Sunday, May 13, 2007

शिक्षा में समरहिल का हस्तक्षेप

पिछले वर्षो में शिक्षा पर कुछ सार्थक बहसें हुई हैं। इसी दौर में राज्यपोषित साक्षरता और सर्वशिक्षा अभियान जैसे बड़े प्रकल्प हाथ में लिए हैं और कहीं-कहीं कुछ हद तक समाज की भागीदारी भी बढ़ी है। कुछ स्वैच्छिक समूहों ने कोरी बहसों से इतर जमीनी प्रयोग किए हैं और नए विकल्प भी खड़े किए हैं। इनमें एकलव्य, बोध, विद्याभवन, प्रथम आदि कई महत्वपूर्ण नाम हैं। इन संस्थाओं ने जमीनी काम के अपने अनुभव के दस्तावेज तो उपलब्ध तो कराए ही हैं शिक्षा के मामले में विश्व के दूसरे हिस्सों में किए गए प्रयोगों से भी हमारा परिचय कराया है। इस सिलसिले में एकलव्य द्वारा 'समरहिल` का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित करना एक महत्वपूर्ण घटना है। शिक्षा पर शास्त्रीय रचनाओं को हिन्दी में उपलब्ध कराना, एकलव्य का एजेंडा में शामिल रहा है। लेकिन जॉन होल्ट की किताब 'बच्चे असफल कैसे होते हैं` के प्रकाशन के लंबे इंतजार के बाद इस श्रृंखला में यह किताब आई है।

यह किताब दरअसल एक नवाचारी स्कूल 'समरहिल` की कहानी है। इसे ए.एस.नील और उनकी पत्नी फ्रा न्यूस्टैटर ने १९२१ में जर्मनी में इसे शुरू किया था। लेकिन यह कोशिश सफल नहीं हुई। अंतत: १९२३ में यह इंग्लैंड के सफोल्फ क्षेत्र में लंदन से करीब सौ मील दूर एक गांव मंंे स्थापित हुआ और अभी तक चल रहा है। अब इसका काम नील और फ्रा की बेटी जोई देखती हैं। संयोग से ए.एस नील का सामय भी वही दौर है जब भारत में महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, जे.कृष्णमूर्ति और गीजूभाई वधेका ने शिक्षा को लेकर कई तरह के प्रयोग किए। नील के काम पर मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के चिंतन का स्पष्ट असर दिखता है। उनके चिंतन में सेक्स और दमन मुख्य कारक है।

समरहिल की यह कहानी ए.एस.नील के चालिस वर्षों के शैक्षिक अवलोकन व प्रयोग का दस्तावेज है। यह एक तरह से रोज बच्चों की विभिन्न समस्याओं से जूझते हुए उनकी आजादी और स्वतंत्र व्यक्तित्व को सुरक्षित रखने की कहानी है। इस दौराने वे बच्चों, अभिभावकों, प्रशासकों और सामाजिक मान्यताओं व मूल्यों का धीरज से सामना करते हुए बिना सिकन के अपना काम जारी रखते हैं। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं था। वे कहते हैं ''समरहिल को चलाना हमेशा से ही कुछ कठिन रहा है। ऐसे माता-पिता कम ही हैं जिनमें इतना धीरज या विश्वास हो कि अपने बच्चे को एक ऐसे स्कूल में भेजें जहां पढ़ने के विकल्प के रूप में वे खेलें। वे यह सोचकर वे थर्राते हैं कि कहीं इक्कीस का होने के बाद भी उनका बेटा गुजारा करने भर न कमा पाए।`` हमारे समय और समाज में अभी भी ऐसे नवाचारी काम के लिए यह चुनौती खत्म नहीं हुई है।

नील बच्चों का वैसे ही बयान करते हैं जैसे वे होते हैं वैसा नहीं जैसा वयस्क चाहते हैं। स्वशासन, शिष्टाचार, सहशिक्षा, काम, खेल, नाटक, संगीत, धर्म, सेक्स, भय, हीनभावना, कल्पनालोक, झूठ, आज्ञापालन, सज़ा, टट्टी-पेशाब का प्रशिक्षण, खिलौने, पैसा, गालियां बकना, यौन निर्देश, समलैंगिकता, हस्तमैथुन, चोरी ऐसी अनेकों बाते हैं जो बच्चों के अभिभावकों को दिन-रात परेशान रखती हैं, विभिन्न संदर्भों में नील इनका विश्लेषण करते हैं और बच्चों के साथ हुए वास्तविक अनुभवों को सिलसिलेवार रखते हैंं।
नील कई उदाहरण देकर यह साबित करते हैं कि बच्चों में समस्या या आदतें (बुरी) उनके परिवेश और परिवार के प्रति प्रतिक्रियाएं हैं जो दमन की वजह से मौके पर अभिव्यक्त नहीं हो पाई हैं। सिर्फ बच्चे पर काम करके उनसे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। वे कहते हैं दमन हमेशा अवज्ञा जगाता है। स्वभाविक है कि अवज्ञा बदले की भावना पैदा करती है। अगर हमें अपराध खत्म करने हैं तो हमें वे सब चीजेें खत्म करनी होंगी जो बच्चों में बदला लेने की इच्छा जगाती हैं। बचपन की अधिकांश समस्याओं का समाधान ऐसे प्रेममय वातावरण से ही हो सकता है जिसमें माता-पिता का अनुशासन न हो। मैं चाहता हूं कि यह बात भी सभी माता-पिता समझें। अगर उनके बच्चों को घर में प्यार और अनुमोदन का वातावरण मिलेगा तो बदमिजाजी, घृणा और नष्ट करने की इच्छा कभी नहीं जन्मेंगी।
बच्चों में बेईमानी को, बदमाश दोस्तों की साहबत, फिल्मों की ंहिंसा का प्रभाव या पिता के सेना में होने से नियंत्रण में कमी आदि बताए जाने को वे भूल मानते हैं। उनका कहना है कि जो बच्चा घर में प्रेम और प्रशंसा के साथ पलता है, सेक्स के प्रति जिसका दृष्टिकोण सहज रूप से विकसित हो पाता है, उन पर इन तमाम कारणों का असर सीमित या न के बराबर पड़ता है। अंतत: वे कहते हैं कि समूची मानवता इसी आस पर टिकी है कि अगर माता-पिता सजग हों और बच्चों के मुक्ति, ज्ञान और प्रेम की दिशा मंे बढ़ाने के पक्ष में हों तो वे जो कुछ करेंगे वह उनके हित मंे ही होगा।
नील का मानना है कि जीवन का लक्ष्य है आनंद हासिल करना। इसका अर्थ है (उन्हें आनंदमार्गी न समझा जाए) अपनी वास्तविक रुचि को तलाश पाना। शिक्षा (का लक्ष्य) जीवन की तैयारी होनी चाहिए। हमारी संस्कृति उतनी सफल नहीं रही है। हमारी शिक्षा राजनीति और अर्थव्यवस्था युद्ध की ओर ले जाती है। हमारी औषधियों से रोग समाप्त नहीं हुआ है। हमारे धर्म ने सूदखोरी और चोरी खत्म नहीं की है। जिस मानवतावाद का हम इतना बखान करते हैं वह आज भी आम जनता को शिकार जैसे बर्बर खेल की स्वीकृति देता है...। इन पंक्तियों के जरिये वह शिक्षा के प्रति अपने नजरिए को स्पष्ट करतेे हैं। सूचनाओं से लाद देनेवाली वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के उत्पादों पर वह कड़ी प्रतिक्रिया करते हैं - ये विद्यार्थी बहुत कुछ जानते हैं उनकी अभिव्यक्ति और तर्कशक्ति अच्छी होती है। वे तमाम पोथों को उद्धृत करते हैं। पर जीवन के प्रति उनका नजरिया बच्चों जैसा होता है। क्योंकि उन्हें सिर्फ जानना सिखाया जाता है महसूस करना नहीं।....``

आजादी, स्व-नियंत्रण और प्रेम पर आधारित समरहिल के नियम-कानून और व्यवस्थाओं पर पूरा नियंत्रण बच्चों का होता है। कठिन परिस्थितियों में ही बच्चे शिक्षकों की मदद लेते हैं। इस स्कूल में बच्चे और शिक्षक का मत बराबर है। नील अपने विस्तृत व्योरे से स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि स्व-नियंत्रण से कभी किसी मनुष्य का नुकसान नहीं हुआ। उनका मानना है कि बचपन की स्वाभाविक रुचियों के दमन के कारण मनुष्य में कुंठाएं और नफरतें बसती हैं जो संसार की अमानवीयता और क्रूरता का कारण हैं। समरहिल में बच्चों को कुंठा और दमन से मुक्त रखने की काशिश होती है।
बच्चों के बारे में नील का सूक्ष्म अवलोकन है। उनका मानना है कि बच्चों में वास्तविकता और काल्पनिक जगत काफी आस-पास होते हैं। उनकी रुचियां तात्कालिक होती हैं और भविष्य का अस्तित्व होता ही नहीं है। सामुदायिक और सामाजिक जिम्मेवारी की भावना अठारह की उम्र से पहले विकसित नहीं होती। इसलिए भविष्य से डरे हुए अभिभावक बच्चों को उत्तरदायी बनाने के चक्कर में उनका बचपन तो नष्ट करते ही हैं आगे के जीवन पर भी प्रश्न चिह्न खड़े कर देते हैं। इस किताब में ऐस बच्चों और अभिभावकों से कई रोचक मुठभेड़ें हैंं।
आखिर नील बच्चों के साथ क्या करते हैं? क्या वे मनोचिकित्सक हें? इस प्रश्न का उत्तर वह खुद ही देते हैंै- मैंने धीरे-धीरे पाया कि मेरा क्षेत्र, इलाज न होकर, रोगनिरोध का है। इसका पूरा अर्थ समझने में मुझे सालों लगे। तब पता चला कि समरहिल में आनेवाले बच्चे इलाज की वजह से नहीं बल्कि आजादी की वजह से सुधरते हैं। मैंने पाया कि मेरा मुख्य काम चुपचाप बैठै रहकर उस सबका अनुमोदन करना है जिसे जिसे बच्चा अपनी कमी मानकर नफरत करता है। अर्थात मुझे बच्चे पर लादे गए उस विवेक को तोड़ना है जो उसमें खुद के प्रति नफरत जगाता है।``
आजादी और स्व-अनुशासन की बात करते हैं हुए वे काफी सजग हंैं - मैं साफ कर दूं कि मैं स्वेच्छाचारिता का हिमायती नहीं हूं। पूरी आजादी जैसी कोई चीज नहीं होती। न ही किसी इंसान को पूरी सामाजिक आजादी रहती है क्योंकि हरेक को दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना पड़ता है। परंतु व्यक्तिगत आजादी सबको मिलनी चाहिए। समरहिल मंे बच्चे को हमेशा मनचाहा करने के बारे में छूट नहीं मिलती। बच्चों द्वारा बनाये गए नियम ही उन्हें सीमा में बांधते हैं। उसे केवल वही चीजें अपनी मर्जी से करने दी जाती हैं जो केवल उसे प्रभावित करती हैं, किसी दूसरे को नहीं। यानी वह चाहे तो दिन भर खेल सकता है क्योंकि खेलना या पढ़ना उसका मामला है लेकिन क्लास में वह पुंगी नहीं बजा सकता क्योंकि उसका ऐसा करना दूसरों को भी प्रभावित करेगा।
आमतौर पर स्व-अनुशासन अर्थ वयस्कों द्वारा लादे गए नैतिक विचारों के अनुसार खुद को अनुशासित करना ही समझा जाता है। लेकिन वास्तविक स्व-अनुशासन में न तो दमन होता है न ही दूसरे के विचारों की स्वीकृति। उसमें दूसरों की खुशी और अधिकारों का पर्याप्त सम्मान होता है। यह व्यक्ति को उस दिशा में ले जाता है जहां वह दूसरों के नजरिए के सम्मान में कुछ चीजें समझ-बूझकर त्यागता है, ताकि वह सबके साथ शांति से रह सके।
नील अपने अवलोकन और व्याख्या में कई अवधारणाओं को नया प्रकाश देते हैं। परंतु 'यही` और बस 'इतना` ही का नुस्खा नहीं देते। उनका जोर परिस्थिति, परिवेश और बच्चे के अवलोकन पर है। उनकी शिक्षा दृष्टि और स्कूल की क्रांतिकारी अवधारणा न केवल उस समय बल्कि आज भी कई रूपों में शिक्षा मंे प्रयोग करनेवालों के लिए चुनौती है। क्योंकि इस प्रक्रिया में शिक्षक व अभिभावक का विवेक बहुत महत्वपूर्ण है। नील की पद्धति शिक्षकों अभिभावकों से असीम धीरज और कौशल की मांग करती है। आज की फटाफट उत्पादवाली शिक्षा शैली से अलग इसमें बच्चे की रुचि और दिशा विकसित होने का इंतजार किया जाता है। उसको महसूस करने की कोशिश होती है। वह कहते हैं, ''इस प्रक्रिया में शिक्षक का काम दरअसल बड़ा आसान है उसे बस इतना भर पता करना है कि बच्चे की रुचि कहां है और तब उस रुचि को जीने का उसे भरपूर मौका देना है। किसी रुचि को दबाने, उसे चुप कर देने से रुचि मरती नहीं, सिर्फ सतह के नीचे दब जाती है।``
समरहिल का लक्ष्य एक खुशहाल निद्वंद्व रचनात्मक इंसान है। मोटी तनख्वाह पर उबाऊ काम में जीवन नष्ट करनेवाले, छद्म जीवन जीनेवाले इंसान नहीं। समरहिल से निकलनेवाले लड़के मोटर मैकेनिक भी हैं और चिकित्सक भी, इसे उन्होंने अपनी रुचि से चुना है और इसको वे भरपूर आनंद से जीते हैं। उनके लिए कोई नामचीन पेशा नहीं बल्कि उस काम से मिलनेवाला आनंद महत्वपूर्ण है।

धर्म पर अपनी संक्षित्प टिप्पणी में वे कहते हैं, धर्म को इसलिए दूर रखूंगा क्योंकि धर्म सिर्फ बोलता है, उपदेश देता है भावनाओं का शुद्धीकरण और दमन करता है। धर्म पाप की कल्पना वहां करता है जहां दरअसल पाप न हो। वह स्वतंत्र इच्छाशक्ति को मानकर चलता है। जबकि कई बच्चे अपनी प्रवृतियों के इस कदर गुलाम होते हैं कि उनकी इच्छाशक्ति स्वतंत्र रह ही नहीं पाती।

किताब का अंतिम हिस्सा नील से विभिन्न मुद्दों पर लिए गए साक्षात्कार का है। इसको देखकर दुहराव का खयाल आता है। लेकिन बच्चों से जुड़े मुद्दे इतने नए परिवेश और परिप्रेक्ष्यों से आते हैं कि उनकी नविनता बरकरार रहती है और वह उन मुद्दों पर हमारे नजरिए को फिर से मांजते हैं। प्रश्नोंत्तर में नील का धीरज और बेबाकी साफ दिखते हैं -
प्र.एक शिक्षिका को क्या करना चाहिए जब बच्चा कक्षा में पेंसिल से खेल रहा हो
उ. पेंसिल यानी शिश्न। बच्चे के लिए शिश्न से खेलना निषिद्ध है। उपचार- अभिभावकों से कहें कि वे हस्तमैथुन पर से प्रतिबंध हटा दें।

नील अपनी जिरह में किसी भी वाद से अलग मनुष्य की स्वतंत्रता, स्व-अनुशासन और प्रेम को मूल्य की तरह अपनाते हैं और इसके खिलाफ किसी भी कोशिश को आड़े हाथ लेते हैं - मैंने अपने जीवन में दो भयावह युद्ध देखे हैं। संभव है कि मैं एक तीसरा और अधिक भयावह युद्ध भी देखूं। कई करोड़ नौजवान इन दो युद्धों में मरे हैं। १९१४ से १९१८ के बीच तमाम सैनिक उस साम्राज्यवादी युद्ध में खप रहे थे जो तमाम युद्धों को खत्म करने के नाम पर लड़ा गया। और दूसरे विश्वयुद्ध में वे फासीवाद को खत्म करने के नाम पर जान गंवा रहे थे। कल वे शायद साम्यवाद के दमन के नाम पर मरें। इसका मतलब यह है कि कुछ केन्द्रीय ताकतों के हुक्म पर लोग उन मुद्दों के नाम पर अपने और अपने बच्चों की आहूति दे डालते हैं, जो उनके व्यक्तिगत जीवन को छूते तक नहीं। .....हमें प्रशिक्षित किया गया है कि हम निरीह भाव से सत्तालोलुप समाज के अनुरूप ढालते चलें। अपने मालिक के हुकुम पर, उसके आदर्शोें के लिए जान गंवाने को तैयार रहें। ......``
हालांकि नील का काम करने का तरीका प्रभावशाली है फिर भी वह अपने प्रयोग को अंतिम नहीं मानते। वह विनम्रता से स्वीकारते हैं कि दुनिया को बेहतर शिक्षण पद्धति ढूंढनी ही होगी क्योंकि राजनीति मानवता को नहीं बचाएगी। उसने कभी यह किया ही नहीं। अधिकांश समाचार पत्रों में हमेंशा घृणा ही भरी रहती है। लोग साम्यवादी इसलिए हैं क्योंकि वे अमीरों से घृणा करते हैं, इसलिए नहीं कि वे गरीबों से प्यार करते हैं। कई जगहों पर ऐसी बेबाक टिप्पणियां हैं जो हमारे राजनीतिक, शैक्षणिक, नैतिक, धार्मिक आस्थाओं (जड़ताओं?) को झकझोरती हैं। हालांकि समरहिल स्कूल पुराना है और उस पर अंग्रेजी में लिखी पुस्तक भी कोई खास नई नहीं है लेकिन हिन्दी समाज और उसका पाठक वर्ग जिन प्रक्रियाओं से गुजर रहा है उसमें यह किताब शिक्षा पर हो रही बहसों को नया आयाम देगी। पूर्वा याज्ञिक के अनुवाद कौशल की बदौलत कई महत्वपूर्ण किताबें हिन्दी में संभव हुई हैं। उनकी खासियत यही है कि वे अनुवादपन को पास नहीं फटकने देतीं।

लालबहादुर ओझा


पुस्तक का नाम : समरहिल
लेखक : ए.एस.नील
हिन्दी अनुवाद : पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा
प्रकाशक : एकलव्य, एच.आई.जी. ४५३/ई-७, अरेरा कॉलोनी भोपाल (म.प्र.)।
मूल्य : ११० रुपए।

1 comment:

  1. ओझाजी, इस महत्वपूर्ण और चर्चित किताब के हिन्दी अनुवाद की चर्चा के लिए साधुवाद । अनुवाद काफ़ी विलम्ब सही हुआ,यह बड़ी बात है।एकलव्य बधाई का पात्र है ।

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