Wednesday, November 26, 2008

कक्षा के स्‍थाई भाव

हरेक इलाके के कुछ स्‍थाई भाव होते हैं जो माकूल समय पाकर प्रकट होते रहते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ इसी तरह के भाव हैं जैसे गुरु गोविंद ....। अब गुरु अंधकार से प्रकाश की ओर ले जा रहा है या प्रकाश पर परदा डाल रहा है इसका मूल्‍यांकन समय के साथ होता रहता है लेकिन वह सामने पड़ जाए तो पूर्वोक्‍त दोहा जरूर दुहराया जाता है। शिक्षक दिवस पर तो उसके बिना भाषण ही नहीं शुरू होता।
कुछ वर्ष पहले एक छात्र ने ऐसे ही एक दिवस पर गुरु और शिक्षक को अलगाकर देखने की बात कही थी। उसने बड़ी रोचक परिभाषा दी जीवन के दो स्‍तर हैं एक शरीर और दूसरा आत्‍मा... उसकी व्‍याख्‍या तनिक लंबी थी, निष्‍कर्ष यह था कि जो शरीर पालने की विद्या सिखाता है वह शिक्षक है और जो आत्मिक उन्‍नति अर्थात आध्‍यात्मिक विकास की राह दिखाता है वह गुरु है। अन्‍यार्थ न हो इसलिए उसने अंत में यह जरूर जोड़ दिया कि शरीर के बिना आत्‍मा की कल्‍पना नहीं की जा सकती इसलिए यह संसारी शिक्षक भी गुरु तुल्‍य है।
शिक्षक और गुरू अथवा शिक्षक या गुरू की इस तरह की कई सनातन छवियां हैं तो ताजा समय से बेमेल होने लगी हैं। एक धारणा यह भी है कि विद्या गुरू कि जबान पर होती है। यानी वह विद्याओं को इतना घोंट चुका होता है कि उन पर चर्चा करते वक्‍त किसी सहायक सामग्री की आवश्‍यकता नहीं पड़ती। बस आप विषय का नाम लीजिये और गुरुजी शुरू। हालांकि ऐसी महान विभूतियों का धरती पर अकाल नहीं पड़ा है लेकिन छात्रों से संवाद के तरीके और तकनीक में समय के साथ बदलाव भी आया है।
कक्षा का स्‍वरूप बदलने लगा है चॉक और बोर्ड की जगह ओवरहेड प्रोजेक्‍टर और अन्‍य कंप्‍यूटर सहायक संसाधनों का जमाना है ऐसे में गुरु की ईश्‍वरीय छवि संकट में आ गयी लगती है। क्‍योंकि वह इस नश्‍वर संसार से सहायक सामग्री का इस्‍तेमाल करने लगा है। इस दोष ने उसे ईश्‍वर की अपेक्षा अपने बीच का सामान्‍य आदमी बना दिया है। यह बात दीगर है कि आधुनिक शिक्षा शास्‍त्र उससे ऐसा ही होने की उम्‍मीद करता है ताकि छात्र उससे संवाद कर सकें। लेकिन उन स्‍थाई भावों और सनातन छवियों का क्‍या करें जो अपनी जमीन छोड़ने को ही तैयार नहीं हैं ...

Monday, November 17, 2008

बच्‍चों के बारे में

बच्‍चों के बारे में
बनाई गईं ढेर सारी योजनाएं
ढेर सारी कविताएं
लिखी गईं बच्‍चों के बारे में

बच्‍चों के लिए
खोले गए ढेर सारे स्‍कूल
ढेर सारी किताबें
बांटी गईं बच्‍चों के लिए

बच्‍चे बड़े हुए
जहां थे
वहां से उठ खड़े हुए

बच्‍चों में से कुछ बच्‍चे
हुए बनिया हाकिम
और दलाल
हुए मालामाल और खुशहाल

बाकी बच्‍चों ने सड़क पर कंकड़ कूटा
दुकानों में प्‍यालियां धोईं
साफ किया टट्टीघर
खाए तमाचे
बाज़ार में बिके कौडि़यों के मोल
गटर में गिर पड़े

बच्‍चों में से कुछ बच्‍चों ने
आगे चलकर
फिर बनाईं योजनाएं
बच्‍चों के बारे में
कविताएं लिखीं
स्‍कूल खोले
किताबें बांटीं
बच्‍चों के लिए
गोरख पांडेय
यह कविता हाल ही में बाल विज्ञान पत्रिका चकमक के नवंबर अंक के कवर पेज पर प्रकाशित हुई है।

Wednesday, November 5, 2008

यह पूरी तरह जंग है और दोनों ही पक्ष अपने-अपने हथियार चुन रहे हैं: अरुंधति रॉय

(अरुंधति रॉय से शोमा चौधरी की बातचीत)

आज पूरे देश में जो हिंसा का माहौल बना हुआ है; आप इन चीजों को कैसे देखती हैं? इनके क्या कारण हैं? इसे किस संदर्भ में देखा जाना चाहिए?
यह सब देख पाने के लिए विद्वान होना कोई जरूरी नहीं है। हमारे बीच एक ऐसा मध्यमवर्ग बढ़ रहा है, जिसमें स्वछंद-उपभोक्तावाद और बेतहाशा लालच पनप रहा है। इसके लिए औद्योगिक पश्चिमी देशों ने तो संसाधनों की लूट व 'श्रमिक-दासों' के लिए उपनिवेश कायम कर लिए थे। लेकिन हमने तो अपने भीतर ही उपनिवेश कायम कर लिए हैं और खुद को ही खाना शुरू कर दिया है। बाजारीकरण के लिए बढ़ाया गया यह बेतहाशा लालच, ( इसे ही राष्ट्रवाद के रूप में बेचा जा रहा है) लालच की प्यास गरीबों से उनकी जल-जंगल और जमीन को लूट करके ही बुझा सकते हैं।
आजाद भारत में जो सबसे सफल अलगाववादी आन्दोलन हम देख रहे हैं, वह यह है कि उच्च और मध्यम वर्ग ने अपने आपको पूरे देश से काट लिया है, यह संघर्ष लम्बवत है, क्षैतिज नहीं। वे वैश्विक प्रभु वर्ग में शामिल होकर एक अलग स्वर्ग बना लेना चाहते हैं, क्योंकि वे इसे अपना हक समझते हैं। उसने कोयला, खनिज, बाक्साइट, पानी और बिजली आदि सभी संसाधनों पर पहले ही कब्जा जमा लिया है। अब उन्हें और ज्यादा कारें, और ज्यादा बम, और ज्यादा खदानें- सुपरपावर्स के नागरिकों के लिए सुपरट्वायज (बम, मिसाइल आदि) बनाने के लिए गरीबों के जमीन की जरूरत है। यह पूरी तरह एक जंग ही है, जहाँ अमीर-गरीब दोनों तरफ के लोग अपने-अपने हथियार चुन रहे हैं। उच्च वर्ग की बेतहाशा लालच को पूरा करने के लिए ही सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां ढ़ांचागत समायोजन में जुटी हैं, इस व्यवस्था को विश्व बैंक, एफडीआई (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश), एडीबी (एशियन विकास बैंक), न्यायालय के आदेश, नीति-निर्माता, कार्पोरेट मीडिया और पुलिस आदि मिलकर सब के सब जनता की गर्दन दबा रहे हैं। इसके विपरीत, जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं; उन्होंने धरने, भूख हड़ताल और सत्याग्रह किये, न्यायालय गए और हर उस काम को किया, लेकिन राहत नहीं मिली, इसलिए अब वे हताश होकर बंदूक उठा रहे हैं।

क्या ये हिंसा बढ़ेगी?
अगर जनता की प्रगति और सम्पन्नता मापने का बैरोमीटर सेंसेक्स और विकास दर ही है, तो निश्चित रूप से हिंसा बढ़ेगी। मैं इस सबको किस रूप में देखती हूं? इन चीजों को देखना ज्यादा मुश्किल नहीं है, यह तो साफ-साफ दिखाई दे रहा है। बीमारी तो सिर चढ़ गयी है।

आपने एक बार कहा था कि चाहे मैं हिंसा का सहारा नहीं लूगीं लेकिन देश के हालात को देखकर उसकी निंदा करना मैं अनैतिक मानती हूं। क्या इसे आप तफसील से बता सकती हैं?
गुरिल्ला बनकर तो मैं बोझ बन जाउंगी! मुझे शक है कि मैंने 'अनैतिक' शब्द का प्रयोग किया होगा, 'नैतिकता' शब्द गिरगिट जैसा हो गया है, जो माहौल देखकर रंग बदल लेता है। मैं ऐसा महसूस करती हूं कि अहिंसक आंदोलन, दशकों से इस देश की हर लोकतांत्रिक संस्था का दरवाजा खटका रहे हैं, लेकिन वे उपेक्षित और अपमानित ही हुए हैं। भोपाल गैस पीड़ितों या नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) को ही देख लीजिए। नर्मदा बचाओ आंदोलन के पास किसी भी दूसरे जनांदोलनों के अपेक्षा एक रसूखदार नेतृत्व, मीडिया कवरेज और संसाधन थे। लेकिन हुआ क्या? आज लोग रणनीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य हो गये हैं। आज जब सोनिया गांधी दावोस के वर्ल्ड इकॉनामिक फ़ोरम का गुणगान कर रहीं हैं, तो हमारे लिए यह सोचने और चौंकने का समय है। उदाहरण के तौर पर क्या आज एक लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य में सविनय अवज्ञा करना संभव रह गया है? क्या यह ऐसे युग में संभव है, जबकि मीडिया बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित है और गलत सूचनाएँ जनता तक पहुँचा रहा है? क्या भूख हड़ताल और 'सेलिब्रेटी पोलिटिक्स' के बीच नाभिकीय रिश्‍ता हो गया है? अगर नांगला मांछी या भाटी माइन्स के लोग भूख हड़ताल करने लगें तो क्या कोई उनकी परवाह करेगा? इरोम शर्मिला पिछले छ: सालों से भूख हड़ताल पर है। यह हममें से कइयों के लिए सबक भी है। मैंने हमेशा यह महसूस किया है कि यह एक माखौल की बात है कि ऐसे देश में जहाँ अधिकांश लोग भूखे रहते हैं; वहाँ भूख हड़ताल को राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। अब जमाना बदल गया है, हमारे शत्रु का स्वरूप बदल गया है। हम एनजीओ के युग में प्रवेश कर चुके हैं या कहें कि हम 'पालतू शेर' के एक युग में प्रवेश कर चुके हैं, जहां जनांदोलन का रास्ता भी फिसलन भरा हो सकता है। पैसे देकर प्रदर्शन और प्रायोजित धरने कराए जाते हैं, सोशल फोरम बनाए जाते हैं, जो लड़ाकू प्रवृत्ति रखने की नाटकीय भूमिका अदा करते हैं, लेकिन वह जो उपदेश देते हैं, खुद उसका कभी पालन नहीं करते। हमारे पास भिन्न-भिन्न तरह के 'आभासी' विरोध होते हैं। सेज बनाने वाले ही सेज के खिलाफ़ बैठकों को प्रायोजित कर रहे हैं। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही पर्यावरण सुरक्षा और सामुदायिक कार्यों के लिए पुरस्कार और सहायता दे रही हैं। उड़ीसा के जंगलों में बाक्साइट का उत्खनन करने वाली कंपनी 'वेदांता' अब विश्वविद्यालय शुरू करना चाहती है। टाटा के दो चैरिटेबल ट्रस्ट हैं, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देश भर के जनांदोलनों और आंदोलनकारियों को पैसे दे रहे हैं, क्या यही कारण तो नहीं है कि सिंगूर की आलोचना नंदीग्राम से कम हो रही है (घ्‍यान देने की बात है कि यह साक्षात्‍कार सिंगूर प्रकरण से पहले का है)और शायद इसीलिए न तो उन्हें निशाना, न ही बहिष्कार व घेराव किया गया है।
निश्चित रूप से टाटा और बिड़ला ने गाँधी को भी पैसा दिया था- शायद वही (गांधी) हमारे पहले एनजीओ थे। लेकिन आज के एनजीओ तो बहुत शोर करते हैं, बहुत सी रिपोर्ट लिखते हैं, लेकिन सरकार को इनसे किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं है। पूरे राजनीतिक माहौल में भाड़े के लोग अपनी नौटंकी को ही असली राजनीति साबित करने में जुटे हैं। दिखावे का प्रतिरोध आज बोझ बन गया है।
एक समय था जब जनांदोलन न्याय के लिए न्यायालय की तरफ़ देखते थे, लेकिन अब तो न्यायालयों ने पक्षपातपूर्ण फैसलों की झड़ी लगा दी है, अनेकों ऐसे निर्णय दिए हैं, जो अन्यायपूर्ण हैं, जिनमें गरीबों की इतनी बेइज्जती की जा रही है और जो भाषा इस्तेमाल की गयी है, उससे तो हलक सूख जाता है। हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फ़ैसले में वसन्तकुंज मॉल के पुन:निर्माण की आज्ञा दी है, हालांकि इसके पास आवश्यक कानूनी मंजूरी भी नहीं है। इस फैसले में न्यायालय ने कहा कि किसी भी कारपोरेशन द्वारा गोरखधंधा करने का सवाल ही नहीं उठता है। (मॉल अब बन चुका है)
बहुराष्ट्रीय भूमंडलीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा भूमि हड़पने, एनरॉन और मोन्सेंटो, हेलीबर्टन और बैक्टेल के जमाने में यह बोलना देश की सबसे शक्तिशाली संस्थाओं के विचारधारा को उजागर कर देती है। कॉर्पोरेट प्रेस के साथ-साथ न्यायपालिका भी नवउदारवाद का हथियार बन गयी है। ऐसे माहौल में जबकि लोग खुद को इस अनवरत लोकतांत्रिक प्रक्रिया से थका हुआ महसूस कर रहे हैं, उन्हें केवल जलील किया जाता है, ऐसे में उनको क्या करना चाहिए? ऐसा नहीं है कि उनके पास हिंसा या अहिंसा का ही रास्ता बचा है। ऐसे राजनैतिक दल भी हैं, जो सशस्त्र संघर्ष में विश्वास तो करते हैं, लेकिन यह उनकी पूरी स्ट्रैटेजी का केवल एक हिस्सा है; इन संघर्षों में राजनैतिक कार्यकर्ताओं को बेरहमी से मारा-पीटा गया है और झूठे आरोप भी लगाए भी गये हैं, गिरफ्तार भी किया गया है। जनता इस बात को अच्छी तरह समझती है कि हथियार उठाने का मतलब क्या है; हिन्दुस्तान के राजकीय हिंसा के हजारों रूपों को अपने ही झेलना। छापामार सशस्त्र संघर्ष अगर रणनीति बन जाए तो आपकी दुनिया सिमट जाती है और सिर्फ दो ही रंग- स्वेत या श्याम दिखाई पड़ते हैं। लेकिन सभी विकल्प खत्म हो जाने पर हारकर जनता हथियार उठाने का निर्णय लेती है तब क्या हमें उसकी निंदा करनी चाहिए? क्या कोई विश्वास करेगा कि अगर नंदीग्राम के लोग धरना देते या गाना गाते तो पश्चिम बंगाल सरकार अपना निर्णय वापस ले लेती?
हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां निष्क्रिय रहने का मतलब निरंकुशता का समर्थन करना है (जो निश्चित रूप से हममें से कुछ लोगों को भाता भी है) और सक्रिय होने का मतलब भयानक कीमत चुकाना है और जो लोग इस कीमत को चुकाने के लिए तैयार हैं, उनकी आलोचना करना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है।

आपने बहुत सारी यात्राएं की हैं-बहुत सारे संघर्षों को भी देखा है, क्या उनके बारे में कुछ बता सकती हैं? आप कौन से ऐसे स्थानों पर गई हैं? क्या इन स्थानों के कुछ संघर्षों के मुद्दों पर आप रोशनी डाल सकती हैं?
बहुत बड़ा प्रश्न है- क्या कहूँ? कश्मीर में सैनिक कब्जा, गुजरात में नव फ़ांसीवाद, छत्तीसगढ़ में गृह-युध्द, उड़ीसा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा लूट, नर्मदा घाटी में सैकड़ों गांवों का डूबना, भुखमरी के कगार पर खड़े लोग, जंगलों का उजाड़ा जाना और भोपाल गैस त्रासदी के 24 वर्ष के आंदोलन से पीड़ितों को कुछ नहीं मिलने के बावजूद पश्चिम बंगाल सरकार नंदीग्राम में यूनियन कार्बाइड (जिसे अब 'डॉव केमिकल्स' ने खरीद लिया है।) को दोबारा निमंत्रण दे रही है। मैं अभी हाल में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र तो नहीं गई हूं, लेकिन हम जानते हैं कि वहां लगभग एक लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। आंध्र प्रदेश में हुईं झूठी गिरफ्तारियों और भयानक दमन के बारे में हम जानते ही हैं। इनमें से हर स्थान का अपना विशिष्ट इतिहास, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण है। इनका विश्लेषण करना आसान नहीं है, फिर भी इन सबमें कुछ चीजें जैसे विशाल अंतरराष्ट्रीयता, सांस्कृतिक और आर्थिक दबाव के कारण एक जुड़ाव है। हिन्दुत्व प्रोजेक्ट की भी मैं बात करना चाहूंगी, जो हमारी नसों में अपना जहर फैला रहा है और एक बार फ़िर फटने का इंतजार कर रहा है। मैं कहूंगी कि इस सबके बाद भी विडम्बना तो यह है कि हम अब भी एक देश, एक संस्कृति और एक समाज हैं, जहाँ आज भी छुआछूत की प्रथा का प्रचलन है। जहां हमारे अर्थशास्त्री वृध्दि दर को लेकर डींग हांकते हैं, जबकि देश में अभी भी पेट पालने के लिए लाखों दलित प्रतिदिन दूसरे लोगों के मनों मैला अपने सिर पर ढोते हैं। दुनिया में कोई और ऐसा सुपरपावर है क्या?

हाल ही में बंगाल में हुई राज्य और पुलिस द्वारा हिंसा को कैसे देखा जा सकता है?
यह मामला किसी अन्य दूसरे राज्यों में हुई राज्य और पुलिस द्वारा हिंसा से अलग नहीं है- इसमें पाखंड और दोमुहें व्याख्यानों का मामला भी शामिल है, जिसमें मुख्यधारा के वामपंथी दल सहित अन्य सभी राजनैतिक पार्टियों की वाकपटुता शामिल है। क्या साम्यवादियों की गोलियां पूंजीवादियों से अलग हैं? अजीब- अजीब घटनाएं हो रही हैं। सउदी अरब में बर्फ़ पड़ रही है, तो कहीं दिन में उल्लू दिखाई दे रहे हैं। चीन सरकार निजी संपत्ति के अधिकार विधेयक को पारित करने के लिए बैठक कर रही है। मुझे नहीं पता कि क्या यह सब वातावरण परिवर्तन की वजह से हो रहा है! चीन के साम्यवादी इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े पूँजीवादी बन रहे हैं। तो फ़िर हम अपने संसदीय वामपंथियों से अलग उम्मीद क्यों करें? नंदीग्राम और सिंगूर इस बात के स्पष्ट संकेत हैं।
यह सोचने की बात है कि क्या हर क्रांति का अंत आधुनिक-पूँजीवाद होता है? जरा सोचिए, आपको आश्चर्य होगा-फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति, चीनी क्रान्ति, वियतनाम युध्द, रंगभेद विरोधी संघर्ष और भारत में स्वतंत्रता के लिए कथित गाँधीवादी संघर्ष! इन सबका अंजाम क्या हुआ? क्या यह कल्पना का अंत है?

बीजापुर में माओवादी हमला- जिसमें पचपन पुलिस कर्मियों की मौत हुई थी। क्या यह विद्रोह राजकीय हिंसा का ही दूसरा चेहरा तो नहीं है?
कैसे यह कहा जा सकता है कि यह हमला राजकीय हिंसा का दूसरा चेहरा है? क्या कोई यह कहेगा कि जो लोग रंगभेद के खिलाफ़ लड़े, चाहे उनके तरीके कैसे भी रहे हों, वह भी राजकीय हिंसा का दूसरा रूप था? जो अल्जीरिया में फ्रांसीसियों से लड़े उनके बारे में आप क्या कहेंगे? या जो नाजियों से लड़े, जो उपनिवेशवादी ताकतों से लड़े, या वे जो इराक में अमेरिकी कब्जे के खिलाफ़ लड़ रहे हैं, क्या यह सब भी राजकीय हिंसा का दूसरा रूप है? इससे आधुनिक मानव अधिकार वाली रिपोर्ट की भाषा का प्रयोग कर हम राजनीतिक बन जाते हैं, जिससे असली राजनीति बह जाती है। जितना भी हम धर्मात्मा बनने की कोशिश करें, जितना भी हम अपनी जटा में भभूत लगाएं, हमारे पास कोई विकल्प नहीं रह गया है। लेकिन दु:खद तो यह है कि हम हिंसा के माहौल में खुद को साफ-सुथरा नहीं रख सकते, हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है। छत्तीसगढ़ में गृहयुध्द चल रहा है, जिसे राज्य सरकार चला रही है और सार्वजनिक रूप से बुश सिध्दांत का पालन कर रही है- 'अगर तुम हमारे साथ नहीं हो तो तुम आतंकवादियों के साथ हो।' इस जंग में औपचारिक सुरक्षा बलों के साथ-साथ सलवा-जुडूम भी एक प्रमुख हथियार है, जो नागरिक सेना का सरकारी समर्थन प्राप्त सशस्त्र सैनिक है, जो 'स्पेशल पुलिस आफ़िसर' (एसपीओ) बनने को मजबूर हो गया है। सरकारों ने कश्मीर, मणिपुर, नागालैंड में भी यही कोशिश की है। हजारों लोग मारे गए हैं। लाखों लोगों को सताया गया है, हजारों लोग लापता हो गए हैं। कोई 'बनाना रिपब्लिक' ही ऐसी चीजों पर गर्व कर सकती हैं....... और अब सरकार इन नकारा तरीकों को हर जगह पर लागू करना चाहती है। हजारों आदिवासी अपनी खनिज प्रधान जमीनों को पुलिस छावनी में बदलने पर मजबूर हो गए हैं। सैकड़ों गाँवों को जबरदस्ती खाली करा दिया गया है। जिन जमीनों में लौह-अयस्क बहुतायत में है, वहां टाटा और एस्सार जैसी कंपनियों की गिध्द-दृष्टि लगी हुई है। जमीन देने के समझौता-पत्रों (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए गए हैं लेकिन कोई नहीं जानता कि उनमें क्या कहा गया है, पर भूमि अधिग्रहण शुरू हो गया है। इसी तरह की घटनाएं दुनिया के सबसे ज्यादा उजड़े हुए देशों में से एक कोलंबिया में हो रही हैं, जब सबकी आखें सरकारी समर्थन प्राप्त नागरिक सैनिकों और गुरिल्ला सैनिकों के बीच बढ़ती हुई हिंसा पर लगी है, तो ऐसे समय में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां चुपचाप खनिज सम्पदा लूटने में लगी हुई हैं। रंगमंच की ऐसी ही छोटी सी 'स्क्रिप्ट' छत्तीसगढ़ में लिखी जा रही है।
वास्तव में यह दुख की बात है कि 55 पुलिसकर्मी मारे गए; लेकिन वे भी दूसरों की तरह सरकारी नीति के ही शिकार हैं। सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए तो मात्र वे एक तोप के गोले के तरह हैं- पुलिसकर्मी तो सत्ता के हथियार मात्र हैं, कुछ मर गये तो सरकारे और भर्ती कर लेंगी। ऐसी मौतों पर मगरमच्छ के ऑंसू बहाए जाएंगे, कुछ समय के लिए टीवी एंकर हमें भी फड़फड़ा देते हैं। होगा क्या? और पुलिसकर्मी आ जाएंगे। जहां तक माओवादियों की बात है- तो उन्होंने जिन पुलिस और 'पुलिस के विशेष अधिकारियों' (एसपीओ) व सरकारी अधिकारियों को मारा; वे सब दमन, यातनाओं, हत्याओं और झूठे मुठभेड़ों के आरोपी थे; गांवों को जलाना और स्त्रियों के साथ बलात्कार करना उनके व्यवसायिक कर्तव्यों में था। चाहे कितना ही दूर तक सोच लीजिए- अगर वे वास्तव में ऐसे हैं- तो वे निर्दोष नागरिक नहीं हैं।
मुझे इनमें कोई संदेह नहीं कि माओवादी आतंक और दमन के एजेंट हैं। मुझे इसमें भी कोई शक नहीं कि उन्होंने भी बेरहमी की होंगी। बेशक वे इस बात का भी दावा नहीं कर सकते कि स्थानीय लोग बिना किसी प्रतिरोध के उनका समर्थन कर रहे हैं- लेकिन यह दावा कौन कर सकता है? फ़िर भी कोई गुरिल्ला सेना बिना स्थानीय समर्थन के टिक भी तो नहीं सकती। यह तार्किक रूप से भी असम्भव है और माओवादियों का समर्थन कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ रहा है। जनता के पास कोई विकल्प नहीं है सिवाय इसके कि वह जिसको कम बुरा समझती है, उसकी ओर हो जाती है। पर यह कहना कि नाइंसाफी के खिलाफ जो लड़ रहे हैं और जो नाइंसाफी सरकार कर रही है दोनों एक जैसे हैं, अजीब सी बात है। सरकार ने अहिंसक प्रतिरोध के लिए सभी दरवाजे बंद कर लिये हैं। इस पर जब लोग हथियार उठाते हैं, तो हर प्रकार की हिंसा होने लगती है- क्रांतिकारी, लम्पट और पूरी तरह अपराधी। इससे उत्पन्न हुई भयानक परिस्थितियों के लिए सरकार खुद उत्तरदायी है।

'नक्सली', 'माओवादी' और 'बाहरी लोग' इस तरह के शब्द आजकल बहुत ज्यादा इस्तेमाल किए जा रहे हैं। क्या आप इन्हें परिभाषित कर सकती हैं?
'बाहरी ताकतें' इस तरह का दोषारोपण दमन की प्रारंभिक अवस्था में किसी भी सरकार द्वारा किया जाना स्वाभाविक है। किसी भी घटना के लिए सरकारें सहजता से सारा दोष बाहरी ताकतों के सिर मढ़ देती हैं और अपने ही प्रचार पर विश्वास करने लगती हैं और सरकारें शायद इस बात का अनुमान भी नहीं लगा पातीं कि जनता उसके विरोध में खड़ी हो गई है। यही सब बंगाल में माकपा कर रही है। हालांकि कुछ लोग कहेंगे कि बंगाल में यह दमन नया नहीं है। बस अब केवल बढ़ गया है- फिर भी ये 'बाहरी ताकतें' कौन हैं? सीमाओं का निर्धारण कौन करता है? क्या वे गाँव की सीमाएं हैं? तहसील? ब्लाक? जिला या राज्य की सीमाएं हैं? क्या संकीर्ण क्षेत्रीय और धार्मिक राजनीति साम्यवादियों का नया मंत्र है? रही नक्सली और माओवादियों की बात- भारत पुलिस राज्य बनता जा रहा है, जिसमें जो भी व्यवस्था का समर्थन नहीं करेगा, उसे आतंकवादी करार दिए जाने का खतरा उठाना पड़ेगा। मुस्लिम आतंकवादी को मुस्लिम होना जरूरी है- आदि जैसे वर्गीकरण से बचने के लिए उन्हें एक ऐसा नाम चाहिए था, जो सभी को परिभाषित कर दे। इसलिए परिभाषाओं को छोड़ दें, बिना परिभाषा के ही ठीक हैं। क्योंकि वह समय दूर नहीं जब हम सभी को माओवादी या नक्सलवादी, आतंकवादी या आतंकवादियों का समर्थक कहा जाएगा और फिर जेलों में बंद कर दिया जाएगा, उन लोगों के द्वारा जो वास्तव में या तो जानते नहीं हैं या इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि माओवादी या नक्सली कौन हैं। गांवों में यह कार्यक्रम शुरु हो गया है और हजारों लोगों को जेलों में डाला जा रहा है। उन्हें राज्य को समाप्त करने की कोशिश करने वाले आतंकवादी करार दिया गया है। असली नक्सली और माओवादी कौन हैं? मैं इस विषय की विशेषज्ञ तो नहीं हूँ, लेकिन इनका एक मौलिक इतिहास है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में हुआ था और 1964 में इसका विभाजन हुआ और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी -माकपा इससे अलग हो गई और एक अलग पार्टी बना ली। दोनों ही संसदीय राजनैतिक दल थे। 1967 में माकपा ने कांग्रेस से अलग हुए एक ग्रुप के साथ पश्चिम बंगाल में सत्ता हासिल की। उस समय देहात के भूखों मर रहे किसानों में काफ़ी रोष था। माकपा के स्थानीय नेता कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने नक्सलबाड़ी जिले में किसानों को संगठित किया और यहीं से नक्सली शब्द की शुरूआत हुई। 1969 में सरकार गिर गई और सिध्दार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस के हाथ में पुन: सत्ता आ गई। नक्सलियों को निर्दयता से कुचला गया। इस समय के बारे में महाश्वेता देवी ने लिखा भी है। 1969 में माकपा से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (लेनिनवादी-माक्र्सवादी)-'सीपीआई (एमएल)' अलग हो गए। कुछ सालों के बाद 1971 के आसपास सीपीआई(एमएल) कुछ दलों में बँट गई। जैसे बिहार में सीपीआई-एमएल(लिबरेशन), सीपीआई- एमएल(न्यू डिमोक्रसी) जो आंध्र प्रदेश और बिहार के कई हिस्सों में काम कर रही है और सीपीआई-एमएल (वर्गसंघर्ष) जो मुख्य रूप से बंगाल में सक्रिय है। इन दलों को ही नक्सली कहा जाता है। वे अपने को माओवादी नहीं, बल्कि लेनिनवादी मार्क्‍सवादी के रूप में देखते हैं। वे चुनावों, जनकार्यवाही और हमला होने की स्थिति में सशस्त्र संघर्ष में भी विश्वास करते हैं। बिहार में कार्यरत एमसीसी(माओईस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) का गठन 1968 में हुआ था। आंध्र प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में क्रियाशील पीडब्लूजी(पीपुल्स वार ग्रुप) 1980 में बनी थी और एमसीसी और पीडब्लूजी ने 2004 में ही मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(माओवादी) का गठन किया है। वे राज्य को समाप्त करने और पूर्ण युध्द में विश्वास करते हैं। वे चुनाव में भाग नहीं लेते। यही वह दल हैं, जो बिहार, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में गुरिल्ला युध्द कर रहे हैं।

भारत सरकार और मीडिया माओवादियों को 'आंतरिक सुरक्षा' के लिए बड़े खतरे के रूप में देखते हैं। क्या उन्हें इसी रूप में देखा जाना चाहिए?
मुझे यकीन है कि माओवादी इस परिभाषा से काफी खुश होंगे।

माओवादी व्यवस्था बदलने के मकसद से लड़ रहे हैं। वे माओ की तानाशाही विचारधारा से प्रेरणा लेते हैं। वे क्या विकल्प तय करेंगे? क्या उनके शासन में शोषणकारी निरंकुश हिंसा नहीं होगी? क्या वे पहले से ही आम आदमी का शोषण नहीं कर रहे हैं? क्या वास्तव में उन्हें आम आदमी का समर्थन मिल रहा है?
मुझे लगता है कि हमारे लिए यह बताना जरूरी है कि माओ और स्टालिन दोनों ही हत्याओं के इतिहास के साथ संदिग्ध हीरो हैं। उनके शासन में करोड़ों लोग मारे गए थे। चीन और सोवियत संघ में जो कुछ हुआ, उसके अलावा पोलपोट ने चीनी साम्यवादी दल के समर्थन से कम्बोडिया में दो लाख लोगों को खत्म कर दिया था (इस दौरान पश्चिमी देशों ने जानबूझकर चुप्पी साध रखी थी) और लाखों लोगों को बीमारी और भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था। क्या हम चीन में हुई सांस्कृतिक क्रान्ति की हिंसा से मुंह मोड़ सकते हैं? या इस बात को नकार सकते हैं कि सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में लाखों लोग लेबर कैंपों और टार्चर-चैम्बरों, जासूसों और गुप्तचरों व पुलिस के शिकार नहीं हुए थे? इनका इतिहास भी पश्चिमी साम्राज्यवाद के इतिहास की तरह अंधकारमय ही है। बस केवल इतना फर्क है कि इसका जीवनकाल बहुत छोटा था। अगर हम तिब्बत और चेचन्या के मुद्दे पर मौन रहते हैं तो हम इराक, फिलीस्तीन और कश्मीर में हो रही कार्यवाहियों की आलोचना भी नहीं कर सकते। मैं यह उम्मीद करूंगी कि माओवादी, नक्सली और मुख्य वामपंथी अपने इतिहास से सीख लेते हुए अपने इतिहास को दोबारा नहीं दोहराएंगे और भविष्य में जन-विश्वास को कायम रखेंगे। क्योंकि लोग यही उम्मीद करते हैं कि इतिहास दोहराया नहीं जाएगा। लेकिन वे इससे पलटते हैं तो जनता का विश्वास नहीं जीत सकते............फिर भी नेपाल के माओवादियों ने नेपाल के राजतंत्र के खिलाफ़ बहादुरी और सफ़लतापूर्वक संघर्ष किया है और अब भारत में भी माओवादी और विभिन्न लेनिनवादी-माक्र्सवादी दल अन्याय के खिलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं। वे न केवल राज्य बल्कि सामंती जमींदारों और उनके सशस्त्र सैनिकों के खिलाफ़ भी संघर्ष कर रहे हैं। लड़ने वालों में वे आज अकेले ही हैं और इसके लिए मैं उनकी प्रशंसा करती हूँ। ऐसा हो सकता है, जैसा आपने कहा कि जब उनके हाथ में सत्ता आए तो वे क्रूर, अन्यायी और निरंकुश और शायद वर्तमान सरकार से भी बुरे साबित हों। हो सकता है, लेकिन मैं इस सब के बारे में पूर्वधारणा बनाने के लिए तैयार नहीं हूं। अगर वे ऐसे बनते हैं तो हमें उनके खिलाफ़ भी लड़ना होगा और उसके लिए पहला व्यक्ति कोई मेरे जैसा ही होगा। लेकिन अभी तो यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे प्रतिरोध के मोर्चे पर सबसे आगे खड़े हैं। हममें से कई लोग, उन लोगों के साथ हो लेते हैं, जहां हमें पता है कि यहाँ धार्मिक या वैचारिक रूप से हमारी कोई जगह नहीं है। यह सच है कि सत्ता मिलते ही प्रत्येक स्वाभाविक रूप से बदल जाता है। मंडेला के अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस को ही देख लीजिए- भ्रष्ट, पूंजीवादी, आईएमएफ के आगे सिर झुकाने वाली, गरीबों को उनके घर से बेघर करने वाली, लाखों इन्डोनेशियाई साम्यवादियों की हत्या करने वाले सुहार्तो का सम्मान करने वाली (जिसे दक्षिण अफ्रीका के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से नवाजा गया था)। किसने सोचा था कि ऐसा होगा, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि दक्षिण अफ्रीक़ा को रंगभेद के खिलाफ़ संघर्ष को रोक देना चाहिए था? या फिर इसके लिए उन्हें अब पछताना चाहिए? क्या इसका मतलब यह है कि अल्जीरिया को फ्रांसीसी उपनिवेश में बने रहना चाहिए? क्या कश्मीरियों, फिलिस्तीनियों और इराकियों को सैनिक कब्जा को स्वीकार कर लेना चाहिए? जिन लोगों की गरिमा को चोट पहुंची है, क्या उन्हें लड़ाई छोड़ देनी चाहिए? इसलिए कि उन्हें जंग में नेतृत्व करने वाला कोई संत-महात्मा नहीं मिला।

क्या हमारे समाज में आपसी संवाद की भाषा खत्म हो गयी है?
बिल्कुल।
यह साक्षात्‍कार पीपुल्‍स न्‍यूज नेटवर्क पर प्रकाशित हो चुका है।

Sunday, July 27, 2008

जो सोचते हैं कम्‍युनिस्‍ट होते हैं : अरूंधती राय

अरूंधती से मनीष कुमार की यह बातचीत  प्रभात खबर में 24 जून 2007 को प्रकाशति हुई थी।  इस बातचीत में जो सवाल आए हैं उनकी त्‍वरा अभी भी कम नहीं हुई है वे उतने ही समीचीन हैं।  बल्कि उनकी चुनौतियां दिन ब दिन बढ़ती जा रही हैं। पीपुल्‍स न्‍यूज नेटवर्क की साइट पर हाल ही में मैंने यह बातचीत पढ़ी। 

भारतीय समाज को आप किस नजरिये से देखती हैं?
किसी भी समाज के बारे में दो वाक्यों में नहीं बताया जा सकता है. एक लेखक समाज के बारे में बताने में पूरी जिंदगी गुजार देता है. लेकिन मुझे लगता है कि दक्षिण अफ्रीका में जिस प्रकार का रंगभेद होता था, ऐसा ही भारत में भी है. वहां आप काले-गोरे के भेद को खुलेआम देख सकते थे, लेकिन यहां पहचान करने में थोड़ी मुश्किल है. यह भी रंगभेद का ही एक प्रकार है.

आप कई बार समाज के सर्वहारा वर्ग के पक्ष में खड़ी नजर आयीं. इसके पीछे क्या कारण रहा?
मेरे ख्याल में दो किस्म के लोग होते हैं. एक, जिनका शक्तिशाली लोगों के साथ नेचुरल एलाइनमेंट रहता है, दूसरे वे लोग हैं जिनके पास कुछ नहीं है. जनता के पास शक्ति तो काफी है, लेकिन देश में जो कुछ हो रहा है, उसे किस प्रकार से ठीक किया जाये, उसका सही तरीका समझ में नहीं आ रहा है. अगर कोई प्रधानमंत्री भी बन जाये, तो वह सबकुछ सुधार नहीं सकता. मुझे नहीं लगता है कि ऊपर से कोई सुधार हो सकता है, सुधार निचले स्तर से ही संभव है.

अभी देश की विकास दर 10 फीसदी के पास है, सरकारी आंकड़ों में 26 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, हर साल अरबपति लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है, सेंसेक्स डेली रिकॉर्ड ऊंचाई छू रहा है, विदेशी पूंजी का प्रवाह बना हुआ है. इस पूरे ताने-बाने को आप किस रूप में देखती हैं?
ये जो हो रहा है, वह ठीक नहीं है. यह सिर्फ उनको अच्छा लग रहा होगा, जो निजी कंपनियों के सीइओ होंगे, जिनका स्टॉक एक्सचेंज काफी बढ़ रहा है. इसको कैसे रोका जाये इस सवाल का जबाव ढूंढना होगा. मुझे लगता है कि गांधीवादी माहौल का जो रेसिस्टेंस है वो अब नहीं चलता. इसमें पूरी तरह एनजीओ आ गये हैं, लोगों को बांट देते या खरीद लेते हैं. इस माहौल को बदलने का हल क्या है? हल है भी या नहीं, ये भी हमें पता नहीं? मुझे लगता है कि अगर कोई रैडिकल रिवोल्यूशनरी सोल्यूशन नहीं होता है तो फिर कुछ वर्षों में पूरे देश में अपराध बढ़ जायेगा.
सरकार की नीतियां समाधान के बदले किस तरह जनता के हितों के विरुद्ध जा रही है?
आज आप कुछ भी करो सरकार, पुलिस और आर्मी कुचल देती है. पहले तो इसलामिक टेररिज्म का नाम लिया जाता था, लेकिन अब उन्हें लगता है कि इसलामिक टेररिज्म में सब नहीं आते इसमें सिर्फ मुसलमान ही आते हैं, तो बाकियों को कैसे बंद किया जाये. अब जो इस्लामिक टेररिज्म के श्रेणी में नहीं आते हैं उसे माओवादी टेररिस्ट बना दिया गया है. इस तरह राज्य के लिए आतंकवाद का जो पुल है वह बढ़ रहा है. अभी जो कुछ छत्तीसगढ़ में हो रहा है यही चीज कोलंबिया जैसे देश में हुआ था. वहां पर सरकार ने खुद एक पिपुल मिलिशिया खड़ी कर दी और विद्रोहियों के साथ उनका सिविल वार जैसी स्थिति बन गयी, जब सभी लोग छद्म युद्ध देख रहे थे, तो एक बड़ी कंपनी वहां जाकर खनिज की खुदाई की, यही छत्तीसगढ़ में हो रहा है. लोगों को नचाने में ये लोग काफी उस्ताद हैं. इन दिनों एक बात पर काफी चर्चा हो रही है कि सीइओ को 25 करोड़ की सैलरी मिलनी चाहिए या नहीं. इसमें कहा गया कि अगर उनका वेतन कम होगा तो रिफॉर्म की प्रक्रिया बंद हो जायेगी. अब आप बताइये इन दिनों किसी कंपनी के सीइओ के पद पर किस तबके लोग बैठते हैं.

पिछले डेढ़-दो दशक में हमारे देश में उपभोक्तावादी संस्कृति काफी हावी होती जा रही है.आपकी नजर में समाज पर इसका क्या असर हो रहा है?
कुछ दिनों पहले अखबार में एक बड़ा विज्ञापन शॉपिंग रिवोल्यूशन के संबंध में आया था. मुझे लगता है कि भारत में उदारीकरण की जो नीति आयी है इसने मध्य वर्ग को फैलाया है. इससे आज हमारे देश में अमीरी-गरीबी की खाईं बढ़ती जा रही है, अमीर और धनी होते जा रहे हैं, गरीब पिछड़ते जा रहे हैं. उदाहरण के लिए सौ लोगों को रोटी, कपड़ा, पानी और यातायात की सुविधा मिलती है लेकिन अधिकतर लोग इससे वंचित रह जाते हैं. लेकिन यदि आप कोई नयी आर्थिक नीति लाते हैं, जिसके तहत 25 लोगों को बहुत अमीर बनाते हैं और बाकी 75 लोगों से सभी कुछ छीन लेते हैं तो इसका दीर्घकालीन प्रभाव समझा जा सकता है. अभी भारत का बाजार इस प्रकार से बनाया जा रहा है कि ज्यादातर लोगों से काफी कुछ छीन कर कुछ लोगों को दे दिया जाये. अब यह समझना होगा कि ये लोग उपभोक्ता की वस्तु कहां से ला रहे हैं. यदि आप भारत का नक्शा देखें, तो पता चलता है कि जहां पर जंगल है उसके नीचे खनिज- संपदा है. अब आपके पास चुनने का विकल्प है. जंगल को काट कर निकाल दें और इससे बहुत पैसा भी मिलेगा पर इससे 50 वर्षों में सारा देश सूख जायेगा. हमारे देश के प्रधानमंत्री हों या मोंटेक सिंह अहलूवालिया या पी चिंदबरम इनके पास कोई कारगर नीति नहीं है सिर्फ आंकड़े दिखाते हैं. इससे ज्यादा खतरनाक क्या हो सकता है कि बगैर किसी ऐतिहासिक साहित्यिक या सामाजिक नजरिये से देखने के बजाय आप आंकड़ों के आधार पर आगे बढ़ रहे हैं.

एक तरफ अमेरिकी नीति मानवता के इतनी खिलाफ लगती है, लेकिन दूसरी ओर हर कोई अमेरिका जाने का मौका छोड़ना नहीं चाहता है. ऐसा क्यों?
अमेरिका के लिए मुझे कोई चाह नहीं है, मैं सच कहूं तो मुझे घसीट कर भी ले जाओ तो मैं वापस चली आऊंगी. इतना मशीनी बन कर मैं रहने का सोच भी नहीं सकती हूं. लेकिन अगर आप किसी गांव के दलित हों, आप वहां पानी नहीं पी सकते, किसी के सामने नहीं जा सकते और फिर आपको अमेरिका जाने का मौका मिले तो क्यों नहीं जायेंगे? अमेरिका ज्यादातर नेताओं और अधिकारियों के बच्चे ही जाते हैं. लेकिन इतना सत्य है कि यह खतरनाक प्रवृत्ति है.

किस प्रकार से आप खतरनाक मानती हैं?
खतरनाक है, अगर आप 16 या 18 वर्ष के बच्चे को अमेरिका भेज दो तो उसका पूरा दिमाग या उनके सोचने का तरीका बदल जाता है. वो भी किसी जेल में नहीं, बल्कि विश्वविद्यालयों में. वहां उनका पूरा ब्रेन वॉश हो जाता है. यह अमेरिकी नीति है कि नौजवानों को पहले अपने यहां प्रशिक्षण दो और फिर उन्हीं का इस्तेमाल अपने हितों के लिए करो, जैसा कि 1973 में चिली में जो कू हुआ था आइएमए के खिलाफ. इससे पहले अमेरिका ने वहां के नौजवानों को शिकागो स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में भर्ती किया, स्कॉलरशिप देकर इनके दिमाग में न्यू कंजरवेटिव फ्री मार्केट आइडियोलॉजी डाल दी गयी और फिर इन लोगों ने चिली का जिस तरह से दोहन किया वह सभी को पता है. हमारे भारत में भी मुख्यत: इलीट वर्ग के बच्चे अमेरिका जाते हैं, जिनके बाप-दादा यहां मंत्री, ब्यूरोक्रेट या बड़े बिजनेसमैन हैं. इस तरह से यह पूरा चक्र घूमता है.

भारतीय लेखन का मौजूदा दौर आपको कैसा लगता है?
ये भारतीय लेखन क्या है? मैं इसे नहीं मानती हूं. क्या जो अंगरेजी में लिखते हैं वे अलग हैं? हिंदी या भोजपुरी में लिखनेवालों में ऐसा नहीं है. अंगरेज़ी के भारतीय लेखक, कहानी को घुमा-फिरा कर पाठक को संदेह में डाल देते हैं. भारतीय भाषाई लेखन का क्या भविष्य देखती हैं? भारतीय भाषाई लेखन का भविष्य, क्षेत्र पर निर्भर करता है लेकिन मुझे लगता है कि भाषाई लेखन का माहौल पूरी तरह से अलग हो रहा है. इलीट वर्ग समाज से पूरी तरह अलग हो गया है. निम्न तबका उनके पास पहुंच नहीं पाता, ऐसे में दोनों के बीच संवादहीनता का माहौल पैदा हो गया है. दोनों के पास कोई भाषा ही नहीं बची है और जब आपको लिखना होगा तो दोनों को समझने की आवश्यकता होगी. इस तरह की परिस्थिति में आप कैसे भाषाई लेखन का भविष्य देख सकते हैं.

ऐसा देखने में आता है कि इलीट वर्ग के बच्चे समज से पूरी तरह कट से गये हैं. इसके पीछे प्रमुख वजह क्या है?
आपने सही कहा कि आज के धनी वर्ग के बच्चे पूरी तरह से समाज से कटे हुए हैं. कुछ दिनों पहले इसी वर्ग में से आनेवाली एक लड़की ने कहा कि अरुंधति तुम्हारी किताब द अलजेब्रा ऑफ इनफिनिट जस्टिस मैंने अपने भाई को पढ़ने को दिया तो उसने काफी आश्चर्य से आदिवासियों के बारे में बोला भारत में इस प्रकार के प्राणी भी रहते हैं. ऐसा नहीं है कि ये बच्चे खराब हैं या दिल से बुरे हैं. लेकिन समाज से कट से गये हैं. इसके पीछे मुझे कारण लगता है कि इनदिनों इस प्रकार की दुनिया बन रही है जिसमें गाड़ी, अखबार, कॉलेज, अस्पताल, शिक्षा आदि सभी कुछ इस वर्ग के लिए अलग है. जबकि पहले ऐसी बात नहीं थी. आज जो समाज में खाई बनी हुई है, यह किसी भी तरह से लाभकारी नहीं हो सकता. इसी वजह से ये इलीट वर्ग आज सिर्फ छीननेवाले बन गये हैं, इनसे आप किसी भी तरह की उम्मीद नहीं कर सकते हैं.

आप अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में जाकर वहां के सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखती हैं. इस तरह से लिखने का साहस आप कैसे दिखा पायीं?
जब 11 सितंबरवाली घटना हुई तो मैंने इस घटना के विषय में काफी सोच-विचार किया. इसके बाद मैंने निर्णय लिया कि अगर मैं लेखिका हूं तो इसपर लिखूंगी. अगर नहीं लिख सकती तो जेल में जाकर बैठना मेरे लिया ज्यादा अच्छा होगा. यह निर्णय मैंने तुरंत लिया और लिख डाला. लेकिन भारत में काफी लल्लो-चप्पो करनेवाले लोग हैं, यहां बुश के खिलाफ लिखनेवाले बहुत कम लोग हैं, जबकि आपको अमेरिका में इनके खिलाफ बोलनेवाले काफी ज्यादा मिलेंगे. वियतनाम की लड़ाई के खिलाफ अमेरिका में जितना विरोध हुआ वह मिसाल है. सैनिकों ने अपने मेडल वापस कर दिये. क्या भारत में ऐसा संभव है? कश्मीर के मुद्दे पर सेना ने कभी कुछ नहीं बोला.

न्यायपालिका से आपके विरोध को लेकर काफी चर्चा हुई थी. क्या आपको लगता है कि देश में न्यायिक सक्रियता के दौर के बावजूद न्यायिक ढ़ांचा खासा जर्जर है?
मुझे लगता है कि प्रजातंत्र में सबसे खतरनाक संस्था ज्यूडिसियरी है, क्योंकि यह जिम्मेदारी से अपने को मुक्त किये हुए है. कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट ने सबको डरा दिया है. आप इसके खिलाफ कुछ नहीं कर सकते हैं, प्रेस भी कुछ नहीं कर सकता. अगर आप जजमेंट को देखें तो आपको पता चलेगा कि कोर्ट कितनी गैरजिम्मेदाराना ढंग से निर्णय देती है. प्रजातंत्र में ज्यूडिसियरी का इतना शक्तिशाली होना सही नहीं है.

जल, जंगल और जमीन के मुद्दे पर आप काफी काम करती हैं. जिस तरह से जंगल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिया जा रहा है और आदिवासियों को उनके अधिकार से वंचित किया जा रहा है. इसका भविष्य आप किस रूप में देखती हैं?
एक किताब है जिसका नाम कोलैप्स है. इसमें एक ईस्टर आइलैंड के बारे में लिखा गया है जो प्रशांत महासागर में है. यहां काफी बड़े-बड़े पेड़ों को वहां रहने वाले लोग अपने रिवाज कि लिए काटा करते थे, जबकि उन्हें मालूम था कि तेज समुद्री हवाओं से ये बड़े पेड़ उन्हें बचाते हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने एक-एक करके पेड़ों को काट डाला और अंत में समुद्री तूफान से वह आइलैंड नष्ट हो गया, कमोबेश भारत में भी यही स्थिति बनती जा रही है. सरकार शॉर्ट टर्म फायदा के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को माइनिंग करने की इजाजत दे रही है और ये कंपनियां अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रही हैं, जिसका कुप्रभाव हमें कुछ वर्षों के बाद दिखायी देगा. मानव और जानवर में यही अंतर है कि जानवर भविष्य नहीं देखते हैं और मानव भविष्य के बारे में सोचते हैं. लेकिन यहां समस्या यह है कि सरकार ज्यादा लंबा भविष्य न देखकर कम समय का भविष्य देख रही है. यह सही है कि आज इन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियां माइनिंग के बदले काफी धन दे रही हैं, लेकिन आज से पचास वर्ष बाद क्या स्थिति होगी? एक वेदांत नाम की कंपनी उड़ीसा में बॉक्साइट निकाल रही है जबकि बदले में वह वहां विकास करने की बात करती है. लेकिन जहां बॉक्साइट का भंडार है उससे उड़ीसावासियों को पानी मिलता है. अब आप ही बताइये उसे खत्म करने के बाद पानी की कमी होगी या नहीं. इसलिए सरकार थोड़े समय के लाभ के लिए लंबे समय वाले नुकसानवाली नीति पर चल रही है.

हथियार और बम के बूते दुनिया में दादागिरी दिखाने वाले राष्ट्रों के खिलाफ कोई विश्वजनमत क्यों नहीं तैयार हो पा रहा है?
पूंजीवादी दौर में सभी अपने-अपने फायदे में लगे हुए हैं. किसी के खिलाफ जाने पर फायदा नहीं की सोच पूरे राष्ट्र में व्याप्त् है. लेकिन यह शॉर्ट टर्म विजन है. वास्तव में इसका फायदा कुछ शक्तिशाली राष्ट्र उठा रहे हैं.
हाल में ही अमेरिका और भारत के बीच हुए न्यूक्लियर डील को आप किस रूप में देखती हैं?
भारत और अमेरिका के बीच हुए न्यूक्लियर डील को देखकर मुझे यह लगता है कि हमारे नेताओं ने अदूरदर्शिता दिखायी है. उन्हें यह नहीं मालूम कि जिन्होंने भी अमेरिका के साथ डील किया, उनकी क्या हालत हो गयी. अमेरिका अब एक ऐसी नीति बनायेगी जिससे वह पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में ले लेंगे. फिर कहेंगे एनरॉन का कॉट्रेक्ट साइन करो नहीं तो यह नहीं देंगे, वह नहीं देंगे. इस तरीके से अमेरिका भारत के ऊपर हावी हो जायेगा.

आतंकवाद आज पहले से ज्यादा खतरनाक मुद्दा बन गया है, इस चुनौती से निपटने के लिए दुनिया में जो भी पहल हो रही है, उसमें देशों की आपसी गुटबंदी ही ज्यादा दिखायी पड़ती है. आतंकवाद की चुनौती से निपटने का कारगर तरीका क्या हो सकता है?
आप इसे रोकने की जितनी ज्यादा कोशिश करेंगे यह उतना ही ज्यादा बढ़ेगा. इस्लामिक देशों का सारे तेल पर नियंत्रण कर रहे हैं. हर चीजों का निजीकरण किया जा रहा है. अगर आप किसी के संसाधन पर कब्जा करेंगे तो इसके खिलाफ विद्रोह तो फैलेगा ही. इससे निपटने के लिए सरकारों को अपने नीतियों को लेकर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है. भारत की ही स्थिति देखें तो छत्तीसगढ़ में 600 गांवों के लोगों को हटा कर एक पुलिस कैंप में डाल दिया जाता है. हजारों लोगों को घर से बेघर करने का असली मकसद क्या है? असली आतंकवादी वे ही हैं जो नंदीग्राम से लोगों को भगा रहे हैं, कलिंग नगर में गोली चला रहे हैं. जहां तक विश्वस्तर पर आतंकवाद की समस्या से निपटने के प्रयास की बात है, मुझे लगता है कि इसके लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहा है. सभी अपने-अपने लाभ की प्रकृति को देखते हुए आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करते हैं.

आपके विचारों में वामपंथ का प्रभाव ज्यादा दिखता है, इसकी वजह क्या है?
मेरा वामपंथ, पार्टीवाला वामपंथ नहीं है. सोचने वाले जो भी लोग होंगे, निश्चित रूप से उनके विचारों में वामपंथ का प्रभाव दिखायी देगा, यह बात कहने में मुझे कोई ऐतराज नहीं है. सरकार की नीतियों के बारे में सोचने पर कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं पागलखाने चली जाऊंगी.

आप गांधी जी से किस तरह से प्रभावित हैं?
कुछ चीजों में गांधी जी से काफी प्रभावित हूं, लेकिन गांधी जी के जाति के संबंध में जो विचार थे उनसे मैं असहमत हूं. मुझे गांधी के आर्थिक विचार काफी प्रासंगिक लगते हैं लेकिन सरकार ने उनके विचार को खेल बना दिया है. यह गांधी के विचारों का मखौल उड़ाना है. राजनीतिज्ञ इस समय गांधी के नाम का इस्तेमाल अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए करते हैं. जहां फायदा होता है, वहां गांधी के नाम का दुरुपयोग करने से भी परहेज नहीं करते.

ऐसी चर्चा है कि इन दिनों मेधा जी से आपका कुछ वैचारिक मतभेद चल रहा है? इसके पीछे मूल वजह क्या है?
यह सरासर गलत बात है, मेरा मेधा जी से किसी प्रकार का अनबन नहीं है. वे एक कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जबकि मैं अपने आपको सोशल वर्कर नहीं मानती हूं क्योंकि मैं कष्ट उठा कर कोई काम नहीं कर सकती. मैं अपने आपको लेखिका मानती हूं. मैं किसी मुद्दे पर लिख सकती हूं. मुझमें नेतृत्व का गुण नहीं है. मैं नेता कभी नहीं बन सकती हूं.

आप अपने लेखन और रचनात्मक आंदोलन में हिस्सेदारी को लेकर आगामी सालों के लिए क्या प्रतिबद्धता मानती हैं?
मैं किसी को आगे रास्ता दिखाउंगी इसका मैं वचन नहीं दे सकती. मैं नियम बना कर कोई काम नहीं करती. वक्त के अनुसार निर्णय लेती हूं

Friday, July 25, 2008

कुआं

कभी कभी लगता है कि इस तरह की कविता का क्‍या मतलब है। लेकिन कविताएं हैं कि बस मतलब से ही नहीं आतीं। वे अपने साथ आपके अनुभव को बड़ा करती हैं। बीज का अंकुरण आपने देखा होगा। उसके लिए एक शब्‍द है 'अंखुआना', संभवत: यह अंकुरण का अपभ्रंश है। अनुभव की प्रक्रिया भी अंखुआने से होती है और इस दौर में कई तरह की अनुभूतियों से हम गुजरते हैं।

कुआं

हर बार
आई है प्‍यास तुम तक
प्‍यासी ही लौट गई है
सोचकर,
कि तुम्‍हारा पानी न कम हो
जगत पर उगी दूब न कुचले
प्‍यास आई है
प्‍यासी ही लौट गयी है
- निशांत, 1992-93, वाराणसी

Wednesday, June 18, 2008

क्‍या लोग यही चाहते हैं

प्रिंट मीडिया से इलेक्‍ट्रॉनिक का रूख करनेवालों में रजत शर्मा भी रहे हैं जो इंडिया टीवी के मालिक भी हैं। टीआरपी की होड़ में उनका चैनल अब नंबर वन बन गया है। इस घटना पर मीडिया जगत में कई तरह की चर्चाएं हैं। तहलका की हरिंदर बवेजा ने पत्रकारिता और टीवी के नए ट्रेंड पर रजत शर्मा से बातचीत की है। संभव है रजत शर्मा के कई जवाब आपको पचे नहीं। उन्‍होंने बार बार दोहराया है लोग यही देखना सुनना चाहते हैं, लेकिन सचमुच लोग यही चाहते हैं क्‍या, यह विचारणीय है?

CULTURE & SOCIETY interview

'I have a channel that tops the ratings. I am not ashamed'

Rajat Sharma, 50, Chairman and Editor-in-Chief of India TV, was a
little-known print journalist until the television show Aap Ki Adalat
catapulted him to popularity. 16 years later, his own news channel
occupies the top rung on the TRP ladder, using superstition,
celebrity, sleaze and a host of other debatable tricks to get there.
In an unabashed interview with HARINDER BAWEJA, Sharma spells out his
formula and takes on his rivals.

Number seven to Number one. Describe your journey.

Very difficult. When I decided to launch India TV four years ago, all
my friends said I was taking a plunge into an already crowded market.
There were established news channels like NDTV, Star, Zee, Aaj Tak,
Sahara and DD. But I had belief in the viewers who have supported me
throughout my career in television. I knew that if I started a channel
they would support me. It took a lot of time and energy. There were
scary moments, days when I thought I may not be able to do it. On
three occasions, I had to sell my property to pay salaries. Whatever
I'd earned during my 20-year career started disappearing. But things
changed. When the first foreign investor turned up, he valued my
company at Rs 300 crores, the next, 600 crores. Now investors are
giving it a 1000-crore tag. Now, as I look back, all those moments of
crisis were worth it.

What is your formula to overtake your immediate rivals, Aaj Tak and Star News?

I keep telling my editorial team that TV viewership is like a game of
cricket. There was a time when Tests were a big hit, Gavaskar was the
hero; then it was limited overs and Kapil Dev entered the scene. Now
it is Twenty-20. I can't say today that I will be a Sunil Gavaskar and
want to play Twenty-20. The content has to change with time, even at
the risk of being criticised by other colleagues in the media
industry. Our rivals might term it a popularity contest but really,
our sole concern is the viewer. If the viewer wants to watch
Twenty-20, I can't show them a test match.

Talking about criticism, one of the criticisms has been that the Hindi
channels in particular have dumbed down on content.

No, not at all. We have changed the definition of news. If people
still think that politicians cutting ribbons is news, those days are
behind us. And (so are) speeches made in the parliament. The Hindi
news channels are blamed but if you look at the front pages of all big
newpapers today, it is IPL. In fact, two top news weeklies have done a
cover story on the sexual habits of Indian women, but they are not
blamed. Apart from TEHELKA, which is an exception, IPL is the lead in
all popular magazines. If you go by the older school of thought, the
lead story this week should have been the price rise. Similarly, the
content of television news has also changed.

How much do you bother about the political class's views?

Very much. Like the politicians are accountable to the people, so are
we. And our job is to make the politicians accountable to the people.
This is how the concept of Aap Ki Adalat was born. The show is going
strong 16 years later. This is the formula India TV is based on. It
seeks to make people accountable, be it a politician, film star or
cricketer.

What if I were to say to you that India TV has become synonymous with
bhoot pret?

That was six months ago. We have not done one bhoot pret story since then.

But you have used that to climb the TRP ladder.

No, we did not. Those days, the stories coming in were of that sort.
And the people liked it. For example, last week we found that 51
percent of the viewers watched India TV because we were showing an
interview with Vishnu, who used to work for the Talwars. Our reporter
got hold of him somewhere in Nepal. Last week, India TV led the
viewership ratings on account of its coverage of the Aarushi murder
case. It has nothing to do with bhoot pret or saanp nagin.
Fortunately, other TV channels have stuck to this old formula. On Shah
Rukh Khan's Paanchvi Pass, Laloo Yadav appeared as a guest. It is a
great mix of politics and entertainment. We are following the popular
rules.

Are you in the business of news or entertainment?

We are in the business of news and only news. But today, entertainment
has become big news. The times are changing. IPL is cricket; it is not
entertainment. Laloo Yadav is a politician, a people's representative;
you can't call him an entertainer. India TV is a news channel; you
cannot call it an entertainment channel.

What about social responsibility? Would India TV do a campaign on the
Khairlanji killings?

India TV is the only channel which has taken up campaigns as a social
responsibility. I can give you many examples. Let me be modest and
give you a few of the famous ones. One magician boy needed a Rs 60,000
injection every month. An appeal flashed on our channel for three
hours and the cheques started pouring in. In Mumbai, there was a
charitable home for orphans. One day, the landlord decided to throw
them out. India TV reached the site and broadcast live the events
unfolding there. The landlord finally had to go back on his decision.
When the fuel price hike was announced, we kept showing through the
day how this was going to affect the viewers. The viewer will have
noticed our sense of responsibility when it comes to a social,
political cause or fighting for the viewer. That's why India TV has
now adopted the tag line "Aapki Awaaz". Our goal is to be the people's
voice

But India TV did go the bhoot pret route to get close to its rivals on
the TRP ladder?

India TV changed itself according to the need of the times. There was
a time when we had reports from a village in Orissa of a witch doing
the rounds. We went on air telling our viewers that this is just
superstition.

But you will agree with me that this is not news?

Of course it is. Suppose in Thane, there are rumours that there is a
bhoot going around killing people. We tell people that it is not a
bhoot; it is some person out there on a killing spree. We run such
items to educate the viewers.

You are talking about adapting to what a viewer wants but don't you
think it is important to set the agenda?

What is the agenda of the country? Is it only to keep abusing
politicians? Is it only to show long speeches and ribbon cuttings? We
have set the agenda. I can tell you today, with a lot of pride, that
the seven channels behind us in ratings are following in our
footsteps. Here, it is not only the content but the way channels
promote themselves. These channels copy our graphics, sets, music and
visuals, almost everything. We have become trendsetters. This is
exactly why we get the numbers: people would like to see the original
and not the copy.

Do you have a formula?

At my daily meeting with the editorial team, I tell them "go for the
kill". Don't do a story that will make me or the chief producer or you
happy; do one that will make the viewers happy. This is the formula.
Go for the viewer. Speak for them.

You have a big budget for news and investigations.

When we concentrate on investigations, we're labelled a "sting"
channel. When we don't, we're asked, why not? These are the problems
of growing fast, of being number one. In the last year, we have grown
by 110 percent. Our rivals have grown 2-4 percent. People want to know
what the formula is. The formula is that I spend 18 hours a day in my
newsroom and I still write scripts. I can say with pride that there is
no one in this entire country who owns a channel and also writes
scripts and does programming for three hours and the promos.

The Shakti Kapoor investigation drew flak for getting into people's
personal lives. Do you think that was a mistake?

No, I'm proud of it. Last week, one of our rivals did a programme on
the casting couch. Six months ago, the former number one channel
touched on it. I wasn't bothered about criticism from the media or
film industry. I thought it was a genuine effort to warn young girls
joining the film industry

You can be accused of being obsessed with TRPs, of forgetting about
news in this crazy race for numbers and commercial success.

I have never been interested in commercial success. Money has never
been the attraction. It is the people's love and popularity which has
been my weakness

You don't think you have dumbed down on content?

Not at all. If our content is so bad, why are all the seven channels
copying it? When people ask me whether I'm in the race for TRPs, I'm
surprised. Do you ask Sachin Tendulkar why he makes so many runs? My
job is to have a channel that tops the ratings. I am not ashamed of
it.

What do you like about rival channels like Aaj Tak and Star, and what
worries you?

I like their fighting spirit. Barring a few incidents, the fight has
been a healthy one. We've been good rivals. After we assumed the
number one spot, it has been like Harbhajan slapping Sreesanth. Prior
to this, the fight was fought in the right spirit. I have tremendous
respect for Aveek Sarkar, who heads Star News. I respect Aroon Purie,
who heads Aaj Tak. They have added new dimensions to Indian
journalism. Aveek Sarkar started Telegraph and Aroon Purie, India
Today. They are pioneers. When we see their channels doing this, we
are pained. But we won't be dragged into this dirty game. We won't
react, ridicule or abuse them.

From Tehelka Magazine, Vol 5, Issue 24, Dated June 21, 2008

Monday, June 9, 2008

सुनना मंगलेश डबराल को

क्‍या आपने अपनी मां से कुछ सुना है


बचपन के बाद कभी यह मौका लगा है कि आप अपनी मां के साथ बैठें और उससे उनकी कहानियां सुनें। उनके समय में चलने वाले किस्सेत,घटनाएं जिस रूप में उन तक पहुंचीं और जिस तरह से उन्होंने याद रखा है। कवि मंगलेश डबराल कहते हैं कि उनकी मां के पास जैसे किस्से थे, उनको अगर दर्ज किया होता तो वह कुछ उसी तरह की होती जिनका अनुभव हमें मारक्‍वेज के 'सौ सालों के एकांत' से गुजरते हुए होता है।
पिछले दिनों साहित्य अकादेमी और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ने आइआइसी सभागार में कवि मंगलेश डबराल से मुलाकात का कार्यक्रम रखा। जहां तक मेरा संपर्क रहा है मंगलेश जी बहुत कम बोलते हैं। बिल्कुल काम भर। उनका यह व्यक्तित्व उनकी कविताओं में भी झलकता है। अरसा हुआ बनारस में पुस्तक मेले में असद जैदी और संभवत: वीरेन डंगवाल के साथ उन्हें मंच पर बोलते हुए सुना था। तब वक्तव्य‍ से अधिक उन्होंने कविताओं को ही समय दिया था।
पहली बार उन्हें इस तरह मंच से कवि, लेखक और पत्रकार मित्रों के बीच सुनना बहुत ही अलग किस्मन का अनुभव था। वस्तुत: आम जीवन में व्यंक्ति औपचारिकताओं में इतना उलझा रहता है कि जो वह है दिखाई ही नहीं देता – सब ठीक तो है, ...और कैसे हैं, क्या चल रहा है, बहुत बढि़या या किसी तत्कालीन मुद्दे पर छोटी प्रतिक्रिया भर तक ही होता है। इस तरह कुल जमा ऐसे टुकड़े होते हैं जिनसे मुकम्मल तसवीर बना पाना कठिन होता है। वैसे तसवीरें तो एक वाक्यि और एक दरश से जो बननी होती हैं बन जाती हैं। लेकिन वह कितनी आधारहीन होती हैं, इसका अनुभव उपरोक्त किसी गहन संवाद के जरिये ही हो पाता है।
मंगलेश ने बचपन से लेकर अब तक के मुख्य पड़ावों, भटकावों, संघर्षों की चर्चा की (उपलब्धियों के बारे में हम लोग जानते ही हैं और बाकी सब आयोजकों की ओर से वितरीत कवि के परिचय में छपा हुआ था)। इसमें उनका पहाड़ विशेष रूप से उपस्थित था। पहाड़ी इलाके के स्वच्छ तारों भरे आसमान की चादर लपेटे धूल धूसरित आंखों वाले नगर और महानगरों में उनकी यात्रा को सुनना एक लंबी कविता से गुजरना था। बल्कि एक रोचक फिल्‍म कह सकते हैं जिसमें उनकी चुहल, भोलापन, सरोकार, चिंताएं और खीझ वाले खूबसूरत शॉट्स थे। बचपन से ही एम एम का प्रश्ना पत्र बनाने का उनका ख्वाुब बहुत रोचक था। उन्होंाने अपने समय के उभार का जिक्र किया जब सामाजिकता मुख्यु स्वरर था। 'मैं, मेरा' से अधिक 'हम और हमारा' का समय था। उन्होंने कुछ संदर्भ भी रखे जब एक की सफलता से कइयों का काम चलता था। सामाजिकता से एकाकीपन की ओर बढ़ते इस समय से वे खासे चिंतित दिखे। उनका दुख यह था कि हिन्दी कवि (इसमें कथाकारों और पत्रकारों को भी जोड़ा जा सकता है) सामाजिक स्वर नहीं बन सका। उन्होंने इस बाजारवादी समय में मोबाइल और कलावा संस्कृति, सांप्रदायिकता आदि पर भी अपनी चिंताएं और अनुभव रखे। उनकी यह चौंकाने वाली आत्‍मस्‍वीकृति कि मैं साठ का हो चुका हूं और मेरी आवाज का कोई असर नहीं है। या फिर यह कि क्‍या मैं यह कहते हुए किसी से हाथ मिला सकता हूं कि मैं कवि...... एक तरह से हिन्दी बौद्धिक जगत की आत्मस्वीकृति कही जा सकती है। गौर फरमाएं तो कोई बड़ा नाम नहीं दिखाई देता जिसको सुनने, समझने और मानने को हिन्दी समाज तत्पर हो। और जब उन्‍होंने यह कहा कि कभी कभी लगता है कि मेरा जन्‍म ही नहीं हुआ .... तो आप समझ सकते हैं किस अंदाज में उन्‍होंने डेढ़ दो घटे तक लोगों को बांधे रखा।

Friday, May 23, 2008

साहित्‍य के लिए जगह नहीं !

अपनी ही रचनाओं को नष्‍ट कर देना एक रचनाकार के लिए घोर निराशा का क्षण है। लेकिन उसे इस निर्णय तक ले जाने में कही न कहीं से हम सब भी जिम्‍मेवार हैं। पुरस्‍कारों और फेलोशिप के इस समय में प्रतिभाशील लोगों का छूट जाना, उपेक्षित हो जाना एक निर्मम घटना है। पलाश विश्‍वास का यह पत्र इसका जीवंत दस्‍तावेज है

http://palashkatha.mywebdunia.com/2008/02/21/1203611820000.html


कबाड़ी ने दिये सौ रुपए, ताजा सब्जी खरीदना है सुबह को। मधुमेह पीड़ित जो हूं।
Palash biswas द्वारा 21 फ़रवरी, 2008 10:07:00 PM IST पर पोस्टेड #
रचना समग्र को तिलांजलि
कबाड़ी ने दिये सौ रुपए, ताजा सब्जी खरीदना है सुबह को। मधुमेह पीड़ित जो हूं।

पलाश विश्वास

पिछले पैंतीस साल से हिन्दी में लिखते रहने की उपलब्धियां अनेक है। झारखण्ड, उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ के जनसंघर्षों में भागेदारी। उत्तरप्रदेश और बिहार मे मिला भरपूर अपनापा। मध्य प्रदेश और राजस्थान के पाठकों से संवाद बना रहा। पर जनपक्षधर लेखन के लिए अब कहीं कोई गुंजाइश नहीं बनती। सम्पादक प्रकाशक पूछता नहीं। आलोचक पढ़ते नहीं। तमाम लघुपत्रिकाएं पार्टीबद्ध या व्यवसायिक। व्यवसायिक मीडिया और साहित्य बाजार के कब्जे में। पूरा भारतीय उपमहादेश, यह खणड विखण्ड भूगोल इतिहास बालीवूड, कारपोरेट और क्रिकेट में निष्णात। धोनी और ईशान्त शर्मा की उपलब्धियों के सामने फीके पड़ने लगे हैं अमिताभ, किंग खान, सचिन तेंदुलकर, राहुल, गांगुली और अनिल कुंबले। शेयर सूचकांक और विकास दर में उछाल वाले शाइनिंग इण्डिया में एक अप्रतिष्ठत अपतिष्ठानिक मामूली लेखक की क्या बिसात। किराये के मकान में बसेरा। हिन्दी सेवा के पुरस्कार स्वरुप जीवन में कोई व्यवहारिक कामयाबी नहीं है। मकान मालिक की धमकियां अलग। कूड़ा जमा रखने से आखिर क्या हासिल होगा? पांडुलिपियों से कफन का इंतजाम तो नहीं होना है। सो, बारह तेरह साल की मेहनत की फसल अमेरिका से सावधान की प्रकाशित अप्रकाशित पांडुलिपियां, तमाम पूरी अधूरी कहानियां, उपन्यास, कविताएं, पत्र, पत्रिकाएं आज कबाड़ीवाले के हवाले करके बड़ी शान्ति मिली। अब कम से कम चैन से मर सकूंगा। अब हमें पांडुलिपियों के साथ फूंकने की नौबत नहीं आएगी।

जनम से बंगाली शरणार्थी परिवार से हूं। पिताजी स्वर्गीय पुलिन कुमार विश्वास आजीवन दलित शरणार्थियों के लिए देशभर में लड़ते खपते रहे। तराई में तेलंगना की तर्ज पर ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे। पुतिस ने पीटकर हाथ तोड़ दिया था। घर में तीन तीन बार कुर्की जब्ती हुई। कम्युनिस्ट थे। पर किसानों से कामरेडों के दगा और तेलंगना और ढिमरी ब्लाक के अनुभव से वामपंथ से उनका मोहभंग हो गया। पार्टी निषेधाज्ञा के विरुद्ध सन साठ में असम दंगों के दौरान वहां शरणाज्ञथियों के साथ खड़े होकर वामपंथ से हमेशा के लिए अलग होकर अराजनीतिक हो गये। पर सत्तर दशक के परिवर्तन के ख्वाबों के चलते, उस पीढ की विरासत ढो रहा हूं नन्दीग्राम और सिंगुर के बावजूद।

जनम से बंगाली। एणए किया अंग्रेजी साहित्य से और पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी। पर राजकीय इण्टर कालिज, नैनीताल के गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने परीक्षा की कापी जांचते हुए जो कहा कि हिन्दी भी तुम्हारी मातृभाशा है, उस आस्था से अलगाव नहीं हो पाया अबतक। चूंकि अब कुछ भी स्थानीय नहीं है उत्तर आधुनिक गैलेक्सी मनुस्मृति व्यवस्था में और स्वर्गीय पिता की विरासत भी कन्धे पर है, तो ग्लोवल नेटवर्किंग के मकसद से हाल में अंग्रेजी में लिखना शुरु किया है। पर लेखक तो रहा हूं हिन्दी का ही। इन पैंतीस वर्षों में शायद ही कोई पपत्र प्त्रिका बची हो, जिसम छपा नहीं हूं। यह सिलसिला १९७३ में दैनिक पर्वतीय नैलीताल से शुरु हुआ। रघुवीर सहाय जैसे ने दिनमान में जगह देकर हि्म्मत बढ़ाई।

छात्र जीवन में चिपको आंदोलन से जुड़ा रहा। नैनीताल समाचार और पहाड़ टीम का हिस्सा रहा हूं कभी। ताराचंद जी का सबक हम आज भी नहीं भूले कि जनपक्ष में खड़ा होना है तो संवाद का माध्यम हिंदी ही होना चाहिए। अपने घर में साल भर रखकर उन्होंने हमें वैचारिक मजबूती दी।

अंग्रेजी से एणए करने के बावजूद मैंने हिंदी प्तर्कारिता को आजीविका का माध्यम बनाया। मजा भी आया खूब। झारखण्ड में १९८० से १९८४ तक दैनिक आवाज में काम करते हुए आदिवासियों की जीवन यंत्रणा का पता चला। वहीं से एके राय और महाश्वेता देवी जैसी हस्तियों से अपनापा बना। खान दुर्घटनाओं पर अंधाधुंध का किया। जिसकी फसल मेरे कहानी संग्रह ईश्वर की गलती है। फिर मेरठ में सांप्रदायिक दंगों से आमना सामना हुआ। मेरा पहला कहानी संग्रह अंड सेंते लोग इसीका नतीजा है। लघठु उपन्यास उनका मिशन भी। टिहरी बांध पर लिखा लघु उपन्यास नई टिहरी पुरानी टिहरी।

फिर खाड़ी युद्ध का पहला अध्याय। तब मैं अमर उजाला के खाड़ी डेस्क पर था। इसके तुरन्त बाद सोवियत विघटन। अमेरिकी साम्राज्यवाद के भविष्य से नत्थी भारतीय उपहादेश ककी नियति का डर सताना शुरु किया तो लिखना शुरु किया अमेरिको से सावधान। बड़ी प्रतिक्रया हुई सन १९९९ तक। हजारों पत्र मिले। दैनिक आवाज में दो साल धारावाहिक छपा- जमशेदपुर और धनबाद में। बड़ी संख्या में लघु पत्रिकाओं ने अंश छापे। करीब बारह तेरह साल तक मैं इसी में जुटा रहा।

मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनते ही भारत में नवउपनिवेशवाद चालू। फिर आये वाजपेयी। अब प्रणव मुखर्जी वास्तविक प्रधानमंत्री। मेरी दिलचस्पी न शरणार्थी आंदोलन में थी न दलित आंदोलन में। हमारी पूरी आस्था मार्क्सवाद, वर्ग संघर्ष और क्रांति में रही है। दुनियाभर का साहित्य और विचारधाराओं के अध्ययन के बावजूद मैंने कभी अंबेडकर को नहीं पढ़ा।

१९९० में कोलकाता आने पर यहां काबिज ब्राह्मवादी व्यवस्था से हर कदम पर टकराव होने लगा। फिर मैंने बंगाल और भारतीय उपमहादेश की जड़ों को टटोलना शुरू किया। अंबेडकर को भी पढ़ना शुरु किया। इसी बीच सन २००१ में पिता को िधन हो गया। उन्होंने अपना सबकुछ जनसेवा में न्यौछावर कर दिया। विरासत में हमें संपत्ति नहीं, संघर्ष और अपने लोगों के हक हकूक के लिए खड़ा हो जाने की प्रतिबद्धता मिली। माकपाइयों से संबंध मधुर रहे हैं। थी मामलात में पश्चम बंगाल का समर्थन भी मिलने लगा। फिर अचानक २००१ में उत्तरांचल पर काबिज भाजपा सरकार ने बंगाली दलित शरणार्थियों को यकायक विदेशी नागरिक करार दिया। वहां भारी आंदोलन हुआ तो पश्चम बंगाल से पूरा समर्थन भी मिला। किंतु २००३ में गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नागरिकता संशोधन बिल पेश किया संसद में गुपचुप। द्वैत नागरिकता के बहाने पू्रवी बंगाल से आये और भारतभर में छितरा दिये गये विभाजन पीड़ितों को रातोंरात विदेशी नागरिक बना दिया गया। यह बिल संसदीय कमिटी के अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने बिना किसी सुनवाई के मंजूर कर दिया। संसद में बहस नाममात्र हुई। तब मनमोहन सिंह विपक्ष में थे और उन्होंने विभाजन पीड़ित शरणार्थियों को नागरिकता देने की पुरजोर पेशकश की, जिसे प्रधानमंत्री बनते ही वे भुल गये। सबसे बड़ा हादसा यह था कि शरणार्थी, दलित, पिछड़ा आदिवासी और सर्वहारा की बात करने वोले वामपंथियों ने इस बिल को कानू बनाने में भजपाइयों को हर संभव सहयोग दिया।

रही सही कसर पश्चिम बंगाल में शहरी करण, औद्यौगीकरण और पूंजीवादी विकास अभियान ने पूरी कर दी। इस बीच कांग्रेस के केंद्रीय सत्ता में आते ही प्रणव मुखर्जी ने दलित बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ देशबर में युद्धघोषणा कर दी। दरअसल नवउदारवाद के बहाने समूचे देश को आखेटगाह बना दिया गया। मूलनिवासियों का कत्लेआम होने लगा। और भारतीय उपमहादेश अंततछ अमेरिकी उपनिवेश बन गया। नंदीग्राम, सिंगुर, कलिंगनगर, विदर्भ, झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, तमिलनाडु. आंध्र, गुजरात, नवी मुंबई और महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और समूचे उत्तर भारत को श्मशान में तब्दील करने की साजिशें बेनकाब होने लगी। कल कारखाने , काम धंधे चौपट? न शिक्षा न रोजगार। शिक्षा, चिकित्सा का निजीकरण। मूल निवासी आजीविका और जीवन से बेदखल होने लगे।

अखारो और मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश। क्रकेट कार्निवाल। बालीवूड की उछाल। मोबाइल, कंप्यूटर. टीवी के जरिए नीली क्रांति। साहित्य साफ्ट पोर्न में तब्दील। मनोगंजन ही कला का एकमात्र सरोकार। तमाम लेखक बुद्धिजीवी संगठन सत्तादलों के साथ। सत्तावर्ग का चेहरा बेनकाब। दिल्ली में सत्ता साहित्य और संस्कृति का केन्द्रीयकरण। जनपदों का सफाया। कृषि और कृषकों का सत्यानाश।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब मानवाधिकार, लोकतंत्र और नागरिक अधिकार, संविधान, संप्रभुता और कानाल न्याय की तरह वायवीय अवधारणा मात्र। सर्वत्र बाजार संप्रभू।

सत्तापक्ष और विपक्ष एकाकार। जनांदोलन हैं ही नहीं। प्रतिरोध का क्रूरतापूर्वक दमन। मीडिया, मनी और माफिया का राज। ऐसे में साहित्य के लिए कहीं कोई स्पेस नहीं बचा।

यह कोई भवुक फैसला नहीं है। टाइम, स्पेस और मनी से हारे एक मामूली कलमकार के जीने का अंतिम राह है।

मेरे पाठकों , मुझे माफ करना।

Friday, May 9, 2008

जहां आती हो धूप जीने भर

कहाजाता है न कि हर लेखक की शुरुआत कविता से होती है। मेरा यह मानना है कि लिखने और पढ़ने की ओर आकर्षण बिना कविता के हो ही नहीं सकता। बचपन में हम सभी के कानों में अपनी मातृबोलियों और भाषाओं के गीत ही पड़े होंगे। कुछ के यहां बहुत सुघढ़ रूप और अंदाज में और कुछ के यहां अनगढ़, अस्‍पष्‍ट अंदाज में। शायद यही कारण है कि हम भी जब बोलने, अभिव्‍यक्‍त करने लायक होते हैं तो वही सुर ताल पकड़ने की काशिश करते हैं।
बनारस हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय के हिन्‍दी विभाग में (संभवत: अब रीडर होंगी) डॉ चंद्रकला त्रिपाठी की एक नन्‍हीं सी कविता के भावार्थ आज भी कानों में गूंजते रहते हैं ' बच्‍चे जैसे जैसे बड़े होते हैं हंसना भूल जाते हैं ---
हंसना, सिर्फ एक अभिव्‍यक्ति नहीं है वह कविता की तरह है। बहरहाल अभी हम हंसने और रोने पर विचार नहीं कर रहे हैं। कहना यह है कि हम सब की शुरुआत कविता और गीत से होती है। कुछ लोग इस माध्‍यम को ईश्‍वर की नेमत मान अपना लेते हैं और कुछ लोग समय और समाज के दबाव में उससे किनारा कर लेते हैं। कुछ लोग इस तलाश में रह जाते हैं कि कविता है क्‍या चीज और इस खोज में कविताएं लिखते जाते हैं । पता नहीं कविता के शिखर चूमने के बाद भी वे कविता को परिभाषित कर पाते हैं या नहीं। अपन किनारा कर चुके लोगों में से हैं।
कवियों की संगत में कविता खोजता हुआ, कविता को पहचानने की कोशिश करता हुआ मैं भी दो चार पंक्तियां लिखने की कोशिश कर लिया करता था। मेरे यहां कविता का लंबा अकाल आता रहा है। इस भय से कि पता नहीं कवि लोग इसे कविता मानेंगे या नहीं कभी सुनाने का साहस नहीं हुआ। पोथी में धरे धरे अब उन पर जंग लग रही है (चाहें तो सुविधा के अनुसार उन्‍हे दीमक चाट रहे हैं भी कह सकते हैं )। बहरहाल,कविता के पहले बसंत की कुछ कविताएं जैसे जैसे मिलती जाएंगी यहां साया करने की कोशिश करूंगा। उन दिनों हमारी टोली भी हुआ करती थी (जैसे तमाम स्‍वप्‍नजीवी युवाओं की होती है) कविता, पेंटिंग,नुक्‍कड़ नाटक और जाने क्‍या क्‍या और 'समाधान' नाम की इस टोली में इस कवि को निशांत के नाम से जाना जाता था। कुछ ही दिन पहले विश्‍वविद्यालय छोड़ने के लगभग 14 साल बाद परिसर में लौटा तो जैसे बहुत कुछ ताजा हो गया। फिलहाल पेश है यह कविता...

...जिजीविषा...

जब से जन्‍मा हूं
तलाशता रहा हूं छांव
जहां रोप सकूं अपने पांव
जहां आती हो धूप
जीने भर
जहां मिलता हो प्‍यार
सीने भर
- निशांत, काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय 1990

Saturday, May 3, 2008

लगता नहीं है दिल मेरा .....

इसे बंदे की नादानी ही समझा जाए कि ... उम्रे दराज मांग के ... जैसे शेर को गुनगुनाने का मौका तो कई बार आया लेकिन यह पता नहीं कि यह शेर हिन्‍दुस्‍तान के अंतिम बादशाह सिराजुद्दीन ख़ान, मुहम्‍मद अबू ज़फ़र बहादुर शाह ग़ाज़ी, आलमपनाह, शहंशाह का है।
खुशवंत सिंह की एक किताब है दिल्‍ली, दिल्‍ली की कहानी बयान करने के दरम्‍यान वे खुशरो, मीर, सादी आदि के साथ्‍ा कई शायरों को अपने पात्रों के जरिये याद करते करते हैं। और जब सल्‍तनत का शाहंशाह ही भला शायर हो तो उसे कैसे भूल सकते हैं। बहादुर शाह ज़फ़र को उन्‍होंने खूब कोट किया है। इसी क्रम में मेरी अज्ञानता भी दूर हुई। 82 साल के उम्र में अंग्रेजों की कैद में कालापानी को जा रहे शाहंशाह ने अपनी बातें कुछ इस तरह कही हैं -

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार1 में,
किसकी बनी है आलमे- नापाएदार2 में।

बुलबुल को पासबां से न सैयाद3 से गिला,
किस्मलत में कै़द थी लिखी फ़स्ले बहार4 में।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहां है दिले – दाग़दार में ।

इक शाख़े –गुल5 पे बैठ के बुलबुल है शादमां6,
कांटे बिछा दिए हैं दिले – लालाज़ार7 में ।

उम्रे – दराज मांगकर लाए थे चार दिन,
दो आरजू में कट गए, दो इंतजार में ।

है कितना बदनसीब 'जफ़र' दफ़न के लिए,
दो गज़ जमीं भी मिल न सकी कुए-यार8 में।
1.नगर 2.नश्वर संसार 3.शिकारी 4.वसंत ऋतु 5.फूलों की डाली 6.खुश 7.दिल का बागीचा 8.यार की गली

Sunday, April 27, 2008

एक प्रतिभा की मौत

शैक्षिक लोन पर खुद सूद चुकाने का सरकार का निर्णय पढ़ाई लिखाई में लगे आर्थिक रूप से पिछड़े युवाओं के लिए बहुत बड़ी राहत है। आर्थिक असहायता के अंधेरे में यह विकास की खिड़की की तरह है । ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें विद्यार्थी का चयन किसी अच्‍छे कोर्स में तो हुआ लेकिन फीस नहीं होने के कारण वह पढ़ाई जारी नहीं कर पाया।
एक उदाहरण मेरे पास है। इस बार गांव जाने पर मुझे पता चला कि गांव के एक मुसलिम लड़के ने यूपी पॉलीटेक्‍नीक की प्रवेश परीक्षा पास किया था। पिछले कई वर्षों में गांव से पढ़ाई करनेवालों के लिए यह बहुत बड़ी सफलता थी, मुसलिम समाज के लिए तो दुर्लभ। क्‍योंकि गांवों में जिस तरह से स्‍कूली ढांचा तहस नहस हुआ है उसमें नाउम्‍मीदी बहुत है। लेकिन इस बच्‍चे के मामले में दूसरे किस्‍म की निराशा मिली। नामांकन लेने जब वह बक्‍सर से बलिया पहुंचा तो, उसे वहां पर फीस के बारे में बताया गया, गांव में कपड़े की सिलाई कर परिवार चला रहे उसके पिता के लिए वह फीस असंभव थी। लिहाजा वह वापस लौट आया। कुछ दिनों तक गुमसुम रहा, और आखिरकार पास के कॉलेज में बी.ए. में नामांकन करा लिया। उसने इस दुर्घटना की चर्चा अपने शिक्षकों और गांव में भी अन्‍य लोगों से नहीं की। क्‍यों नहीं की यह अलग सवाल है।
जरूरतमंद लोगों के लिए कई और योजनाएं, सहायता आदि की व्‍यवस्‍था संस्‍थान, कॉलेज या यूनीवर्सिटी के स्‍तर पर होती है। यह बात चौंकानेवाली है कि आखिर पॉलीटेक्‍नीक कॉलेज ने उस विद्यार्थी को उपलब्‍ध सूचनाएं क्‍यों नहीं दी। (संभव है उसके साथ सांप्रदायिक या क्षेत्रीय पूर्वाग्रह के कारण ऐसा हुआ हो) और ऐसी सूचनाएं न तो आम लोगों के पास होती हैं और न ही उनमें इसमें आत्‍मविश्‍वास कि कुछ जिरह भी कर सकें। यह कहने की बात नहीं है कि कुछ केन्‍द्रीय संस्‍थानों को छोड़ दें तो बाकी जगहों पर इसके बारे में विद्यार्थियों को सही सलाह देने वालो कोई उपलब्‍ध नहीं होता। ग्रामीण अंचलों में तो और भी स्थिति खराब है। ऐसे में कई बार होनहार लड़कों के लिए गांव गिरांव में चंदा बेहरी का ही आसरा रहता है। लेकिन सरकार के मौजूदा कदम से संभवत: उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी।
ऐसा तभी हो सकेगा जब जरूरतमंद लोगों की सही पहचान हो। शिक्षा संस्‍थानों, क्षेत्र के बैंकों में इसके बारे में जानकारी सहजता से उपलब्‍ध हो। शैक्षिक लोन कोई नयी खबर नहीं है, इसकी व्‍यवस्‍था पहले भी थी लेकिन सूद सहित। एक खास आय वर्ग के बाद अभी भी यही व्‍यवस्‍था होगी। लेकिन सूद के साथ भी लोन निकाल पाना कठिन कसरत रही है। ऐसी खबरें आम तौर पर सुनने में मिलती हैं कि बैंक के बाबू या मैनेजर किसी बिचालिये के जरिये जारी लोन का कुछ प्रतिशत भेंट स्‍वरूप मांगते हैं। बिना भेंट के यह लोन कतई संभव नहीं होता। अब जबकि सूद सरकार चुकाएगी, ऐसी घोषणा की जा चुकी है इस भेंट का दबाव और भी बढ़ सकता है। बहुत संभव है कि जरूरतमंद लोगों की बजाय यह लोन किसी और व्‍यक्ति या धंधे के काम आने लगे।
अच्‍छा रहेगा इस अवरोध से बचाव में छात्र संगठन, स्‍वयंसेवी संस्‍थाएं और शिक्षक समुदाय तथा जरूरत मंद तबके से जुड़े अन्‍य सामाजिक संगठन इसकी निगरानी करें और जरूरतमंदों की सहायता करें। ऐसा होने से एक बड़े तबके के लिए आगे बढ़ने, हुनरमंद होने का रास्‍ता खुलेगा। किसी खुर्शीद, चमनलाल, या शरीफ को किसी अनचाही कक्षा या लेन में मन मार कर नहीं बैठना पड़ेगा।

Monday, April 14, 2008

नामांकन ही अंत नहीं है

ओबीसी के लिए उच्‍च शिक्षा में आरक्षण की हर तरफ बल्‍ले बल्‍ल्‍ो हो रही है। निश्चित रूप से यह एक ऐतिहासिक फैसला है। लेकिन अभी तक शिक्षा संस्‍थानों में आरक्षण के जो अनुभव हैं जितने लोगों को संस्‍थाओं में प्रवेश मिल जाता है वह सभी वहां से सफल होकर या अच्‍छा अनुभव लेकर ही नहीं निकलते। कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें उन्‍हें बहुत ही खराब अनुभवों से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे अनुभवों की श्रृंखला कक्षा से खुद बाहर हो जाने से लेकर अपनी इहलीला समाप्‍त कर लेने की पराकाष्‍ठा तक है।
आरक्षण के साथ यह भी बहुत जरूरी है कि कक्षा के कार्यव्‍यापार में भी बदलाव लाये जायें। अभी तो कुछ वर्षों तक इस आरक्षण के खिलाफ प्रतिक्रियात्‍मक माहौल ही रहेगा। इसकी बहुत कम संभावना है कि शिक्षकों का व्‍यवहार आरक्षण से आए छात्रों के प्रति प्रतिक्रियात्‍मक हो लेकिन सहपाठियों में संघर्ष नहीं होगा ऐसा नहीं कहा जा सकता।
समावेश भोपाल, ने स्‍कूलों में जाति, धर्म, क्षेत्र, सामाजिक पिछड़ापन आदि को लेकर होनेवाली क्रियाओं प्रतिक्रियाओं का गहन अध्‍ययन करवाया था। कुछ चुनिंदा अनुभवों को 'दलित, आदिवासी और स्‍कूल' नाम से प्रकाशित भी किया गया था। शिक्षा को लेकर उत्‍साहित पहली पीढ़ी जब स्‍कूलों में पहुंचती है तो उसे किन समस्‍याओं से दो चार होना पड़ता है इसके बाबत चौंकाने वाले अनुभव आए हैं। जिस तरह का अलगाव और अंत:क्रियाएं बच्‍चों में इस तरह के सामाजिक विभाजनों को लेकर होती हैं संभवत: युवाओं में उतनी न रहती हों। एक कारण यह भी है कि वे इस स्‍तर पर आते आते काफी बच्‍चे पढ़ाई से बाहर हो जाते हैं और जो रह जाते हैं वह सहपाठियों से ताल मेल बिठा चुके होते हैं या फिर उनका संकल्‍प इतना उंचा होता है कि वे डिगते नहीं। लेकिन उनमें अधिकांश ऐसे होते हैं जिनमें समान्‍य वर्ग और पृष्‍ठभूमि से आए छात्रों जितना आत्‍मविश्‍वास नहीं होता। अगर आत्‍मविश्‍वास हो भी तो विभिन्‍न भाषाओं में बदलते बदलते उनकी लेखकीय अभिव्‍यक्ति उतनी पुष्‍ट नहीं हो पाती। मसलन एक कोरकू या गोंडी वाला बच्‍चा हिन्‍दी में स्‍कूल पास करता है और उच्‍च शिक्षा में आते आते उसे अंग्रेजी से जूझना पड़ता है। इस संक्रमण को झेलने के लिए जिस तरह के परिवेश और सहायता की जरूरत होती है, इसमें दो राय नहीं कि वह इन बच्‍चों को हासिल नहीं होती।
अगर मीडिया के अनुभवों की बात करें तो भारतीय जनसंचार संस्‍थान में पिछले दो वर्षों में यह भी दिखा कि उपरोक्‍त पृष्‍ठभूमि से आए अधिकांश ऐसे छात्रों को नौकरियां नहीं मिलीं। पहली नजर में तो यही लगता है कि मीडिया जिन कौशलों की मांग करता है वे उन पर खरा नहीं उतरे हों। लेकिन क्‍या सचमुच यह मामला कौशल तक ही सीमित है, यह अध्‍ययन का विषय है। योगेन्‍द्र यादव, अनिल चमडि़या और जितेंद्र के अध्‍ययन में मीडिया का जो रूप उभर कर सामने आया है उसको असर ऐसे अज्ञात कुलशीलों को बाहर रखने पर नहीं पड़ता होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मीडिया के अलावा बाकी अवसरों में ऐसे पूर्वाग्रह न काम करते हों इसकी कोई गारंटी नहीं ली जा सकती।
इस परिदृश्‍य में संस्‍थानों में प्रवेश सिर्फ एक कदम है, बाकी के दो कठिन मोड़ अभी भी बाकी हैं जहां काम करना अभी बाकी है।

Sunday, April 6, 2008

समय के जोकर

निलय उपाध्‍याय के दूसरे संग्रह कटौती में एक कवि‍ता है जोकर। तकरीबन दस साल पहले लिखी गयी इस कविता की सामयिकता चूकी नहीं है अभी। हमारे समय और सत्‍ता के अंदाज का सटीक बयान है यह कविता। बाकी आप फैसला करेंगे। पेश है कविता
जोकर

सबसे पहले किसे जलील करते हैं जोकर ?
खुद को
उसके बाद किसको जलील करते हैं?
समाजियों और नर्तकों को
और उसके बाद ?

उसके बाद
बहुत आक्रामक हो जाती है जोकर मुद्रा
वे हंसते हुए उतार लेते हैं
देवताओं के कपड़े

जो जानते हैं अश्‍लीलता की ताकत
और समाज में
उसे सिद्ध करने की कला
सिर्फ जोकर नहीं होते

Friday, March 28, 2008

उदास हैं पलाश

आज वह उदास था। पहली बार उसकी आवाज टूटी हुई लगी।
गांव खेड़े से आनेवाले लोगों के पास भले ही और कुछ न हो निश्छल हंसी जरूर होती है। वे अपनी खुशी पर तो झूमते ही हैं दुख पर भी ठहाका लगा सकते हैं। जीवन वहां रंगों का नाम है। जिंदादिली से खनकते रहना और उसी अंदाज में विदा हो जाने का राग बरबस गूंजता रहता है। जो जहां है जिस स्थिति में है अपने अंदाज में मस्त ।
फिर वह उदास क्यूं है?
जो लोग ऊपर की पंक्तियों को चुनौती देना चाहते हैं, ऐसे कई उदाहरण दिखा सकते हैं कि यह लो तुम्हारा उदास गांव और मनहूस जंगल। कोई चलताऊ बयान देने से पहले जरा इधर भी देख लो ...कहीं कोई टेर ... कोई तान नहीं है। तने और टहनियों पर पत्ते तक नहीं हैं, पता नहीं किस भय में थथमे हुए हैं, कौन रोके हुए है उन्हें । तब जबकि इस मौसम में पलाश के पेड़ लहकते दिखने चाहिए, निहंग खड़े हैं। कहा जा रहा है वायुमंडल गरमा रहा है और ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। कहीं भी, कभी भी कुछ भी हो सकता है।

हां, वह सचमुच सोच में डूबा हुआ है।
दरअसल, सफलता कभी इतनी एकांगी नहीं रही होगी। जब हम झुंड के झुंड एक ही दिशा में धकेले जा रहे हों तो उस दिशा में पीछे रह जाना दूर दूर से दिखाई देने लगता है। और यह दिख जाना ही उसके चेहरे को साल रहा है। वह मौन, हारा हुआ और अकेला दिख रहा है।
समूह में रहते हुए हमारा बहुत कुछ हिस्सा समूह जैसा हो जाता है। कई बार उस समूह से कई तरह के पूर्वाग्रह भी चस्पा हो जाते हैं। ऐसे में वस्तुत: हम जो हैं दिखाई नहीं देता। जातीय और प्रां‍तीय मुहावरे इसके उदाहरण हैं। जब समूह झांझर होने लगता है तब हमारा रंग दिखता है या फिर क्लोज अप में ।
वस्तुंत: एक शिक्षक का यह कौशल होता है, होना चाहिए भी कि वह समूह में व्यक्तिगत रंगों को पहचाने, उसको झाड़े, मांजे और चमकाए। यह संभव है बहुत शिक्षक मित्र ऐसा कर पाते हों। परंतु इस दौड़ में आवश्यकता के अनुरूप समय नहीं दे पाते हों। ऐसा कहा जाता है कि 20 छात्रों पर एक शिक्षक होना चाहिए। क्या वाकई उच्चम शिक्षा में भी यही आंकड़ा कामयाब है? यह जानकारी नहीं है मुझे।
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मौसमी दौड़ में पीछे रह गये लोगों के लिए कुछ दोषी तो हम हैं ही। वजह चाहे जो हो भीड़ में उस इकाई को न पहचानने या फिर पहचानकर भी पर्याप्त उपचार नहीं कर पाने की।
हां, वह हताश है और हारा हुआ नजर आ रहा है। कम से कम उसके वाक्य तो यही कह रहे हैं – अब कोई काम पूरा नहीं कर सकता सर, नहीं होगा मुझसे.........इस बुझी हुई आवाज के पीछे मुझे उसकी हंसी सुनाई दे रही है मुझे पूरी उम्मी द है वह जल्दी भी अपने रौ में दिखेगा ग्लोवबल वार्मिंग को मुंह चिढ़ता हुआ, अपनी मूल प्रकृति और जिजीविषा के साथ ................

Sunday, March 23, 2008

अलाली में रंग गुलाल

साल की शुरुआत में ही किसी दोस्त ने नववर्ष की शुभमानाओं के साथ वर्ष में आने वाले तमाम मौकों, तीज, त्यो‍हारों की शुभमनाएं भी जोड़ दी थीं। पता नहीं किस मौके पर किस हालत में रहें शुभकामना पठा पाएं या नहीं। इसलिए एकमुश्त ही ले लो भैया सारी की सारी। याद कर लेना जन्म दिन, शादी की वर्षगांठ और बच्चे का जन्मदिन भी जोड़ दिया है। और अन्य मौके जो मेरी जानकानी में रह गये हैं उनके लिए खाली स्थान छोड़कर ...... की शुमकामनाएं लिख दिया है। ...कौन रोज रोज की झंझट पाले..

कमाल का आइडिया है न। एक बार में ही सबकी छुट्टी । ड्राफ्ट बनाकर रखने की जहमत भी नहीं कि पता करो कि पिछले मौके पर क्‍या लिखा था। नहीं तो लोग मानेंगे कि अब रचनात्‍मकता बची ही नहीं। वही यांत्रिक शब्‍दावली ....

इस बार होली पर सुबह से ही दोस्तों, शुभचिंतकों और विद्यार्थियों के शुभकामना संदेश आने लगे तो एकबारगी दिल हुआ कि सबको जवाब तो दे ही देना चाहिए। पीआर किया नहीं तो पीआर खराब भी तो न करें। इतना लिखने में कितना समय लगता है कि .... आपको भी होली मुबारक। जीवन के सभी रंगों को स्वीकारें आदि आदि। कुछ लोगों ने बड़ी जतन से रंग और गुझिया मिलाकर संदेश भेजा था। दिल तो यह भी किया कि इन्हीं में से किसी एक बढि़या संदेश कॉपी करके सबको पठा दूं। मोबाइल में मास मेलिंग की सुविधा है। यही सुविधा ई मेल मे भी है – एक संदेश लिखा, कॉमन सा संबोधन दिया और सबके पते चिपका दिए। निश्चिंत, कोई बुरा नहीं मानता और होली पर तो वैसे भी बुरा मानना मना है.............

लेकिन इतना भी नहीं किया गया। न ऐसा न सोचें की तिब्बितियों के समर्थन में या इराक की बीती बरसी से परेशान हूं। या फिलीस्तीन‍ या किसानों की आत्मसहत्याओं से मन कसैला है। नन्दीलग्राम का संग्राम भी भूल चुका हू। कश्मीर अब उतना दुखी नहीं करता। गैर हिन्दी प्रदेशों में हिंदीवासियों उर्फ बिहारियों की हत्याओं और अपमानों के प्रति भी खाल मोटी हो गयी है। ............. ना कोई ठोस कारण नहीं है अगर होगा भी तो पहचान नहीं पा रहा हूं। उत्‍सव के माहौल में क्या सियापा करना...यह सब तो अपने समय और समाज का स्‍थाई फीचर हो गया है इनके लिए दुख जताने और संवेदना प्रकट करने वाले भी अब यांत्रिक माने जाने लगे हैं.......
मैंने यह मान लिया कि हवा में जब इतनी शुभकामनाएं गूंज रही हैं, इतने इलेक्ट्रानिक संदेश आ जा रहे हैं तो मुझे अलग से कोशिश करने की क्‍या जरूरत है। सब ओर से शुभकामनाएं छलक रही हैं तो मेरे संदेश भेजने न भेजने से कितन फर्क पड़ेगा इसलिए मैंने यह मान लिया कि सभी संदेशों में मेरा भी कुछ हिस्सा है। जब भी कोई संदेश बना, पठा या पढ़ रहा होगा उस समय मैं उसके आनंद, खुशी में शामिल हूं।
अगर आप में से किसी को मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो कृपया अन्यथा न लें। आप सबकी शुभकामनाओं में मैं खुद को शामिल महसूस करता हूं। इन दिनों शुभकामनाओं में ही डूब, उतरा और तैर रहा हूं। यह बात अलग है कि उनमें मुझे औपचारिकता, गैररचनात्मकता और बासीपन लग रहा है। ...तो लगे यह मेरी समस्‍या है आपके रंग में भंग क्‍यूं पड़े।
अगली बार से मैं भी तैयार रहूंगा। बढि़या संदेश बन सकेगा, कुछ रंगों की छपाछप से उकेर सकूंगा शुभकामना के बराबर तो आपको निराश नहीं करुंगा। इस बार शुभकामना कार्ड की दूकानों पर नहीं जा सका और न ही इलेक्ट्राकनिक संदेशोंवाली मुफतिया दूकानों की खाक छानी। कहा जाता है न कि अच्छा चुनना भी अच्छा लिखने से कम नहीं होता। हां, यह सब कुछ पढ़ा है, पता है।
बस इस बार की अलाली के लिए क्षमा करें।