Sunday, May 20, 2007

कला सिर्फ अमिधा नहीं है'

बड़ोदरा के महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय में कला छात्र चंद्रमोहन की प्रदर्शनी पर छिड़ी बहस अभी थमी नहीं है। २० मई के जनसत्ता में प्रभाष जोशी और अशोक वाजपेयी ने इस प्रसंग में लंबी तकरीर की है। इसके कुछ अंश यहां रखना आवश्यक लगता है:

अशोक वाजपेयी लिखते हैं

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस संघर्ष में एक बात और गौरतलब है, चाहे हुसेन द्वारा चित्रित सरस्वती या भारत माता हो, बड़ोदरा के चंद्रमोहन द्वारा बनाई दुर्गा और ईसा मसीह की छबियां, इन सभी को शु;द्ध अभिधा की तरह देखा-पढ़ा जा रहा है। सारी कला को निरा अमिधा में घटा देना और उसके व्यंजित आशय की अनदेखी करना ठीक से देखने समझने की असमर्थता प्रकट करता है। सारी कला को मात्र प्रतिनिधित्व करनेवाली कला मानना उसके कई शक्तियों और अभिप्रायों को हाशिये पर धकेलना है। विषय, किसी भी कृति का विषय उसका आशय नहीं होता, पूरा आशय तो किसी भी तरह से नहीं। सारी कला को उसके विषय तक महदूद करना कला को हाशिये पर करना है। अमिधा से आतंकित शक्तियां दरअसल एक तरह के सांस्कृतिक आतंकवाद का संस्करण हैं जो दो अर्थों में कलाकृति को नष्ट करते हैं : उसे भौतिक रूप से ध्वस्त-नष्ट करके या फाड़कर या उस पर रंग या कीचड़ फेंककर । दूसरा उसके कलात्मक गुणों की पूरी तरह से अनदेखी कर उसे सिर्फ विषय मानकर उसके सारे अन्य अर्थों को तिरोहित करने की चेष्टा करते हुए।

प्रभाष जोशी लिखते हैं
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....अब संघ संप्रदायी वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्वतंत्रता का नहीं किसी के भी ईश्वर की निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन करने के लिए नहीं बनाए थे। लेकिन मंदिर बनानेवालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेस्त्रर के मंदिर सबके लिए और धर्म के लिए बनाए। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़िए इन मंदिरों को और हमारे पौराणिक साहित्य को। कभी सोचा है अरुण जेटली! कि महादेव का ज्योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्थापित किया जाता है वह किसकी प्रतीक है? क्या हिंदुओं के धर्म और देवी देवताओं को सामी और संगठित इस्लाम या ईसाइयत समझ रखा है जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो? थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो!

2 comments:

  1. the social norms keep changing. the statues in khajuraho or in the temples in orissa were made centuries back.those could had been as per the sensibilities in those times.more over its the indian law that tells that making a painting or writting any musings that offends the religious sensibilities of people is a criminal offence and prosecutable by law.

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  2. कुलदीप जी, सही फरमाया आपने । तनिक अशोक जी के अंश पर भी नजर डाल लिया होता - कला को ठीक उसी रूप में नहीं पढ़ा जाता जैसी दिखती है। लेखक और कलाकार सबसे संवेदनशील माने गए हैं/ होते भी हैं आखिर क्‍यों उनकी कलम और कूची से वही चित्र बन रहा है, समस्‍या हमारे समय और समाज में सिर्फ किसी एक कलाकार या लेखक में नहीं। लोकतांत्रिक तकाजा यह है कि उस पर हम ध्‍यान दें और बहस करें। कला और कलाकार के सफाए में न लग जाएं

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