Wednesday, May 16, 2007

कला और धर्म


के बिक्रम सिंह वस्तुत: फिल्मकार हैं। फिल्मों के अलावा अन्‍य कला रूपों एवं सम सामयिक विषयों पर उनकी बेबाक टिप्पणियां जनसत्ता में हम बिंब प्रतिबिंब नामक उनके स्‍तंभ में नियमित रूप से पढ़ते रहे हैं। पिछले दिनों बड़ौदा में कला के विद्यार्थी चंद्रमोहन की एक पेंटिंग को लेकर बवाल मचा। कट्टरपंथियों ने उन पर हमला बोला ही गुजरात पुलिस ने उन्हें हवालात में बंद कर दिया। वहीं घिसा-पिटा तर्क कि इससे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है। ... धर्म की आड़ लेकर कलाकारों पर किये जा रहे हमले के संदर्भ में उन्होंने कला और धर्म के विकास पर विचार किया है। प्रस्तुत है उसके कुछ अंश:
मैंने जानबूझकर धर्म की बजाय मजहब शब्द का इस्तेमाल किया है , क्योंकि धर्म शब्द का अर्थ व्यापक है। मजहब के अलावा धर्म को कर्तव्य के अर्थ में भी इस्तेमाल किया जाता सकता है जैसे महाभारत मंे भीष्म पितामह ने कौरवों का साथ देने के लिए धर्म का हवाला दिया था। भीष्म पितामह यह जानते थे कि न्याय और अन्याय की इस लड़ाई में न्याय पांडवों के साथ है, लेकिन उनका कर्तव्य कौरवों के राज्य की रक्षा करना था, क्योंकि वे उसी राज्य के सेवक थे और उसी का उन्होंने नमक खाया था।
....(यहां कुछ विवरण छोड् दिया गया है)यह तो सभी जानते हैं कि धर्म यानी मजहब और कला का पुराना रिश्ता है। चाहे वह इटली के पुनर्जागरण के समय की कला हो, अजंता कक भित्ति चित्र की कला हो या फिर मंदिरों की मूर्तिकला। इन सभीका एक स्रोत धर्म रहा है। धर्म की छत्रछाया में ही ये सभी पली हैं। लेकिन यह भी मानना होगा कि कम से कम शुरुआती दौर में धर्म को भी कला की उतनी ही आवश्यकता थी जितनी कला को धर्म की। प्रोफेसर वाइटहेड के अनुसार जब धर्म मानव इतिहास में अवतरित होता है तो उसके चार रूप नजर आते हैं। ये रूप हैं - रीति संस्कार, भावना, विश्वास और औचित्य स्थापन। साधारणतया यह माना ही जाता है कि सृष्टि के कम से कम दो रूप हैं - दृश्य और अद्श्य। जा दृश्य है वह भले ही हम समझ न पाएं, लेकिन कम से कम उसे देख सकते हैं। अदृश्य को सभ्यता के शुरुआती दौर में न देखा जा सकता था और न ही समझा। जिसे हम समझ नहीं पाते, लेकिन किसी तरह महसूस कर सकते हैं उससे या तो भय की उत्पति होती है या आश्चर्य की। आदि मानव की यही दो प्रधान भावनाएं थीं। भय से धर्म का जन्म हुआ और आश्चर्य से कला का।
अपने भय पर काबू पाने के लिए और उन शक्तियों का संरक्षण पाने के लिए, जिससे वह डरता था उसने रीति यानी रिचुअल का सहारा लिया, इस आशा से कि इनके द्वारा वे शक्तियां उससे प्रसन्न रहेंगी और उनकी कृृपा मनुष्य पर बनी रहेगी। लेकिन रीति के लिए प्रतीक और संगीत की आवश्कता थी और इसलिए उसने धर्म को संगीतकार और कलाकार की जरूरत पड़ी। रीति पालन करते-करते एक नई बात पैदा हुई। कला के जोड़ के कारण मनुष्य को इसमें अनंद का अनुभव होने लगा। अब रीति पालन दैवीय शक्तियों का अनुकुल बनाने के लिए आवश्यक नहीं रह गया, आनंद प्राप्ति का एक जरिया भी बन गया। शायद इसी आनंद भावना के कारण नृत्य, नाटक, मूर्तिकला, और चित्रकला की शुरुआत स्वतंत्र कलाओं के रूप में हुई जो अब धर्म के ऊपर पूर्णत: निर्भर नहीं थीं। इस तरह से यह कहा गया जा सकता है कि बाद में कला की स्वतंत्र स्थापना हुई।
जैसे-जैसे मजहब संगठित होता गया और उसकी जकड़ समाज पर बढ़ती चली गई वैसे-वैसे मनुष्य का निजी जीवन और सामाजिक आचरण दोनों धर्म की गिरफ्त में आते चले गये। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कोई फर्क नहीं रहा। दरअसल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धरणा प्रजातंत्र के आने के बाद ही उभर कर आई। तब भी बहुत अरसे तक इंसान का व्यक्तिगत जीवन धर्म के बताए हुए रास्ते पर ही चलता रहा।
हमारे समय की स्थिति अब बिल्कुल है। लगभग सभी धर्म ईमानदारी, सौहार्द और अच्छे इंसान बनने यानी दूसरे लागों का भला करने का सबक सिखाते हैं। लेकिन अब हमारे निजी जीवन में इन चीजों की कोई बाकी जगह नहीं रही है। पूंजीवाद की शिक्षा कुछ अलग है। व्यापार बढ़ाओ, धन कमाओ, और सबसे आगे बढ़कर चलो, चाहे इसके लिए तुम्हें औरों को कुचलकर आगे बढ़ना पड़े। दूसरों के साथ अपना धन बांटने में कोई अच्छाई नहीं है। तुम जितना ज्यादा धन अपने ऊपर व्यय करोगे उतने ही बड़े आदमी बनोगे।
एक संकीर्ण तबके के लिए धर्म अब जातीय चिह्न मात्र बन कर रह गया है, जो हमें एक-दूसरे से अलग करता है और जिसके झंडे के नीचे एकत्रित होकर हम दूसरों पर हमला कर सकते हैं। इसमें दूसरों से बचाव की भावना कम है और और आक्रमण की भावना अधिक । विडंबना यह है कि झंडे के नीचे इकट्ठा होने के लिए हर इंसान को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छोड़कर एक ही तरह का व्यवहार करना पडेगा। इसलिए धर्म के ठेकेदारों को कलाकार की स्वतंत्रता नामंजूर है क्योंकि कलाकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रतीक है। वह धर्म के प्रतीकों को अपनी ऐतिहासिक धरोहर के तौर पर स्वीकार तो करता है, परंतु उन प्रतीकों से कलात्मक ढंग से खेलने का अधिकार छोड़ना नहीं चाहता। और छोड़े भी क्यों, आखिर ये प्रतीक उसी के पूर्वजों ने बनाए हैं और हिंदू धर्म में तो इन प्रतीकों के कितने रूप हैं। चाहे शिव हो या हनुमान या फिर गणेश हो या विष्णु, इनके अनेक रूप हैं तो इनका एक और रूप क्यों नहीं हो सकता।
यही बात उन प्रतीक चिह्नों पर भी लागू होती है जो धार्मिक तो नहीं हैं, लेकिन लगभग धार्मिक हैं जैसे भारत माता। आधुनिक युग में भारत माता का पहला चित्र अबनींद्रनाथ ने बनाया था। हुसेन के चित्र भारत माता` को लेकर जो विवाद चल रहा है इस बारे में 'सहमत` ने दिल्ली के प्रेस क्लब में इसी सप्ताह एक प्रेस कांफ्रेंस की थी। (जिसमें यह तर्क दिया गया कि चित्र को यह शीर्षक हुसेन ने नहीं बल्कि एक आर्ट गैलरी ने दिया था) के बिक्रम लिखते हैं कि अगर यह नाम हुसेन ने स्वयं भी दिया होता तो यह विवाद का कारण क्यों बनना चाहिए! जब हम भारत को भारत माता के रूप मं श्रद्धेय मानते हैं तो उसका चित्रण स्त्री के आकार में करना क्या गुनाह है! मान लिया, स्त्री का आकार इस चित्र में निर्वस्त्र है, लेकिन उसमें कहीं कामुकता या अश्लीलता नजर नहीं आती । एक और दृष्टि से देखें तो तो हम सबने बचपन में अपनी मां को कमोबेश निर्वस्त्र रूप में देखा ही है। स्त्री का हर निर्वस्त्र रूप कामुकता का द्योतक नहीं है और न ही निरादर का।
दरअसल, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी लोग और कलाकार जो आजकल बाजार में व्यस्त हैं, यह लड़ाई आधे मन से लड़ रहे हैं। कट्टरवादी धार्मिक संस्थाएं और राजनीतिक दल खुल्लम-खुल्ला यह कोशिश कर रहे हैं कि भारतीय समाज मंे कलाकार की स्वतंत्रता तो अलग व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भी गूंजाइश नहीं है। बुद्धिजीवियों और कलाकारों को यह लड़ाई जीतनी है तो उन्हें इस लड़ाई में सक्रिय रूप से शामिल होना पड़ेगा और इसे संपूर्ण राजनीतिक शस्त्रों से लड़ना पड़ेगा। क्या हमारे कलाकार इसके लिए तैयार हैं? यदि नहीं तो हुसेन और चंद्रमोहन के बाद उनका नंबर भी जरूर आएगा या फिर वे विहिप और भाजपा की आज्ञा लेने के बाद अपनी कला का सृजन करेंगे?

1 comment:

  1. भाई लेख तो बहुत अच्छा है लेकिन क्या कलाकार का कोई कर्तव्य नही होता अपनें देश के प्रति? क्या उसे यह ध्यान नही रखना चाहिए कि जो वह कला प्रदर्शित कर रहा है उस से देश मे रहने वालो की भावनाएं तो कही आहत नही होगी? सच्चा कलाकार सत्य का दर्शन तो कराता है लेकिन उसे भी अपनी कला प्रदर्शित करते समय इस मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए।

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