठ नहीं होगा। इसकी बजाय मैं उसको एक वृत्ताकार संरचना की तरह पढ़ने का प्रस्ताव करूँगा, जैसा कि उपन्यास खुद ही आग्रह करता है। यह अकारण नहीं है कि जिस कैफे से उपन्यास की शुरूआत होती है, उसी कैफे में वह समाप्त होता है। यह कहना मुश्किल है कि कौन सा विस्फोट बाह्य है और कौन सा आन्तरिक। यह लड़का जिस अनुभव को जी रहा है वह एक तरह से अस्तित्व का आतंक ही तो है, जिसको जगाने, उकसाने का काम अस्तित्व को आतंकित करने वाली बम-विस्फोट की वह घटना करती है, लेकिन जब हम अस्तित्व के इसी आतंक को असह्य मान लेते हैं, और उसके प्रति असहिष्णुता की पराकाष्ठा पर जाकर प्रतिक्रिया करने लगते हैं, तो क्या यही आतंक उस बम का रूप नहीं ले लेता?

(समाप्‍त)

यह बातचीत प्रतिलिपि पर कुछ समय प्रकाशित हो चुकी है, इस लेख के अलावा अन्‍य महत्‍वपूर्ण चर्चाओं, विमर्शों के लिए इस पत्रिका को देखा जा सकता है। प्रतिलिपि पर जाने के लिए यहां क्लिक करें।

No comments:

Post a Comment