Monday, May 21, 2007

राष्‍ट्रीय चुनौतियों के लिए एक विकल्‍प

भारतीय पत्रकारिता में जिन हिन्‍दी पत्र-पत्रिकाओं ने नयी राह बनायी है उनमें से एक रविवार है। रविवार ने कई बड़े पत्रकार दिए जिनमें से एक राजकिशोर जी भी हैं। एक बार नामवर जी से किसी ने पूछा कि अगर हिन्‍दी के किसी एक पत्रकार का नाम लेना हो तो आप किसका नाम लेंगे, नामवरजी ने बेझिझक कहा - राजकिशोर। राजकिशोर जी के संबंध में ऐसे कई प्रसंग और मौके निकल आएंगे। हम सभी समसायिक विषयों पर उनकी प्रखर विश्‍लेषणात्‍मक दृष्कोण से लाभान्वित होते रहे हैं। पिछले दिनों भगत सिंह और 1857 के संदर्भ में जनसत्‍ता में उनके दो लेख प्रकाशित हुए। मैंने संगत के लिए उनसे उन लेखों हेतु आग्रह किया था। लेख तो अभी नहीं आ सकें हैं लेकिन उनके मूल विचारों से जुड़ा विस्‍तृत कार्यक्रम उन्‍होंने भेजा है। आप भी विचार करें ।
राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने के लिए एक विनम्र कार्यक्रम

1. भारत इस समय एक गंभीर संकट से गुजर रहा है। यह संकट समग्र संस्कृति
का संकट है। स्वतंत्रता के बाद हमने जीवन की जो व्यवस्था बनाई है, उसमें
अधिकांश लोगों के लिए कोई समाधान नहीं है। लगभग बीस प्रतिशत लोग संपन्न
हैं या संपन्नता की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन उनके जीवन में भी घोर असुरक्षा
है। यह नहीं कहा जा सकता कि वे सुखी भी हैं। बाकी लोगों के जीवन में
मुश्किलें ही मुश्किलें हैं। इसका प्रधान कारण वर्तमान राजनीतिक तंत्र को
माना जाता है। राजनेताओं के प्रति नफरत बढ़ रही है, क्योंकि उन्होंने समाज
की भलाई के लिए सोचना या काम करना बंद कर दिया है। किसी भी दल से लोग खुश
या संतुष्ट नहीं हैं। वामपंथी दलों का सम्मान थोड़ा बचा हुआ है, पर ये दल
अपनी घोषित प्रतिबध्दताओं के अनुसार न तो कार्यक्रम बना पा रहा हैं और न
ही अपना चरित्र सुधार पा रहे हैं। नक्सलवाद के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है,
पर वह निकट भविष्य में राष्ट्रीय मुक्ति का माध्यम बन सकता है, यह
विश्वास नहीं बन पा रहा है। हिंदूवादी संगठन खूंखार हो रहे हैं।
लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं कमजोर हो रही हैं। तानाशाही बढ़ रही है। नर्मदा
बचाओ जैसे कुछ आंदोलन आशा का स्रोत बने हुए हैं, पर इनके पास पूरे देश के
लिए कोई कार्यक्रम नहीं हैं। एनजीओं संस्थाएं कहीं-कहीं राहत के छिटपुट
कार्यक्रम चला रही हैं, पर उनके पास कोई बृहत विजन नहीं है। यही बात उन
छोटे-छोटे अभियानों के बारे में कही जा सकती है जो महिलाओं के विरुध्द
हिंसा, दलितों के अधिकारों की रक्षा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार,
पानी के लिए संघर्ष, बचपन बचाओ आदि पर केंद्रित हैं। किसानों की
आत्महत्याओं ने संकट के एक नए आयाम से हमारा परिचय कराया है। मजदूर वर्ग
में बेचैनी बढ़ रही है। कुल मिला कर, देश में इस समय निराशा और पस्ती का
वातावरण है। सभी को लगता है कि कोई ठोस पहल होनी चाहिए।
2. राजनीति का जवाब राजनीति है; बुरी राजनीति का जवाब अच्छी राजनीति है;
देश के नवनिर्माण के लिए कोई रास्ता निकलेगा, तो राजनीति से ही निकलेगा
-- ये बातें स्वतःसिध्द हैं। इनके बारे में कोई गंभीर मतभेद नहीं हो
सकता। लेकिन आज अगर कोई व्यक्ति या समूह सीधे राजनीतिक दल बनाने के लिए
निकले, तो उसकी असफलता निश्चित है। पिछले कुछ दशकों से अच्छे उद्देश्यों
से कई दल बनाए गए, लेकिन उनकी व्याप्ति नहीं हो पाई। ज्यादातर जेबी या
स्थानीय संगठन बन कर रह गए। कुछ तो तैयारी के स्तर से ही आगे नहीं बढ़
पाए। इस निराशाजनक स्थिति का कारण यह है कि चालू राजनीतिक दलों की
देखादेखी नए दल भी समाज में अपनी व्यापक जगह बनाए बिना सीधे सत्ता में
जाना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि सत्ता प्राप्त करने के बाद ही कोई बड़ा
काम किया जा सकता है। यह उलटा रास्ता है। संसदीय हिस्सेदारी की राजनीति
करने के पहले पर्याप्त समय तक जनता की सेवा कर समाज के बीच विश्वसनीयता
बनानी होगी तथा लोगों को परिवर्तन और संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करना
होगा। जनसाधारण में यह यकीन पैदा करना जरूरी है कि वे अपने सवालों को खुद
हल कर सकते हैं। हम मानते हैं कि दिखने में साधारण चीजों के लिए संघर्ष
चला कर ही बड़ी चीजों के लिए संघर्ष का वातावरण बनाया जा सकता है। हम यह
नहीं मानते कि यह महास्वप्नों का समय नहीं है। लेकिन हमें यह जरूर लगता
है कि कोई भी महास्वप्न तभी सफल होगा जब वह लघु स्वप्नों की नींव पर खड़ा
हो। रोम एक दिन में नहीं बना था। परिवर्तन एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसे
निरंतर चलाने की जरूरत है -- इस उद्देश्य के साथ कि लघु परिवर्तन बड़े
परिवर्तनों के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि बनाने का काम करते जाएं। इसके लिए जन
सेवा का अभियान छेड़ना बहुत उपयोगी होगा।
3. जो समूह बड़े लक्ष्यों के लिए काम कर रहे हैं, उनसे हमारी कोई
प्रतिद्वंद्विता नहीं है। जिन्हें समाजवाद, नागरिक अधिकार, पर्यावरण की
रक्षा आदि बड़े उद्देश्य आकर्षित करते हैं, वे अपनी ईष्ट दिशा में बढ़े,
उनका स्वागत है। ऐसे व्यक्तियों और संगठनों को हम सहयात्री मानेंगे और
उनका सम्मान करेंगे। उनसे सहयोग भी करेंगे। लेकिन हम, अपने स्तर पर, कुछ
अधिक ही विनम्र शुरुआत करना चाहते हैं। हमारा विश्वास है कि एक अच्छा
समाज बनाने के लिए सेवा, संगठन और संघर्ष के माध्यम से जनसाधारण की
सामान्य समझी जाने वाली समस्याओं का हल निकालने का प्रयत्न किया जाए, तो
रेडिकल समाधानों की ओर जाने के लिए एक सरल और व्यावहारिक रास्ता निकल
सकता है। लोग सामूहिक कार्रवाइयों के लिए तैयार हैं, जरूरत उन्हें संगठित
करने और वांछित दिशा में काम शुरू करने की है। हम विफलता से नहीं डरते;
ऐसी सफलता से जरूर डरते हैं जिससे हममें से कुछ के हृदय में सत्ता के
प्रति अस्वस्थ आकर्षण पैदा हो जाए।
4. आज के माहौल में 'सेवा' शब्द दकियानूस और मुलायम लगता है। लेकिन इससे
भड़कने की जरूरत नहीं है। 'क्रांति' जैसे सख्त शब्दों की परिणतियां हम देख
चुके हैं। लोकतांत्रिक सत्ताएं भी कितनी अहंकारी हो सकती है, यह तो हम
रोज ही देखते हैं। ऐसी स्थिति में, यदि हम एक विनम्र अवधारणा के माध्यम
से आगे की राह बनाने का प्रयास करें, तो यह प्रयोग करने योग्य जान पड़ता
है। सार्वजनिक जीवन में सेवा और संघर्ष जुड़वां प्रतीत होते हैं। सेवा का
दायरा जितना बड़ा होगा, संघर्ष की जरूरत उतनी ही ज्यादा सामने आएगी। इस
तरह यह एक सम्यक दर्शन भी बन सकता है। वस्तुत: सबसे बड़ा क्रांतिकारी जनता
का सबसे बड़ा सेवक ही हो सकता है।
5. हमारा मानना है कि भारतीय संविधान एक क्रांतिकारी दस्तावेज है और जन
सेवा के लिए उसका क्रांतिकारी इस्तेमाल हो सकता है। अगर अभी तक इस प्रकार
का इस्तेमाल नहीं हो पाया है, तो इसका कारण है कि संविधान के उन पहलुओं
की ओर ध्यान नहीं दिया गया है जिनमें मूलभूत परिवर्तन की आशा और मांग की
गई है। इस तरफ संकेत करने के लिए नमूने के रूप में हम संविधान के भाग 4
से कुछ उध्दरण दे रहे हैं।
(क) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक
न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी
रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास
करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास
करेगा और न केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों
में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच
भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास
करेगा। - अनुच्छेद 38
(ख) राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि
सुनिश्चित रूप से --- (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से
जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय के भौतिक
संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित
का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे
धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो; (घ)
पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (ड.) पुरुष
और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार
अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को
ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनका आयु या शक्ति के अनुकूल न हो; (च)
बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और
सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और
आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए। -- अनुच्छेद 39
(ग) राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक क्षेत्र इस प्रकार काम करे कि
समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टतया, यह सुनिश्चित
करेगा कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय
प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा
या किसी अन्य रीति से नि:शुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा। --
अनुच्छेद 39क
(घ) राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापनों या अन्य संगठनों
के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त
विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा। -- अनुच्छेद 43क
6. यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने
को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि
कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे लाभ हुआ है। ऐसे ही एक प्रयत्न
के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा
दिया गया है। हमारा मानना है कि न्यायालय भले ही सरकार को सभी नीति
निदेशक तत्वों पर चलने के लिए बाध्य न कर सकें, पर इसके लिए नागरिक
प्रयास करने पर संविधान में कोई रोक नहीं है। अर्थात नागरिक चाहें तो
राज्य के नीति निदेशक तत्वों (संविधान का भाग 4) को लागू कराने के लिए
आंदोलन कर सकते हैं। यह उनका लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार है। हमें
यकीन है कि अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल
करने के लिए आगे आते हैं, तो अदालत इन बहादुर और सदाशयी लोगों की सहायता
ही करेगी।
7. अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम
बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना
तथा हर इलाके में शुध्दिकरण का अभियान छेड़ना। यह काम कठिन है, असंभव
नहीं। इसके लिए एक ऐसा कार्यक्रम बनाने की जरूरत है, जिस पर तत्काल अमल
किया जा सके। ऐसे कार्यक्रम की एक बहुत संक्षिप्त रूपरेखा यहां पेश की
जाती है।

पहले और दूसरे वर्ष का कार्यक्रम
(क) कानून के राज की स्थापना -- कानून का राज कायम करना राज्य की
जिम्मेदारी है। राज्य किसी भी स्तर पर अपनी यह जिम्मेदारी पूरी नहीं कर
रहा है। इसलिए नागरिकों को यह बीड़ा उठाना चाहिए। उदाहरण के लिए, वे यह
सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर कोशिश कर सकते हैं कि
1.सार्वजनिक परिवहन के सभी साधन नियमानुसार चलें। बसों में यात्रियों की
निर्धारित संख्या से दस प्रतिशत से अधिक यात्री न चढ़ाए जाएं। बस चालकों
का व्यवहार अच्छा हो। महिलाओं, वृध्दों आदि को उनकी सीट मिलें। ऑटोरिक्शा
नियमानुसार किराया लें। बस स्टैंड, रेल स्टेशन साफ-सुथरे और नागरिक
सुविधाओं से युक्त हों।
2. सरकारी अस्पतालों में नियम और नैतिकता केअनुसार काम हो। रोगियों को आवश्यक सुविधाएं मिलें और पैसे या रसूख के बल पर कोई काम न हो। डॉक्टर पूरा समय दें। बिस्तर, वार्ड आदि साफ-सुथरे हों।
एयर कंडीशनर डॉक्टरों और प्रशासकों के लिए नहीं, रोगियों के लिए हों।
निजी अस्पतालों में रोगियों से ली जाने वाली फीस लोगों की वहन क्षमता के
भीतर हो। प्राइवेट डॉक्टरों से अनुरोध किया जाए कि वे ज्यादा फीस न लें
और रोज कम से कम एक घंटा मुफ्त रोगी देखें।
3. स्कूलों पर भी इसी तरह के नियम लागू होने चाहिए। छात्रों को प्रवेश देने की प्रक्रिया पूरी तरह
पारदर्शी हो। किसी को डोनेशन देने के लिए बाध्य न किया जाए। फीस कम से कम
रखी जाए। शिक्षकों को उचित वेतन मिले। शिक्षा संस्थानों को मुनाफे के लिए
न चलाया जाए।
4. थानों और पुलिस के कामकाज पर स्थानीय लोगों द्वारा निगरानी रखी जाए। किसी के साथ अन्याय न होने दिया जाए। अपराधियों को पैसे ले कर या रसूख की वजह से छोड़ा न जाए। सभी शिकायतें दर्ज हों और उन पर
कार्रवाई हो। हिरासत में पूछताछ के नाम पर जुल्म न हो। जेलों में कैदियों
के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। उनकी सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति हो।
5. अदालतों के कामकाज पर भी इसी दृष्टि से निगरानी रखी जाए।
(ख) नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था -- नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था करना
प्रशासन, नगरपालिका, पंचायत आदि का कम है। ये काम समय पर और ठीक से हों,
इसके लिए नागरिक हस्तक्षेप जरूरी है। बिजली, पानी, टेलीफोन, गैस आदि के
कनेक्शन देना, इनकी आपूर्ति बनाए रखना, सड़क, सफाई, शिक्षा, चिकित्सा,
प्रसूति, टीका, राशन कार्ड, पहचान पत्र आदि विभिन्न क्षेत्रों में नागरिक
सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर सतत
सक्रियता और निगरानी की जरूरत है। जिन चीजों की व्यवस्था सरकार,
नगरपालिका आदि नहीं कर पा रहे हैं जैसे पुस्तकालय और व्यायामशाला खोलना,
वेश्यालय बंद कराना, गुंडागर्दी पर रोक लगाना आदि उनके लिए नागरिकों के
सहयोग से काम किया जाए।
(ग) उचित वेतन, सम्मान तथा सुविधाओं की लड़ाइर् र् : मजदूरों को उचित वेतन
मिले, उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार हो, उनके काम के घंटे और स्थितिया
अमानवीय न हों, उन्हें मेडिकल सहायता, छुट्टी आदि सुविधाएं मिलें, इसके
लिए संघर्ष करना ही होगा। गांवों में खेतिहर मजदूरों के हितों की रक्षा
करनी होगी।
(घ) उचित कीमतों के लिए आग्रह : प्रायः सभी जगह देखा जाता है कि एक ही
चीज कई कीमतों पर मिलती है। सभी दुकानदार 'अधिकतम खुदरा मूल्य' के आधार
पर सामान बेचते हैं। ग्राहक यह तय नहीं कर पाता कि कितना प्रतिशत मुनाफा
कमाया जा रहा है। नागरिक टोलियों को यह अधिकार है कि वे प्रत्येक दुकान
में जाएं और बिल देख कर यह पता करें कि कौन-सी वस्तु कितनी कीमत दे कर
खरीदी गई है। उस आधार पर दस या पंद्रह प्रतिशत मुनाफा जोड़ कर प्रत्येक
वस्तु का विक्रय मूल्य तय करने का आग्रह किया जाए। दवाओं को मामले में इस
सामाजिक अंकेक्षण की सख्त जरूरत है। खुदरा व्यापार में कुछ निश्चित
प्रतिमान लागू कराने के बाद उत्पादकों से भी ऐसे ही प्रतिमानों का पालन
करने के लिए आग्रह किया जाएगा।
(ड़.) दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के हित : इन तीन तथा ऐसे अन्य
वर्गों के हितों पर आवश्यक ध्यान दिया जाएगा। इनके साथ किसी भी प्रकार के
दर्ुव्यवहार और भेदभाव को रोकने की पूरी कोशिश होगी।
इस तरह के अभियान शुरू के दो वर्षों में चलाए जाने चाहिए, ताकि लोगों में
यह विश्वास पैदा हो सके कि गलत चीजों से लड़ा जा सकता है, स्वस्थ बदलाव
संभव है और इसके लिए किसी बड़े या चमत्कारी नेता की आवश्यकता नहीं है।
गांव और मुहल्ले के सामान्य लोग भी संगठित और नियमित काम के जरिए सफलता
प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह का वातावरण बन जाने के बाद अगले वर्ष से बड़े
कार्यक्रम हाथ में लिए जा सकते हैं।

तीसरे और चौथे वर्ष का कार्यक्रम
भारत में अंग्रेजी शोषण, विषमता तथा अन्याय की भाषा है। अतः अंग्रेजी के
सार्वजनिक प्रयोग के विरुध्द अभियान चलाना आवश्यक है। बीड़ी, सिगरेट,
गुटका आदि के कारखानों को बंद कराना होगा। जो धंधे महिलाओं के शारीरिक
प्रदर्शन पर टिके हुए हैं, वे रोके जाएंगे। महंगे होटल, महंगी कारें,
जुआ, शराबघरों या कैबरे हाउसों में नाच आदि को खत्म करने का प्रयास किया
जाएगा। देश में पैदा होनेवाली चीजें, जैसे दवा, कपड़ा, पंखा, काजू, साइकिल
आदि, जब भारतीयों की जरूरतों से ज्यादा होंगी, तभी उनका निर्यात होना
चाहिए। इसी तरह, उन आयातों पर रोक लगाई जाए जिनकी आम भारतीयों को जरूरत
नहीं हैं या जो उनके हितों के विरुध्द हैं। राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधान
मंत्री, मुख्य मंत्री, मत्री, सांसद, विधायक, अधिकारी आदि से छोटे घरों
में और सादगी के साथ रहने का अनुरोध किया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि
एयरकंडीशनरों का इस्तेमाल खुद करने के बजाय वे उनका उपयोग अस्पतालों,
स्कूलों, वृध्दाश्रमों, पुस्तकालयों आदि में होने दें। रेलगाड़ियों,
सिनेमा हॉलों, नाटकघरों आदि में कई क्लास न हों। सभी के लिए एक ही दाम का
टिकट हो।

चार वर्ष बाद का कार्यक्रम
चार वर्षों में इस तरह का वातावरण बनाने में सफलता हासिल करना जरूरी है
कि राजनीति की धारा को प्रभावित करने में सक्षम हुआ जा सके। हम राज्य
सत्ता से घृणा नहीं करते। उसके लोकतांत्रिक अनुशासन को अनिवार्य मानते
हैं। हम मानते हैं कि बहुत-से बुनियादी परिवर्तन तभी हो सकते हैं जब
सत्ता सही लोगों के हाथ में हो। लेकिन जिस संगठन के माध्यम से यह सारा
कार्यक्रम चलेगा, उसके सदस्य चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। जिन्हें चुनाव लड़ने
की और सत्ता में जाने की अभिलाषा हो, उन्हें संगठन से त्यागपत्र देना
होगा। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के इस आंदोलन से जरूरी नहीं कि किसी एक ही
राष्ट्रीय दल का गठन हो। कई राजनीतिक दल बन सकते हैं, ताकि उनमें स्वस्थ
और लोकतांत्रिक प्रतिद्वंद्विता हो सके। जो लोग सत्ता में शिरकत करेंगे,
उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे मौजूदा संविधान को, यदि उसके कुछ
प्रावधान जन-विरोध पाए जाते हैं तो उनकी उपेक्षा करते हुए, सख्ती से लागू
करने का प्रयत्न करें। बुरे कानूनों को खत्म करें। अच्छे और जरूरी कानून
बनाएं। किसानों सहित सभी को उसकी उपज और उत्पादन का उचित मूल्य दिलाने का
प्रयत्न करें। सभी नीतियों में जनवादी परिवर्तन ले आएँ। राज्य सरकार के
स्तर पर भी इसी प्रकार के परिवर्तन अपेक्षित होंगे। राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण का यह अभियान पहले दिन से ही उनके कार्यवृत्त की कठोर
निगरानी करेगा जो इस अभियान से निकल कर सत्ता में शरीक होंगे।

संगठन
जाहिर है, यह सारा काम एक सांगठनिक ढांचे में ही हो सकता है। शुरुआत गांव
तथा मुहल्ला स्तर पर संगठन बना कर करनी होगी। जिस जिले में कम से कम
एक-चौथाई कार्य क्षेत्र में स्थानीय संगठन बन जाएं, वहां जिला स्तर पर
संगठन बनाया जा सकता है। राज्य स्तर पर संगठन बनाने के लिए कम से कम
एक-तिहाई जिलों में जिला स्तर का संगठन होना जरूरी है। राष्ट्रीय संगठन
सबसे आखिर में बनेगा। सदस्यों की पहचान के लिए बाईं भुजा में हरे रंग की
पट्टी या इसी तरह का कोई और उपाय अपनाना उपयोगी हो सकता है। इससे संगठित
हो कर काम करने में सहायता मिलेगी। सभी पदों के लिए चुनाव होगा।

कार्य प्रणाली
यह इस कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण पक्ष है। जो भी कार्यक्रम या
अभियान चलाया जाए, उसका शांतिपूर्ण होना आवश्यक है। प्रत्येक कार्यकर्ता
को गंभीर से गंभीर दबाव में भी हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करनी होगी। सभी
निर्णय कम से कम तीन-चौथाई बहुमत से लिए जाएंगे। पुलिस तथा सरकार के अन्य
अंगों को सूचित किए बिना सामाजिक अंकेक्षण, सामाजिक दबाव और संघर्ष का
कोई कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया जाएगा। अपील, अनुरोध, धरना, जुलूस,
जनसभा, असहयोग आदि उपायों का सहारा लिया जाएगा। आवश्यकतानुसार जन अभियान
के नए-नए तरीके निकाले जाएंगे। किसी को अपमानित या परेशान नहीं किया
जाएगा। जिनके विरुध्द आंदोलन होगा, उनके साथ भी प्रेम और सम्मानपूर्ण
व्यवहार होगा। कोशिश यह होगी कि उन्हें भी अपने आंदोलन में शामिल किया
जाए। आय और व्यय के स्पष्ट और सरल नियम बनाए जाएंगे। चंदे और आर्थिक
सहयोग से प्राप्त प्रत्येक पैसे का हिसाब रखा जाएगा, जिसे कोई भी देख
सकेगा। एक हजार रुपए से अधिक रकम बैंक में रखी जाएगी।
स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता समूह काम करेंगे। वे सप्ताह में कुछ दिन
सुबह और कुछ दिन शाम को एक निश्चित, पूर्वघोषित स्थान पर (जहां सुविधा
हो, इसके लिए कार्यालय बनाया जा सकता है) कम से कम एक घंटे के लिए एकत्र
होंगे, ताकि जिसे भी कोई कष्ट हो, वह वहां आ सके। कार्यक्रम की शुरुआत
कुछ क्रांतिकारी गीतों, भजनों, अच्छी किताबों के अंश के पाठ से होगी।
उसके बाद लोगों की शिकायतों को नोट किया जाएगा तथा अगले दिन क्या करना
है, कहां जाना है, इसकी योजना बनाई जाएगी। जिनके पास समाज को देने के लिए
ज्यादा समय है जैसे रिटायर लोग, नौजवान, महिलाएं, उन्हें इस कार्यक्रम के
साथ विशेष रूप से जोड़ा जाएगा।

निवेदन
कृपया इसकी प्रतियां बनवा कर मित्रों, परिचितों एवं अन्य व्यक्तियों के
बीच वितरित करें। अन्य भाषाओं में अनुवाद करवाने का भी आग्रह है।
प्रतिक्रिया तथा सुझाव भेजने का पता : राजकिशोर, 53, एक्सप्रेस
अपार्टमेंट्स, मयूर कुंज, दिल्ली - 110096 ईमेल : truthonly@gmail.com

3 comments:

  1. ओझा जी .. मेरे ब्लॉग की कड़ी अपने ब्लॉग पर देने के लिये बहुत शुक्रिया.. पर गलती से वहाँ.. निर्मल आनन्द के बदले निम्रल आनन्द लिख गया..कृपया सुधार लें..
    राज किशोर जी का लेख लम्बा है.. फ़ुर्सत से पढ़ रहा हूँ..

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  2. बहुत उपयोगी सुझाव हैं, विशेषकर समग्र आई.ए.एस. वर्ग को, सांसदों को, विधायकों को तो अवश्य पढ़ना चाहिए और यथासंभव कार्यान्वयन हेतु प्रयास करना चाहिए।

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  3. सुझाव बहुत उपयोगी है।

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