Wednesday, May 9, 2007

इकबाल अहमद

इकबाल अहमद जैसे लोग दुनिया में विरले ही होते हैं। उनकी मृत्‍यु कैंसर से 1999 में हुई थी। मृत्‍यु के सात साल बाद उनकी हाल में एक किताब आयी है। किताब का शीर्षक है दि सिलेक्‍टेड राइटिंग्‍सस ऑफ इकबाल अहमद, जिसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस ने छापा है। यह उनका लेख संग्रह है। किताब की भूमिका लिखी है प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक व लेखक नोआम चॉम्‍स्‍की ने और इसे संपादित किया है कैरोली बेंगेल्‍सडॉर्फ, मार्गरेट सेरूलो और योगेश चंद्रानी ने। इस पुस्‍तक में भारत, पाकिस्‍तान, फलस्‍तीन, इजराइल, कश्‍मीर सहित पूरी दुनिया के हालात पर लेख शामिल हैं। यह पुस्‍तक अब भारत और पाकिस्‍तान में उपलब्‍ध है।

इकबाल अहमद बिहार के रहने वाले थ्‍ो। बंटवारे के वक्‍त वह अपने भाई सहित दिल्‍ली में परिवार से बिछुड़ गये और पाकिस्‍तान पहुंच गये। गांव में ज़मीन के झगड़े के कारण उनकी आंखों के सामने ही उनके पिता की हत्‍या कर दी गयी थी। शायद यही वजह थी जिसने उन्‍हें अहिंसा की विचारधारा की तरफ मोड़ दिया। उन्‍हें अमन का झंडाबरदार और नागरिक स्‍वतंत्रता का पैरोकार बना दिया। वह अंत तक इन्‍हीं सिद्धांतों के लिए लड़ते रहे और उन्‍हें जेल में भी डाला गया। वह ज़ि‍न्‍दगी भर दुनिया के फौजी तानाशाहों, मजहबी अतिवादियों, आतंकवादियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे। वह सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष थे।

उपनिवेशवाद विरोधी बुद्धिजीवियों में इकबाल अहमद (1933-1999) की जगह अहम है। हालांकि एडवर्ड सईद की ओरिएंटलिज्म की तरह उनकी कोई चर्चित पुस्‍तक नहीं है, फिर भी पश्चिम से लेकर पूर्व तक न केवल तीसरी दुनिया के अतिवादी विचारक बल्कि उनके विरोधी भी उनको आदर की दृष्टि से देखते हैं।

इकबाल हालांकि कल्‍पना की उड़ान भरने और महाद्वीप की सीमाओं से परे जाकर दो अलग-अलग विषयों के आपसी सूत्र तलाशने में माहिर थे, फिर भी वह अपने वक्‍तव्‍यों के लिए ज्‍यादा जाने जाते हैं। इकबाल अहमद एक ऐसे विचारक थे, जो ताउम्र मार्क्‍सवादी तो रहे लेकिन अपने तरीके से। आशीष नंदी ने उन्‍हें एक ऐसे लेनिनवादी के रूप में देखा है, जो आधे-अधूरे मार्क्‍सवादी थे। आगे चलकर उन्‍होंने पहली दुनिया अर्थात अमेरिका, जहां उन्‍होंने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया, के ज्‍यादातर सृजनशील मार्क्‍सवादियों की तर्ज पर लेनिनवाद की छाया से बाहर निकलने का प्रयास किया।
इकबाल को अपनी किशोरावस्‍था में ही भारत-पाकिस्‍तान विभाजन की त्रासदी से रूबरू होना पड़ा। विभाजन काल के रक्‍तरंजित माहौल में वह कुछ खास तरह के निष्‍कर्षों तक पहुंचे। रवींद्रनाथ टैगोर, जिन्‍हें वह एक कवि व विचारक के रूप में काफी सम्‍मान देते थे, की तरह ही वह समझते थे कि भारत के साम्राज्‍यवाद विरोधी आंदोलन में राष्‍ट्रवादी विचारधारा को अलग दृष्टि से देखना चाहिए।

इसी को स्‍पष्‍ट करते हुए सन 2000 में प्रकाशित डेविड बार्सेमियन के साथ साक्षात्‍कारों की एक सीरीज़ में उन्‍होंने कहा था, हम पश्चिमी साम्राज्‍यवाद को नकारते तो हैं, लेकिन इसी के साथ ही हम पश्चिमी राष्‍ट्रीयता को स्‍वीकार करते हैं और उसे ग्रहण करते हैं।

आज भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से लेखक, जिनमें नोबेल पुरस्‍कार से सम्‍मानित अर्थशास्‍त्री अमर्त्‍य सेन भी शामिल हैं, अहमद के इस कथन से कि राष्‍ट्रीयता विविधता की विचारधारा है, के प्रशंसक हैं। अपनी हाल की पुस्‍तक आइडेंटिटी एंड वायलेंस में अमर्त्‍य सेन भी इकबाल अहमद की तर्ज पर विविधतापूर्ण पहचान के स्‍थान पर राष्‍ट्रीयता की इकहरी पहचान थोपने पर सवाल उठाते हैं।

आज जब पूरी दुनिया को पूर्व और पश्‍िचम की अलग-अलग संस्‍कृतियों के आधार पर विभाजित करने के लिए नित नये मिथक गढ़े जा रहे हैं, इकबाल अहमद का यह सोचना अक्षरश: प्रासंगिक है कि पूर्व और पश्‍िचम के बीच का विभेद जान-बूझ कर कुछ राजनीतिक और आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए पैदा किया जा रहा है।

राष्‍ट्रपति बिल क्लिंटन के आदेश पर जब अमेरिकी सेनाओं ने 1998 में अफगानिस्‍तान और सूडान में बमबारी करना शुरू किया, तो उस दौरान उन्‍होंने आसन्‍न संकट को समझते हुए चेतावनी दी थी, अमेरिका ने मध्‍यपूर्व और दक्षिण एशिया में ज़हरीले बीज बो दिये हैं। यह बीज अब उग रहे हैं। कुछ पक चुके हैं, कुछ पकने को तैयार हैं। इस बात का परीक्षण जल्‍द ही होगा कि यह क्‍यों बोये गये, इनमें क्‍या उगा और वे उन्‍हें कैसे काटेंगे। मिसाइल से हर समस्‍या का समाधान नहीं किया जा सकता।

ऊपर दिये गये अंशों से हम इकबाल अहमद की कठमुल्‍लावाद के प्रति घृणा, साम्राज्‍यवादी पाखंड से द्वेष और इतिहास में उनकी आस्‍था को जान-समझ सकते हैं। इसी से उनके इस विश्‍वास को भी समझा जा सकता है कि समस्‍याओं के हल राजनीति और कूटनीति से ही प्राप्‍त किये जा सकते हैं, युद्ध से नहीं। 1984 में इस्‍लाम और राजनीति शीर्षक से लिखे अपने निबंध में उन्‍होंने लिखा था कि मुस्लिमों की दशा बहुत से विशेषज्ञों की समझ से बाहर रही है। मुसलमानों के बारे में उनकी रचनाएं इसलिए भी महत्‍वपूर्ण और यादगार है, क्‍योंकि ये बहुत सजगता और निहायत सूझबूझ से लिखी गयी है। उनकी दृष्टि में इस्‍लाम शुरुआती दौर में दबे-कुचले लोगों का धर्म था, क्‍योंकि उसका विकास बड़ी गहराई से सामाजिक विद्रोह से जुड़ा था।

अपनी मृत्‍यु के कुछ समय पहले 1999 में वह अमेरिका से पाकिस्‍तान आ गये। यहां वह मानविकी की पढ़ाई कराने के उद्देश्‍य से एक विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना करना चाहते थे। इस का नाम उन्‍होंने अरब के महान इतिहासकार इब्‍न खलदून (1332-1406) के नाम पर खलदूनिया विश्‍वविद्यालय सोच लिया था। हालांकि उनका यह सपना अधूरा ही रह गया।
इकबाल अहमद पर यह आलेख मोहल्‍ला से साभार

2 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  2. आपका स्वागत है लाल बहादुर जी. और सब कैसा है? कभी मेरे हाशिये पर भी आयें. http://hashiya.blogspot.com

    ReplyDelete