Sunday, May 27, 2007

अभिव्‍यक्ति के बहाने

काफी दिन पहले अपूर्वानंद ने अपने कॉलम में 'कहां हैं हुसेन' शीर्षक से लेख लिखा। उसके कुछ दिनों बाद ही चंद्रमोहन का मामला आया और फिर इस सूची में नामवर सिंह भी शामिल हो गए। पूरा पखवाड़ा अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर हो रहे हमले और आनेवाले समय में उसके बढ़ते हुए खतरे के प्रति सावधान करते, सक्रिय होने आदि मंतव्‍यों वाली चर्चाओं में बीता। परंतु न तो चंद्रमोहन का वह विवादित चित्र किसी ने छापा और ना ही नामवर सिंह द्वारा दिया गया व्‍याख्‍यान। मेरे खयाल से यह मामला जितनी चर्चा में आया है उसमें बहुत से पाठकों को जानने की इच्‍छा हुई होगी कि वह चित्र क्‍या है या फिर उस व्‍याख्‍यान का संदर्भ क्‍या है। संदर्भ के बिना किसी एक वाक्‍य या किसी एक टुकड़े को लेकर हायतौबा से अफवाह जरूर बढ़ती है, जूतमपैजार हो सकती है, सृजनात्‍मक कुछ नहीं होता। (अगर किसी की जानकारी में कहीं यह आया हो तो मेरी अज्ञानता है, कृपया उपलब्‍ध कराएं।)
मुझे यह लगता है कि ऐसे मौकों पर ही कला के निहितार्थों की चर्चा भी की जा सकती है। अशोक वाजपेयी ने अपने लेख में कहा कि 'कला सिर्फ अमिधा नहीं है' लेकिन यह एक वक्‍तव्‍य भर ही रहा, बात इससे आगे भी होनी चाहिए। कला के जिस अमिधात्‍मक रूप को लेकर इतना बवेला मचा हुआ है उसमें ही यह मौका है कि कला की विभिन्‍न परतों को पाठकों और दर्शकों के बीच ले जाया जाए। अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता वाली बात उस पर बहस को महत्‍व कहीं से कम नहीं है, ना ही इस मुद्दे पर धरना प्रदर्शन को कहीं से कम आंका जा रहा हैलेकिन जब तक कला और अभिव्‍यक्ति की सीमाओं और बारीकियों पर इन ज्‍वलंत उदाहरणों के जरिए बात नहीं होगी, यह संकट कहीं से कम नहीं होगा। ऐसा लगता है कि कला और साहित्‍य के प्रति निरक्षरता निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह बात करना जरूरी लगता है कि हुसेन या चंद्रमोहन या कि नामवर सिंह जो कह या रच रहे हैं उसका निहितार्थ क्‍या है वे वैसा क्‍यों रच और रंग रहे हैं....। जिस बड़े पैमाने पर मीडिया की पहुंच लोक में बनी है यह मौके हैं जब कला के विविध पहलुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए, व्‍याख्‍याएं आमंत्रित की जानी चाहिए।
इस बीच पंजाब में डेरा सच्‍चा सौदा के मुखिया द्वारा गुरु गोविंद सिंह का स्‍वांग रचने के लेकर भी मीडिया रंगा रहा। बाकी खबरें संपादकीय पन्‍नों पर सिमट गयीं लेकिन डेरा सच्‍चा सौदा का मामला सुर्खियों में बना हुआ है। आज के सहारा में विभांशु दिव्‍याल ने अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के नजरिए से ही सवाल उठाया है। उस नजरिए से इस प्रसंग को देखें तो पहली नजर में डेरा प्रमुख ने गुरु का स्‍वांग भर किया है, परंतु इस मसले पर कहीं भी कोई भी इसका समर्थन करता नहीं दिखता। क्‍या उनको इस अंदाज में अभिव्‍यक्ति की छूट मिल सकती है।
कोशिश होगी विभांशु जी का वह लेख संगत में उपलब्‍ध कराया जाए।

Monday, May 21, 2007

राष्‍ट्रीय चुनौतियों के लिए एक विकल्‍प

भारतीय पत्रकारिता में जिन हिन्‍दी पत्र-पत्रिकाओं ने नयी राह बनायी है उनमें से एक रविवार है। रविवार ने कई बड़े पत्रकार दिए जिनमें से एक राजकिशोर जी भी हैं। एक बार नामवर जी से किसी ने पूछा कि अगर हिन्‍दी के किसी एक पत्रकार का नाम लेना हो तो आप किसका नाम लेंगे, नामवरजी ने बेझिझक कहा - राजकिशोर। राजकिशोर जी के संबंध में ऐसे कई प्रसंग और मौके निकल आएंगे। हम सभी समसायिक विषयों पर उनकी प्रखर विश्‍लेषणात्‍मक दृष्कोण से लाभान्वित होते रहे हैं। पिछले दिनों भगत सिंह और 1857 के संदर्भ में जनसत्‍ता में उनके दो लेख प्रकाशित हुए। मैंने संगत के लिए उनसे उन लेखों हेतु आग्रह किया था। लेख तो अभी नहीं आ सकें हैं लेकिन उनके मूल विचारों से जुड़ा विस्‍तृत कार्यक्रम उन्‍होंने भेजा है। आप भी विचार करें ।
राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने के लिए एक विनम्र कार्यक्रम

1. भारत इस समय एक गंभीर संकट से गुजर रहा है। यह संकट समग्र संस्कृति
का संकट है। स्वतंत्रता के बाद हमने जीवन की जो व्यवस्था बनाई है, उसमें
अधिकांश लोगों के लिए कोई समाधान नहीं है। लगभग बीस प्रतिशत लोग संपन्न
हैं या संपन्नता की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन उनके जीवन में भी घोर असुरक्षा
है। यह नहीं कहा जा सकता कि वे सुखी भी हैं। बाकी लोगों के जीवन में
मुश्किलें ही मुश्किलें हैं। इसका प्रधान कारण वर्तमान राजनीतिक तंत्र को
माना जाता है। राजनेताओं के प्रति नफरत बढ़ रही है, क्योंकि उन्होंने समाज
की भलाई के लिए सोचना या काम करना बंद कर दिया है। किसी भी दल से लोग खुश
या संतुष्ट नहीं हैं। वामपंथी दलों का सम्मान थोड़ा बचा हुआ है, पर ये दल
अपनी घोषित प्रतिबध्दताओं के अनुसार न तो कार्यक्रम बना पा रहा हैं और न
ही अपना चरित्र सुधार पा रहे हैं। नक्सलवाद के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है,
पर वह निकट भविष्य में राष्ट्रीय मुक्ति का माध्यम बन सकता है, यह
विश्वास नहीं बन पा रहा है। हिंदूवादी संगठन खूंखार हो रहे हैं।
लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं कमजोर हो रही हैं। तानाशाही बढ़ रही है। नर्मदा
बचाओ जैसे कुछ आंदोलन आशा का स्रोत बने हुए हैं, पर इनके पास पूरे देश के
लिए कोई कार्यक्रम नहीं हैं। एनजीओं संस्थाएं कहीं-कहीं राहत के छिटपुट
कार्यक्रम चला रही हैं, पर उनके पास कोई बृहत विजन नहीं है। यही बात उन
छोटे-छोटे अभियानों के बारे में कही जा सकती है जो महिलाओं के विरुध्द
हिंसा, दलितों के अधिकारों की रक्षा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार,
पानी के लिए संघर्ष, बचपन बचाओ आदि पर केंद्रित हैं। किसानों की
आत्महत्याओं ने संकट के एक नए आयाम से हमारा परिचय कराया है। मजदूर वर्ग
में बेचैनी बढ़ रही है। कुल मिला कर, देश में इस समय निराशा और पस्ती का
वातावरण है। सभी को लगता है कि कोई ठोस पहल होनी चाहिए।
2. राजनीति का जवाब राजनीति है; बुरी राजनीति का जवाब अच्छी राजनीति है;
देश के नवनिर्माण के लिए कोई रास्ता निकलेगा, तो राजनीति से ही निकलेगा
-- ये बातें स्वतःसिध्द हैं। इनके बारे में कोई गंभीर मतभेद नहीं हो
सकता। लेकिन आज अगर कोई व्यक्ति या समूह सीधे राजनीतिक दल बनाने के लिए
निकले, तो उसकी असफलता निश्चित है। पिछले कुछ दशकों से अच्छे उद्देश्यों
से कई दल बनाए गए, लेकिन उनकी व्याप्ति नहीं हो पाई। ज्यादातर जेबी या
स्थानीय संगठन बन कर रह गए। कुछ तो तैयारी के स्तर से ही आगे नहीं बढ़
पाए। इस निराशाजनक स्थिति का कारण यह है कि चालू राजनीतिक दलों की
देखादेखी नए दल भी समाज में अपनी व्यापक जगह बनाए बिना सीधे सत्ता में
जाना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि सत्ता प्राप्त करने के बाद ही कोई बड़ा
काम किया जा सकता है। यह उलटा रास्ता है। संसदीय हिस्सेदारी की राजनीति
करने के पहले पर्याप्त समय तक जनता की सेवा कर समाज के बीच विश्वसनीयता
बनानी होगी तथा लोगों को परिवर्तन और संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करना
होगा। जनसाधारण में यह यकीन पैदा करना जरूरी है कि वे अपने सवालों को खुद
हल कर सकते हैं। हम मानते हैं कि दिखने में साधारण चीजों के लिए संघर्ष
चला कर ही बड़ी चीजों के लिए संघर्ष का वातावरण बनाया जा सकता है। हम यह
नहीं मानते कि यह महास्वप्नों का समय नहीं है। लेकिन हमें यह जरूर लगता
है कि कोई भी महास्वप्न तभी सफल होगा जब वह लघु स्वप्नों की नींव पर खड़ा
हो। रोम एक दिन में नहीं बना था। परिवर्तन एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसे
निरंतर चलाने की जरूरत है -- इस उद्देश्य के साथ कि लघु परिवर्तन बड़े
परिवर्तनों के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि बनाने का काम करते जाएं। इसके लिए जन
सेवा का अभियान छेड़ना बहुत उपयोगी होगा।
3. जो समूह बड़े लक्ष्यों के लिए काम कर रहे हैं, उनसे हमारी कोई
प्रतिद्वंद्विता नहीं है। जिन्हें समाजवाद, नागरिक अधिकार, पर्यावरण की
रक्षा आदि बड़े उद्देश्य आकर्षित करते हैं, वे अपनी ईष्ट दिशा में बढ़े,
उनका स्वागत है। ऐसे व्यक्तियों और संगठनों को हम सहयात्री मानेंगे और
उनका सम्मान करेंगे। उनसे सहयोग भी करेंगे। लेकिन हम, अपने स्तर पर, कुछ
अधिक ही विनम्र शुरुआत करना चाहते हैं। हमारा विश्वास है कि एक अच्छा
समाज बनाने के लिए सेवा, संगठन और संघर्ष के माध्यम से जनसाधारण की
सामान्य समझी जाने वाली समस्याओं का हल निकालने का प्रयत्न किया जाए, तो
रेडिकल समाधानों की ओर जाने के लिए एक सरल और व्यावहारिक रास्ता निकल
सकता है। लोग सामूहिक कार्रवाइयों के लिए तैयार हैं, जरूरत उन्हें संगठित
करने और वांछित दिशा में काम शुरू करने की है। हम विफलता से नहीं डरते;
ऐसी सफलता से जरूर डरते हैं जिससे हममें से कुछ के हृदय में सत्ता के
प्रति अस्वस्थ आकर्षण पैदा हो जाए।
4. आज के माहौल में 'सेवा' शब्द दकियानूस और मुलायम लगता है। लेकिन इससे
भड़कने की जरूरत नहीं है। 'क्रांति' जैसे सख्त शब्दों की परिणतियां हम देख
चुके हैं। लोकतांत्रिक सत्ताएं भी कितनी अहंकारी हो सकती है, यह तो हम
रोज ही देखते हैं। ऐसी स्थिति में, यदि हम एक विनम्र अवधारणा के माध्यम
से आगे की राह बनाने का प्रयास करें, तो यह प्रयोग करने योग्य जान पड़ता
है। सार्वजनिक जीवन में सेवा और संघर्ष जुड़वां प्रतीत होते हैं। सेवा का
दायरा जितना बड़ा होगा, संघर्ष की जरूरत उतनी ही ज्यादा सामने आएगी। इस
तरह यह एक सम्यक दर्शन भी बन सकता है। वस्तुत: सबसे बड़ा क्रांतिकारी जनता
का सबसे बड़ा सेवक ही हो सकता है।
5. हमारा मानना है कि भारतीय संविधान एक क्रांतिकारी दस्तावेज है और जन
सेवा के लिए उसका क्रांतिकारी इस्तेमाल हो सकता है। अगर अभी तक इस प्रकार
का इस्तेमाल नहीं हो पाया है, तो इसका कारण है कि संविधान के उन पहलुओं
की ओर ध्यान नहीं दिया गया है जिनमें मूलभूत परिवर्तन की आशा और मांग की
गई है। इस तरफ संकेत करने के लिए नमूने के रूप में हम संविधान के भाग 4
से कुछ उध्दरण दे रहे हैं।
(क) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक
न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी
रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास
करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास
करेगा और न केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों
में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच
भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास
करेगा। - अनुच्छेद 38
(ख) राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि
सुनिश्चित रूप से --- (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से
जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय के भौतिक
संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित
का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे
धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो; (घ)
पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (ड.) पुरुष
और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार
अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को
ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनका आयु या शक्ति के अनुकूल न हो; (च)
बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और
सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और
आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए। -- अनुच्छेद 39
(ग) राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक क्षेत्र इस प्रकार काम करे कि
समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टतया, यह सुनिश्चित
करेगा कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय
प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा
या किसी अन्य रीति से नि:शुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा। --
अनुच्छेद 39क
(घ) राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापनों या अन्य संगठनों
के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त
विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा। -- अनुच्छेद 43क
6. यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने
को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि
कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे लाभ हुआ है। ऐसे ही एक प्रयत्न
के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा
दिया गया है। हमारा मानना है कि न्यायालय भले ही सरकार को सभी नीति
निदेशक तत्वों पर चलने के लिए बाध्य न कर सकें, पर इसके लिए नागरिक
प्रयास करने पर संविधान में कोई रोक नहीं है। अर्थात नागरिक चाहें तो
राज्य के नीति निदेशक तत्वों (संविधान का भाग 4) को लागू कराने के लिए
आंदोलन कर सकते हैं। यह उनका लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार है। हमें
यकीन है कि अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल
करने के लिए आगे आते हैं, तो अदालत इन बहादुर और सदाशयी लोगों की सहायता
ही करेगी।
7. अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम
बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना
तथा हर इलाके में शुध्दिकरण का अभियान छेड़ना। यह काम कठिन है, असंभव
नहीं। इसके लिए एक ऐसा कार्यक्रम बनाने की जरूरत है, जिस पर तत्काल अमल
किया जा सके। ऐसे कार्यक्रम की एक बहुत संक्षिप्त रूपरेखा यहां पेश की
जाती है।

पहले और दूसरे वर्ष का कार्यक्रम
(क) कानून के राज की स्थापना -- कानून का राज कायम करना राज्य की
जिम्मेदारी है। राज्य किसी भी स्तर पर अपनी यह जिम्मेदारी पूरी नहीं कर
रहा है। इसलिए नागरिकों को यह बीड़ा उठाना चाहिए। उदाहरण के लिए, वे यह
सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर कोशिश कर सकते हैं कि
1.सार्वजनिक परिवहन के सभी साधन नियमानुसार चलें। बसों में यात्रियों की
निर्धारित संख्या से दस प्रतिशत से अधिक यात्री न चढ़ाए जाएं। बस चालकों
का व्यवहार अच्छा हो। महिलाओं, वृध्दों आदि को उनकी सीट मिलें। ऑटोरिक्शा
नियमानुसार किराया लें। बस स्टैंड, रेल स्टेशन साफ-सुथरे और नागरिक
सुविधाओं से युक्त हों।
2. सरकारी अस्पतालों में नियम और नैतिकता केअनुसार काम हो। रोगियों को आवश्यक सुविधाएं मिलें और पैसे या रसूख के बल पर कोई काम न हो। डॉक्टर पूरा समय दें। बिस्तर, वार्ड आदि साफ-सुथरे हों।
एयर कंडीशनर डॉक्टरों और प्रशासकों के लिए नहीं, रोगियों के लिए हों।
निजी अस्पतालों में रोगियों से ली जाने वाली फीस लोगों की वहन क्षमता के
भीतर हो। प्राइवेट डॉक्टरों से अनुरोध किया जाए कि वे ज्यादा फीस न लें
और रोज कम से कम एक घंटा मुफ्त रोगी देखें।
3. स्कूलों पर भी इसी तरह के नियम लागू होने चाहिए। छात्रों को प्रवेश देने की प्रक्रिया पूरी तरह
पारदर्शी हो। किसी को डोनेशन देने के लिए बाध्य न किया जाए। फीस कम से कम
रखी जाए। शिक्षकों को उचित वेतन मिले। शिक्षा संस्थानों को मुनाफे के लिए
न चलाया जाए।
4. थानों और पुलिस के कामकाज पर स्थानीय लोगों द्वारा निगरानी रखी जाए। किसी के साथ अन्याय न होने दिया जाए। अपराधियों को पैसे ले कर या रसूख की वजह से छोड़ा न जाए। सभी शिकायतें दर्ज हों और उन पर
कार्रवाई हो। हिरासत में पूछताछ के नाम पर जुल्म न हो। जेलों में कैदियों
के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। उनकी सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति हो।
5. अदालतों के कामकाज पर भी इसी दृष्टि से निगरानी रखी जाए।
(ख) नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था -- नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था करना
प्रशासन, नगरपालिका, पंचायत आदि का कम है। ये काम समय पर और ठीक से हों,
इसके लिए नागरिक हस्तक्षेप जरूरी है। बिजली, पानी, टेलीफोन, गैस आदि के
कनेक्शन देना, इनकी आपूर्ति बनाए रखना, सड़क, सफाई, शिक्षा, चिकित्सा,
प्रसूति, टीका, राशन कार्ड, पहचान पत्र आदि विभिन्न क्षेत्रों में नागरिक
सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर सतत
सक्रियता और निगरानी की जरूरत है। जिन चीजों की व्यवस्था सरकार,
नगरपालिका आदि नहीं कर पा रहे हैं जैसे पुस्तकालय और व्यायामशाला खोलना,
वेश्यालय बंद कराना, गुंडागर्दी पर रोक लगाना आदि उनके लिए नागरिकों के
सहयोग से काम किया जाए।
(ग) उचित वेतन, सम्मान तथा सुविधाओं की लड़ाइर् र् : मजदूरों को उचित वेतन
मिले, उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार हो, उनके काम के घंटे और स्थितिया
अमानवीय न हों, उन्हें मेडिकल सहायता, छुट्टी आदि सुविधाएं मिलें, इसके
लिए संघर्ष करना ही होगा। गांवों में खेतिहर मजदूरों के हितों की रक्षा
करनी होगी।
(घ) उचित कीमतों के लिए आग्रह : प्रायः सभी जगह देखा जाता है कि एक ही
चीज कई कीमतों पर मिलती है। सभी दुकानदार 'अधिकतम खुदरा मूल्य' के आधार
पर सामान बेचते हैं। ग्राहक यह तय नहीं कर पाता कि कितना प्रतिशत मुनाफा
कमाया जा रहा है। नागरिक टोलियों को यह अधिकार है कि वे प्रत्येक दुकान
में जाएं और बिल देख कर यह पता करें कि कौन-सी वस्तु कितनी कीमत दे कर
खरीदी गई है। उस आधार पर दस या पंद्रह प्रतिशत मुनाफा जोड़ कर प्रत्येक
वस्तु का विक्रय मूल्य तय करने का आग्रह किया जाए। दवाओं को मामले में इस
सामाजिक अंकेक्षण की सख्त जरूरत है। खुदरा व्यापार में कुछ निश्चित
प्रतिमान लागू कराने के बाद उत्पादकों से भी ऐसे ही प्रतिमानों का पालन
करने के लिए आग्रह किया जाएगा।
(ड़.) दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के हित : इन तीन तथा ऐसे अन्य
वर्गों के हितों पर आवश्यक ध्यान दिया जाएगा। इनके साथ किसी भी प्रकार के
दर्ुव्यवहार और भेदभाव को रोकने की पूरी कोशिश होगी।
इस तरह के अभियान शुरू के दो वर्षों में चलाए जाने चाहिए, ताकि लोगों में
यह विश्वास पैदा हो सके कि गलत चीजों से लड़ा जा सकता है, स्वस्थ बदलाव
संभव है और इसके लिए किसी बड़े या चमत्कारी नेता की आवश्यकता नहीं है।
गांव और मुहल्ले के सामान्य लोग भी संगठित और नियमित काम के जरिए सफलता
प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह का वातावरण बन जाने के बाद अगले वर्ष से बड़े
कार्यक्रम हाथ में लिए जा सकते हैं।

तीसरे और चौथे वर्ष का कार्यक्रम
भारत में अंग्रेजी शोषण, विषमता तथा अन्याय की भाषा है। अतः अंग्रेजी के
सार्वजनिक प्रयोग के विरुध्द अभियान चलाना आवश्यक है। बीड़ी, सिगरेट,
गुटका आदि के कारखानों को बंद कराना होगा। जो धंधे महिलाओं के शारीरिक
प्रदर्शन पर टिके हुए हैं, वे रोके जाएंगे। महंगे होटल, महंगी कारें,
जुआ, शराबघरों या कैबरे हाउसों में नाच आदि को खत्म करने का प्रयास किया
जाएगा। देश में पैदा होनेवाली चीजें, जैसे दवा, कपड़ा, पंखा, काजू, साइकिल
आदि, जब भारतीयों की जरूरतों से ज्यादा होंगी, तभी उनका निर्यात होना
चाहिए। इसी तरह, उन आयातों पर रोक लगाई जाए जिनकी आम भारतीयों को जरूरत
नहीं हैं या जो उनके हितों के विरुध्द हैं। राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधान
मंत्री, मुख्य मंत्री, मत्री, सांसद, विधायक, अधिकारी आदि से छोटे घरों
में और सादगी के साथ रहने का अनुरोध किया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि
एयरकंडीशनरों का इस्तेमाल खुद करने के बजाय वे उनका उपयोग अस्पतालों,
स्कूलों, वृध्दाश्रमों, पुस्तकालयों आदि में होने दें। रेलगाड़ियों,
सिनेमा हॉलों, नाटकघरों आदि में कई क्लास न हों। सभी के लिए एक ही दाम का
टिकट हो।

चार वर्ष बाद का कार्यक्रम
चार वर्षों में इस तरह का वातावरण बनाने में सफलता हासिल करना जरूरी है
कि राजनीति की धारा को प्रभावित करने में सक्षम हुआ जा सके। हम राज्य
सत्ता से घृणा नहीं करते। उसके लोकतांत्रिक अनुशासन को अनिवार्य मानते
हैं। हम मानते हैं कि बहुत-से बुनियादी परिवर्तन तभी हो सकते हैं जब
सत्ता सही लोगों के हाथ में हो। लेकिन जिस संगठन के माध्यम से यह सारा
कार्यक्रम चलेगा, उसके सदस्य चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। जिन्हें चुनाव लड़ने
की और सत्ता में जाने की अभिलाषा हो, उन्हें संगठन से त्यागपत्र देना
होगा। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के इस आंदोलन से जरूरी नहीं कि किसी एक ही
राष्ट्रीय दल का गठन हो। कई राजनीतिक दल बन सकते हैं, ताकि उनमें स्वस्थ
और लोकतांत्रिक प्रतिद्वंद्विता हो सके। जो लोग सत्ता में शिरकत करेंगे,
उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे मौजूदा संविधान को, यदि उसके कुछ
प्रावधान जन-विरोध पाए जाते हैं तो उनकी उपेक्षा करते हुए, सख्ती से लागू
करने का प्रयत्न करें। बुरे कानूनों को खत्म करें। अच्छे और जरूरी कानून
बनाएं। किसानों सहित सभी को उसकी उपज और उत्पादन का उचित मूल्य दिलाने का
प्रयत्न करें। सभी नीतियों में जनवादी परिवर्तन ले आएँ। राज्य सरकार के
स्तर पर भी इसी प्रकार के परिवर्तन अपेक्षित होंगे। राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण का यह अभियान पहले दिन से ही उनके कार्यवृत्त की कठोर
निगरानी करेगा जो इस अभियान से निकल कर सत्ता में शरीक होंगे।

संगठन
जाहिर है, यह सारा काम एक सांगठनिक ढांचे में ही हो सकता है। शुरुआत गांव
तथा मुहल्ला स्तर पर संगठन बना कर करनी होगी। जिस जिले में कम से कम
एक-चौथाई कार्य क्षेत्र में स्थानीय संगठन बन जाएं, वहां जिला स्तर पर
संगठन बनाया जा सकता है। राज्य स्तर पर संगठन बनाने के लिए कम से कम
एक-तिहाई जिलों में जिला स्तर का संगठन होना जरूरी है। राष्ट्रीय संगठन
सबसे आखिर में बनेगा। सदस्यों की पहचान के लिए बाईं भुजा में हरे रंग की
पट्टी या इसी तरह का कोई और उपाय अपनाना उपयोगी हो सकता है। इससे संगठित
हो कर काम करने में सहायता मिलेगी। सभी पदों के लिए चुनाव होगा।

कार्य प्रणाली
यह इस कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण पक्ष है। जो भी कार्यक्रम या
अभियान चलाया जाए, उसका शांतिपूर्ण होना आवश्यक है। प्रत्येक कार्यकर्ता
को गंभीर से गंभीर दबाव में भी हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करनी होगी। सभी
निर्णय कम से कम तीन-चौथाई बहुमत से लिए जाएंगे। पुलिस तथा सरकार के अन्य
अंगों को सूचित किए बिना सामाजिक अंकेक्षण, सामाजिक दबाव और संघर्ष का
कोई कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया जाएगा। अपील, अनुरोध, धरना, जुलूस,
जनसभा, असहयोग आदि उपायों का सहारा लिया जाएगा। आवश्यकतानुसार जन अभियान
के नए-नए तरीके निकाले जाएंगे। किसी को अपमानित या परेशान नहीं किया
जाएगा। जिनके विरुध्द आंदोलन होगा, उनके साथ भी प्रेम और सम्मानपूर्ण
व्यवहार होगा। कोशिश यह होगी कि उन्हें भी अपने आंदोलन में शामिल किया
जाए। आय और व्यय के स्पष्ट और सरल नियम बनाए जाएंगे। चंदे और आर्थिक
सहयोग से प्राप्त प्रत्येक पैसे का हिसाब रखा जाएगा, जिसे कोई भी देख
सकेगा। एक हजार रुपए से अधिक रकम बैंक में रखी जाएगी।
स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता समूह काम करेंगे। वे सप्ताह में कुछ दिन
सुबह और कुछ दिन शाम को एक निश्चित, पूर्वघोषित स्थान पर (जहां सुविधा
हो, इसके लिए कार्यालय बनाया जा सकता है) कम से कम एक घंटे के लिए एकत्र
होंगे, ताकि जिसे भी कोई कष्ट हो, वह वहां आ सके। कार्यक्रम की शुरुआत
कुछ क्रांतिकारी गीतों, भजनों, अच्छी किताबों के अंश के पाठ से होगी।
उसके बाद लोगों की शिकायतों को नोट किया जाएगा तथा अगले दिन क्या करना
है, कहां जाना है, इसकी योजना बनाई जाएगी। जिनके पास समाज को देने के लिए
ज्यादा समय है जैसे रिटायर लोग, नौजवान, महिलाएं, उन्हें इस कार्यक्रम के
साथ विशेष रूप से जोड़ा जाएगा।

निवेदन
कृपया इसकी प्रतियां बनवा कर मित्रों, परिचितों एवं अन्य व्यक्तियों के
बीच वितरित करें। अन्य भाषाओं में अनुवाद करवाने का भी आग्रह है।
प्रतिक्रिया तथा सुझाव भेजने का पता : राजकिशोर, 53, एक्सप्रेस
अपार्टमेंट्स, मयूर कुंज, दिल्ली - 110096 ईमेल : truthonly@gmail.com

Sunday, May 20, 2007

कला सिर्फ अमिधा नहीं है'

बड़ोदरा के महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय में कला छात्र चंद्रमोहन की प्रदर्शनी पर छिड़ी बहस अभी थमी नहीं है। २० मई के जनसत्ता में प्रभाष जोशी और अशोक वाजपेयी ने इस प्रसंग में लंबी तकरीर की है। इसके कुछ अंश यहां रखना आवश्यक लगता है:

अशोक वाजपेयी लिखते हैं

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस संघर्ष में एक बात और गौरतलब है, चाहे हुसेन द्वारा चित्रित सरस्वती या भारत माता हो, बड़ोदरा के चंद्रमोहन द्वारा बनाई दुर्गा और ईसा मसीह की छबियां, इन सभी को शु;द्ध अभिधा की तरह देखा-पढ़ा जा रहा है। सारी कला को निरा अमिधा में घटा देना और उसके व्यंजित आशय की अनदेखी करना ठीक से देखने समझने की असमर्थता प्रकट करता है। सारी कला को मात्र प्रतिनिधित्व करनेवाली कला मानना उसके कई शक्तियों और अभिप्रायों को हाशिये पर धकेलना है। विषय, किसी भी कृति का विषय उसका आशय नहीं होता, पूरा आशय तो किसी भी तरह से नहीं। सारी कला को उसके विषय तक महदूद करना कला को हाशिये पर करना है। अमिधा से आतंकित शक्तियां दरअसल एक तरह के सांस्कृतिक आतंकवाद का संस्करण हैं जो दो अर्थों में कलाकृति को नष्ट करते हैं : उसे भौतिक रूप से ध्वस्त-नष्ट करके या फाड़कर या उस पर रंग या कीचड़ फेंककर । दूसरा उसके कलात्मक गुणों की पूरी तरह से अनदेखी कर उसे सिर्फ विषय मानकर उसके सारे अन्य अर्थों को तिरोहित करने की चेष्टा करते हुए।

प्रभाष जोशी लिखते हैं
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....अब संघ संप्रदायी वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्वतंत्रता का नहीं किसी के भी ईश्वर की निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन करने के लिए नहीं बनाए थे। लेकिन मंदिर बनानेवालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेस्त्रर के मंदिर सबके लिए और धर्म के लिए बनाए। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़िए इन मंदिरों को और हमारे पौराणिक साहित्य को। कभी सोचा है अरुण जेटली! कि महादेव का ज्योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्थापित किया जाता है वह किसकी प्रतीक है? क्या हिंदुओं के धर्म और देवी देवताओं को सामी और संगठित इस्लाम या ईसाइयत समझ रखा है जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो? थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो!

Thursday, May 17, 2007

प्रतिध्‍वनि

भाई परमजीत जी ! देश और समाज के प्रति आपकी भावनाओं का आदर करते हुए यह कहना चाहूंगा कि आप विक्रमजी के लेख के मर्म से चूक गए। इसमें कही नहीं कहा गया है कि कलाकारों को देश और समाज को गाली देने लगना चाहिए। लेकिन यह ठेका किसी व्‍यक्ति या कुछ शोहदों को क्‍यों मिले कि वह तय करें कि देश के लिए क्‍या ठीक है और समाज को क्‍या करना चाहिए। यहं बात किसी पेंटिंग तक सीमित तक नहीं है यह उस प्रवृति को रेखांकित करती है जो हमें यथास्थिति में जकड़े रहना चाहती है। कल्‍पना और कला ही वह ताकत है जो हमें इन घेरों से बाहर निकालने में मदद करती है और अगर वह मनुष्‍य के पास नहीं होती तो शायद हम आज भी कंदराओं और गुफाओं में रह रहे होते। आमीन
भाई लेख तो बहुत अच्छा है लेकिन क्या कलाकार का कोई कर्तव्य नही होता अपनें देश के प्रति? क्या उसे यह ध्यान नही रखना चाहिए कि जो वह कला प्रदर्शित कर रहा है उस से देश मे रहने वालो की भावनाएं तो कही आहत नही होगी? सच्चा कलाकार सत्य का दर्शन तो कराता है लेकिन उसे भी अपनी कला प्रदर्शित करते समय इस मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए।
परमजीत बाली

Wednesday, May 16, 2007

कला और धर्म


के बिक्रम सिंह वस्तुत: फिल्मकार हैं। फिल्मों के अलावा अन्‍य कला रूपों एवं सम सामयिक विषयों पर उनकी बेबाक टिप्पणियां जनसत्ता में हम बिंब प्रतिबिंब नामक उनके स्‍तंभ में नियमित रूप से पढ़ते रहे हैं। पिछले दिनों बड़ौदा में कला के विद्यार्थी चंद्रमोहन की एक पेंटिंग को लेकर बवाल मचा। कट्टरपंथियों ने उन पर हमला बोला ही गुजरात पुलिस ने उन्हें हवालात में बंद कर दिया। वहीं घिसा-पिटा तर्क कि इससे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है। ... धर्म की आड़ लेकर कलाकारों पर किये जा रहे हमले के संदर्भ में उन्होंने कला और धर्म के विकास पर विचार किया है। प्रस्तुत है उसके कुछ अंश:
मैंने जानबूझकर धर्म की बजाय मजहब शब्द का इस्तेमाल किया है , क्योंकि धर्म शब्द का अर्थ व्यापक है। मजहब के अलावा धर्म को कर्तव्य के अर्थ में भी इस्तेमाल किया जाता सकता है जैसे महाभारत मंे भीष्म पितामह ने कौरवों का साथ देने के लिए धर्म का हवाला दिया था। भीष्म पितामह यह जानते थे कि न्याय और अन्याय की इस लड़ाई में न्याय पांडवों के साथ है, लेकिन उनका कर्तव्य कौरवों के राज्य की रक्षा करना था, क्योंकि वे उसी राज्य के सेवक थे और उसी का उन्होंने नमक खाया था।
....(यहां कुछ विवरण छोड् दिया गया है)यह तो सभी जानते हैं कि धर्म यानी मजहब और कला का पुराना रिश्ता है। चाहे वह इटली के पुनर्जागरण के समय की कला हो, अजंता कक भित्ति चित्र की कला हो या फिर मंदिरों की मूर्तिकला। इन सभीका एक स्रोत धर्म रहा है। धर्म की छत्रछाया में ही ये सभी पली हैं। लेकिन यह भी मानना होगा कि कम से कम शुरुआती दौर में धर्म को भी कला की उतनी ही आवश्यकता थी जितनी कला को धर्म की। प्रोफेसर वाइटहेड के अनुसार जब धर्म मानव इतिहास में अवतरित होता है तो उसके चार रूप नजर आते हैं। ये रूप हैं - रीति संस्कार, भावना, विश्वास और औचित्य स्थापन। साधारणतया यह माना ही जाता है कि सृष्टि के कम से कम दो रूप हैं - दृश्य और अद्श्य। जा दृश्य है वह भले ही हम समझ न पाएं, लेकिन कम से कम उसे देख सकते हैं। अदृश्य को सभ्यता के शुरुआती दौर में न देखा जा सकता था और न ही समझा। जिसे हम समझ नहीं पाते, लेकिन किसी तरह महसूस कर सकते हैं उससे या तो भय की उत्पति होती है या आश्चर्य की। आदि मानव की यही दो प्रधान भावनाएं थीं। भय से धर्म का जन्म हुआ और आश्चर्य से कला का।
अपने भय पर काबू पाने के लिए और उन शक्तियों का संरक्षण पाने के लिए, जिससे वह डरता था उसने रीति यानी रिचुअल का सहारा लिया, इस आशा से कि इनके द्वारा वे शक्तियां उससे प्रसन्न रहेंगी और उनकी कृृपा मनुष्य पर बनी रहेगी। लेकिन रीति के लिए प्रतीक और संगीत की आवश्कता थी और इसलिए उसने धर्म को संगीतकार और कलाकार की जरूरत पड़ी। रीति पालन करते-करते एक नई बात पैदा हुई। कला के जोड़ के कारण मनुष्य को इसमें अनंद का अनुभव होने लगा। अब रीति पालन दैवीय शक्तियों का अनुकुल बनाने के लिए आवश्यक नहीं रह गया, आनंद प्राप्ति का एक जरिया भी बन गया। शायद इसी आनंद भावना के कारण नृत्य, नाटक, मूर्तिकला, और चित्रकला की शुरुआत स्वतंत्र कलाओं के रूप में हुई जो अब धर्म के ऊपर पूर्णत: निर्भर नहीं थीं। इस तरह से यह कहा गया जा सकता है कि बाद में कला की स्वतंत्र स्थापना हुई।
जैसे-जैसे मजहब संगठित होता गया और उसकी जकड़ समाज पर बढ़ती चली गई वैसे-वैसे मनुष्य का निजी जीवन और सामाजिक आचरण दोनों धर्म की गिरफ्त में आते चले गये। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कोई फर्क नहीं रहा। दरअसल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धरणा प्रजातंत्र के आने के बाद ही उभर कर आई। तब भी बहुत अरसे तक इंसान का व्यक्तिगत जीवन धर्म के बताए हुए रास्ते पर ही चलता रहा।
हमारे समय की स्थिति अब बिल्कुल है। लगभग सभी धर्म ईमानदारी, सौहार्द और अच्छे इंसान बनने यानी दूसरे लागों का भला करने का सबक सिखाते हैं। लेकिन अब हमारे निजी जीवन में इन चीजों की कोई बाकी जगह नहीं रही है। पूंजीवाद की शिक्षा कुछ अलग है। व्यापार बढ़ाओ, धन कमाओ, और सबसे आगे बढ़कर चलो, चाहे इसके लिए तुम्हें औरों को कुचलकर आगे बढ़ना पड़े। दूसरों के साथ अपना धन बांटने में कोई अच्छाई नहीं है। तुम जितना ज्यादा धन अपने ऊपर व्यय करोगे उतने ही बड़े आदमी बनोगे।
एक संकीर्ण तबके के लिए धर्म अब जातीय चिह्न मात्र बन कर रह गया है, जो हमें एक-दूसरे से अलग करता है और जिसके झंडे के नीचे एकत्रित होकर हम दूसरों पर हमला कर सकते हैं। इसमें दूसरों से बचाव की भावना कम है और और आक्रमण की भावना अधिक । विडंबना यह है कि झंडे के नीचे इकट्ठा होने के लिए हर इंसान को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छोड़कर एक ही तरह का व्यवहार करना पडेगा। इसलिए धर्म के ठेकेदारों को कलाकार की स्वतंत्रता नामंजूर है क्योंकि कलाकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रतीक है। वह धर्म के प्रतीकों को अपनी ऐतिहासिक धरोहर के तौर पर स्वीकार तो करता है, परंतु उन प्रतीकों से कलात्मक ढंग से खेलने का अधिकार छोड़ना नहीं चाहता। और छोड़े भी क्यों, आखिर ये प्रतीक उसी के पूर्वजों ने बनाए हैं और हिंदू धर्म में तो इन प्रतीकों के कितने रूप हैं। चाहे शिव हो या हनुमान या फिर गणेश हो या विष्णु, इनके अनेक रूप हैं तो इनका एक और रूप क्यों नहीं हो सकता।
यही बात उन प्रतीक चिह्नों पर भी लागू होती है जो धार्मिक तो नहीं हैं, लेकिन लगभग धार्मिक हैं जैसे भारत माता। आधुनिक युग में भारत माता का पहला चित्र अबनींद्रनाथ ने बनाया था। हुसेन के चित्र भारत माता` को लेकर जो विवाद चल रहा है इस बारे में 'सहमत` ने दिल्ली के प्रेस क्लब में इसी सप्ताह एक प्रेस कांफ्रेंस की थी। (जिसमें यह तर्क दिया गया कि चित्र को यह शीर्षक हुसेन ने नहीं बल्कि एक आर्ट गैलरी ने दिया था) के बिक्रम लिखते हैं कि अगर यह नाम हुसेन ने स्वयं भी दिया होता तो यह विवाद का कारण क्यों बनना चाहिए! जब हम भारत को भारत माता के रूप मं श्रद्धेय मानते हैं तो उसका चित्रण स्त्री के आकार में करना क्या गुनाह है! मान लिया, स्त्री का आकार इस चित्र में निर्वस्त्र है, लेकिन उसमें कहीं कामुकता या अश्लीलता नजर नहीं आती । एक और दृष्टि से देखें तो तो हम सबने बचपन में अपनी मां को कमोबेश निर्वस्त्र रूप में देखा ही है। स्त्री का हर निर्वस्त्र रूप कामुकता का द्योतक नहीं है और न ही निरादर का।
दरअसल, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी लोग और कलाकार जो आजकल बाजार में व्यस्त हैं, यह लड़ाई आधे मन से लड़ रहे हैं। कट्टरवादी धार्मिक संस्थाएं और राजनीतिक दल खुल्लम-खुल्ला यह कोशिश कर रहे हैं कि भारतीय समाज मंे कलाकार की स्वतंत्रता तो अलग व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भी गूंजाइश नहीं है। बुद्धिजीवियों और कलाकारों को यह लड़ाई जीतनी है तो उन्हें इस लड़ाई में सक्रिय रूप से शामिल होना पड़ेगा और इसे संपूर्ण राजनीतिक शस्त्रों से लड़ना पड़ेगा। क्या हमारे कलाकार इसके लिए तैयार हैं? यदि नहीं तो हुसेन और चंद्रमोहन के बाद उनका नंबर भी जरूर आएगा या फिर वे विहिप और भाजपा की आज्ञा लेने के बाद अपनी कला का सृजन करेंगे?

Sunday, May 13, 2007

शिक्षा में समरहिल का हस्तक्षेप

पिछले वर्षो में शिक्षा पर कुछ सार्थक बहसें हुई हैं। इसी दौर में राज्यपोषित साक्षरता और सर्वशिक्षा अभियान जैसे बड़े प्रकल्प हाथ में लिए हैं और कहीं-कहीं कुछ हद तक समाज की भागीदारी भी बढ़ी है। कुछ स्वैच्छिक समूहों ने कोरी बहसों से इतर जमीनी प्रयोग किए हैं और नए विकल्प भी खड़े किए हैं। इनमें एकलव्य, बोध, विद्याभवन, प्रथम आदि कई महत्वपूर्ण नाम हैं। इन संस्थाओं ने जमीनी काम के अपने अनुभव के दस्तावेज तो उपलब्ध तो कराए ही हैं शिक्षा के मामले में विश्व के दूसरे हिस्सों में किए गए प्रयोगों से भी हमारा परिचय कराया है। इस सिलसिले में एकलव्य द्वारा 'समरहिल` का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित करना एक महत्वपूर्ण घटना है। शिक्षा पर शास्त्रीय रचनाओं को हिन्दी में उपलब्ध कराना, एकलव्य का एजेंडा में शामिल रहा है। लेकिन जॉन होल्ट की किताब 'बच्चे असफल कैसे होते हैं` के प्रकाशन के लंबे इंतजार के बाद इस श्रृंखला में यह किताब आई है।

यह किताब दरअसल एक नवाचारी स्कूल 'समरहिल` की कहानी है। इसे ए.एस.नील और उनकी पत्नी फ्रा न्यूस्टैटर ने १९२१ में जर्मनी में इसे शुरू किया था। लेकिन यह कोशिश सफल नहीं हुई। अंतत: १९२३ में यह इंग्लैंड के सफोल्फ क्षेत्र में लंदन से करीब सौ मील दूर एक गांव मंंे स्थापित हुआ और अभी तक चल रहा है। अब इसका काम नील और फ्रा की बेटी जोई देखती हैं। संयोग से ए.एस नील का सामय भी वही दौर है जब भारत में महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, जे.कृष्णमूर्ति और गीजूभाई वधेका ने शिक्षा को लेकर कई तरह के प्रयोग किए। नील के काम पर मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के चिंतन का स्पष्ट असर दिखता है। उनके चिंतन में सेक्स और दमन मुख्य कारक है।

समरहिल की यह कहानी ए.एस.नील के चालिस वर्षों के शैक्षिक अवलोकन व प्रयोग का दस्तावेज है। यह एक तरह से रोज बच्चों की विभिन्न समस्याओं से जूझते हुए उनकी आजादी और स्वतंत्र व्यक्तित्व को सुरक्षित रखने की कहानी है। इस दौराने वे बच्चों, अभिभावकों, प्रशासकों और सामाजिक मान्यताओं व मूल्यों का धीरज से सामना करते हुए बिना सिकन के अपना काम जारी रखते हैं। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं था। वे कहते हैं ''समरहिल को चलाना हमेशा से ही कुछ कठिन रहा है। ऐसे माता-पिता कम ही हैं जिनमें इतना धीरज या विश्वास हो कि अपने बच्चे को एक ऐसे स्कूल में भेजें जहां पढ़ने के विकल्प के रूप में वे खेलें। वे यह सोचकर वे थर्राते हैं कि कहीं इक्कीस का होने के बाद भी उनका बेटा गुजारा करने भर न कमा पाए।`` हमारे समय और समाज में अभी भी ऐसे नवाचारी काम के लिए यह चुनौती खत्म नहीं हुई है।

नील बच्चों का वैसे ही बयान करते हैं जैसे वे होते हैं वैसा नहीं जैसा वयस्क चाहते हैं। स्वशासन, शिष्टाचार, सहशिक्षा, काम, खेल, नाटक, संगीत, धर्म, सेक्स, भय, हीनभावना, कल्पनालोक, झूठ, आज्ञापालन, सज़ा, टट्टी-पेशाब का प्रशिक्षण, खिलौने, पैसा, गालियां बकना, यौन निर्देश, समलैंगिकता, हस्तमैथुन, चोरी ऐसी अनेकों बाते हैं जो बच्चों के अभिभावकों को दिन-रात परेशान रखती हैं, विभिन्न संदर्भों में नील इनका विश्लेषण करते हैं और बच्चों के साथ हुए वास्तविक अनुभवों को सिलसिलेवार रखते हैंं।
नील कई उदाहरण देकर यह साबित करते हैं कि बच्चों में समस्या या आदतें (बुरी) उनके परिवेश और परिवार के प्रति प्रतिक्रियाएं हैं जो दमन की वजह से मौके पर अभिव्यक्त नहीं हो पाई हैं। सिर्फ बच्चे पर काम करके उनसे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। वे कहते हैं दमन हमेशा अवज्ञा जगाता है। स्वभाविक है कि अवज्ञा बदले की भावना पैदा करती है। अगर हमें अपराध खत्म करने हैं तो हमें वे सब चीजेें खत्म करनी होंगी जो बच्चों में बदला लेने की इच्छा जगाती हैं। बचपन की अधिकांश समस्याओं का समाधान ऐसे प्रेममय वातावरण से ही हो सकता है जिसमें माता-पिता का अनुशासन न हो। मैं चाहता हूं कि यह बात भी सभी माता-पिता समझें। अगर उनके बच्चों को घर में प्यार और अनुमोदन का वातावरण मिलेगा तो बदमिजाजी, घृणा और नष्ट करने की इच्छा कभी नहीं जन्मेंगी।
बच्चों में बेईमानी को, बदमाश दोस्तों की साहबत, फिल्मों की ंहिंसा का प्रभाव या पिता के सेना में होने से नियंत्रण में कमी आदि बताए जाने को वे भूल मानते हैं। उनका कहना है कि जो बच्चा घर में प्रेम और प्रशंसा के साथ पलता है, सेक्स के प्रति जिसका दृष्टिकोण सहज रूप से विकसित हो पाता है, उन पर इन तमाम कारणों का असर सीमित या न के बराबर पड़ता है। अंतत: वे कहते हैं कि समूची मानवता इसी आस पर टिकी है कि अगर माता-पिता सजग हों और बच्चों के मुक्ति, ज्ञान और प्रेम की दिशा मंे बढ़ाने के पक्ष में हों तो वे जो कुछ करेंगे वह उनके हित मंे ही होगा।
नील का मानना है कि जीवन का लक्ष्य है आनंद हासिल करना। इसका अर्थ है (उन्हें आनंदमार्गी न समझा जाए) अपनी वास्तविक रुचि को तलाश पाना। शिक्षा (का लक्ष्य) जीवन की तैयारी होनी चाहिए। हमारी संस्कृति उतनी सफल नहीं रही है। हमारी शिक्षा राजनीति और अर्थव्यवस्था युद्ध की ओर ले जाती है। हमारी औषधियों से रोग समाप्त नहीं हुआ है। हमारे धर्म ने सूदखोरी और चोरी खत्म नहीं की है। जिस मानवतावाद का हम इतना बखान करते हैं वह आज भी आम जनता को शिकार जैसे बर्बर खेल की स्वीकृति देता है...। इन पंक्तियों के जरिये वह शिक्षा के प्रति अपने नजरिए को स्पष्ट करतेे हैं। सूचनाओं से लाद देनेवाली वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के उत्पादों पर वह कड़ी प्रतिक्रिया करते हैं - ये विद्यार्थी बहुत कुछ जानते हैं उनकी अभिव्यक्ति और तर्कशक्ति अच्छी होती है। वे तमाम पोथों को उद्धृत करते हैं। पर जीवन के प्रति उनका नजरिया बच्चों जैसा होता है। क्योंकि उन्हें सिर्फ जानना सिखाया जाता है महसूस करना नहीं।....``

आजादी, स्व-नियंत्रण और प्रेम पर आधारित समरहिल के नियम-कानून और व्यवस्थाओं पर पूरा नियंत्रण बच्चों का होता है। कठिन परिस्थितियों में ही बच्चे शिक्षकों की मदद लेते हैं। इस स्कूल में बच्चे और शिक्षक का मत बराबर है। नील अपने विस्तृत व्योरे से स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि स्व-नियंत्रण से कभी किसी मनुष्य का नुकसान नहीं हुआ। उनका मानना है कि बचपन की स्वाभाविक रुचियों के दमन के कारण मनुष्य में कुंठाएं और नफरतें बसती हैं जो संसार की अमानवीयता और क्रूरता का कारण हैं। समरहिल में बच्चों को कुंठा और दमन से मुक्त रखने की काशिश होती है।
बच्चों के बारे में नील का सूक्ष्म अवलोकन है। उनका मानना है कि बच्चों में वास्तविकता और काल्पनिक जगत काफी आस-पास होते हैं। उनकी रुचियां तात्कालिक होती हैं और भविष्य का अस्तित्व होता ही नहीं है। सामुदायिक और सामाजिक जिम्मेवारी की भावना अठारह की उम्र से पहले विकसित नहीं होती। इसलिए भविष्य से डरे हुए अभिभावक बच्चों को उत्तरदायी बनाने के चक्कर में उनका बचपन तो नष्ट करते ही हैं आगे के जीवन पर भी प्रश्न चिह्न खड़े कर देते हैं। इस किताब में ऐस बच्चों और अभिभावकों से कई रोचक मुठभेड़ें हैंं।
आखिर नील बच्चों के साथ क्या करते हैं? क्या वे मनोचिकित्सक हें? इस प्रश्न का उत्तर वह खुद ही देते हैंै- मैंने धीरे-धीरे पाया कि मेरा क्षेत्र, इलाज न होकर, रोगनिरोध का है। इसका पूरा अर्थ समझने में मुझे सालों लगे। तब पता चला कि समरहिल में आनेवाले बच्चे इलाज की वजह से नहीं बल्कि आजादी की वजह से सुधरते हैं। मैंने पाया कि मेरा मुख्य काम चुपचाप बैठै रहकर उस सबका अनुमोदन करना है जिसे जिसे बच्चा अपनी कमी मानकर नफरत करता है। अर्थात मुझे बच्चे पर लादे गए उस विवेक को तोड़ना है जो उसमें खुद के प्रति नफरत जगाता है।``
आजादी और स्व-अनुशासन की बात करते हैं हुए वे काफी सजग हंैं - मैं साफ कर दूं कि मैं स्वेच्छाचारिता का हिमायती नहीं हूं। पूरी आजादी जैसी कोई चीज नहीं होती। न ही किसी इंसान को पूरी सामाजिक आजादी रहती है क्योंकि हरेक को दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना पड़ता है। परंतु व्यक्तिगत आजादी सबको मिलनी चाहिए। समरहिल मंे बच्चे को हमेशा मनचाहा करने के बारे में छूट नहीं मिलती। बच्चों द्वारा बनाये गए नियम ही उन्हें सीमा में बांधते हैं। उसे केवल वही चीजें अपनी मर्जी से करने दी जाती हैं जो केवल उसे प्रभावित करती हैं, किसी दूसरे को नहीं। यानी वह चाहे तो दिन भर खेल सकता है क्योंकि खेलना या पढ़ना उसका मामला है लेकिन क्लास में वह पुंगी नहीं बजा सकता क्योंकि उसका ऐसा करना दूसरों को भी प्रभावित करेगा।
आमतौर पर स्व-अनुशासन अर्थ वयस्कों द्वारा लादे गए नैतिक विचारों के अनुसार खुद को अनुशासित करना ही समझा जाता है। लेकिन वास्तविक स्व-अनुशासन में न तो दमन होता है न ही दूसरे के विचारों की स्वीकृति। उसमें दूसरों की खुशी और अधिकारों का पर्याप्त सम्मान होता है। यह व्यक्ति को उस दिशा में ले जाता है जहां वह दूसरों के नजरिए के सम्मान में कुछ चीजें समझ-बूझकर त्यागता है, ताकि वह सबके साथ शांति से रह सके।
नील अपने अवलोकन और व्याख्या में कई अवधारणाओं को नया प्रकाश देते हैं। परंतु 'यही` और बस 'इतना` ही का नुस्खा नहीं देते। उनका जोर परिस्थिति, परिवेश और बच्चे के अवलोकन पर है। उनकी शिक्षा दृष्टि और स्कूल की क्रांतिकारी अवधारणा न केवल उस समय बल्कि आज भी कई रूपों में शिक्षा मंे प्रयोग करनेवालों के लिए चुनौती है। क्योंकि इस प्रक्रिया में शिक्षक व अभिभावक का विवेक बहुत महत्वपूर्ण है। नील की पद्धति शिक्षकों अभिभावकों से असीम धीरज और कौशल की मांग करती है। आज की फटाफट उत्पादवाली शिक्षा शैली से अलग इसमें बच्चे की रुचि और दिशा विकसित होने का इंतजार किया जाता है। उसको महसूस करने की कोशिश होती है। वह कहते हैं, ''इस प्रक्रिया में शिक्षक का काम दरअसल बड़ा आसान है उसे बस इतना भर पता करना है कि बच्चे की रुचि कहां है और तब उस रुचि को जीने का उसे भरपूर मौका देना है। किसी रुचि को दबाने, उसे चुप कर देने से रुचि मरती नहीं, सिर्फ सतह के नीचे दब जाती है।``
समरहिल का लक्ष्य एक खुशहाल निद्वंद्व रचनात्मक इंसान है। मोटी तनख्वाह पर उबाऊ काम में जीवन नष्ट करनेवाले, छद्म जीवन जीनेवाले इंसान नहीं। समरहिल से निकलनेवाले लड़के मोटर मैकेनिक भी हैं और चिकित्सक भी, इसे उन्होंने अपनी रुचि से चुना है और इसको वे भरपूर आनंद से जीते हैं। उनके लिए कोई नामचीन पेशा नहीं बल्कि उस काम से मिलनेवाला आनंद महत्वपूर्ण है।

धर्म पर अपनी संक्षित्प टिप्पणी में वे कहते हैं, धर्म को इसलिए दूर रखूंगा क्योंकि धर्म सिर्फ बोलता है, उपदेश देता है भावनाओं का शुद्धीकरण और दमन करता है। धर्म पाप की कल्पना वहां करता है जहां दरअसल पाप न हो। वह स्वतंत्र इच्छाशक्ति को मानकर चलता है। जबकि कई बच्चे अपनी प्रवृतियों के इस कदर गुलाम होते हैं कि उनकी इच्छाशक्ति स्वतंत्र रह ही नहीं पाती।

किताब का अंतिम हिस्सा नील से विभिन्न मुद्दों पर लिए गए साक्षात्कार का है। इसको देखकर दुहराव का खयाल आता है। लेकिन बच्चों से जुड़े मुद्दे इतने नए परिवेश और परिप्रेक्ष्यों से आते हैं कि उनकी नविनता बरकरार रहती है और वह उन मुद्दों पर हमारे नजरिए को फिर से मांजते हैं। प्रश्नोंत्तर में नील का धीरज और बेबाकी साफ दिखते हैं -
प्र.एक शिक्षिका को क्या करना चाहिए जब बच्चा कक्षा में पेंसिल से खेल रहा हो
उ. पेंसिल यानी शिश्न। बच्चे के लिए शिश्न से खेलना निषिद्ध है। उपचार- अभिभावकों से कहें कि वे हस्तमैथुन पर से प्रतिबंध हटा दें।

नील अपनी जिरह में किसी भी वाद से अलग मनुष्य की स्वतंत्रता, स्व-अनुशासन और प्रेम को मूल्य की तरह अपनाते हैं और इसके खिलाफ किसी भी कोशिश को आड़े हाथ लेते हैं - मैंने अपने जीवन में दो भयावह युद्ध देखे हैं। संभव है कि मैं एक तीसरा और अधिक भयावह युद्ध भी देखूं। कई करोड़ नौजवान इन दो युद्धों में मरे हैं। १९१४ से १९१८ के बीच तमाम सैनिक उस साम्राज्यवादी युद्ध में खप रहे थे जो तमाम युद्धों को खत्म करने के नाम पर लड़ा गया। और दूसरे विश्वयुद्ध में वे फासीवाद को खत्म करने के नाम पर जान गंवा रहे थे। कल वे शायद साम्यवाद के दमन के नाम पर मरें। इसका मतलब यह है कि कुछ केन्द्रीय ताकतों के हुक्म पर लोग उन मुद्दों के नाम पर अपने और अपने बच्चों की आहूति दे डालते हैं, जो उनके व्यक्तिगत जीवन को छूते तक नहीं। .....हमें प्रशिक्षित किया गया है कि हम निरीह भाव से सत्तालोलुप समाज के अनुरूप ढालते चलें। अपने मालिक के हुकुम पर, उसके आदर्शोें के लिए जान गंवाने को तैयार रहें। ......``
हालांकि नील का काम करने का तरीका प्रभावशाली है फिर भी वह अपने प्रयोग को अंतिम नहीं मानते। वह विनम्रता से स्वीकारते हैं कि दुनिया को बेहतर शिक्षण पद्धति ढूंढनी ही होगी क्योंकि राजनीति मानवता को नहीं बचाएगी। उसने कभी यह किया ही नहीं। अधिकांश समाचार पत्रों में हमेंशा घृणा ही भरी रहती है। लोग साम्यवादी इसलिए हैं क्योंकि वे अमीरों से घृणा करते हैं, इसलिए नहीं कि वे गरीबों से प्यार करते हैं। कई जगहों पर ऐसी बेबाक टिप्पणियां हैं जो हमारे राजनीतिक, शैक्षणिक, नैतिक, धार्मिक आस्थाओं (जड़ताओं?) को झकझोरती हैं। हालांकि समरहिल स्कूल पुराना है और उस पर अंग्रेजी में लिखी पुस्तक भी कोई खास नई नहीं है लेकिन हिन्दी समाज और उसका पाठक वर्ग जिन प्रक्रियाओं से गुजर रहा है उसमें यह किताब शिक्षा पर हो रही बहसों को नया आयाम देगी। पूर्वा याज्ञिक के अनुवाद कौशल की बदौलत कई महत्वपूर्ण किताबें हिन्दी में संभव हुई हैं। उनकी खासियत यही है कि वे अनुवादपन को पास नहीं फटकने देतीं।

लालबहादुर ओझा


पुस्तक का नाम : समरहिल
लेखक : ए.एस.नील
हिन्दी अनुवाद : पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा
प्रकाशक : एकलव्य, एच.आई.जी. ४५३/ई-७, अरेरा कॉलोनी भोपाल (म.प्र.)।
मूल्य : ११० रुपए।

Wednesday, May 9, 2007

इकबाल अहमद

इकबाल अहमद जैसे लोग दुनिया में विरले ही होते हैं। उनकी मृत्‍यु कैंसर से 1999 में हुई थी। मृत्‍यु के सात साल बाद उनकी हाल में एक किताब आयी है। किताब का शीर्षक है दि सिलेक्‍टेड राइटिंग्‍सस ऑफ इकबाल अहमद, जिसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस ने छापा है। यह उनका लेख संग्रह है। किताब की भूमिका लिखी है प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक व लेखक नोआम चॉम्‍स्‍की ने और इसे संपादित किया है कैरोली बेंगेल्‍सडॉर्फ, मार्गरेट सेरूलो और योगेश चंद्रानी ने। इस पुस्‍तक में भारत, पाकिस्‍तान, फलस्‍तीन, इजराइल, कश्‍मीर सहित पूरी दुनिया के हालात पर लेख शामिल हैं। यह पुस्‍तक अब भारत और पाकिस्‍तान में उपलब्‍ध है।

इकबाल अहमद बिहार के रहने वाले थ्‍ो। बंटवारे के वक्‍त वह अपने भाई सहित दिल्‍ली में परिवार से बिछुड़ गये और पाकिस्‍तान पहुंच गये। गांव में ज़मीन के झगड़े के कारण उनकी आंखों के सामने ही उनके पिता की हत्‍या कर दी गयी थी। शायद यही वजह थी जिसने उन्‍हें अहिंसा की विचारधारा की तरफ मोड़ दिया। उन्‍हें अमन का झंडाबरदार और नागरिक स्‍वतंत्रता का पैरोकार बना दिया। वह अंत तक इन्‍हीं सिद्धांतों के लिए लड़ते रहे और उन्‍हें जेल में भी डाला गया। वह ज़ि‍न्‍दगी भर दुनिया के फौजी तानाशाहों, मजहबी अतिवादियों, आतंकवादियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे। वह सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष थे।

उपनिवेशवाद विरोधी बुद्धिजीवियों में इकबाल अहमद (1933-1999) की जगह अहम है। हालांकि एडवर्ड सईद की ओरिएंटलिज्म की तरह उनकी कोई चर्चित पुस्‍तक नहीं है, फिर भी पश्चिम से लेकर पूर्व तक न केवल तीसरी दुनिया के अतिवादी विचारक बल्कि उनके विरोधी भी उनको आदर की दृष्टि से देखते हैं।

इकबाल हालांकि कल्‍पना की उड़ान भरने और महाद्वीप की सीमाओं से परे जाकर दो अलग-अलग विषयों के आपसी सूत्र तलाशने में माहिर थे, फिर भी वह अपने वक्‍तव्‍यों के लिए ज्‍यादा जाने जाते हैं। इकबाल अहमद एक ऐसे विचारक थे, जो ताउम्र मार्क्‍सवादी तो रहे लेकिन अपने तरीके से। आशीष नंदी ने उन्‍हें एक ऐसे लेनिनवादी के रूप में देखा है, जो आधे-अधूरे मार्क्‍सवादी थे। आगे चलकर उन्‍होंने पहली दुनिया अर्थात अमेरिका, जहां उन्‍होंने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया, के ज्‍यादातर सृजनशील मार्क्‍सवादियों की तर्ज पर लेनिनवाद की छाया से बाहर निकलने का प्रयास किया।
इकबाल को अपनी किशोरावस्‍था में ही भारत-पाकिस्‍तान विभाजन की त्रासदी से रूबरू होना पड़ा। विभाजन काल के रक्‍तरंजित माहौल में वह कुछ खास तरह के निष्‍कर्षों तक पहुंचे। रवींद्रनाथ टैगोर, जिन्‍हें वह एक कवि व विचारक के रूप में काफी सम्‍मान देते थे, की तरह ही वह समझते थे कि भारत के साम्राज्‍यवाद विरोधी आंदोलन में राष्‍ट्रवादी विचारधारा को अलग दृष्टि से देखना चाहिए।

इसी को स्‍पष्‍ट करते हुए सन 2000 में प्रकाशित डेविड बार्सेमियन के साथ साक्षात्‍कारों की एक सीरीज़ में उन्‍होंने कहा था, हम पश्चिमी साम्राज्‍यवाद को नकारते तो हैं, लेकिन इसी के साथ ही हम पश्चिमी राष्‍ट्रीयता को स्‍वीकार करते हैं और उसे ग्रहण करते हैं।

आज भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से लेखक, जिनमें नोबेल पुरस्‍कार से सम्‍मानित अर्थशास्‍त्री अमर्त्‍य सेन भी शामिल हैं, अहमद के इस कथन से कि राष्‍ट्रीयता विविधता की विचारधारा है, के प्रशंसक हैं। अपनी हाल की पुस्‍तक आइडेंटिटी एंड वायलेंस में अमर्त्‍य सेन भी इकबाल अहमद की तर्ज पर विविधतापूर्ण पहचान के स्‍थान पर राष्‍ट्रीयता की इकहरी पहचान थोपने पर सवाल उठाते हैं।

आज जब पूरी दुनिया को पूर्व और पश्‍िचम की अलग-अलग संस्‍कृतियों के आधार पर विभाजित करने के लिए नित नये मिथक गढ़े जा रहे हैं, इकबाल अहमद का यह सोचना अक्षरश: प्रासंगिक है कि पूर्व और पश्‍िचम के बीच का विभेद जान-बूझ कर कुछ राजनीतिक और आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए पैदा किया जा रहा है।

राष्‍ट्रपति बिल क्लिंटन के आदेश पर जब अमेरिकी सेनाओं ने 1998 में अफगानिस्‍तान और सूडान में बमबारी करना शुरू किया, तो उस दौरान उन्‍होंने आसन्‍न संकट को समझते हुए चेतावनी दी थी, अमेरिका ने मध्‍यपूर्व और दक्षिण एशिया में ज़हरीले बीज बो दिये हैं। यह बीज अब उग रहे हैं। कुछ पक चुके हैं, कुछ पकने को तैयार हैं। इस बात का परीक्षण जल्‍द ही होगा कि यह क्‍यों बोये गये, इनमें क्‍या उगा और वे उन्‍हें कैसे काटेंगे। मिसाइल से हर समस्‍या का समाधान नहीं किया जा सकता।

ऊपर दिये गये अंशों से हम इकबाल अहमद की कठमुल्‍लावाद के प्रति घृणा, साम्राज्‍यवादी पाखंड से द्वेष और इतिहास में उनकी आस्‍था को जान-समझ सकते हैं। इसी से उनके इस विश्‍वास को भी समझा जा सकता है कि समस्‍याओं के हल राजनीति और कूटनीति से ही प्राप्‍त किये जा सकते हैं, युद्ध से नहीं। 1984 में इस्‍लाम और राजनीति शीर्षक से लिखे अपने निबंध में उन्‍होंने लिखा था कि मुस्लिमों की दशा बहुत से विशेषज्ञों की समझ से बाहर रही है। मुसलमानों के बारे में उनकी रचनाएं इसलिए भी महत्‍वपूर्ण और यादगार है, क्‍योंकि ये बहुत सजगता और निहायत सूझबूझ से लिखी गयी है। उनकी दृष्टि में इस्‍लाम शुरुआती दौर में दबे-कुचले लोगों का धर्म था, क्‍योंकि उसका विकास बड़ी गहराई से सामाजिक विद्रोह से जुड़ा था।

अपनी मृत्‍यु के कुछ समय पहले 1999 में वह अमेरिका से पाकिस्‍तान आ गये। यहां वह मानविकी की पढ़ाई कराने के उद्देश्‍य से एक विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना करना चाहते थे। इस का नाम उन्‍होंने अरब के महान इतिहासकार इब्‍न खलदून (1332-1406) के नाम पर खलदूनिया विश्‍वविद्यालय सोच लिया था। हालांकि उनका यह सपना अधूरा ही रह गया।
इकबाल अहमद पर यह आलेख मोहल्‍ला से साभार

Wednesday, May 2, 2007

डॉ देव वाराणसी में रहते हैं। साहित्‍य की विभिन्‍न विधाओं में दखल रखते हैं। हमलोगों के लिए उनके गीत काफी महतवपूर्ण रहे हैं। खास तौर से यह गीत जिससे नुक्‍कड़ नाटकों के लिए मजमा जमाया जाता था। प्रस्‍तुत है उनका गीत......
आज नहीं तो कल चूमेगी पांव तेरे मंजिल
चलते जा ..चलते जा...

माना अनजाने सपनों का शहर हुआ जीवन
तूफानों के बीच भटकती लहर हुआ जीवन
मानो कहर हुआ जीवन.. मानो कहर हुआ जीवन..
चलते जा.. चलते जा...
कदम-कदम पर अंगारे हैं यहां जलेंगे पांव
दूर नहीं है अब पास है अपने अरमानों के गांव
तुम्‍हारे छाले देंगे छांव-तुम्‍हारे छाले देंगे छांव
चलते जा ... चलते जा....
आज नहीं तो कल ....