भाईसाब संस्थान से बाहर निकले तो आज चेहरा उतरा हुआ था। मैंने टोका नहीं। अपने अनुभ्ाव शेयर करने लगा ...बच्चों को कोई काम करने के आने को कहो तो पता नहीं किस काम में व्यस्त रहते हैं, कर ही नहीं पाते। ऐसा लगता है कि अपने यहां कक्षा में पढ़कर आने की आदत नहीं है। दूसरी जगहों पर, आशय विकसित देशों से है, कक्षा के पहले रीडिंग मैटीरियल दिया जाता है। छात्र उसको पढ़कर आते हैं, प्रस्तुति करते हैं, फिर सवाल जवाब होते हैं। लेकिन यहां देखो तो बच्चे बस टुकुर टुकुर ताकते रहते हैं,सवाल भी आप ही रखो और जवाब भी आप ही दो। दरअसल पढ़ाने का यह ढांचा बदलना चाहिए। ऐसा लगता है...
... भाई साब हां हूं कर रहे थे। मुझे लगा या तो वह उंघ रहे हैं या फिर किसी और चिंता में हैं। टोका कि सुन रहे हैं न..
.... बोलते रहो, मैं सुन रहा हूं और कुछ सोच भी रहा हूं - वे बोलने लगे थे।
दरअसल, मुझे भी यह बात बहुत दिन से सता रही है कि बच्चे ऐसे क्यों हैं। उनका क्लास में मन क्यों नही लगता। क्यों वे क्लास के समय भी इधर-उधर आते जाते दिख जाते हैं। क्या यह किसी खास शिक्षक की कक्षा में ही होता है या यह एक आम पैटर्न है। काम करके आने में उन्हें क्यों परेशानी है। क्या वह बात नहीं समझ पा रहे या फिर काम को टाल रहे हैं। ऐसी टालू वृत्ति क्यों है....
कई बार उनके चेहरे को देख कर लगता है कि वे कहीं अंटके हुए हैं किसी तरह के बोझ में दबे हुए हैं। जो चाहते हैं वह कह नहीं पार रहे अथवा सामने वाले के गुजर जाने का इंतजार कर रहे हैं। अगर वह अपने शिक्षकों के समक्ष सवाल नहीं रख सकते, अपनी परेशानियों पर बात नहीं कर सकते तो फिर कहां बात करेंगे। क्या शिक्षक समचुच इस काबिल नहीं रहे कि उनसे सहज होकर अपनी बात कही जा सके। क्या हमारे हाव-भाव में एक दूरी बरतने या उनकी अपेक्षाओं को इनकार करने की बात झलक रही है। क्या वे सचमुच शिक्षकों से असहज महसूस कर रहे हैं या इसका दिखावा कर रहे हैं। ......या उन्हें बस कुछ बना बनाया उत्तर चाहिए...रेडीमेड...कोई अचूक फारमूला... बौद्धिक कंज्युमर होते जा रहे हैं...
भाइसाब लगातार बोलते जा रहे थे। उनके सरोकार समझ में आ रहे थे और समस्याएं भी। लेकिन इसके लिए कोई बना बनाया उत्तर नहीं था। हम इस पर बातचीत कर सकते थे। बातचीत के जरिए उन छात्रों की वास्तविक कठिनाइयों को जान सकते थे । लेकिन क्या यह जानना एकतरफा जानना नहीं होगा । इसमें असली भागीदार तो छात्र ही हैं, उनके शामिल हुए बगैर किसी हल या समझ का कोई अर्थ नहीं होगा। कभी कभी किसी बात पर हमारे तार मिलते हैं और फिर बात कहीं और निकल जाती है मानों हम दो छोर पर बैठे हों - एक तीर घाट एक मीर घाट।
दिल्ली की ट्रैफिक और शोर शाराबे में हमारे बीच ये बातें देर तक उमड़ती घुमड़ती रहीं।
Saturday, December 1, 2007
Saturday, November 3, 2007
नेतृत्व के आकाश में
अगर सही नेतृत्व न हो तो जनता और समाज में बिखराव स्वाभाविक है। सगठन छोटा हो या बड़ा इससे फर्क नहीं पड़ता। हर दायरे में इस बात को महसूस किया जा सकता है। और यह भी कि रिमोट कंट्रोल से मशीनें तो चलाई जा सकती हैं लेकिन किसी जैविक संस्थान को नहीं। इस संबंध में किसी के विपरीत अनुभव हो सकते हैं और वैकल्पिक भी कुछ लोग दुष्यंत को चेप सकते हैं कि ;... एक पत्थर तो तबीयत तो उछालो यारों...। लेकिन मामला तो तबियत का ही होता है कि वह बने या फिर बनी रहने दी जाये तो सही।
बहरहाल, दूरस्थ निदेशक के भरोसे चल रहे इस संस्थान में आजकल यह विखराव साफ दिख रहा है। संस्थान में चार नियमित कोर्स हैं। लेकिन ऐसा लग रहा है कि चारों अलग-अलग संस्थान के कोर्स हैं। सबकी दिशाएं अलग, मत अलग। कोई आपसी संगति नहीं है। विभाग निदेशकों का अहं इतना उदग्र है कि उसकी छाया विद्यार्थियों पर भी छायी दिख रही है। वह संस्थान कम एक विभाग के नागरिक ज्यादा नजर आने लगे हैं। संवाद, परस्परता, उदारता, सहिष्णुता, व्यापकता ... आदि होंगे किसी समय पत्रकारिता के मूल्य ( अभी भी कम से कम किताबी मूल्य तो हैं ही) यहां तो संकीर्णता के राष्ट्रीय बेर खाने में जनता लगी हुई है।
सबकुछ सर्वानुमति और सहमति से ही चले ऐसा एक सुखद स्वप्न ही हो सकता है। जहां भी दो लोग हों मतभेद होना स्वाभाविक है, और ज्यादा लोग हों तो जटिलता बढ़ती जाती है। मतभेद स्वाभाविक बहस को जन्म देता है और उससे हमारे विचारों पर सान चढ़ती है। लोकतांत्रिक परंपरा में मतभेद कोई अजूबा नहीं है, हां मतभेद जब मनभेद में बदलने लगे तो अवश्य ही चिंता का विषय हो जाता है। मनभेद टुच्चई को जन्म देते हैं। आप कोई बड़ी लाइन खींचने की बजाय लाइन मिटाने की नकारात्मक भूमिका की ओर बढ़ने लगते हैं। रुढि़यों के पेंच खुलते नहीं बल्कि संवादहीनता में कई तरह की नयी गलतफहमियां पैदा होती हैं और रूढि़यां और भी मजबूत होने लगती हैं।
इस तरह के विखराव के माहौल में एक कुशल नेतृत्व की जरूरत होती है। जो समूह, समाज या संस्थान की अधोमुख प्रवृत्तियों को उर्ध्वमुख कर सके। शायद इस स्थिति में सभी को सांस लेने और विकसित होने को नया आकाश मिल सके।
बहरहाल, दूरस्थ निदेशक के भरोसे चल रहे इस संस्थान में आजकल यह विखराव साफ दिख रहा है। संस्थान में चार नियमित कोर्स हैं। लेकिन ऐसा लग रहा है कि चारों अलग-अलग संस्थान के कोर्स हैं। सबकी दिशाएं अलग, मत अलग। कोई आपसी संगति नहीं है। विभाग निदेशकों का अहं इतना उदग्र है कि उसकी छाया विद्यार्थियों पर भी छायी दिख रही है। वह संस्थान कम एक विभाग के नागरिक ज्यादा नजर आने लगे हैं। संवाद, परस्परता, उदारता, सहिष्णुता, व्यापकता ... आदि होंगे किसी समय पत्रकारिता के मूल्य ( अभी भी कम से कम किताबी मूल्य तो हैं ही) यहां तो संकीर्णता के राष्ट्रीय बेर खाने में जनता लगी हुई है।
सबकुछ सर्वानुमति और सहमति से ही चले ऐसा एक सुखद स्वप्न ही हो सकता है। जहां भी दो लोग हों मतभेद होना स्वाभाविक है, और ज्यादा लोग हों तो जटिलता बढ़ती जाती है। मतभेद स्वाभाविक बहस को जन्म देता है और उससे हमारे विचारों पर सान चढ़ती है। लोकतांत्रिक परंपरा में मतभेद कोई अजूबा नहीं है, हां मतभेद जब मनभेद में बदलने लगे तो अवश्य ही चिंता का विषय हो जाता है। मनभेद टुच्चई को जन्म देते हैं। आप कोई बड़ी लाइन खींचने की बजाय लाइन मिटाने की नकारात्मक भूमिका की ओर बढ़ने लगते हैं। रुढि़यों के पेंच खुलते नहीं बल्कि संवादहीनता में कई तरह की नयी गलतफहमियां पैदा होती हैं और रूढि़यां और भी मजबूत होने लगती हैं।
इस तरह के विखराव के माहौल में एक कुशल नेतृत्व की जरूरत होती है। जो समूह, समाज या संस्थान की अधोमुख प्रवृत्तियों को उर्ध्वमुख कर सके। शायद इस स्थिति में सभी को सांस लेने और विकसित होने को नया आकाश मिल सके।
Friday, November 2, 2007
नेतृत्व से नया आकाश
यह पोस्ट तकनीकी गड़बड़ी के कारण दोबारा आ गया है माफ करेंगेअगर सही नेतृत्व न हो तो जनता और समाज में बिखराव स्वाभाविक है। सगठन छोटा हो या बड़ा इससे फर्क नहीं पड़ता। हर दायरे में इस बात को महसूस किया जा सकता है। और यह भी कि रिमोट कंट्रोल से मशीनें तो चलाई जा सकती हैं लेकिन किसी जैविक संस्थान को नहीं। इस संबंध में किसी के विपरीत अनुभव हो सकते हैं और वैकल्पिक भी कुछ लोग दुष्यंत को चेप सकते हैं कि ;... एक पत्थर तो तबीयत तो उछालो यारों...। लेकिन मामला तो तबियत का ही होता है कि वह बने या फिर बनी रहने दी जाये तो सही।
बहरहाल, दूरस्थ निदेशक के भरोसे चल रहे इस संस्थान में आजकल यह विखराव साफ दिख रहा है। संस्थान में चार नियमित कोर्स हैं। लेकिन ऐसा लग रहा है कि चारों अलग-अलग संस्थान के कोर्स हैं। सबकी दिशाएं अलग, मत अलग। कोई आपसी संगति नहीं है। विभाग निदेशकों का अहं इतना उदग्र है कि उसकी छाया विद्यार्थियों पर भी छायी दिख रही है। वह संस्थान कम एक विभाग के नागरिक ज्यादा नजर आने लगे हैं। संवाद, परस्परता, उदारता, सहिष्णुता, व्यापकता ... आदि होंगे किसी समय पत्रकारिता के मूल्य ( अभी भी कम से कम किताबी मूल्य तो हैं ही) यहां तो संकीर्णता के राष्ट्रीय बेर खाने में जनता लगी हुई है।
सबकुछ सर्वानुमति और सहमति से ही चले ऐसा एक सुखद स्वप्न ही हो सकता है। जहां भी दो लोग हों मतभेद होना स्वाभाविक है, और ज्यादा लोग हों तो जटिलता बढ़ती जाती है। मतभेद स्वाभाविक बहस को जन्म देता है और उससे हमारे विचारों पर सान चढ़ती है। लोकतांत्रिक परंपरा में मतभेद कोई अजूबा नहीं है, हां मतभेद जब मनभेद में बदलने लगे तो अवश्य ही चिंता का विषय हो जाता है। मनभेद टुच्चई को जन्म देते हैं। आप कोई बड़ी लाइन खींचने की बजाय लाइन मिटाने की नकारात्मक भूमिका की ओर बढ़ने लगते हैं। रुढि़यों के पेंच खुलते नहीं बल्कि संवादहीनता में कई तरह की नयी गलतफहमियां पैदा होती हैं और रूढि़यां और भी मजबूत होने लगती हैं।
इस तरह के विखराव के माहौल में एक कुशल नेतृत्व की जरूरत होती है। जो समूह, समाज या संस्थान की अधोमुख प्रवृत्तियों को उर्ध्वमुख कर सके। शायद इस स्थिति में सभी को सांस लेने और विकसित होने को नया आकाश मिल सके।
बहरहाल, दूरस्थ निदेशक के भरोसे चल रहे इस संस्थान में आजकल यह विखराव साफ दिख रहा है। संस्थान में चार नियमित कोर्स हैं। लेकिन ऐसा लग रहा है कि चारों अलग-अलग संस्थान के कोर्स हैं। सबकी दिशाएं अलग, मत अलग। कोई आपसी संगति नहीं है। विभाग निदेशकों का अहं इतना उदग्र है कि उसकी छाया विद्यार्थियों पर भी छायी दिख रही है। वह संस्थान कम एक विभाग के नागरिक ज्यादा नजर आने लगे हैं। संवाद, परस्परता, उदारता, सहिष्णुता, व्यापकता ... आदि होंगे किसी समय पत्रकारिता के मूल्य ( अभी भी कम से कम किताबी मूल्य तो हैं ही) यहां तो संकीर्णता के राष्ट्रीय बेर खाने में जनता लगी हुई है।
सबकुछ सर्वानुमति और सहमति से ही चले ऐसा एक सुखद स्वप्न ही हो सकता है। जहां भी दो लोग हों मतभेद होना स्वाभाविक है, और ज्यादा लोग हों तो जटिलता बढ़ती जाती है। मतभेद स्वाभाविक बहस को जन्म देता है और उससे हमारे विचारों पर सान चढ़ती है। लोकतांत्रिक परंपरा में मतभेद कोई अजूबा नहीं है, हां मतभेद जब मनभेद में बदलने लगे तो अवश्य ही चिंता का विषय हो जाता है। मनभेद टुच्चई को जन्म देते हैं। आप कोई बड़ी लाइन खींचने की बजाय लाइन मिटाने की नकारात्मक भूमिका की ओर बढ़ने लगते हैं। रुढि़यों के पेंच खुलते नहीं बल्कि संवादहीनता में कई तरह की नयी गलतफहमियां पैदा होती हैं और रूढि़यां और भी मजबूत होने लगती हैं।
इस तरह के विखराव के माहौल में एक कुशल नेतृत्व की जरूरत होती है। जो समूह, समाज या संस्थान की अधोमुख प्रवृत्तियों को उर्ध्वमुख कर सके। शायद इस स्थिति में सभी को सांस लेने और विकसित होने को नया आकाश मिल सके।
Sunday, September 30, 2007
कवि का भोलापन
कात्यायनी का यह आलेख जनसत्ता के दुनिया मेरे स्तंभ में काफी पहले प्रकाशित हुआ था। हालांकि इसे एक टिप्पणी के इर्द गिर्द बुना गया है लेकिन इसकी प्रासंगिकता व्यापक है। साहित्य और संस्कृतिकर्म की दुनिया में जिस तरह से झंडाबरदारी और जुमलों का जोर बढ़ा है और जिस तरह की प्रवृत्तियां लहरा रही हैं, ऐसे में यह एक जरूरी आलेख हो जाता है।
पिछले दिनों में उमाशंकर चौधरी को चौथा अंकुर स्म़ति पुरस्कार प्रदान करते हुए नामवर सिंह ने कहा कि आज के इस दौर ने कवि का भोलापन छीन लिया है, आज की पीढ़ी की परिपक्वता देख कर डर लगता है।
पहली बात भोलापन या मासूमियत एक चीज होती है और बे-लागलपेटपन, साफगोई, निष्कपटता या स्पष्टवादिता चालक, धूर्त या दुनियादार होना दूसरी चीज। जो बे-लागलपेट होता है, जो दुनियादार नहीं होता, जो समझौते नहीं करता, जो अपने कथनी और करनी के परिणामों को समझते हुए भी वही कहता और करता है जिसे सही और उचित समझता है, उसे दुनियादार और दंदफंदी लोग भोला कहते हैं। कभी वे उस पर तरस खाते हैं, कभी हंसते हैं और कभी उसकी दुर्गति पर हर्षित होते हैं। निराला या मुक्तबोध भोले नहीं थे। वे चालू चलन के हिसाब से नहीं, बल्कि अपनी शर्तों पर जीते थे और उसकी कीमत चुकाते थे। इसलिए उन्हें उनके शुभचिंतक दुनियादार चतुर सुजानगण भोला समझते थे।
दूसरी बात, भोलापन केवल बच्चों का नैसर्गिक और वशिष्ट गुण हो सकता है, बड़ों का नहीं, चाहे वह कवि ही क्यों न हो। बड़ा अगर बच्चों जैसा आचरण करेगा तो बचकाना ही कहलाएगा। फिर यह भी याद रखा जाना चाहिए कि जानते-बूझते भोला नहीं बना जा सकता।
तीसरी बात, कभी-कभी मानवद्वेषी-मानवद्रोही प्रवृति या परिदृश्य की भयावहता को विपर्यास, कंटास्ट के द्वारा निरावृत्त करने के लिए कविता भोलेपन की मुद्रा,बाना या शैली अपना लेती है। कविता के इस आभासी भोलेपन को कवि का भोलापन नहीं मान लिया जाना चाहिए। एक समझदार, तत्वदर्शी कवि की कविता ही भोलेपन की यह मुद्रा अपना पाती है।
चौथी बात, कवि भी इस समाज में जीनेवाला एक आम नागरिक होता है। अगर वह वास्तव में भोला हुआ तो कविता लिखना तो दूर, जी तक नहीं सकता। पागलखाने पहुंच जाएगा, भूखों मर जाएगा या पागलखाने पहुंच जाएगा या आत्महत्या कर लेगा। और ऐसा व्यक्तित्व-विभाजन भी संभव नहीं कि हम नागरिक के रूप में समझदार या दुनियादार हों और कवि के रूप में भोले-भोल कवि का अस्तत्वि एक मिथक है। कवि बस दो ही किस्म के हो सकते है- समझदार, समझौताहीन, स्पष्टवादी कवि और दुनियादार, चलाक, पाखंड़ी कवि। पहली कोटि के कवियों में कुछ अच्छे कवि भी हो सकते हैं और कुछ खराब भी। पर दूसरी कोटि का कोई भी अच्छा कवि नहीं हो सकता। अपनी तमाम कीमियागिरी और द्रवणि प्राणायाश-सदृश कला-साधना के बावजूद।
पांचवी बात, अलग-अलग विधाओं की अपनी विशिष्टताएं और सीमाएं होती हैं, लेकनि साहित्य-कला और हर विधा संश्लिष्ट सामाजिक यथार्थ से टकराती है, उसके अंतर्निहित अंतर्विरोधें का सूक्ष्म से सूक्ष्मतर धरातल पर संधान और परावर्तन करती है और निश्चयता और अनिश्चयता के द्वंद्व के बीच से जीवन की गतिकी और विकास की दिशा को जानने-समझने की कोशिश करती है। यथार्थ जितना ही संश्लिष्ट होगा, उसके कलात्मक पुन:त्पादन के लिए सर्जक की चेतना का धरातल उतना ही उन्नत होना चाहिए। कवि अगर समझदार और व्यावहारिक नहीं होगा तो उसकी कविता सामाजिक यथार्थ से टकराने, उसका संधान करने और उसे परावर्तित करने का काम कर ही नहीं सकती।
यह एक मिथक है कि कविता जीवन के निर्दोष सौंदर्य की अभिव्यक्ति होती है और कवि एक भोलाभाला जीव। न तो कविता कभी ऐसी थी और न ही कवि-कालिदास, भवभूति, तुलसी या कबीर के समय में भी नहीं। गांव के किसानों के बारे में भी शहरी किताबी लोगों में,प्राय: यह भ्रांत धारणा होती है कि भोले होते हैं। गांवों में उत्पादन और विनिमय की अपेक्षा पिछड़े होने के चलते किसानों की सांस्कृतिक चेतना पिछड़ी होती है और उनकी तर्कणा अनुभववादी होती है, लेकिन वो भोले कदापि नहीं होते। भोलापन प्राय: उनकी उत्पीडि़त स्थिति की विवशता निरुपायता से पैदा हुई एक मुद्रा होती है। बल्कि शहरों में प्रचलित धारणा के विपरीत, किसान प्राय:अव्यावहारिक शहरी पढुवा लोंगों को उल्लू बना कर खूब मजा लेते हैं। तात्पर्य यह कि सामाजिक संघातों विग्रहों से भरे समाज में किसी भी एक समुदाय, वर्ग या पेशे के लोंगो के भोले होने की बात असंभव है।
छठी बात, आज के पीढ़ी के कवियों की परिपक्वता देख कर आलोचक डरता क्यों है उसे डरना नहीं चाहिए। बात एक तुलना से समझी जा सकती है। पुरुष प्राय: स्त्रियों की परिपक्वता से भयभीत होता है। वह उनहें पुरुष वर्चस्व के लिए खतरा प्रतीत होती है और वे इस चीज से डरते हैं।
कहना न होगा, भोलाभाला होना बचकाना होना होता है। भोला बनने की हर कोशिश या तो पाखंड होती है या पिफर आप वाकई बौड़म हैं। बौड़म पर लोग या तो तरस खाते हैं, हंसते हैं या फिर उसे हंसते-हंसते खा जाते हैं और डकार तक नहीं लेते। इसलिए हे कविगण, अलोचक शिरोमणि की बात को दिल से कतई मत लगा लेना। समझदार बनना। भोला कतई न होना। भोले होगे तो कविताई कर पाना तो दूर, इस समाज में जीना मुहाल हो जाएगा। आज के समाज में जीना क्षण-प्रतिक्षण एक कठिन-जटिल युद्घ् है, कला-विशारद होना जरूरी है।
सचाई को कविता में बयान करना साहस के साथ समझदारी की भी मांग करता है।
पिछले दिनों में उमाशंकर चौधरी को चौथा अंकुर स्म़ति पुरस्कार प्रदान करते हुए नामवर सिंह ने कहा कि आज के इस दौर ने कवि का भोलापन छीन लिया है, आज की पीढ़ी की परिपक्वता देख कर डर लगता है।
पहली बात भोलापन या मासूमियत एक चीज होती है और बे-लागलपेटपन, साफगोई, निष्कपटता या स्पष्टवादिता चालक, धूर्त या दुनियादार होना दूसरी चीज। जो बे-लागलपेट होता है, जो दुनियादार नहीं होता, जो समझौते नहीं करता, जो अपने कथनी और करनी के परिणामों को समझते हुए भी वही कहता और करता है जिसे सही और उचित समझता है, उसे दुनियादार और दंदफंदी लोग भोला कहते हैं। कभी वे उस पर तरस खाते हैं, कभी हंसते हैं और कभी उसकी दुर्गति पर हर्षित होते हैं। निराला या मुक्तबोध भोले नहीं थे। वे चालू चलन के हिसाब से नहीं, बल्कि अपनी शर्तों पर जीते थे और उसकी कीमत चुकाते थे। इसलिए उन्हें उनके शुभचिंतक दुनियादार चतुर सुजानगण भोला समझते थे।
दूसरी बात, भोलापन केवल बच्चों का नैसर्गिक और वशिष्ट गुण हो सकता है, बड़ों का नहीं, चाहे वह कवि ही क्यों न हो। बड़ा अगर बच्चों जैसा आचरण करेगा तो बचकाना ही कहलाएगा। फिर यह भी याद रखा जाना चाहिए कि जानते-बूझते भोला नहीं बना जा सकता।
तीसरी बात, कभी-कभी मानवद्वेषी-मानवद्रोही प्रवृति या परिदृश्य की भयावहता को विपर्यास, कंटास्ट के द्वारा निरावृत्त करने के लिए कविता भोलेपन की मुद्रा,बाना या शैली अपना लेती है। कविता के इस आभासी भोलेपन को कवि का भोलापन नहीं मान लिया जाना चाहिए। एक समझदार, तत्वदर्शी कवि की कविता ही भोलेपन की यह मुद्रा अपना पाती है।
चौथी बात, कवि भी इस समाज में जीनेवाला एक आम नागरिक होता है। अगर वह वास्तव में भोला हुआ तो कविता लिखना तो दूर, जी तक नहीं सकता। पागलखाने पहुंच जाएगा, भूखों मर जाएगा या पागलखाने पहुंच जाएगा या आत्महत्या कर लेगा। और ऐसा व्यक्तित्व-विभाजन भी संभव नहीं कि हम नागरिक के रूप में समझदार या दुनियादार हों और कवि के रूप में भोले-भोल कवि का अस्तत्वि एक मिथक है। कवि बस दो ही किस्म के हो सकते है- समझदार, समझौताहीन, स्पष्टवादी कवि और दुनियादार, चलाक, पाखंड़ी कवि। पहली कोटि के कवियों में कुछ अच्छे कवि भी हो सकते हैं और कुछ खराब भी। पर दूसरी कोटि का कोई भी अच्छा कवि नहीं हो सकता। अपनी तमाम कीमियागिरी और द्रवणि प्राणायाश-सदृश कला-साधना के बावजूद।
पांचवी बात, अलग-अलग विधाओं की अपनी विशिष्टताएं और सीमाएं होती हैं, लेकनि साहित्य-कला और हर विधा संश्लिष्ट सामाजिक यथार्थ से टकराती है, उसके अंतर्निहित अंतर्विरोधें का सूक्ष्म से सूक्ष्मतर धरातल पर संधान और परावर्तन करती है और निश्चयता और अनिश्चयता के द्वंद्व के बीच से जीवन की गतिकी और विकास की दिशा को जानने-समझने की कोशिश करती है। यथार्थ जितना ही संश्लिष्ट होगा, उसके कलात्मक पुन:त्पादन के लिए सर्जक की चेतना का धरातल उतना ही उन्नत होना चाहिए। कवि अगर समझदार और व्यावहारिक नहीं होगा तो उसकी कविता सामाजिक यथार्थ से टकराने, उसका संधान करने और उसे परावर्तित करने का काम कर ही नहीं सकती।
यह एक मिथक है कि कविता जीवन के निर्दोष सौंदर्य की अभिव्यक्ति होती है और कवि एक भोलाभाला जीव। न तो कविता कभी ऐसी थी और न ही कवि-कालिदास, भवभूति, तुलसी या कबीर के समय में भी नहीं। गांव के किसानों के बारे में भी शहरी किताबी लोगों में,प्राय: यह भ्रांत धारणा होती है कि भोले होते हैं। गांवों में उत्पादन और विनिमय की अपेक्षा पिछड़े होने के चलते किसानों की सांस्कृतिक चेतना पिछड़ी होती है और उनकी तर्कणा अनुभववादी होती है, लेकिन वो भोले कदापि नहीं होते। भोलापन प्राय: उनकी उत्पीडि़त स्थिति की विवशता निरुपायता से पैदा हुई एक मुद्रा होती है। बल्कि शहरों में प्रचलित धारणा के विपरीत, किसान प्राय:अव्यावहारिक शहरी पढुवा लोंगों को उल्लू बना कर खूब मजा लेते हैं। तात्पर्य यह कि सामाजिक संघातों विग्रहों से भरे समाज में किसी भी एक समुदाय, वर्ग या पेशे के लोंगो के भोले होने की बात असंभव है।
छठी बात, आज के पीढ़ी के कवियों की परिपक्वता देख कर आलोचक डरता क्यों है उसे डरना नहीं चाहिए। बात एक तुलना से समझी जा सकती है। पुरुष प्राय: स्त्रियों की परिपक्वता से भयभीत होता है। वह उनहें पुरुष वर्चस्व के लिए खतरा प्रतीत होती है और वे इस चीज से डरते हैं।
कहना न होगा, भोलाभाला होना बचकाना होना होता है। भोला बनने की हर कोशिश या तो पाखंड होती है या पिफर आप वाकई बौड़म हैं। बौड़म पर लोग या तो तरस खाते हैं, हंसते हैं या फिर उसे हंसते-हंसते खा जाते हैं और डकार तक नहीं लेते। इसलिए हे कविगण, अलोचक शिरोमणि की बात को दिल से कतई मत लगा लेना। समझदार बनना। भोला कतई न होना। भोले होगे तो कविताई कर पाना तो दूर, इस समाज में जीना मुहाल हो जाएगा। आज के समाज में जीना क्षण-प्रतिक्षण एक कठिन-जटिल युद्घ् है, कला-विशारद होना जरूरी है।
सचाई को कविता में बयान करना साहस के साथ समझदारी की भी मांग करता है।
Saturday, September 29, 2007
यह वो जार्ज .. नहीं
उसदोपहर में बहनजी की बातों में एक किस्सा यह भी था ।
...मेरी बेटी तो पढ़ाई लिखाई के अलावा कुछ करती ही नहीं है। जब हमलोग वहां गए थे बहुत खराब लगता था। हमने देखा कि वह अपने रीडिंग डेस्क पर जमी रहती है और जार्ज किचेन में हैं। मैंने उसको टोका भी लेकिन उसका कहना था कि मेरा इस काम में मन ही नहीं लगता मां।
ठीक ही कह रही थी वह। बचपन से वह ऐसी ही है। छूकर किचेन का काम नहीं। पता नहीं कहां से यह बात उसके मन में घर कर गयी। कहती थी - उसका बस चले तो घर की डिजाइन से किचेन को खतम कर दे।
घर से हॉस्टल गयी तो वहां जरूरत ही नहीं पड़ी। मुझे तो डर लगता था कि शादी में कैसे निभेगी इसकी। लेकिन ईश्वर सबके लिए कुछ न कुछ सोचता है। अब देखो उसको ऐसा घर मिला जिसमें रसोई को लेकर कोई बहस ही नहीं है। सिर्फ जार्ज ही नहीं उसके भाई, उसके पिता भी किचेन में लगे रहते हैं। और किसी दबाव में नहीं मजे से। अपने यहां किस घर में ऐसा संभव है. कि मर्द किचेन में काम करें और औरतें रीडिंग डेस्क पर हों ।
मै तो वहां चंद दिनों की मेहमान थी, फिर भी मुझसे तो रहा नहीं गया। अपने यहां किचेन तो औरतों की नाभिनाल से बंधा है। बिना उसके सुबह शाम ही नहीं होती। तुमलोगों की उम्र में तो पता नहीं, लेकिन हम जिस उम्र में बड़े हुए हैं उसमें तो हमारी दुनिया की कल्पना ही इसके बगैर नहीं की जा सकती थी। जैसे रसोई औरत का पर्याय हो।
वहां से आने के बाद तुमलोगों से ऐसा कह पा रही हूं। लेकिन अपना काम तो उसके बगैर चला नहीं। ना ही उसके बिना दिन कटता है। ... पुरुषों को किचेन में खटर पटर करते देख उठ कर गयी उस तरफ। लेकिन वहां करूं क्या ? वहां का खान पान ही अलग है। अपना साजो समान भी वहां नहीं। रसोई से तो ऐसा नाता रहता है कि आंख मूंद कर भी उसमें जाओ तो कभी किसी गलत सामान पर हाथ नहीं पड़ेगा। ....लेकिन वहां तो से उसके घरवाले दौड़ पड़े .... नो ... नो ....अब उनसे कैसे कहूं कि बैठे बैठे उब्ा होने लगी है। कितना टीवी देखो, कितना घूमो। कड़छी, बेलन के बिना अपना जीवन कितना अधूरा लगने लगता है। ऐसा लगता है कि जन्म ही उनके साथ हुआ है । कि जहां आराम भी है वहां ये मन में खटकते रहते हैं।
बहनजी के अमेरिकी प्रवास में किचेन प्रसंग हम देर तक सुनते रहे। उन्होंने इस प्रसंग का अंत इस तरह किया --- बिल्कुल अनोखा परिवार है मिला है बेटी को। जार्ज के एक भाई ने सिर्फ इसलिए विवाह नहीं किया कि अपने नानाजी की देखभाल करेगा। नानाजी अस्सी पार कर गए हैं। उनका सारा काम करता है। और खुश है। मुझे तो अब अपने यहां यकीन नहीं होता कि बुजुर्गों की देखभाल के लिए कोई अपना जीवन दांव पर लगाएगा। दूसरों की सेवा को ही अपना जीवन मान लेगा।
यहां बार बार जिस जार्ज का नाम आ रहा था वह बहन जी का दामाद है । है वह अमेरिकी ही लेकिन कुछ अलग ।
...मेरी बेटी तो पढ़ाई लिखाई के अलावा कुछ करती ही नहीं है। जब हमलोग वहां गए थे बहुत खराब लगता था। हमने देखा कि वह अपने रीडिंग डेस्क पर जमी रहती है और जार्ज किचेन में हैं। मैंने उसको टोका भी लेकिन उसका कहना था कि मेरा इस काम में मन ही नहीं लगता मां।
ठीक ही कह रही थी वह। बचपन से वह ऐसी ही है। छूकर किचेन का काम नहीं। पता नहीं कहां से यह बात उसके मन में घर कर गयी। कहती थी - उसका बस चले तो घर की डिजाइन से किचेन को खतम कर दे।
घर से हॉस्टल गयी तो वहां जरूरत ही नहीं पड़ी। मुझे तो डर लगता था कि शादी में कैसे निभेगी इसकी। लेकिन ईश्वर सबके लिए कुछ न कुछ सोचता है। अब देखो उसको ऐसा घर मिला जिसमें रसोई को लेकर कोई बहस ही नहीं है। सिर्फ जार्ज ही नहीं उसके भाई, उसके पिता भी किचेन में लगे रहते हैं। और किसी दबाव में नहीं मजे से। अपने यहां किस घर में ऐसा संभव है. कि मर्द किचेन में काम करें और औरतें रीडिंग डेस्क पर हों ।
मै तो वहां चंद दिनों की मेहमान थी, फिर भी मुझसे तो रहा नहीं गया। अपने यहां किचेन तो औरतों की नाभिनाल से बंधा है। बिना उसके सुबह शाम ही नहीं होती। तुमलोगों की उम्र में तो पता नहीं, लेकिन हम जिस उम्र में बड़े हुए हैं उसमें तो हमारी दुनिया की कल्पना ही इसके बगैर नहीं की जा सकती थी। जैसे रसोई औरत का पर्याय हो।
वहां से आने के बाद तुमलोगों से ऐसा कह पा रही हूं। लेकिन अपना काम तो उसके बगैर चला नहीं। ना ही उसके बिना दिन कटता है। ... पुरुषों को किचेन में खटर पटर करते देख उठ कर गयी उस तरफ। लेकिन वहां करूं क्या ? वहां का खान पान ही अलग है। अपना साजो समान भी वहां नहीं। रसोई से तो ऐसा नाता रहता है कि आंख मूंद कर भी उसमें जाओ तो कभी किसी गलत सामान पर हाथ नहीं पड़ेगा। ....लेकिन वहां तो से उसके घरवाले दौड़ पड़े .... नो ... नो ....अब उनसे कैसे कहूं कि बैठे बैठे उब्ा होने लगी है। कितना टीवी देखो, कितना घूमो। कड़छी, बेलन के बिना अपना जीवन कितना अधूरा लगने लगता है। ऐसा लगता है कि जन्म ही उनके साथ हुआ है । कि जहां आराम भी है वहां ये मन में खटकते रहते हैं।
बहनजी के अमेरिकी प्रवास में किचेन प्रसंग हम देर तक सुनते रहे। उन्होंने इस प्रसंग का अंत इस तरह किया --- बिल्कुल अनोखा परिवार है मिला है बेटी को। जार्ज के एक भाई ने सिर्फ इसलिए विवाह नहीं किया कि अपने नानाजी की देखभाल करेगा। नानाजी अस्सी पार कर गए हैं। उनका सारा काम करता है। और खुश है। मुझे तो अब अपने यहां यकीन नहीं होता कि बुजुर्गों की देखभाल के लिए कोई अपना जीवन दांव पर लगाएगा। दूसरों की सेवा को ही अपना जीवन मान लेगा।
यहां बार बार जिस जार्ज का नाम आ रहा था वह बहन जी का दामाद है । है वह अमेरिकी ही लेकिन कुछ अलग ।
Sunday, September 23, 2007
असाइनमेंट उर्फ सत्रीय कार्य
स्कूल में हम सबने गृहकार्य किया है। उसके लिए शाबाशी और पिटाई दोनो हम सबने पाई होगी। पत्रकारिता करना शुरू किया तो असाइंनमेंट पद से परिचय हुआ। बहुत दिन तक इस शब्द का अर्थ डिक्शनरी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। क्योंकि पढ़ाई लिखाई की दुनिया में यह एक आम पद है। लेकिन इस बार कक्षा में एक बच्चे ने टोक दिया : क्या अर्थ है सर इसका। और टोक ही नहीं दिया बल्कि वह तो भड़क उठा कि यह क्या बात है हिन्दी की कक्षा में अंग्रेजी के पद चल रहे हैं। खुशी इस बात की थी कि उसे इस पद का प्रचलित अर्थ मालूम था, उसने गर्व से हमें बताया : सत्रीय कार्य। और तब से अब सत्रीय कार्य इस तरह से जबान पर चढ़ा हुआ है कि शायद कभी असाइनमेंट बोलने की जरूरत न पड़े। हालांकि, इस पद में मीडिया के असाइनमेंटवाली बात कुछ फिट नहीं जान पड़ती लेकिन कक्षा के काम के लिए यह कोई खराब शब्द नहीं है।
परीक्षा की तरह यह गृहकार्य उर्फ सत्रीय कार्य भी विद्यार्थियों में एक तरह का भय पैदा करता है। किसी गतिविधि को यह नाम दे देने मात्र से उनमें झिझक पैदा हो जाती है, इसे स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है। अगर यह भय न दिखाएं कि कक्षा में आपके काम पर अंक मिलेंगे या कटेंगे तो शायद ही कोई काम करे। लेकिन ऐसे मरे मन से कोई काम करने का क्या मतलब। होना यह चाहिए कि बच्चे स्वत: कक्षा संबंधित गतिविधियों में भागीदारी करें। अगर वे कक्षा में दिए जानेवाले काम में जोश से नहीं लग रहे हैं तो उसका सिर्फ यही अर्थ नहीं है कि वह नहीं करना चाहते या फिर उन्हें करना नहीं आ रहा। बल्कि यह भी हो सकता है कि वह काम इतना उबाऊ है कि इसमें उनका मन नहीं लग रहा।
यह सब विषय विषय पर भी निर्भर है। शायद उन्हें कैमरा पकड़ा दिया जाए तो वे खुशी-खुशी इसमें लग जायेगे। इतिहास की कक्षा तो कुछ खास ही उबाऊ हो जाती है। कानपुर के एक महाविद्यालय की मोहतरमा पिछले दिनों पधारीं तो चर्चा में इतिहास की बात बरबस छलक पड़ी। कुछ टिप्स बताइए इतिहास की कक्षा को कैसे रोचक बनाया जाए। बाकी सब मे तो काम चल जाता है लेकिन इतिहास में कुछ नहीं सूझता। ऐसा नहीं है कि इतिहास पढ़ानेवाले सभी शिक्षक उबाते ही होंगे। काफी कुद शिक्षक पर निर्भर करने लगता है कि वह अपने विषय को कैसे प्रस्तुत करता है।
लेकिन कक्षाओं में पठन-पाठन में आनेवाली दिक्कतों को साझा करने का कोई फोरम तो है नहीं। हां, अंग्रेजी में ये फोरम हैं लेकिन उनमें से अधिकांश का अनुभव वहां के माहौल से संबंधित है जाहिर है सिर्फ उनके तर्जुमा से यहां की कक्षाओं में काम नहीं चलेगा। संभवत: बाकी अनुशासनों में ऐसे साझा मंच हों लेकिन पत्रकारिता में इन अनुभवों का एक जगह आना अभी बाकी है।
परीक्षा की तरह यह गृहकार्य उर्फ सत्रीय कार्य भी विद्यार्थियों में एक तरह का भय पैदा करता है। किसी गतिविधि को यह नाम दे देने मात्र से उनमें झिझक पैदा हो जाती है, इसे स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है। अगर यह भय न दिखाएं कि कक्षा में आपके काम पर अंक मिलेंगे या कटेंगे तो शायद ही कोई काम करे। लेकिन ऐसे मरे मन से कोई काम करने का क्या मतलब। होना यह चाहिए कि बच्चे स्वत: कक्षा संबंधित गतिविधियों में भागीदारी करें। अगर वे कक्षा में दिए जानेवाले काम में जोश से नहीं लग रहे हैं तो उसका सिर्फ यही अर्थ नहीं है कि वह नहीं करना चाहते या फिर उन्हें करना नहीं आ रहा। बल्कि यह भी हो सकता है कि वह काम इतना उबाऊ है कि इसमें उनका मन नहीं लग रहा।
यह सब विषय विषय पर भी निर्भर है। शायद उन्हें कैमरा पकड़ा दिया जाए तो वे खुशी-खुशी इसमें लग जायेगे। इतिहास की कक्षा तो कुछ खास ही उबाऊ हो जाती है। कानपुर के एक महाविद्यालय की मोहतरमा पिछले दिनों पधारीं तो चर्चा में इतिहास की बात बरबस छलक पड़ी। कुछ टिप्स बताइए इतिहास की कक्षा को कैसे रोचक बनाया जाए। बाकी सब मे तो काम चल जाता है लेकिन इतिहास में कुछ नहीं सूझता। ऐसा नहीं है कि इतिहास पढ़ानेवाले सभी शिक्षक उबाते ही होंगे। काफी कुद शिक्षक पर निर्भर करने लगता है कि वह अपने विषय को कैसे प्रस्तुत करता है।
लेकिन कक्षाओं में पठन-पाठन में आनेवाली दिक्कतों को साझा करने का कोई फोरम तो है नहीं। हां, अंग्रेजी में ये फोरम हैं लेकिन उनमें से अधिकांश का अनुभव वहां के माहौल से संबंधित है जाहिर है सिर्फ उनके तर्जुमा से यहां की कक्षाओं में काम नहीं चलेगा। संभवत: बाकी अनुशासनों में ऐसे साझा मंच हों लेकिन पत्रकारिता में इन अनुभवों का एक जगह आना अभी बाकी है।
Wednesday, September 12, 2007
क्लास रूम 4
अपने यहां स्कूल से ही पढ़ाई का ऐसा सिलसिला शुरू होता है कि पढ़नेवाला/वाली किताब से बंधकर रह जाता है। चौतरफा कोशिश चलती रहती है कि आपको घेर बांध कर किताबों के भीतर प्रवेश दिला दिया जाए। आंख पोछते कंधे पर बस्ता बांधे जबरन स्कूल की चारदिवारी में धकेले जाते बच्चे देश के हर कोने का आम दृश्य है। वह तो भला हो संचिन तेंदुलकर, गीत सेठी, विश्वनाथन आनंद, पीटी उषा जैसी प्रतिभाओं का जिनने बरसों से जड़ हो गई कहावत - पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब खेलोगे कूदोगे ----- को चुनौती दी। ऐसे लोगों ने यह बताया कि दुनिया और भी है। जीने और सीखने के रास्ते और भी हैं।
लेकिन यहां पर खेल बनाम शिक्षा की बात नहीं करनी है। किताबों से बंधे रहने का सिलसिला जो स्कूलों में शुरू होता है वह स्कूल, कॉलेज होता हुआ अन्य पेशेवर पढ़ाइयों में भी अपना रंग दिखाता रहता है। ऐसे सौभाग्यशाली विद्यार्थी कम ही मिलेंगे जिन्हें साक्षरता की बजाए शिक्षा और रटने की जगह समझने को ओर प्रवृत किया गया हो। शायद हमने जो शिक्षा का ढांचा विकसित किया है उसका फोकस भी इस पर नहीं है। उत्तरप्रदेश और खासकर बिहार में तो पिछले कुछ वर्षों में स्कूलों की यह हालत रही है कि हजार विद्यार्थियों पर चार या पांच शिक्षक ही उपलब्ध रहे हैं। इसके अपवाद हो सकते हैं, लेकिन शिक्षक और छात्रों का अनुपात अत्यंत ही चिंताजनक रहा है। ऐसे में कोई शिक्षक किसी को क्या समझाएगा और कौन से कौशल विकसित कर पाएगा।
उत्साह में या फिर आलोचना में यह जरूर कहा जा सकता है कि शिक्षक चाहे तो क्या नहीं कर सकता है। लेकिन हर शिक्षक -क्या नहीं कर सकता - वाली मिट्टी का ही बना हो ऐसा मानकर नहीं चला जा सकता। अगर ऐसा हो पाता तो कोई बात ही नहीं थी। लिहाजा बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन, कोचिंग क्लासेस, गेस पेपर, चुनिंदा प्रश्न आदि के मकड़जाल में फंसना पड़ता है। इस मकड़जाल में एक ही उपाय काम करता है ज्ञान की सुई लगा दो। यह सुई किस मरीज पर कितना और कैसा असर करती है इसकी परवाह करने कोशिश यह तंत्र न तो करता है न ही करना चाहता है। और यह सब इसलिए होता है क्योंकि पूरा तंत्र परीक्षा केन्द्रित है। लिहाजा पूरी शिक्षा व्यवस्था एक अदद छापेखाने में तब्दिल होकर रह जाती है। जिसमें से हर साल मैट्रिक, इंटर, बीए, एमए और पीएचडी तक के फर्मे में भारी उत्पादन हो रहा है।
इसमें थोड़ी अतिरंजना लग सकती है लेकिन क्लास में आते ही विद्यार्थी प्रश्न कैसे लिखे जाएं, नोट्स कैसे बनाएं जाएं, की चिंता में लग जाएं तो इससे यही अर्थ निकलता है कि हमारी शिक्षा और यहां पर विशेष रूप से कहना होगा कि विश्वविद्यालयी शिक्षा में किस तरह का घून लगा हुआ है। परीक्षा परीक्षा .. परीक्षा । विद्यार्थी में अगर स्वत: सीखने और करते हुए सीखने का दीया नहीं जला है और परिसर के अलावा बाकी सजीव दुनिया से समाज से विद्यार्थी रिश्ता नहीं बना पाता तो आपको क्या लगता है चंद टेक्स्ट बुक, टृयूटोरियल और रियाज से कोई अच्छा पत्रकार बन सकता है। समस्या इन बच्चों में नहीं है, उस तंत्र में है जिसने इनकी प्रतिभा को अजीब तरह के खांचे में बंद सा कर दिया है जो परीक्षा और प्रश्नपत्र के अलावा कहीं देखता ही नहीं । इस ढांचे को तोड़ना एक बड़ी चुनौती है।
लेकिन यहां पर खेल बनाम शिक्षा की बात नहीं करनी है। किताबों से बंधे रहने का सिलसिला जो स्कूलों में शुरू होता है वह स्कूल, कॉलेज होता हुआ अन्य पेशेवर पढ़ाइयों में भी अपना रंग दिखाता रहता है। ऐसे सौभाग्यशाली विद्यार्थी कम ही मिलेंगे जिन्हें साक्षरता की बजाए शिक्षा और रटने की जगह समझने को ओर प्रवृत किया गया हो। शायद हमने जो शिक्षा का ढांचा विकसित किया है उसका फोकस भी इस पर नहीं है। उत्तरप्रदेश और खासकर बिहार में तो पिछले कुछ वर्षों में स्कूलों की यह हालत रही है कि हजार विद्यार्थियों पर चार या पांच शिक्षक ही उपलब्ध रहे हैं। इसके अपवाद हो सकते हैं, लेकिन शिक्षक और छात्रों का अनुपात अत्यंत ही चिंताजनक रहा है। ऐसे में कोई शिक्षक किसी को क्या समझाएगा और कौन से कौशल विकसित कर पाएगा।
उत्साह में या फिर आलोचना में यह जरूर कहा जा सकता है कि शिक्षक चाहे तो क्या नहीं कर सकता है। लेकिन हर शिक्षक -क्या नहीं कर सकता - वाली मिट्टी का ही बना हो ऐसा मानकर नहीं चला जा सकता। अगर ऐसा हो पाता तो कोई बात ही नहीं थी। लिहाजा बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन, कोचिंग क्लासेस, गेस पेपर, चुनिंदा प्रश्न आदि के मकड़जाल में फंसना पड़ता है। इस मकड़जाल में एक ही उपाय काम करता है ज्ञान की सुई लगा दो। यह सुई किस मरीज पर कितना और कैसा असर करती है इसकी परवाह करने कोशिश यह तंत्र न तो करता है न ही करना चाहता है। और यह सब इसलिए होता है क्योंकि पूरा तंत्र परीक्षा केन्द्रित है। लिहाजा पूरी शिक्षा व्यवस्था एक अदद छापेखाने में तब्दिल होकर रह जाती है। जिसमें से हर साल मैट्रिक, इंटर, बीए, एमए और पीएचडी तक के फर्मे में भारी उत्पादन हो रहा है।
इसमें थोड़ी अतिरंजना लग सकती है लेकिन क्लास में आते ही विद्यार्थी प्रश्न कैसे लिखे जाएं, नोट्स कैसे बनाएं जाएं, की चिंता में लग जाएं तो इससे यही अर्थ निकलता है कि हमारी शिक्षा और यहां पर विशेष रूप से कहना होगा कि विश्वविद्यालयी शिक्षा में किस तरह का घून लगा हुआ है। परीक्षा परीक्षा .. परीक्षा । विद्यार्थी में अगर स्वत: सीखने और करते हुए सीखने का दीया नहीं जला है और परिसर के अलावा बाकी सजीव दुनिया से समाज से विद्यार्थी रिश्ता नहीं बना पाता तो आपको क्या लगता है चंद टेक्स्ट बुक, टृयूटोरियल और रियाज से कोई अच्छा पत्रकार बन सकता है। समस्या इन बच्चों में नहीं है, उस तंत्र में है जिसने इनकी प्रतिभा को अजीब तरह के खांचे में बंद सा कर दिया है जो परीक्षा और प्रश्नपत्र के अलावा कहीं देखता ही नहीं । इस ढांचे को तोड़ना एक बड़ी चुनौती है।
Thursday, August 30, 2007
ब्रजेश्वर मदान की कविताएं
लिखना कब शुरू हुआ आपका, यह लेखकों और कवियों से पूछा जानेवाला एक आम सवाल है। कुछ कवि इसे बड़ी नफासत से कहते हैं - हम लिखते नहीं कविताएं हममें अभिव्यक्त होती हैं। हम तो निमित्त मात्र हैं। किसी कवि के जरिए कब उसकी श्रेष्ठ कविता अभिव्यक्त होती है यह अंदाज लगाना मुश्किल है। पिछले कुछ समय से ब्रजेश्वर जी बड़ी ही खुबसूरत कविताएं लिख रहे हैं, बिल्कुल नए अंदाज में। पहले हंस में और फिर राष्ट्रीय सहारा के इतवारी परिशिष्ट में उनकी कविताएं साया हुई हैं। प्रस्तुत हैं बीते इतवार को राष्ट्रीय सहारा में आईं कुछ कविताएं
गोलक
पाब्लो नेरूदा की कविता में
गोलक जैसे वक्ष पढ्कर
गोलक का नया अर्थ जाना
गोलक जो बचपन में
होता था हमारा बैंक
डालते थे उसमें
अठन्नियां चवन्नियां
जो भी जेबखर्च मिलता था
उससे बचाकर और इंतजार करते थे
उसके भरने का
नेरूदा की कविता से यह
नया अर्थ जाना
कि जहां सुनी जा सकती थी
दिल की धड़कन
उसमें करके सुराख
सुनते रहे सिक्कों की आवाज
यों सोचकर
याद आई देह और धरती की गंध
याद आया गांव
जहां मिटटी के दीयों में
फूलती थी सरसों
अब तो इस शहर में
हो गए हैं बरसों
जहां सिक्कों के शोर में
खो गई है जीवन की भोर । ।
एक बार
एक लड़की मिलती है एक दिन
एक लड्के से और
करने लगती है प्रेम
और फिर एक दिन
चली जाती है
उसे टूटे हुए जहाज के
डेक पर छोड्कर
फिर उसकी जिंदगी में
वह सब होता है
जो होता सबकी जिंदगी में
शादी, बेटे-बेटियां
पोते-पोतियां भी
लेकिन नहीं होता प्रेम
और मरते दम तक वह
किसी को पता नहीं चलने देती
कि जीवन एक बार उसने भी जिया था ।
अहिल्या
वह मेरा भ्रम था कि
फर्श पर पड़ी गठरी
बदल गई लड़की में
दरअसल
वह लड्की थी
जो इफ्तार से पहले की
नमाज अदा करके उठी थी
फर्श से।
भ्रम था मेरा
लेकिन मैं उस पर
यकीन करना चाहते था कि
अब भी बदल सकता है
कोई पेड्, कोई पत्थर
किसी औरत में
जैसे अहिल्या बदल गई थी
पत्थर से और में
एक स्पर्श से।।
गोलक
पाब्लो नेरूदा की कविता में
गोलक जैसे वक्ष पढ्कर
गोलक का नया अर्थ जाना
गोलक जो बचपन में
होता था हमारा बैंक
डालते थे उसमें
अठन्नियां चवन्नियां
जो भी जेबखर्च मिलता था
उससे बचाकर और इंतजार करते थे
उसके भरने का
नेरूदा की कविता से यह
नया अर्थ जाना
कि जहां सुनी जा सकती थी
दिल की धड़कन
उसमें करके सुराख
सुनते रहे सिक्कों की आवाज
यों सोचकर
याद आई देह और धरती की गंध
याद आया गांव
जहां मिटटी के दीयों में
फूलती थी सरसों
अब तो इस शहर में
हो गए हैं बरसों
जहां सिक्कों के शोर में
खो गई है जीवन की भोर । ।
एक बार
एक लड़की मिलती है एक दिन
एक लड्के से और
करने लगती है प्रेम
और फिर एक दिन
चली जाती है
उसे टूटे हुए जहाज के
डेक पर छोड्कर
फिर उसकी जिंदगी में
वह सब होता है
जो होता सबकी जिंदगी में
शादी, बेटे-बेटियां
पोते-पोतियां भी
लेकिन नहीं होता प्रेम
और मरते दम तक वह
किसी को पता नहीं चलने देती
कि जीवन एक बार उसने भी जिया था ।
अहिल्या
वह मेरा भ्रम था कि
फर्श पर पड़ी गठरी
बदल गई लड़की में
दरअसल
वह लड्की थी
जो इफ्तार से पहले की
नमाज अदा करके उठी थी
फर्श से।
भ्रम था मेरा
लेकिन मैं उस पर
यकीन करना चाहते था कि
अब भी बदल सकता है
कोई पेड्, कोई पत्थर
किसी औरत में
जैसे अहिल्या बदल गई थी
पत्थर से और में
एक स्पर्श से।।
Thursday, August 23, 2007
क्लास रूम 3
नवाचारी शिक्षा में अब इस बात पर जोर दिया जाता है कि कक्षाओं की बनावट आयताकार नहीं रहनी चाहिए। हम सभी जानते हैं और बचपन से ऐसा ही देखा है कि कक्षाएं आयाताकार होती हैं और एक के पीछे एक कईं पात बनाकर लड़के लड़कियां बैठते हैं। महानगरों के अनुभव को छोड़ दें तो बाकी अधिकांश जगहों पर लड़कियों की पांत अलग ही होती है। महानगर पूर्णत: इस श्रेणीक्रमवाली कक्षा से मुक्त हैं और गांव मे हर जगह बिल्कुल समस्या ही है, यहां इस तरह के साधारणीकरण का ऐसा कोई इरादा नहीं है।
सत्र शुरू होने के एकाध दिन के बाद हर कक्षा में सबकी जगह तय हो जाती है कि कौन कहां बैठेगा। कई बार इतनी ज्यादा तय हो जाती है कि उसपर जूतमपैजार तक हो जाती है। जिन बच्चों की उंचाई कम है, जो कम सुनते हैं या जिन्हें दूर से दिखाई नहीं देता, ऐसी किसी भी समस्या के प्रति इन कक्षाओं में कोई संवेदनशीलता नहीं होती। हम सभी जानते हैं कि गांव की पृष्ठभूमि में हर गांव में मिडिल, हाईस्कूल या कॉलिज नहीं होता। ऐसे में एक मोहल्ले के बच्चों को किसी और मोहल्ला या फिर एक गांव या कस्बे में पढ़ाई के लिए जाना ही पड़ता है। ऐसे में अक्सर मोहल्ला, गांव, जाति के आधार पर पांत बनने लगती है। जाहिर है इस संदर्भ में स्थानीय बच्चों की तूती बोलती है।
मेरी कक्षा में भी पहले दिन कुछ उसी तरह की पांत बन गई। लड़कियां साफ दिख जाती हैं इसलिए पहला विभाजन यही था। पत्रकारिता करने के आकांक्षी लोगों को इस तरह बैठे देखकर यही लगा कि ऐसे रुढि़बद्ध लोग कहां जायेंगे। पहली बहस यहीं शुरू हुई। बहस का नतीजा सकारात्मक रहा और अब यह पांत नहीं रही । लेकिन दूसरे बंटवारे अब नहीं हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता ।
कक्षा में सभी विद्यार्थी शिक्षक से समान दूरी पर रहें, सब पर बराबर नजर हो, सबतक बराबर आवाज पहुंचे, सभी बराबरी से अपनी बात कह पाएं, शायद कक्षा का गोलाकार या अर्द्धवृताकार ढांचा इसमें मददगार हो सकेगा।
सत्र शुरू होने के एकाध दिन के बाद हर कक्षा में सबकी जगह तय हो जाती है कि कौन कहां बैठेगा। कई बार इतनी ज्यादा तय हो जाती है कि उसपर जूतमपैजार तक हो जाती है। जिन बच्चों की उंचाई कम है, जो कम सुनते हैं या जिन्हें दूर से दिखाई नहीं देता, ऐसी किसी भी समस्या के प्रति इन कक्षाओं में कोई संवेदनशीलता नहीं होती। हम सभी जानते हैं कि गांव की पृष्ठभूमि में हर गांव में मिडिल, हाईस्कूल या कॉलिज नहीं होता। ऐसे में एक मोहल्ले के बच्चों को किसी और मोहल्ला या फिर एक गांव या कस्बे में पढ़ाई के लिए जाना ही पड़ता है। ऐसे में अक्सर मोहल्ला, गांव, जाति के आधार पर पांत बनने लगती है। जाहिर है इस संदर्भ में स्थानीय बच्चों की तूती बोलती है।
मेरी कक्षा में भी पहले दिन कुछ उसी तरह की पांत बन गई। लड़कियां साफ दिख जाती हैं इसलिए पहला विभाजन यही था। पत्रकारिता करने के आकांक्षी लोगों को इस तरह बैठे देखकर यही लगा कि ऐसे रुढि़बद्ध लोग कहां जायेंगे। पहली बहस यहीं शुरू हुई। बहस का नतीजा सकारात्मक रहा और अब यह पांत नहीं रही । लेकिन दूसरे बंटवारे अब नहीं हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता ।
कक्षा में सभी विद्यार्थी शिक्षक से समान दूरी पर रहें, सब पर बराबर नजर हो, सबतक बराबर आवाज पहुंचे, सभी बराबरी से अपनी बात कह पाएं, शायद कक्षा का गोलाकार या अर्द्धवृताकार ढांचा इसमें मददगार हो सकेगा।
Tuesday, August 21, 2007
क्लास रूम 2
रोल ऑफ मीडिया इन डेमोक्रेसी। यह भाषण का विषय था। अमेरिकन महिला पत्रकार सुशन राबिन्सन किंग का भाषण। बात पत्रकारिता के इतिहास से शुरू हुई और डिजीटल डेमोक्रेसी पर आकर ठहर गई। शुरुआत अमेरिका से और अंत भी अमेरिका पर। व्याख्यानों में यह नया ट्रेंड है- विषय व्यापक और उदाहरण किसी छोटे दायरे में अध्ययन का। लेखों तक तो यह सब चल जाता है लेकिन व्याख्यान में आनेवालों का आकर्षण विषय की व्यापकता पर ही होता है। बहुत सारे लोग उससे खुद को जोड़ नहीं पाते।
डेमोक्रेसी से बात डिजीटल डेमोक्रेसी पर आई और उसी में घूमती रही। इससे जुड़ी हुई बात सिटीजन जार्नलिज्म की है और जमाना भी उसी का है। एक तरफ सिटिजंस जर्नलिज्म एक तो अंग्रेजी उपर से अमेरिकन अंग्रेजी। हालांकि अंग्रेजी जाननेवाले बच्चों ने उनको इराक, अफगानिस्तान और खुद अमेरिका के कई मुददों से जोड़कर लोकतंत्र पर सवाल उठाये लेकिन हिन्दी के बच्चे मुंह बिदका रहे थे। सुबह के भाषण में कुछ भी समझ में नहीं आया - एक ने आखिर में कह ही दिया।
एक प्रोफेसर कह गए- हिन्दी क्षेत्र की दो ही समस्याएं है - एक अंग्रेजी और दूसरी टैक्नालॉजी।
क्या ऐसा हिन्दी के साथ ही है और है तो क्यों है। क्या बांग्ला, ओडि़या, और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों को भी ऐसा झेलना पड़ता है। यकीनन होता ही होगा। ज्ञान की भाषा और शासन के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व जैसा है उसमें नए अनुशासनों यहां तक विज्ञान आदि जैसे विषयों में अकाल है। कोई यह जरूर कह सकता है कि हिन्दी कार्यान्वयन विभागों ने अनुवाद किये हैं लेकिन उनका चलन कितना है हमेशा से यह एक सवाल रहा है। उपभोक्ता वस्तुओं के अलावा ज्ञान में जो नए ट्रेंड हैं उसका संप्रेषण बहुत ही सीमित क्षेत्र में है। एक बड़ा वर्ग जो बड़ी उत्सुकता से ज्ञान और तकनीक के नए इलाके की तरफ देख रहा है उसके लिए अंग्रेजी सचमुच बड़ी बाधा है।
महानगरों से दूर कस्बों के गली कूचों में भी अंग्रेजी स्कूल फल - फुल तो रहे हैं लेकिन उस अंग्रेजी से ज्ञान की यात्रा हो पाएगी ऐसा होने में समय लगेगा। कितना इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
डेमोक्रेसी से बात डिजीटल डेमोक्रेसी पर आई और उसी में घूमती रही। इससे जुड़ी हुई बात सिटीजन जार्नलिज्म की है और जमाना भी उसी का है। एक तरफ सिटिजंस जर्नलिज्म एक तो अंग्रेजी उपर से अमेरिकन अंग्रेजी। हालांकि अंग्रेजी जाननेवाले बच्चों ने उनको इराक, अफगानिस्तान और खुद अमेरिका के कई मुददों से जोड़कर लोकतंत्र पर सवाल उठाये लेकिन हिन्दी के बच्चे मुंह बिदका रहे थे। सुबह के भाषण में कुछ भी समझ में नहीं आया - एक ने आखिर में कह ही दिया।
एक प्रोफेसर कह गए- हिन्दी क्षेत्र की दो ही समस्याएं है - एक अंग्रेजी और दूसरी टैक्नालॉजी।
क्या ऐसा हिन्दी के साथ ही है और है तो क्यों है। क्या बांग्ला, ओडि़या, और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों को भी ऐसा झेलना पड़ता है। यकीनन होता ही होगा। ज्ञान की भाषा और शासन के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व जैसा है उसमें नए अनुशासनों यहां तक विज्ञान आदि जैसे विषयों में अकाल है। कोई यह जरूर कह सकता है कि हिन्दी कार्यान्वयन विभागों ने अनुवाद किये हैं लेकिन उनका चलन कितना है हमेशा से यह एक सवाल रहा है। उपभोक्ता वस्तुओं के अलावा ज्ञान में जो नए ट्रेंड हैं उसका संप्रेषण बहुत ही सीमित क्षेत्र में है। एक बड़ा वर्ग जो बड़ी उत्सुकता से ज्ञान और तकनीक के नए इलाके की तरफ देख रहा है उसके लिए अंग्रेजी सचमुच बड़ी बाधा है।
महानगरों से दूर कस्बों के गली कूचों में भी अंग्रेजी स्कूल फल - फुल तो रहे हैं लेकिन उस अंग्रेजी से ज्ञान की यात्रा हो पाएगी ऐसा होने में समय लगेगा। कितना इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
Sunday, August 19, 2007
क्लास रूम
इस संस्थान में यह दूसरा साल है। विभाग वही है और कक्षा भी वही। उतने ही प्रशिक्षु भी हैं। अब आप यह न अपने तरफ से जोड़ लीजिएगा कि बिल्कुल वैसे ही। वैसे वाक्यों का नियम जानने वाले अगले वाक्य का अंदाजा लगा ही लेते हैं। हां, सभी वैसे ही नहीं हैं लेकिन लगभग वैसे ही हैं। पिछले बैच से बस एक साल का अंतर है, इसलिए पीढि़यों के गैप की परिकल्पना तो यहां नहीं कर सकते न। पत्रकारिता से जुड़ने की अपनी इच्छा में सबने लगभग एक जैसा ही लिखा है - एक बेहतर दुनिया बनाने की राह में हम शामिल होना चाहते हैं। लेकिन कइयों ने ईमानदारी से यह जोड़ना उचित समझा है कि यह एक आकर्षक करियर भी है।
बहरहाल, सब वही वही के बीच एक चौंकानेवाली बात मुझे परेशान कर रही है। हर बैच में कुछ अच्छे छात्र होते ही हैं और कुछ गुमसुम, चुपचाप शांतिपूर्ण कक्षा चलाने के पक्षधर तो कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका अपने पर कंट्रोल ही नहीं होता। वह हर बात पर कुछ कहना चाहते हैं। उनके पास प्रतिक्रिया करने के लिए कुछ हो या न हो। वे बिना कहे अपने को रोक ही नहीं सकते। और बहुत से ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत कुछ कहना होता है लेकिन वह कुछ बोल ही नहीं पाते। वह हमेशा कक्षा की समाप्ति या फिर वह सहज एकांत ढूंढते रहते हैं जब शिक्षक के साथ कुछ कह सकें। और इनमें भी वैसे बहुत हैं जो मौका पाने के बाद भी कुछ नहीं कह पाते। कहने आते हैं कुछ और कह कुछ और जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? क्या इसके मनोविज्ञान में उनका स्कूल, उनका समाज और उनका परिवेश भी शामिल नहीं है। हमारे लोकतंत्र की षष्टिपूर्ति में भीतर ही भीतर यह कौन सा हंटर चल रहा है जो अभिव्यक्ति को मारे जा रहा है। मेरे सामने एक बहुत बड़ा मौन है, शायद आपलोगों के पास कुछ जवाब, कुछ अनुभव हो।
बहरहाल, सब वही वही के बीच एक चौंकानेवाली बात मुझे परेशान कर रही है। हर बैच में कुछ अच्छे छात्र होते ही हैं और कुछ गुमसुम, चुपचाप शांतिपूर्ण कक्षा चलाने के पक्षधर तो कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका अपने पर कंट्रोल ही नहीं होता। वह हर बात पर कुछ कहना चाहते हैं। उनके पास प्रतिक्रिया करने के लिए कुछ हो या न हो। वे बिना कहे अपने को रोक ही नहीं सकते। और बहुत से ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत कुछ कहना होता है लेकिन वह कुछ बोल ही नहीं पाते। वह हमेशा कक्षा की समाप्ति या फिर वह सहज एकांत ढूंढते रहते हैं जब शिक्षक के साथ कुछ कह सकें। और इनमें भी वैसे बहुत हैं जो मौका पाने के बाद भी कुछ नहीं कह पाते। कहने आते हैं कुछ और कह कुछ और जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? क्या इसके मनोविज्ञान में उनका स्कूल, उनका समाज और उनका परिवेश भी शामिल नहीं है। हमारे लोकतंत्र की षष्टिपूर्ति में भीतर ही भीतर यह कौन सा हंटर चल रहा है जो अभिव्यक्ति को मारे जा रहा है। मेरे सामने एक बहुत बड़ा मौन है, शायद आपलोगों के पास कुछ जवाब, कुछ अनुभव हो।
Sunday, June 10, 2007
सिनेमा की मुख्यधारा और भोजपुरी सिनेमा
अभिनेता मनोज वाजपेयी से अनीश अंकुर और मृत्युंजय प्रभाकर की बातचीत
यह बातचीत मोहल्ला में प्रकाशित हो चुकी है। संगत में इसका पुनर्प्रकाशन इसलिए किया जा रहा है कि इन दिनों भोजपुरी याहू समूह में भोजपुरी कला,संस्कृति आदि के साथ सिनेमा पर भी चर्चा हो रही है। खासतौर से भोजपुरी के सिनेमा को लेकर 2003 से ही मीडिया में खूब चर्चा है। मनोज की बातचीत में भी उसका एक पक्ष है। इस बातचीत में से भोजपुरी का अंश लिया जा सकता था। लेकिन पूरी बातचीत अपने में इस कदर कसी हुई है कि उसे काटना-छांटना अच्छा नहीं लगा। और फिर यह मेरा अधिकार भी नहीं था। लालबहादुर
बॉलीवुड में आपका कैरियर लगभग 13 वर्ष का हो चुका है। जाहिर है पत्रकार, आलोचक व फिल्म समीक्षक आपके इन 13 वर्षों का अपने-अपने ढंग से मूल्यांकन करते हैं। आप खुद इन 13 वर्षों का कैसे मूल्यांकन करेंगे?
1993 में मैंने अपनी पहली फिल्म की थी, बैंडिट क्वीन, शेखर कपूर जी के साथ और उस समय मैंने 11 साल का रंगमंच छोड़ा था। या यों कहें कि वह छूट गया था। इन 11 सालों में रंगमंच में मैंने वह सब कुछ किया जो सोचा था और अपने को पूरा भर कर निकला था मैं वहां से। सिनेमाई दुनिया में आया तो ये मेरे लिए एक ऐसा माध्यम बना जो न सिर्फ मेरी रोजी-रोटी चलाता था, बल्कि मेरे अंदर की रचनात्मकता की भंड़ास भी पूरी करता। कोशिश मेरी शुरू से यही रही कि एक मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा का चलन किया जाए या उसका मैं हिस्सा बनूं और अगर आप देखें तो मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा काफी परिष्कृत हो चुका है। शायद उन्हीं प्रयासों का ही ये फल रहा। तो आज 13 साल के पूरे संघर्ष, आलोचना, इस पूरी लंबी-चौड़ी यात्रा के बाद कहीं-न-कहीं यह संतुष्टि होती है कि जो मैंने चाहा था, मैंने वो किया और अपनी शर्तों पर किया। इससे मैंने एक वर्ग खोजा जो मेरी तरह की फिल्मों में या मेरे अभिनय में भरोसा रखता है।
जैसा कि आपने कहा कि मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा प्रचलन में आ चुका है। खुद आप अपनी भूमिका इसमें किस रूप में देखते हैं?
मेरी भूमिका उसको आगे ले जाने की है। अगर आप देखें, तो जितने भी हमारे पॉपुलर अभिनेता-निर्देशक या फिल्म प्रोडक्शन हाउसेस हैं, वो अब मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा को भी तलाश रहे हैं। उसमें भी वो अपना व्यापार देख रहे हैं जो कि एक अच्छा चलन है। अब जब वो उस सिनेमा यानी मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा में पैसे लगाते हैं और जब वो पैसा वापस आता है, तो उससे वे उत्साहित होते हैं और ज्यादा-से-ज्यादा ऐसी फिल्में बनाने की कोशिश करते हैं। सबसे अच्छी पहल जो यहां पर है, वो यह कि हमारी कमर्शियल फिल्मों के पॉपुलर अभिनेता इन फिल्मों का हिस्सा बनने से कतरा नहीं रहे हैं। उनको पहले बहुत डर रहता था कि कहीं उनकी इमेज को धक्का न पहुंच जाए। जो रोल पहले मनोज वाजपेयी को मिलते थे, आज उन रोल्स को पाने के लिए बहुत सारे लोग दौड़ में हैं। मनोज वाजपेयी को वो रोल मिले न मिले, वो कम पॉप्यूलर है या ज्यादा, वो समय के हिसाब से बदलता रहता है। यह मनोज वाजपेयी का व्यक्तिगत मसला है। वो सामाजिक या सिनेमाई मसला नहीं है। सिनेमाई मसला ये है कि मिडिल आफ द रोड सिनेमा ने एक बहाव पकड़ा है और अब उसको आगे ले जाने की जरूरत है। जैसे-जैसे यह चलन बढ़ता जाएगा, प्रोडयूसर को पैसे मिलते जाएंगे तो वो किसी भी तरह के प्रयोग से कतराएगा नहीं।
अभी का जो यथार्थवादी कहा जानेवाला सिनेमा है, जिसे एक खास अभिरुचि के लोग पसंद करते हैं, इसने बतौर अभिनेता या आप जैसे लोगों को कितनी संतुष्टि दी है?
बहुत ज्यादा संतुष्टि दी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अगर आप देखें, तो चाहे काबुल एक्सप्रेस हो या फिर प्रकाश झा की फिल्में हों या फिर अनुराग कश्यप की, अभी भी स्मोकिंग बन रही है। ये जितने भी निर्देशक हैं, जो यथार्थवादी फिल्में बनाते हैं, उनके साथ काम करने के लिए अभिनेता अब खुद पहल कर रहे हैं। वो खुद ये ख्वाहिश रख रहा है कि वो उनके साथ काम करे। ये अपने आपमें एक बड़ा चेंज है। दूसरा ये कि हम लड़ाई कभी भी ये नहीं लड़ रहे थे कि कमर्शियल फिल्में खत्म हो जाएं। हमारी कोशिश या लड़ाई ये थी कि हम भी इस दुनिया में एग्जिस्ट करें। हम आपके साथ-साथ चलें। सिनेमाई समाज में सबके लिए जगह हो, सबको हॉल मिले। जब हमको ये मिला तो साथ-साथ दर्शक का एक वर्ग तैयार हो गया। और शायद ये कोएग्जिस्टेंस दोनों के लिए बहुत जरूरी थी और आज उसको मान्यता भी मिल रही है पॉपुलर सिनेमा कल्चर की तरफ से।
थिएटर से जो लोग फिल्मों की ओर रुख करते हैं, अमूमन वह एक जगह जाकर एडजस्ट नहीं कर पाते। पिछले वर्ष फिल्मकार सुधीर मिश्र ने एक इंटरव्यू में कहा कि थिएटरवाले थियेटर को तो मां समझते हैं और फिल्मों को पता नहीं क्या समझते हैं? वे न इधर के रह पाते हैं, न उधर के। आप लगभग एक अपवाद जैसे हैं, जिसने थियेटर के बैक ग्राउंड से आकर भी 13 साल तक बॉलीवुड में न सिर्फ खुद को टिकाये रखा, बल्कि एक खास जगह भी बनायी। आपके साथ क्या ऐसा खास रहा कि आप दोनों में एक बैलेंस बना कर चल सके?
लचीलापन। क्योंकि आज के आधुनिक समाज में आप सिर्फ अपने आपको रख कर नहीं चल सकते। आपको अपना एक टारगेट रखना होगा और उसको पाने के लिए आपको ज्यादा लचीला बनना होगा लेकिन साथ-साथ आपका लक्ष्य नहीं खोना चाहिए। जब भी आप लचीले हो रहे हैं, तो आपका ध्यान हमेशा लक्ष्य पर होना चाहिए। शायद वो लचीलापन मुझे रंगमंच में अलग-अलग निर्देशकों से काम करने पर मिला था। दूसरा ये कि मैं ड्राइंग रूम से फिल्में दिखाने के हमेशा विरोध में रहा हूं, जबकि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि मेरा अभिनेता अपने जुनून के लिए काम करता है। वो किसी खास दर्शक या वर्ग के लिए काम नहीं करता, क्योंकि अगर मैं एक खास समूह के लिए काम करना शुरू करूंगा तो बहुत सारे समझौते करने पड़ेंगे। क्या चलता है, क्या नहीं चलता है, ये बताने वाले लोग यहां बहुत ज्यादा हैं लेकिन सही बतानेवाले लोग नहीं हैं। इसलिए मेरा ये विश्वास रहा कि जो आप सही समझो, वही करो। और इसी पर मैं हमेशा चला। साथ ही ये भी बहुत जरूरी है कि प्रोड्यूसर की रुचि आपमें रहे और वो आप पर पैसा लगाये। जब मेरे ब्रांड के अंदर इतना माद्दा होगा कि वो किसी भी फिल्म को बेच सकता है, तब वो प्रयोग करेगा। मेरे 11 साल के थियेटर ने मुझे खुद को समझने में और मैं क्या करना चाहता था, उसको स्पष्ट रूप से देखने में मेरी मदद की। एक और फर्क लगता है, वो ये कि मैंने सीधा मुंबई का रुख नहीं किया था। जब मैं गया तो बिहार के लोग न के बराबर थे। मैंने 11 साल जमके काम किया- निशांत नाट्य मंच से लेकर बैरी जॉन तक। अगर आप देखें तो कहां एक वामपंथी विचारधारा के साथ काम करना और फिर एक्ट वन जैसी डेमोक्रेटिक संस्था हमने बनायी। तो अलग-अलग लोगों के साथ काम करने से भी ये लचीलापन आया।
अब बातचीत को थोड़ा दूसरी ओर मोड़ें। 60 और 70 के दशक में एक ट्रेंड था कि लोग हिंदुस्तान के किसी कोने से आकर ‘बॉलीवुड’ में सघर्ष कर अपने लिए खास मुकाम बना सकते थे। जैसे अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से, शत्रुघ्न सिन्हा पटना से, धर्मेंद्र व विनोद खन्ना पंजाब से आये और अपने को हीरो के रूप में स्थापित किया। क्या वह ट्रेंड अब ख़त्म-सा हो रहा है? और इस स्पेस को खानदानी एक्टर्स द्वारा भरा जा रहा है? क्या वो प्रॉसेस खत्म हो गया, जिसमें देश में कहीं से भी आकर ‘बॉलीवुड’ में आप एक स्थान बना सकते थे? खुद आप जैसे स्थापित एक्टर को लेकर भी बहस चलती रहती है कि ये मेनस्ट्रीम में है या फेंस (परिधि... हाशिया...) पर है?
हमेशा से। हमारा सिनेमा पश्चिम से बहुत ज्यादा प्रभावित होता रहा है। अब वो शहरी समूह पश्चिम की तरफ अपने व्यवहार के लिए देख रहा है। वजह इंटरनेट और टीवी का इतना बड़ा बूम। आज का लड़का, जो स्कूल जाता है, वो अंगरेजी मीडियम में ही जाता है। वो लड़का ऐसे हीरो को नहीं देखना चाहता जो समाज से जूझता हुआ, खपता हुआ एक बड़ी लड़ाई लड़ रहा हो। आज वो एक खास तरीके के कपड़े पहने हुए हीरो को देखना चाहता है, क्योंकि वो ऐसा हीरो है, जो अमेरिकन सभ्यता से प्रभावित है। उसमें मनोज वाजपेयी फिट नहीं बैठता। तो मनोज वाजपेयी का काम ये है कि वो अपने तरीके की फिल्में, चाहे वो कमर्शियल हों मेनस्ट्रीम हों, मिडिल आफ द रोड हों, करे। मैंने जब तक पढ़ाई पूरी की, तब तक टीवी का इतना बूम नहीं आया था कि मैं उस 17-18 साल की उम्र में चीजों को समेटता अपने अंदर। मैं जब थिएटर ख़त्म कर रहा था, तब टीवी का बूम शुरू हुआ था। इंटरनेट उस समय तक आया नहीं था। मुझे आज तक कंप्यूटर ऑपरेट करना नहीं आता। तो इससे आप सोच सकते हैं कि मैं कितना अमेरिकन हूं। मेरी जरूरत इस बात की थी कि मैं इसको समझूं और उसकी जो चीजें हैं, उनको अपने अंदर लाने की कोशिश करूं। न कि मैं दूर खड़ा हुआ तमाशा देखता रहूं। बदलते दौर में एक अभिनेता की जरूरत यही है कि वो अपने आपको थोड़ा लचीला बना कर चले। नहीं तो वो दूर फेंस के बाहर ही खड़े होकर तमाशा देखेंगे।
क्या यह महज लचीलेपन का सवाल है या फिर एक बड़ा सोशियो पॉलिटकल सवाल है, जिसमें छोटी जगहों (शहरों, कस्बों) से आनेवालों के लिए बॉलीवुड के दरवाजे बंद हो चुके हैं?
छोटी जगहों से आने वालों के लिए दरवाजे बंद हो चुके हैं, क्योंकि जो दर्शक समूह फिल्में हिट करवाता है, वो अरबन क्लास है। यह अरबन क्लास या शहरी समूह मल्टीप्लैक्स में जाता है। वो अमेरिकन हीरो देखना चाहता है, क्योंकि उसकी पूरी शिक्षा-दीक्षा अमेरिकन सभ्यता और संस्कृति से बहुत प्रभावित है। उस वर्ग को मनोज वाजपेयी की फिल्में अच्छी लगती हैं, लेकिन उनका सुपरस्टार उसी तरीके के काम करेगा जो पश्चिमी रूपरेखा से सहमति लिये हुए है। वही हीरो चल रहा है और आगे तक चलेगा, क्योंकि आज का युवा वर्ग बहुत प्रभावित है उस सभ्यता से। वो रोज इंटरनेट इस्तेमाल कर रहा है और रोज अंग्रेजी फिल्में देखता है।
सुभाष घई का वह मशहूर वक्तव्य कि ‘हमारी फिल्मों को अब बिहार-यूपी के चवन्निया दर्शकों की कोई जरूरत नहीं है’- आप भी तो ऐसी ही बातें कह रहे हैं। हिंदुस्तान के बाहर फिल्में हिट हुईं, तो उन्हें हिट मान लिया जाता है। क्या भारतीय दर्शकों का हिंदी सिनेमा पर जो दबाव था, वह खत्म हो चुका है?
बिल्कुल... और अगर आप देखें तो भोजपुरी फिल्मों का उत्थान ही इसलिए हुआ, क्योंकि जो दर्शक पहले सिंगल थियेटर जाकर फिल्मों को सफल बनाता था, आज वो दर्शक छूट गया है। मल्टीप्लैक्स में उनके लिए जगह नहीं है। वहां की टिकट दरें उनके लिए बहुत महंगी हैं। जिसने अमिताभ बच्च्न, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना के दौर को एक बड़ा दौर बनाया, वो दर्शक पीछे छूट गया है। इसलिए उसको अपने हीरो की तलाश है। और वो अपना हीरो भोजपुरी फिल्मों में देख रहा है। वो अपनी जमीन की सुंगध इन फिल्मों में देख रहा है।
थोड़ी बातें भोजपुरी फिल्मों को लेकर। हाल के दिनों में भोजपुरी फिल्मों में जो बूम, जो उछाल आया है, इसे आप कैसे देखते हैं?
मेरी राय यही है कि ये बूम या उछाल हमेशा आता रहा है लेकिन ये दौर हमेशा ख़त्म भी होता रहा है। अपने ही कारणों से। मैं शुरू से ही, जब भी लोग मुझसे पूछते हैं कि आपको कैसा महसूस होता है भोजपुरी फिल्मों की सफलता पर, मैं कहता रहा हूं कि यदि ये सफल हो रही हैं, तो आप इसका फायदा उठाइए सटीक फिल्में बना कर। सटीक फिल्में इसलिए बनाइए ताकि ये दौर खत्म न हो जाये पिछले वाले दौर की तरह। जब भी ये व्यापार की तरह से लिया जायेगा तो ये खत्म हो जाएगा, क्योंकि भोजपुरी फिल्मों का दर्शक वर्ग एक खास पॉकेट में है। वो पूरे हिंदुस्तान में फैला हुआ नहीं है। तो इसका फायदा उठाना है सटीक फिल्में बना कर यानी जिनमें भोजपुरी समाज हो, भोजपुरी समस्याएं हों न कि हिंदी फिल्मों की नकल हो और हिंदी कर्मिशयल में जो हिट हुई हैं, उनको बनाया जाए। मेरे पास बहुत सारे लोग प्रस्ताव लेकर आते हैं और काम करने के लिए मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करने की कोशिश क रते हैं। उनके हिसाब से मैं भोजपुरी का हूं तो मुझे ये फिल्में क रनी चाहिए। तो मैं स्पष्ट तौर पर कहता हूं कि मेरे लिए भाषा बहुत मायने नहीं रखती। मैं काशीनाथ सिंह से बहुत प्रभावित रहा हूं और काशीनाथ का अपना मोर्चा जब मैंने प्ले किया तो उस समय सबसे बड़ा ज्ञान जो मुझे हुआ, वो ये कि ये लड़ाई भाषा की नहीं है। लड़ाई या तो रोजी-रोटी की है या क्वालिटी वार है, जिससे मुझे संतुष्टि मिलनी चाहिए। और साबित करने की जरूरत नहीं है कि मैं भोजपुरी भाषी हूं। वो तो मेरे बर्थ सर्टिफिकेट में लिखा है।
भोजपुरी फिल्मों से आपके उदासीन रिश्ते को लेकर एक समीक्षक ने टिप्पणी कि भोजपुरी फिल्मों की जो तेज रफ्तारवाली बस है, इस वक्त मनोज वाजपेयी ‘मिस’ कर गये, तो बाद में पछताएंगे। आप देखें, हिंदी फिल्मों के स्थापित बड़े-बड़े अभिनेता, यहां तक कि अमिताभ बच्चन ने भी भोजपुरी फिल्मों के लिए हामी भरी है।
जब सत्या हिट हुई थी तो बहुत सारे लोगों ने कहा था कि मनोज वाजपेयी बहुत सारी फिल्में मना कर रहा है, ये पछताएगा। लेकिन मैं हमेशा कहता रहा कि मेरा लक्ष्य कभी भी सफल फिल्में नहीं रहीं। मैं पिंजर, शूल, सत्या, जुबैदा करना चाहता हूं। मेरी फिल्म 1971 आ रही है, पूरी मेहनत से बनायी है हमने। आप देखें उसे और मुझे पूरा विश्वास है आप उसे सराहेंगे। भोजपुरी, तमिल, तेलगू, हिंदी की बात नहीं है। वो स्क्रिप्ट तो लेकर आएं, जिसको पढ़ कर लगे कि मैं सब कुछ छोड़ कर वो फिल्म करूं। भाषा को अलग कीजिए और उससे मुझे ब्लैक मेल करना बंद कीजिए।
मल्टीप्लैक्स के आने से ‘मिडिल ऑफ द रोड’ सिनेमा को कितना फायदा या नुकसान हुआ?
मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा को बहुत फायदा हुआ और इतना ही नहीं, छोटी फिल्मों को बहुत फायदा हुआ है। ये प्रयोग करने वाली फिल्में हैं और इसी के प्रोडक्ट हैं नागेश कुकुन्नर। बहुत सारी फिल्में जो आजकल रिलीज हो रही हैं, शायद आज ये दिन नहीं देख पातीं, अगर मल्टीप्लैक्स नहीं होते। किसी फेस्टिवल में दिखा कर ही ये खत्म हो जातीं। दूसरा यह कि मल्टीप्लैक्स का फायदा बहुत ज्यादा हमारे तरीके के अभिनेताओं, निर्देशकों, फिल्मों को हो रहा है। कम से कम वो प्रदर्शित हो रही हैं, दिखायी जा रही हैं, जो पहले कभी नहीं हो पाता था।
मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा, जिसे कहा जा रहा है, इसे लानेवाले ज्यादातर अभिनेता थिएटर पृष्ठभूमि के हैं, जबकि आज मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा के लिए कॉमर्शियल फिल्मों के मेनस्ट्रीम एक्टर्स को ढूंढ़ा जा रहा है। आपको नहीं लगता कि यह एक बड़ा शिफ्ट है? जिन अभिनेताओं ने अपनी मेहनत से इस सिनेमा को स्थापित किया, आज उन्हें ही छांटा जा रहा है।
मेरे ख्याल से ऐसा नहीं है। इक़बाल में नसीर साहब का प्रयोग किया गया और ओमपुरी भी काफी इंट्रोड्यूस होते रहते हैं। बहुत सारे अभिनेता हैं, जो ज्यादा काम नहीं करना चाहते। लेकिन किसी की औकात नहीं कि वो नसीरूद्दीन शाह को छांट दे। हिंदुस्तान के सबसे बड़े अभिनेता हैं वो और अगर वो ज्यादा फिल्में नहीं कर रहे तो यह उनका अपना चुनाव है।
सिनेमा के एक और सामाजिक संदर्भ के बारे में आपकी राय जानना चाहता हूं। हिंदुस्तान की आजादी के बाद हिंदी सिनेमा में राजकपूर, दिलीप कुमार व देवानंद की तिकड़ी का बोलबाला था। सिनेमा के समाजशास्त्र का अध्ययन करनेवाले बताते हैं कि आजादी के बाद का जो स्वप्न था कि हिंदुस्तान कैसा हो, इसे इन तीनों ने एक्सप्रेस किया। बाद में जब यह स्वप्न टूटता है और लोगों में जो गुस्सा, जो आक्रोश है, उसे समाज में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र-युवाओं को मूवमेंट के रूप में अभिव्यक्ति मिलती है और सिनेमा में इसी वक्त एंग्री यंगमैन की छवि लेकर अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा वगैरह आते हैं। बाद में लोगों का यह गुस्सा जब कोई बदलाव नहीं लाता तो वह फ्रस्ट्रेशन में तब्दील हो जाता है, जो शाहरूख खान की सुपरहिट डर के रूप में सामने आता है। अब जबकि छह वर्ष से 96-97 फीसदी फिल्में फ्लाप हो रही हैं और इसे लेकर सिनेमा से जुड़े तमाम हलकों में चिंता भी व्यक्त की जा रही है, क्या समाज के इस महत्वपूर्ण मुकाम को (अब तक जिस ढंग से फिल्में अभिव्यक्त करती आयी हैं) एक बड़ा अदाकार या फिल्म एक्सप्रेस करने में नाकाम तो साबित नहीं हो रहा?
देखिए हमारा समाज बंटा हुआ है और हमारा दर्शक भी बंट गया है। हमारी जो शहरी संस्कृति है वो 20 किलोमीटर दूर ग्रामीण संस्कृति से एकदम अलग हो चुकी है। 20 किलोमीटर दूर का जो हीरो है, वो रविकिशन है। लेकिन ठीक 20 किलोमीटर दूर का जो शहर पटना आता है, वहां का युवा वर्ग, जिसे सही सुविधाएं मिली हैं, जिसका पालन-पोषण अच्छे से हुआ है, उसका हीरो शाहरूख-आमिर खान है। पहले दर्शक समूह एक होता था, अब दर्शक समूह एक नहीं रहा। उसमें बंटवारा हुआ है और सबके अलग-अलग हीरो हैं, अपने-अपने कारणों से। अगर आप मुझसे पूछें कि कौन है आज के बदलते दौर का नायक, तो मैं जवाब दूंगा- बहुत सारे भोजपुरी क्षेत्र के लिए मनोज तिवारी, रवि किशन हैं, तो शहरी समाज या अप्रवासी भारतीयों के लिए शाहरूख, सलमान, आमिर हैं। और बाकी जो आपके जैसे लोग हैं, तो उनके लिए मनोज वाजपेयी है। इतना ही नहीं, तेलगू, तमिल फिल्में जिस तरह का व्यापार आजकल कर रही है, वो अपने आप में अच्छा संकेत है। लकिन वो इसलिए भी हुआ है, क्योंकि बंटवारा दर्शकों का बड़े पैमाने पर हुआ है।
अब एक व्यक्तिगत किस्म का सवाल। आपकी शुरुआत एक लेफ्ट आइडियोलॉजीवाले संगठन निशांत नाट्य मंच से हुई। कई वर्ष पूर्व निशांत के संयोजक शम्सुल इस्लाम ने पटना में एक अनौपचारिक बातचीत में आपके बारे में बताया था कि वो सिर्फ अच्छा एक्टर ही नहीं, बल्कि काफी कमिटेड भी था। क्या लेफ्ट पर अब भी आपको भरोसा है?
देखिए, मैंने सारे ‘इज्म’ के लोगों के साथ काम किया। उनके साथ मिल कर संघर्ष किया। शम्सुल ने मुझे समाज को जांचने-परखने की क्षमता दी। उसने मुझे सही तरीके की किताबें पढ़ना सिखाया। उसने मुझे तेवर दिया और वो तेवर आज तक कायम है। बैरी जॉन से मैंने बाकायदा एक लचीलापन लिया। जिनके साथ मैंने काम किया उनको मैंने नकारा कभी नहीं। एक उम्र थी, जहां जानने के लिए बहुत कुछ था क्योंकि मैं पूरे सामंती समाज से निकल कर दिल्ली शहर गया था। मैंने उस समय पटना भी नहीं देखा था। मेरे लिए हर चीज जो मैं देख रहा था, समझ रहा था एजुकेशन थी। हर व्यक्ति, जिससे मैं मिल रहा था, उससे मैं ले रहा था। बेलवा गांव के मनोज वाजपेयी का खजाना खाली था अंदर से। वहां जाकर मैं अपने अंदर ही व्यवस्था को देख रहा था और समझ रहा था। कुछ भी अंदर पुख्ता नहीं था। लेने का जज्बा बहुत था और लेने के लिए जगह बहुत थी। मैं यह बिल्कुल नहीं कह सकता कि वामपंथ एकदम सही पंथ है और प्रजातांत्रिक विधि जो है, वही सबसे ज्यादा अच्छी है। सबको साथ मिला कर चलने की बात है।
आजकल सिनेमा और राजनीति को लेकर बहुत चर्चा होती है। मैं एक खास पहलू पर आपकी राय जानना चाहता हूं। राजनीति का सर्वांगीण विरोध और सिनेमा के प्रति गहरा आकर्षण खास पहचान है। इन दोनों के अंर्तसंबंधों पर एक चीज में समानता है- दोनों जगह खानदानवाद हावी है। पर एक फर्क भी है। राजनीति में मान लीजिए राजनीतिक खानदान का लड़का है, पर उसे कम से कम चुनाव में जनता का समर्थन हासिल करना पड़ता है। लेकिन बॉलीवुड में किसी सुपरस्टार (मान लीजिए अभिषेक बच्च्न) की सौ फिल्में फ्लॉप हो जाएं फिर भी ‘हीरो’ वही बने रहेंगे। वहीं अगर आपकी चार-पांच फिल्में लगातार फ्लॉप हो जाये तो शायद कोई पूछने भी न आये। ऐसा क्यों? बॉलीवुड आपको कम डेमोक्रेटिक नहीं लगता?
थोड़ा-सा हम भटक जाएंगे, अगर हम इसको चुनाव से जोड़ेगे। जो प्रोड्यूसर पैसा लगा रहा है, अगर वो एक खास अभिनेता पर पैसा लगा रहा है, तो उसे कोई रोक नहीं सकता। लेकिन जब वो फिल्में लगती हैं तो ये लोगों के ऊपर है कि वो उसे देखने जाएं या नहीं। अगर मेरे पिताजी के पास 1000 करोड़ रुपये हैं और अगर वो ठान लें कि सारी फिल्में मनोज के साथ बनानी है, चाहे लोग देखने जाएं या नहीं, तो आप मेरे पिताजी को रोक नहीं पाएंगे। अब यह लोगों के ऊपर है कि वो मेरी फिल्म देखने जाएं या नहीं। आखिर में फिल्में प्रदर्शित होने के समय व्यापार में तब्दील हो जाती है और इसलिए हम इसे किसी और चीज से जोड़ कर नहीं देख सकते। और जहां तक मेरी अपनी बात है, मेरा ये मानना है कि कौन किस खानदान से आ रहा है- ये मेरे लिए देखने की चीज नहीं है। मेरे लिए देखने की चीज ये है कि मैं किस स्थिति में हूं और मुझे किस स्थिति में काम करना पड़ रहा है। मुझे कैसे उस स्थिति से निकल कर दूसरी स्थिति में जाना है और वहां अपनी जगह बनानी है। मेरा आग्रह है आप सबसे और जो अभिनेता बनना चाहते हैं, उनसे भी, इसको बहस का मुद्दा न बनाया जाए। आप तो इसको कंपीटिशन मान लेंगे, और प्रोडयूसर जो है, वो एक प्रोडक्ट के रूप में उसे देखेगा। ये एक कंट्राडिक्शन है और इसको साथ ले के चलें। यथास्थिति के रूप में लें और अपनी लड़ाई लड़ें, नहीं हो बहुत ज्यादा हतोत्साहित होंगे।
यह बातचीत मोहल्ला में प्रकाशित हो चुकी है। संगत में इसका पुनर्प्रकाशन इसलिए किया जा रहा है कि इन दिनों भोजपुरी याहू समूह में भोजपुरी कला,संस्कृति आदि के साथ सिनेमा पर भी चर्चा हो रही है। खासतौर से भोजपुरी के सिनेमा को लेकर 2003 से ही मीडिया में खूब चर्चा है। मनोज की बातचीत में भी उसका एक पक्ष है। इस बातचीत में से भोजपुरी का अंश लिया जा सकता था। लेकिन पूरी बातचीत अपने में इस कदर कसी हुई है कि उसे काटना-छांटना अच्छा नहीं लगा। और फिर यह मेरा अधिकार भी नहीं था। लालबहादुर
बॉलीवुड में आपका कैरियर लगभग 13 वर्ष का हो चुका है। जाहिर है पत्रकार, आलोचक व फिल्म समीक्षक आपके इन 13 वर्षों का अपने-अपने ढंग से मूल्यांकन करते हैं। आप खुद इन 13 वर्षों का कैसे मूल्यांकन करेंगे?
1993 में मैंने अपनी पहली फिल्म की थी, बैंडिट क्वीन, शेखर कपूर जी के साथ और उस समय मैंने 11 साल का रंगमंच छोड़ा था। या यों कहें कि वह छूट गया था। इन 11 सालों में रंगमंच में मैंने वह सब कुछ किया जो सोचा था और अपने को पूरा भर कर निकला था मैं वहां से। सिनेमाई दुनिया में आया तो ये मेरे लिए एक ऐसा माध्यम बना जो न सिर्फ मेरी रोजी-रोटी चलाता था, बल्कि मेरे अंदर की रचनात्मकता की भंड़ास भी पूरी करता। कोशिश मेरी शुरू से यही रही कि एक मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा का चलन किया जाए या उसका मैं हिस्सा बनूं और अगर आप देखें तो मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा काफी परिष्कृत हो चुका है। शायद उन्हीं प्रयासों का ही ये फल रहा। तो आज 13 साल के पूरे संघर्ष, आलोचना, इस पूरी लंबी-चौड़ी यात्रा के बाद कहीं-न-कहीं यह संतुष्टि होती है कि जो मैंने चाहा था, मैंने वो किया और अपनी शर्तों पर किया। इससे मैंने एक वर्ग खोजा जो मेरी तरह की फिल्मों में या मेरे अभिनय में भरोसा रखता है।
जैसा कि आपने कहा कि मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा प्रचलन में आ चुका है। खुद आप अपनी भूमिका इसमें किस रूप में देखते हैं?
मेरी भूमिका उसको आगे ले जाने की है। अगर आप देखें, तो जितने भी हमारे पॉपुलर अभिनेता-निर्देशक या फिल्म प्रोडक्शन हाउसेस हैं, वो अब मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा को भी तलाश रहे हैं। उसमें भी वो अपना व्यापार देख रहे हैं जो कि एक अच्छा चलन है। अब जब वो उस सिनेमा यानी मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा में पैसे लगाते हैं और जब वो पैसा वापस आता है, तो उससे वे उत्साहित होते हैं और ज्यादा-से-ज्यादा ऐसी फिल्में बनाने की कोशिश करते हैं। सबसे अच्छी पहल जो यहां पर है, वो यह कि हमारी कमर्शियल फिल्मों के पॉपुलर अभिनेता इन फिल्मों का हिस्सा बनने से कतरा नहीं रहे हैं। उनको पहले बहुत डर रहता था कि कहीं उनकी इमेज को धक्का न पहुंच जाए। जो रोल पहले मनोज वाजपेयी को मिलते थे, आज उन रोल्स को पाने के लिए बहुत सारे लोग दौड़ में हैं। मनोज वाजपेयी को वो रोल मिले न मिले, वो कम पॉप्यूलर है या ज्यादा, वो समय के हिसाब से बदलता रहता है। यह मनोज वाजपेयी का व्यक्तिगत मसला है। वो सामाजिक या सिनेमाई मसला नहीं है। सिनेमाई मसला ये है कि मिडिल आफ द रोड सिनेमा ने एक बहाव पकड़ा है और अब उसको आगे ले जाने की जरूरत है। जैसे-जैसे यह चलन बढ़ता जाएगा, प्रोडयूसर को पैसे मिलते जाएंगे तो वो किसी भी तरह के प्रयोग से कतराएगा नहीं।
अभी का जो यथार्थवादी कहा जानेवाला सिनेमा है, जिसे एक खास अभिरुचि के लोग पसंद करते हैं, इसने बतौर अभिनेता या आप जैसे लोगों को कितनी संतुष्टि दी है?
बहुत ज्यादा संतुष्टि दी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अगर आप देखें, तो चाहे काबुल एक्सप्रेस हो या फिर प्रकाश झा की फिल्में हों या फिर अनुराग कश्यप की, अभी भी स्मोकिंग बन रही है। ये जितने भी निर्देशक हैं, जो यथार्थवादी फिल्में बनाते हैं, उनके साथ काम करने के लिए अभिनेता अब खुद पहल कर रहे हैं। वो खुद ये ख्वाहिश रख रहा है कि वो उनके साथ काम करे। ये अपने आपमें एक बड़ा चेंज है। दूसरा ये कि हम लड़ाई कभी भी ये नहीं लड़ रहे थे कि कमर्शियल फिल्में खत्म हो जाएं। हमारी कोशिश या लड़ाई ये थी कि हम भी इस दुनिया में एग्जिस्ट करें। हम आपके साथ-साथ चलें। सिनेमाई समाज में सबके लिए जगह हो, सबको हॉल मिले। जब हमको ये मिला तो साथ-साथ दर्शक का एक वर्ग तैयार हो गया। और शायद ये कोएग्जिस्टेंस दोनों के लिए बहुत जरूरी थी और आज उसको मान्यता भी मिल रही है पॉपुलर सिनेमा कल्चर की तरफ से।
थिएटर से जो लोग फिल्मों की ओर रुख करते हैं, अमूमन वह एक जगह जाकर एडजस्ट नहीं कर पाते। पिछले वर्ष फिल्मकार सुधीर मिश्र ने एक इंटरव्यू में कहा कि थिएटरवाले थियेटर को तो मां समझते हैं और फिल्मों को पता नहीं क्या समझते हैं? वे न इधर के रह पाते हैं, न उधर के। आप लगभग एक अपवाद जैसे हैं, जिसने थियेटर के बैक ग्राउंड से आकर भी 13 साल तक बॉलीवुड में न सिर्फ खुद को टिकाये रखा, बल्कि एक खास जगह भी बनायी। आपके साथ क्या ऐसा खास रहा कि आप दोनों में एक बैलेंस बना कर चल सके?
लचीलापन। क्योंकि आज के आधुनिक समाज में आप सिर्फ अपने आपको रख कर नहीं चल सकते। आपको अपना एक टारगेट रखना होगा और उसको पाने के लिए आपको ज्यादा लचीला बनना होगा लेकिन साथ-साथ आपका लक्ष्य नहीं खोना चाहिए। जब भी आप लचीले हो रहे हैं, तो आपका ध्यान हमेशा लक्ष्य पर होना चाहिए। शायद वो लचीलापन मुझे रंगमंच में अलग-अलग निर्देशकों से काम करने पर मिला था। दूसरा ये कि मैं ड्राइंग रूम से फिल्में दिखाने के हमेशा विरोध में रहा हूं, जबकि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि मेरा अभिनेता अपने जुनून के लिए काम करता है। वो किसी खास दर्शक या वर्ग के लिए काम नहीं करता, क्योंकि अगर मैं एक खास समूह के लिए काम करना शुरू करूंगा तो बहुत सारे समझौते करने पड़ेंगे। क्या चलता है, क्या नहीं चलता है, ये बताने वाले लोग यहां बहुत ज्यादा हैं लेकिन सही बतानेवाले लोग नहीं हैं। इसलिए मेरा ये विश्वास रहा कि जो आप सही समझो, वही करो। और इसी पर मैं हमेशा चला। साथ ही ये भी बहुत जरूरी है कि प्रोड्यूसर की रुचि आपमें रहे और वो आप पर पैसा लगाये। जब मेरे ब्रांड के अंदर इतना माद्दा होगा कि वो किसी भी फिल्म को बेच सकता है, तब वो प्रयोग करेगा। मेरे 11 साल के थियेटर ने मुझे खुद को समझने में और मैं क्या करना चाहता था, उसको स्पष्ट रूप से देखने में मेरी मदद की। एक और फर्क लगता है, वो ये कि मैंने सीधा मुंबई का रुख नहीं किया था। जब मैं गया तो बिहार के लोग न के बराबर थे। मैंने 11 साल जमके काम किया- निशांत नाट्य मंच से लेकर बैरी जॉन तक। अगर आप देखें तो कहां एक वामपंथी विचारधारा के साथ काम करना और फिर एक्ट वन जैसी डेमोक्रेटिक संस्था हमने बनायी। तो अलग-अलग लोगों के साथ काम करने से भी ये लचीलापन आया।
अब बातचीत को थोड़ा दूसरी ओर मोड़ें। 60 और 70 के दशक में एक ट्रेंड था कि लोग हिंदुस्तान के किसी कोने से आकर ‘बॉलीवुड’ में सघर्ष कर अपने लिए खास मुकाम बना सकते थे। जैसे अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से, शत्रुघ्न सिन्हा पटना से, धर्मेंद्र व विनोद खन्ना पंजाब से आये और अपने को हीरो के रूप में स्थापित किया। क्या वह ट्रेंड अब ख़त्म-सा हो रहा है? और इस स्पेस को खानदानी एक्टर्स द्वारा भरा जा रहा है? क्या वो प्रॉसेस खत्म हो गया, जिसमें देश में कहीं से भी आकर ‘बॉलीवुड’ में आप एक स्थान बना सकते थे? खुद आप जैसे स्थापित एक्टर को लेकर भी बहस चलती रहती है कि ये मेनस्ट्रीम में है या फेंस (परिधि... हाशिया...) पर है?
हमेशा से। हमारा सिनेमा पश्चिम से बहुत ज्यादा प्रभावित होता रहा है। अब वो शहरी समूह पश्चिम की तरफ अपने व्यवहार के लिए देख रहा है। वजह इंटरनेट और टीवी का इतना बड़ा बूम। आज का लड़का, जो स्कूल जाता है, वो अंगरेजी मीडियम में ही जाता है। वो लड़का ऐसे हीरो को नहीं देखना चाहता जो समाज से जूझता हुआ, खपता हुआ एक बड़ी लड़ाई लड़ रहा हो। आज वो एक खास तरीके के कपड़े पहने हुए हीरो को देखना चाहता है, क्योंकि वो ऐसा हीरो है, जो अमेरिकन सभ्यता से प्रभावित है। उसमें मनोज वाजपेयी फिट नहीं बैठता। तो मनोज वाजपेयी का काम ये है कि वो अपने तरीके की फिल्में, चाहे वो कमर्शियल हों मेनस्ट्रीम हों, मिडिल आफ द रोड हों, करे। मैंने जब तक पढ़ाई पूरी की, तब तक टीवी का इतना बूम नहीं आया था कि मैं उस 17-18 साल की उम्र में चीजों को समेटता अपने अंदर। मैं जब थिएटर ख़त्म कर रहा था, तब टीवी का बूम शुरू हुआ था। इंटरनेट उस समय तक आया नहीं था। मुझे आज तक कंप्यूटर ऑपरेट करना नहीं आता। तो इससे आप सोच सकते हैं कि मैं कितना अमेरिकन हूं। मेरी जरूरत इस बात की थी कि मैं इसको समझूं और उसकी जो चीजें हैं, उनको अपने अंदर लाने की कोशिश करूं। न कि मैं दूर खड़ा हुआ तमाशा देखता रहूं। बदलते दौर में एक अभिनेता की जरूरत यही है कि वो अपने आपको थोड़ा लचीला बना कर चले। नहीं तो वो दूर फेंस के बाहर ही खड़े होकर तमाशा देखेंगे।
क्या यह महज लचीलेपन का सवाल है या फिर एक बड़ा सोशियो पॉलिटकल सवाल है, जिसमें छोटी जगहों (शहरों, कस्बों) से आनेवालों के लिए बॉलीवुड के दरवाजे बंद हो चुके हैं?
छोटी जगहों से आने वालों के लिए दरवाजे बंद हो चुके हैं, क्योंकि जो दर्शक समूह फिल्में हिट करवाता है, वो अरबन क्लास है। यह अरबन क्लास या शहरी समूह मल्टीप्लैक्स में जाता है। वो अमेरिकन हीरो देखना चाहता है, क्योंकि उसकी पूरी शिक्षा-दीक्षा अमेरिकन सभ्यता और संस्कृति से बहुत प्रभावित है। उस वर्ग को मनोज वाजपेयी की फिल्में अच्छी लगती हैं, लेकिन उनका सुपरस्टार उसी तरीके के काम करेगा जो पश्चिमी रूपरेखा से सहमति लिये हुए है। वही हीरो चल रहा है और आगे तक चलेगा, क्योंकि आज का युवा वर्ग बहुत प्रभावित है उस सभ्यता से। वो रोज इंटरनेट इस्तेमाल कर रहा है और रोज अंग्रेजी फिल्में देखता है।
सुभाष घई का वह मशहूर वक्तव्य कि ‘हमारी फिल्मों को अब बिहार-यूपी के चवन्निया दर्शकों की कोई जरूरत नहीं है’- आप भी तो ऐसी ही बातें कह रहे हैं। हिंदुस्तान के बाहर फिल्में हिट हुईं, तो उन्हें हिट मान लिया जाता है। क्या भारतीय दर्शकों का हिंदी सिनेमा पर जो दबाव था, वह खत्म हो चुका है?
बिल्कुल... और अगर आप देखें तो भोजपुरी फिल्मों का उत्थान ही इसलिए हुआ, क्योंकि जो दर्शक पहले सिंगल थियेटर जाकर फिल्मों को सफल बनाता था, आज वो दर्शक छूट गया है। मल्टीप्लैक्स में उनके लिए जगह नहीं है। वहां की टिकट दरें उनके लिए बहुत महंगी हैं। जिसने अमिताभ बच्च्न, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना के दौर को एक बड़ा दौर बनाया, वो दर्शक पीछे छूट गया है। इसलिए उसको अपने हीरो की तलाश है। और वो अपना हीरो भोजपुरी फिल्मों में देख रहा है। वो अपनी जमीन की सुंगध इन फिल्मों में देख रहा है।
थोड़ी बातें भोजपुरी फिल्मों को लेकर। हाल के दिनों में भोजपुरी फिल्मों में जो बूम, जो उछाल आया है, इसे आप कैसे देखते हैं?
मेरी राय यही है कि ये बूम या उछाल हमेशा आता रहा है लेकिन ये दौर हमेशा ख़त्म भी होता रहा है। अपने ही कारणों से। मैं शुरू से ही, जब भी लोग मुझसे पूछते हैं कि आपको कैसा महसूस होता है भोजपुरी फिल्मों की सफलता पर, मैं कहता रहा हूं कि यदि ये सफल हो रही हैं, तो आप इसका फायदा उठाइए सटीक फिल्में बना कर। सटीक फिल्में इसलिए बनाइए ताकि ये दौर खत्म न हो जाये पिछले वाले दौर की तरह। जब भी ये व्यापार की तरह से लिया जायेगा तो ये खत्म हो जाएगा, क्योंकि भोजपुरी फिल्मों का दर्शक वर्ग एक खास पॉकेट में है। वो पूरे हिंदुस्तान में फैला हुआ नहीं है। तो इसका फायदा उठाना है सटीक फिल्में बना कर यानी जिनमें भोजपुरी समाज हो, भोजपुरी समस्याएं हों न कि हिंदी फिल्मों की नकल हो और हिंदी कर्मिशयल में जो हिट हुई हैं, उनको बनाया जाए। मेरे पास बहुत सारे लोग प्रस्ताव लेकर आते हैं और काम करने के लिए मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करने की कोशिश क रते हैं। उनके हिसाब से मैं भोजपुरी का हूं तो मुझे ये फिल्में क रनी चाहिए। तो मैं स्पष्ट तौर पर कहता हूं कि मेरे लिए भाषा बहुत मायने नहीं रखती। मैं काशीनाथ सिंह से बहुत प्रभावित रहा हूं और काशीनाथ का अपना मोर्चा जब मैंने प्ले किया तो उस समय सबसे बड़ा ज्ञान जो मुझे हुआ, वो ये कि ये लड़ाई भाषा की नहीं है। लड़ाई या तो रोजी-रोटी की है या क्वालिटी वार है, जिससे मुझे संतुष्टि मिलनी चाहिए। और साबित करने की जरूरत नहीं है कि मैं भोजपुरी भाषी हूं। वो तो मेरे बर्थ सर्टिफिकेट में लिखा है।
भोजपुरी फिल्मों से आपके उदासीन रिश्ते को लेकर एक समीक्षक ने टिप्पणी कि भोजपुरी फिल्मों की जो तेज रफ्तारवाली बस है, इस वक्त मनोज वाजपेयी ‘मिस’ कर गये, तो बाद में पछताएंगे। आप देखें, हिंदी फिल्मों के स्थापित बड़े-बड़े अभिनेता, यहां तक कि अमिताभ बच्चन ने भी भोजपुरी फिल्मों के लिए हामी भरी है।
जब सत्या हिट हुई थी तो बहुत सारे लोगों ने कहा था कि मनोज वाजपेयी बहुत सारी फिल्में मना कर रहा है, ये पछताएगा। लेकिन मैं हमेशा कहता रहा कि मेरा लक्ष्य कभी भी सफल फिल्में नहीं रहीं। मैं पिंजर, शूल, सत्या, जुबैदा करना चाहता हूं। मेरी फिल्म 1971 आ रही है, पूरी मेहनत से बनायी है हमने। आप देखें उसे और मुझे पूरा विश्वास है आप उसे सराहेंगे। भोजपुरी, तमिल, तेलगू, हिंदी की बात नहीं है। वो स्क्रिप्ट तो लेकर आएं, जिसको पढ़ कर लगे कि मैं सब कुछ छोड़ कर वो फिल्म करूं। भाषा को अलग कीजिए और उससे मुझे ब्लैक मेल करना बंद कीजिए।
मल्टीप्लैक्स के आने से ‘मिडिल ऑफ द रोड’ सिनेमा को कितना फायदा या नुकसान हुआ?
मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा को बहुत फायदा हुआ और इतना ही नहीं, छोटी फिल्मों को बहुत फायदा हुआ है। ये प्रयोग करने वाली फिल्में हैं और इसी के प्रोडक्ट हैं नागेश कुकुन्नर। बहुत सारी फिल्में जो आजकल रिलीज हो रही हैं, शायद आज ये दिन नहीं देख पातीं, अगर मल्टीप्लैक्स नहीं होते। किसी फेस्टिवल में दिखा कर ही ये खत्म हो जातीं। दूसरा यह कि मल्टीप्लैक्स का फायदा बहुत ज्यादा हमारे तरीके के अभिनेताओं, निर्देशकों, फिल्मों को हो रहा है। कम से कम वो प्रदर्शित हो रही हैं, दिखायी जा रही हैं, जो पहले कभी नहीं हो पाता था।
मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा, जिसे कहा जा रहा है, इसे लानेवाले ज्यादातर अभिनेता थिएटर पृष्ठभूमि के हैं, जबकि आज मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा के लिए कॉमर्शियल फिल्मों के मेनस्ट्रीम एक्टर्स को ढूंढ़ा जा रहा है। आपको नहीं लगता कि यह एक बड़ा शिफ्ट है? जिन अभिनेताओं ने अपनी मेहनत से इस सिनेमा को स्थापित किया, आज उन्हें ही छांटा जा रहा है।
मेरे ख्याल से ऐसा नहीं है। इक़बाल में नसीर साहब का प्रयोग किया गया और ओमपुरी भी काफी इंट्रोड्यूस होते रहते हैं। बहुत सारे अभिनेता हैं, जो ज्यादा काम नहीं करना चाहते। लेकिन किसी की औकात नहीं कि वो नसीरूद्दीन शाह को छांट दे। हिंदुस्तान के सबसे बड़े अभिनेता हैं वो और अगर वो ज्यादा फिल्में नहीं कर रहे तो यह उनका अपना चुनाव है।
सिनेमा के एक और सामाजिक संदर्भ के बारे में आपकी राय जानना चाहता हूं। हिंदुस्तान की आजादी के बाद हिंदी सिनेमा में राजकपूर, दिलीप कुमार व देवानंद की तिकड़ी का बोलबाला था। सिनेमा के समाजशास्त्र का अध्ययन करनेवाले बताते हैं कि आजादी के बाद का जो स्वप्न था कि हिंदुस्तान कैसा हो, इसे इन तीनों ने एक्सप्रेस किया। बाद में जब यह स्वप्न टूटता है और लोगों में जो गुस्सा, जो आक्रोश है, उसे समाज में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र-युवाओं को मूवमेंट के रूप में अभिव्यक्ति मिलती है और सिनेमा में इसी वक्त एंग्री यंगमैन की छवि लेकर अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा वगैरह आते हैं। बाद में लोगों का यह गुस्सा जब कोई बदलाव नहीं लाता तो वह फ्रस्ट्रेशन में तब्दील हो जाता है, जो शाहरूख खान की सुपरहिट डर के रूप में सामने आता है। अब जबकि छह वर्ष से 96-97 फीसदी फिल्में फ्लाप हो रही हैं और इसे लेकर सिनेमा से जुड़े तमाम हलकों में चिंता भी व्यक्त की जा रही है, क्या समाज के इस महत्वपूर्ण मुकाम को (अब तक जिस ढंग से फिल्में अभिव्यक्त करती आयी हैं) एक बड़ा अदाकार या फिल्म एक्सप्रेस करने में नाकाम तो साबित नहीं हो रहा?
देखिए हमारा समाज बंटा हुआ है और हमारा दर्शक भी बंट गया है। हमारी जो शहरी संस्कृति है वो 20 किलोमीटर दूर ग्रामीण संस्कृति से एकदम अलग हो चुकी है। 20 किलोमीटर दूर का जो हीरो है, वो रविकिशन है। लेकिन ठीक 20 किलोमीटर दूर का जो शहर पटना आता है, वहां का युवा वर्ग, जिसे सही सुविधाएं मिली हैं, जिसका पालन-पोषण अच्छे से हुआ है, उसका हीरो शाहरूख-आमिर खान है। पहले दर्शक समूह एक होता था, अब दर्शक समूह एक नहीं रहा। उसमें बंटवारा हुआ है और सबके अलग-अलग हीरो हैं, अपने-अपने कारणों से। अगर आप मुझसे पूछें कि कौन है आज के बदलते दौर का नायक, तो मैं जवाब दूंगा- बहुत सारे भोजपुरी क्षेत्र के लिए मनोज तिवारी, रवि किशन हैं, तो शहरी समाज या अप्रवासी भारतीयों के लिए शाहरूख, सलमान, आमिर हैं। और बाकी जो आपके जैसे लोग हैं, तो उनके लिए मनोज वाजपेयी है। इतना ही नहीं, तेलगू, तमिल फिल्में जिस तरह का व्यापार आजकल कर रही है, वो अपने आप में अच्छा संकेत है। लकिन वो इसलिए भी हुआ है, क्योंकि बंटवारा दर्शकों का बड़े पैमाने पर हुआ है।
अब एक व्यक्तिगत किस्म का सवाल। आपकी शुरुआत एक लेफ्ट आइडियोलॉजीवाले संगठन निशांत नाट्य मंच से हुई। कई वर्ष पूर्व निशांत के संयोजक शम्सुल इस्लाम ने पटना में एक अनौपचारिक बातचीत में आपके बारे में बताया था कि वो सिर्फ अच्छा एक्टर ही नहीं, बल्कि काफी कमिटेड भी था। क्या लेफ्ट पर अब भी आपको भरोसा है?
देखिए, मैंने सारे ‘इज्म’ के लोगों के साथ काम किया। उनके साथ मिल कर संघर्ष किया। शम्सुल ने मुझे समाज को जांचने-परखने की क्षमता दी। उसने मुझे सही तरीके की किताबें पढ़ना सिखाया। उसने मुझे तेवर दिया और वो तेवर आज तक कायम है। बैरी जॉन से मैंने बाकायदा एक लचीलापन लिया। जिनके साथ मैंने काम किया उनको मैंने नकारा कभी नहीं। एक उम्र थी, जहां जानने के लिए बहुत कुछ था क्योंकि मैं पूरे सामंती समाज से निकल कर दिल्ली शहर गया था। मैंने उस समय पटना भी नहीं देखा था। मेरे लिए हर चीज जो मैं देख रहा था, समझ रहा था एजुकेशन थी। हर व्यक्ति, जिससे मैं मिल रहा था, उससे मैं ले रहा था। बेलवा गांव के मनोज वाजपेयी का खजाना खाली था अंदर से। वहां जाकर मैं अपने अंदर ही व्यवस्था को देख रहा था और समझ रहा था। कुछ भी अंदर पुख्ता नहीं था। लेने का जज्बा बहुत था और लेने के लिए जगह बहुत थी। मैं यह बिल्कुल नहीं कह सकता कि वामपंथ एकदम सही पंथ है और प्रजातांत्रिक विधि जो है, वही सबसे ज्यादा अच्छी है। सबको साथ मिला कर चलने की बात है।
आजकल सिनेमा और राजनीति को लेकर बहुत चर्चा होती है। मैं एक खास पहलू पर आपकी राय जानना चाहता हूं। राजनीति का सर्वांगीण विरोध और सिनेमा के प्रति गहरा आकर्षण खास पहचान है। इन दोनों के अंर्तसंबंधों पर एक चीज में समानता है- दोनों जगह खानदानवाद हावी है। पर एक फर्क भी है। राजनीति में मान लीजिए राजनीतिक खानदान का लड़का है, पर उसे कम से कम चुनाव में जनता का समर्थन हासिल करना पड़ता है। लेकिन बॉलीवुड में किसी सुपरस्टार (मान लीजिए अभिषेक बच्च्न) की सौ फिल्में फ्लॉप हो जाएं फिर भी ‘हीरो’ वही बने रहेंगे। वहीं अगर आपकी चार-पांच फिल्में लगातार फ्लॉप हो जाये तो शायद कोई पूछने भी न आये। ऐसा क्यों? बॉलीवुड आपको कम डेमोक्रेटिक नहीं लगता?
थोड़ा-सा हम भटक जाएंगे, अगर हम इसको चुनाव से जोड़ेगे। जो प्रोड्यूसर पैसा लगा रहा है, अगर वो एक खास अभिनेता पर पैसा लगा रहा है, तो उसे कोई रोक नहीं सकता। लेकिन जब वो फिल्में लगती हैं तो ये लोगों के ऊपर है कि वो उसे देखने जाएं या नहीं। अगर मेरे पिताजी के पास 1000 करोड़ रुपये हैं और अगर वो ठान लें कि सारी फिल्में मनोज के साथ बनानी है, चाहे लोग देखने जाएं या नहीं, तो आप मेरे पिताजी को रोक नहीं पाएंगे। अब यह लोगों के ऊपर है कि वो मेरी फिल्म देखने जाएं या नहीं। आखिर में फिल्में प्रदर्शित होने के समय व्यापार में तब्दील हो जाती है और इसलिए हम इसे किसी और चीज से जोड़ कर नहीं देख सकते। और जहां तक मेरी अपनी बात है, मेरा ये मानना है कि कौन किस खानदान से आ रहा है- ये मेरे लिए देखने की चीज नहीं है। मेरे लिए देखने की चीज ये है कि मैं किस स्थिति में हूं और मुझे किस स्थिति में काम करना पड़ रहा है। मुझे कैसे उस स्थिति से निकल कर दूसरी स्थिति में जाना है और वहां अपनी जगह बनानी है। मेरा आग्रह है आप सबसे और जो अभिनेता बनना चाहते हैं, उनसे भी, इसको बहस का मुद्दा न बनाया जाए। आप तो इसको कंपीटिशन मान लेंगे, और प्रोडयूसर जो है, वो एक प्रोडक्ट के रूप में उसे देखेगा। ये एक कंट्राडिक्शन है और इसको साथ ले के चलें। यथास्थिति के रूप में लें और अपनी लड़ाई लड़ें, नहीं हो बहुत ज्यादा हतोत्साहित होंगे।
Sunday, May 27, 2007
अभिव्यक्ति के बहाने
काफी दिन पहले अपूर्वानंद ने अपने कॉलम में 'कहां हैं हुसेन' शीर्षक से लेख लिखा। उसके कुछ दिनों बाद ही चंद्रमोहन का मामला आया और फिर इस सूची में नामवर सिंह भी शामिल हो गए। पूरा पखवाड़ा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमले और आनेवाले समय में उसके बढ़ते हुए खतरे के प्रति सावधान करते, सक्रिय होने आदि मंतव्यों वाली चर्चाओं में बीता। परंतु न तो चंद्रमोहन का वह विवादित चित्र किसी ने छापा और ना ही नामवर सिंह द्वारा दिया गया व्याख्यान। मेरे खयाल से यह मामला जितनी चर्चा में आया है उसमें बहुत से पाठकों को जानने की इच्छा हुई होगी कि वह चित्र क्या है या फिर उस व्याख्यान का संदर्भ क्या है। संदर्भ के बिना किसी एक वाक्य या किसी एक टुकड़े को लेकर हायतौबा से अफवाह जरूर बढ़ती है, जूतमपैजार हो सकती है, सृजनात्मक कुछ नहीं होता। (अगर किसी की जानकारी में कहीं यह आया हो तो मेरी अज्ञानता है, कृपया उपलब्ध कराएं।)
मुझे यह लगता है कि ऐसे मौकों पर ही कला के निहितार्थों की चर्चा भी की जा सकती है। अशोक वाजपेयी ने अपने लेख में कहा कि 'कला सिर्फ अमिधा नहीं है' लेकिन यह एक वक्तव्य भर ही रहा, बात इससे आगे भी होनी चाहिए। कला के जिस अमिधात्मक रूप को लेकर इतना बवेला मचा हुआ है उसमें ही यह मौका है कि कला की विभिन्न परतों को पाठकों और दर्शकों के बीच ले जाया जाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाली बात उस पर बहस को महत्व कहीं से कम नहीं है, ना ही इस मुद्दे पर धरना प्रदर्शन को कहीं से कम आंका जा रहा हैलेकिन जब तक कला और अभिव्यक्ति की सीमाओं और बारीकियों पर इन ज्वलंत उदाहरणों के जरिए बात नहीं होगी, यह संकट कहीं से कम नहीं होगा। ऐसा लगता है कि कला और साहित्य के प्रति निरक्षरता निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह बात करना जरूरी लगता है कि हुसेन या चंद्रमोहन या कि नामवर सिंह जो कह या रच रहे हैं उसका निहितार्थ क्या है वे वैसा क्यों रच और रंग रहे हैं....। जिस बड़े पैमाने पर मीडिया की पहुंच लोक में बनी है यह मौके हैं जब कला के विविध पहलुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए, व्याख्याएं आमंत्रित की जानी चाहिए।
इस बीच पंजाब में डेरा सच्चा सौदा के मुखिया द्वारा गुरु गोविंद सिंह का स्वांग रचने के लेकर भी मीडिया रंगा रहा। बाकी खबरें संपादकीय पन्नों पर सिमट गयीं लेकिन डेरा सच्चा सौदा का मामला सुर्खियों में बना हुआ है। आज के सहारा में विभांशु दिव्याल ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नजरिए से ही सवाल उठाया है। उस नजरिए से इस प्रसंग को देखें तो पहली नजर में डेरा प्रमुख ने गुरु का स्वांग भर किया है, परंतु इस मसले पर कहीं भी कोई भी इसका समर्थन करता नहीं दिखता। क्या उनको इस अंदाज में अभिव्यक्ति की छूट मिल सकती है।
कोशिश होगी विभांशु जी का वह लेख संगत में उपलब्ध कराया जाए।
मुझे यह लगता है कि ऐसे मौकों पर ही कला के निहितार्थों की चर्चा भी की जा सकती है। अशोक वाजपेयी ने अपने लेख में कहा कि 'कला सिर्फ अमिधा नहीं है' लेकिन यह एक वक्तव्य भर ही रहा, बात इससे आगे भी होनी चाहिए। कला के जिस अमिधात्मक रूप को लेकर इतना बवेला मचा हुआ है उसमें ही यह मौका है कि कला की विभिन्न परतों को पाठकों और दर्शकों के बीच ले जाया जाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाली बात उस पर बहस को महत्व कहीं से कम नहीं है, ना ही इस मुद्दे पर धरना प्रदर्शन को कहीं से कम आंका जा रहा हैलेकिन जब तक कला और अभिव्यक्ति की सीमाओं और बारीकियों पर इन ज्वलंत उदाहरणों के जरिए बात नहीं होगी, यह संकट कहीं से कम नहीं होगा। ऐसा लगता है कि कला और साहित्य के प्रति निरक्षरता निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह बात करना जरूरी लगता है कि हुसेन या चंद्रमोहन या कि नामवर सिंह जो कह या रच रहे हैं उसका निहितार्थ क्या है वे वैसा क्यों रच और रंग रहे हैं....। जिस बड़े पैमाने पर मीडिया की पहुंच लोक में बनी है यह मौके हैं जब कला के विविध पहलुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए, व्याख्याएं आमंत्रित की जानी चाहिए।
इस बीच पंजाब में डेरा सच्चा सौदा के मुखिया द्वारा गुरु गोविंद सिंह का स्वांग रचने के लेकर भी मीडिया रंगा रहा। बाकी खबरें संपादकीय पन्नों पर सिमट गयीं लेकिन डेरा सच्चा सौदा का मामला सुर्खियों में बना हुआ है। आज के सहारा में विभांशु दिव्याल ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नजरिए से ही सवाल उठाया है। उस नजरिए से इस प्रसंग को देखें तो पहली नजर में डेरा प्रमुख ने गुरु का स्वांग भर किया है, परंतु इस मसले पर कहीं भी कोई भी इसका समर्थन करता नहीं दिखता। क्या उनको इस अंदाज में अभिव्यक्ति की छूट मिल सकती है।
कोशिश होगी विभांशु जी का वह लेख संगत में उपलब्ध कराया जाए।
Monday, May 21, 2007
राष्ट्रीय चुनौतियों के लिए एक विकल्प
भारतीय पत्रकारिता में जिन हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने नयी राह बनायी है उनमें से एक रविवार है। रविवार ने कई बड़े पत्रकार दिए जिनमें से एक राजकिशोर जी भी हैं। एक बार नामवर जी से किसी ने पूछा कि अगर हिन्दी के किसी एक पत्रकार का नाम लेना हो तो आप किसका नाम लेंगे, नामवरजी ने बेझिझक कहा - राजकिशोर। राजकिशोर जी के संबंध में ऐसे कई प्रसंग और मौके निकल आएंगे। हम सभी समसायिक विषयों पर उनकी प्रखर विश्लेषणात्मक दृष्कोण से लाभान्वित होते रहे हैं। पिछले दिनों भगत सिंह और 1857 के संदर्भ में जनसत्ता में उनके दो लेख प्रकाशित हुए। मैंने संगत के लिए उनसे उन लेखों हेतु आग्रह किया था। लेख तो अभी नहीं आ सकें हैं लेकिन उनके मूल विचारों से जुड़ा विस्तृत कार्यक्रम उन्होंने भेजा है। आप भी विचार करें ।
राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने के लिए एक विनम्र कार्यक्रम
1. भारत इस समय एक गंभीर संकट से गुजर रहा है। यह संकट समग्र संस्कृति
का संकट है। स्वतंत्रता के बाद हमने जीवन की जो व्यवस्था बनाई है, उसमें
अधिकांश लोगों के लिए कोई समाधान नहीं है। लगभग बीस प्रतिशत लोग संपन्न
हैं या संपन्नता की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन उनके जीवन में भी घोर असुरक्षा
है। यह नहीं कहा जा सकता कि वे सुखी भी हैं। बाकी लोगों के जीवन में
मुश्किलें ही मुश्किलें हैं। इसका प्रधान कारण वर्तमान राजनीतिक तंत्र को
माना जाता है। राजनेताओं के प्रति नफरत बढ़ रही है, क्योंकि उन्होंने समाज
की भलाई के लिए सोचना या काम करना बंद कर दिया है। किसी भी दल से लोग खुश
या संतुष्ट नहीं हैं। वामपंथी दलों का सम्मान थोड़ा बचा हुआ है, पर ये दल
अपनी घोषित प्रतिबध्दताओं के अनुसार न तो कार्यक्रम बना पा रहा हैं और न
ही अपना चरित्र सुधार पा रहे हैं। नक्सलवाद के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है,
पर वह निकट भविष्य में राष्ट्रीय मुक्ति का माध्यम बन सकता है, यह
विश्वास नहीं बन पा रहा है। हिंदूवादी संगठन खूंखार हो रहे हैं।
लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं कमजोर हो रही हैं। तानाशाही बढ़ रही है। नर्मदा
बचाओ जैसे कुछ आंदोलन आशा का स्रोत बने हुए हैं, पर इनके पास पूरे देश के
लिए कोई कार्यक्रम नहीं हैं। एनजीओं संस्थाएं कहीं-कहीं राहत के छिटपुट
कार्यक्रम चला रही हैं, पर उनके पास कोई बृहत विजन नहीं है। यही बात उन
छोटे-छोटे अभियानों के बारे में कही जा सकती है जो महिलाओं के विरुध्द
हिंसा, दलितों के अधिकारों की रक्षा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार,
पानी के लिए संघर्ष, बचपन बचाओ आदि पर केंद्रित हैं। किसानों की
आत्महत्याओं ने संकट के एक नए आयाम से हमारा परिचय कराया है। मजदूर वर्ग
में बेचैनी बढ़ रही है। कुल मिला कर, देश में इस समय निराशा और पस्ती का
वातावरण है। सभी को लगता है कि कोई ठोस पहल होनी चाहिए।
2. राजनीति का जवाब राजनीति है; बुरी राजनीति का जवाब अच्छी राजनीति है;
देश के नवनिर्माण के लिए कोई रास्ता निकलेगा, तो राजनीति से ही निकलेगा
-- ये बातें स्वतःसिध्द हैं। इनके बारे में कोई गंभीर मतभेद नहीं हो
सकता। लेकिन आज अगर कोई व्यक्ति या समूह सीधे राजनीतिक दल बनाने के लिए
निकले, तो उसकी असफलता निश्चित है। पिछले कुछ दशकों से अच्छे उद्देश्यों
से कई दल बनाए गए, लेकिन उनकी व्याप्ति नहीं हो पाई। ज्यादातर जेबी या
स्थानीय संगठन बन कर रह गए। कुछ तो तैयारी के स्तर से ही आगे नहीं बढ़
पाए। इस निराशाजनक स्थिति का कारण यह है कि चालू राजनीतिक दलों की
देखादेखी नए दल भी समाज में अपनी व्यापक जगह बनाए बिना सीधे सत्ता में
जाना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि सत्ता प्राप्त करने के बाद ही कोई बड़ा
काम किया जा सकता है। यह उलटा रास्ता है। संसदीय हिस्सेदारी की राजनीति
करने के पहले पर्याप्त समय तक जनता की सेवा कर समाज के बीच विश्वसनीयता
बनानी होगी तथा लोगों को परिवर्तन और संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करना
होगा। जनसाधारण में यह यकीन पैदा करना जरूरी है कि वे अपने सवालों को खुद
हल कर सकते हैं। हम मानते हैं कि दिखने में साधारण चीजों के लिए संघर्ष
चला कर ही बड़ी चीजों के लिए संघर्ष का वातावरण बनाया जा सकता है। हम यह
नहीं मानते कि यह महास्वप्नों का समय नहीं है। लेकिन हमें यह जरूर लगता
है कि कोई भी महास्वप्न तभी सफल होगा जब वह लघु स्वप्नों की नींव पर खड़ा
हो। रोम एक दिन में नहीं बना था। परिवर्तन एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसे
निरंतर चलाने की जरूरत है -- इस उद्देश्य के साथ कि लघु परिवर्तन बड़े
परिवर्तनों के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि बनाने का काम करते जाएं। इसके लिए जन
सेवा का अभियान छेड़ना बहुत उपयोगी होगा।
3. जो समूह बड़े लक्ष्यों के लिए काम कर रहे हैं, उनसे हमारी कोई
प्रतिद्वंद्विता नहीं है। जिन्हें समाजवाद, नागरिक अधिकार, पर्यावरण की
रक्षा आदि बड़े उद्देश्य आकर्षित करते हैं, वे अपनी ईष्ट दिशा में बढ़े,
उनका स्वागत है। ऐसे व्यक्तियों और संगठनों को हम सहयात्री मानेंगे और
उनका सम्मान करेंगे। उनसे सहयोग भी करेंगे। लेकिन हम, अपने स्तर पर, कुछ
अधिक ही विनम्र शुरुआत करना चाहते हैं। हमारा विश्वास है कि एक अच्छा
समाज बनाने के लिए सेवा, संगठन और संघर्ष के माध्यम से जनसाधारण की
सामान्य समझी जाने वाली समस्याओं का हल निकालने का प्रयत्न किया जाए, तो
रेडिकल समाधानों की ओर जाने के लिए एक सरल और व्यावहारिक रास्ता निकल
सकता है। लोग सामूहिक कार्रवाइयों के लिए तैयार हैं, जरूरत उन्हें संगठित
करने और वांछित दिशा में काम शुरू करने की है। हम विफलता से नहीं डरते;
ऐसी सफलता से जरूर डरते हैं जिससे हममें से कुछ के हृदय में सत्ता के
प्रति अस्वस्थ आकर्षण पैदा हो जाए।
4. आज के माहौल में 'सेवा' शब्द दकियानूस और मुलायम लगता है। लेकिन इससे
भड़कने की जरूरत नहीं है। 'क्रांति' जैसे सख्त शब्दों की परिणतियां हम देख
चुके हैं। लोकतांत्रिक सत्ताएं भी कितनी अहंकारी हो सकती है, यह तो हम
रोज ही देखते हैं। ऐसी स्थिति में, यदि हम एक विनम्र अवधारणा के माध्यम
से आगे की राह बनाने का प्रयास करें, तो यह प्रयोग करने योग्य जान पड़ता
है। सार्वजनिक जीवन में सेवा और संघर्ष जुड़वां प्रतीत होते हैं। सेवा का
दायरा जितना बड़ा होगा, संघर्ष की जरूरत उतनी ही ज्यादा सामने आएगी। इस
तरह यह एक सम्यक दर्शन भी बन सकता है। वस्तुत: सबसे बड़ा क्रांतिकारी जनता
का सबसे बड़ा सेवक ही हो सकता है।
5. हमारा मानना है कि भारतीय संविधान एक क्रांतिकारी दस्तावेज है और जन
सेवा के लिए उसका क्रांतिकारी इस्तेमाल हो सकता है। अगर अभी तक इस प्रकार
का इस्तेमाल नहीं हो पाया है, तो इसका कारण है कि संविधान के उन पहलुओं
की ओर ध्यान नहीं दिया गया है जिनमें मूलभूत परिवर्तन की आशा और मांग की
गई है। इस तरफ संकेत करने के लिए नमूने के रूप में हम संविधान के भाग 4
से कुछ उध्दरण दे रहे हैं।
(क) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक
न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी
रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास
करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास
करेगा और न केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों
में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच
भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास
करेगा। - अनुच्छेद 38
(ख) राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि
सुनिश्चित रूप से --- (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से
जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय के भौतिक
संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित
का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे
धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो; (घ)
पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (ड.) पुरुष
और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार
अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को
ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनका आयु या शक्ति के अनुकूल न हो; (च)
बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और
सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और
आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए। -- अनुच्छेद 39
(ग) राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक क्षेत्र इस प्रकार काम करे कि
समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टतया, यह सुनिश्चित
करेगा कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय
प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा
या किसी अन्य रीति से नि:शुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा। --
अनुच्छेद 39क
(घ) राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापनों या अन्य संगठनों
के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त
विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा। -- अनुच्छेद 43क
6. यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने
को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि
कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे लाभ हुआ है। ऐसे ही एक प्रयत्न
के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा
दिया गया है। हमारा मानना है कि न्यायालय भले ही सरकार को सभी नीति
निदेशक तत्वों पर चलने के लिए बाध्य न कर सकें, पर इसके लिए नागरिक
प्रयास करने पर संविधान में कोई रोक नहीं है। अर्थात नागरिक चाहें तो
राज्य के नीति निदेशक तत्वों (संविधान का भाग 4) को लागू कराने के लिए
आंदोलन कर सकते हैं। यह उनका लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार है। हमें
यकीन है कि अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल
करने के लिए आगे आते हैं, तो अदालत इन बहादुर और सदाशयी लोगों की सहायता
ही करेगी।
7. अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम
बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना
तथा हर इलाके में शुध्दिकरण का अभियान छेड़ना। यह काम कठिन है, असंभव
नहीं। इसके लिए एक ऐसा कार्यक्रम बनाने की जरूरत है, जिस पर तत्काल अमल
किया जा सके। ऐसे कार्यक्रम की एक बहुत संक्षिप्त रूपरेखा यहां पेश की
जाती है।
पहले और दूसरे वर्ष का कार्यक्रम
(क) कानून के राज की स्थापना -- कानून का राज कायम करना राज्य की
जिम्मेदारी है। राज्य किसी भी स्तर पर अपनी यह जिम्मेदारी पूरी नहीं कर
रहा है। इसलिए नागरिकों को यह बीड़ा उठाना चाहिए। उदाहरण के लिए, वे यह
सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर कोशिश कर सकते हैं कि
1.सार्वजनिक परिवहन के सभी साधन नियमानुसार चलें। बसों में यात्रियों की
निर्धारित संख्या से दस प्रतिशत से अधिक यात्री न चढ़ाए जाएं। बस चालकों
का व्यवहार अच्छा हो। महिलाओं, वृध्दों आदि को उनकी सीट मिलें। ऑटोरिक्शा
नियमानुसार किराया लें। बस स्टैंड, रेल स्टेशन साफ-सुथरे और नागरिक
सुविधाओं से युक्त हों।
2. सरकारी अस्पतालों में नियम और नैतिकता केअनुसार काम हो। रोगियों को आवश्यक सुविधाएं मिलें और पैसे या रसूख के बल पर कोई काम न हो। डॉक्टर पूरा समय दें। बिस्तर, वार्ड आदि साफ-सुथरे हों।
एयर कंडीशनर डॉक्टरों और प्रशासकों के लिए नहीं, रोगियों के लिए हों।
निजी अस्पतालों में रोगियों से ली जाने वाली फीस लोगों की वहन क्षमता के
भीतर हो। प्राइवेट डॉक्टरों से अनुरोध किया जाए कि वे ज्यादा फीस न लें
और रोज कम से कम एक घंटा मुफ्त रोगी देखें।
3. स्कूलों पर भी इसी तरह के नियम लागू होने चाहिए। छात्रों को प्रवेश देने की प्रक्रिया पूरी तरह
पारदर्शी हो। किसी को डोनेशन देने के लिए बाध्य न किया जाए। फीस कम से कम
रखी जाए। शिक्षकों को उचित वेतन मिले। शिक्षा संस्थानों को मुनाफे के लिए
न चलाया जाए।
4. थानों और पुलिस के कामकाज पर स्थानीय लोगों द्वारा निगरानी रखी जाए। किसी के साथ अन्याय न होने दिया जाए। अपराधियों को पैसे ले कर या रसूख की वजह से छोड़ा न जाए। सभी शिकायतें दर्ज हों और उन पर
कार्रवाई हो। हिरासत में पूछताछ के नाम पर जुल्म न हो। जेलों में कैदियों
के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। उनकी सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति हो।
5. अदालतों के कामकाज पर भी इसी दृष्टि से निगरानी रखी जाए।
(ख) नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था -- नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था करना
प्रशासन, नगरपालिका, पंचायत आदि का कम है। ये काम समय पर और ठीक से हों,
इसके लिए नागरिक हस्तक्षेप जरूरी है। बिजली, पानी, टेलीफोन, गैस आदि के
कनेक्शन देना, इनकी आपूर्ति बनाए रखना, सड़क, सफाई, शिक्षा, चिकित्सा,
प्रसूति, टीका, राशन कार्ड, पहचान पत्र आदि विभिन्न क्षेत्रों में नागरिक
सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर सतत
सक्रियता और निगरानी की जरूरत है। जिन चीजों की व्यवस्था सरकार,
नगरपालिका आदि नहीं कर पा रहे हैं जैसे पुस्तकालय और व्यायामशाला खोलना,
वेश्यालय बंद कराना, गुंडागर्दी पर रोक लगाना आदि उनके लिए नागरिकों के
सहयोग से काम किया जाए।
(ग) उचित वेतन, सम्मान तथा सुविधाओं की लड़ाइर् र् : मजदूरों को उचित वेतन
मिले, उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार हो, उनके काम के घंटे और स्थितिया
अमानवीय न हों, उन्हें मेडिकल सहायता, छुट्टी आदि सुविधाएं मिलें, इसके
लिए संघर्ष करना ही होगा। गांवों में खेतिहर मजदूरों के हितों की रक्षा
करनी होगी।
(घ) उचित कीमतों के लिए आग्रह : प्रायः सभी जगह देखा जाता है कि एक ही
चीज कई कीमतों पर मिलती है। सभी दुकानदार 'अधिकतम खुदरा मूल्य' के आधार
पर सामान बेचते हैं। ग्राहक यह तय नहीं कर पाता कि कितना प्रतिशत मुनाफा
कमाया जा रहा है। नागरिक टोलियों को यह अधिकार है कि वे प्रत्येक दुकान
में जाएं और बिल देख कर यह पता करें कि कौन-सी वस्तु कितनी कीमत दे कर
खरीदी गई है। उस आधार पर दस या पंद्रह प्रतिशत मुनाफा जोड़ कर प्रत्येक
वस्तु का विक्रय मूल्य तय करने का आग्रह किया जाए। दवाओं को मामले में इस
सामाजिक अंकेक्षण की सख्त जरूरत है। खुदरा व्यापार में कुछ निश्चित
प्रतिमान लागू कराने के बाद उत्पादकों से भी ऐसे ही प्रतिमानों का पालन
करने के लिए आग्रह किया जाएगा।
(ड़.) दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के हित : इन तीन तथा ऐसे अन्य
वर्गों के हितों पर आवश्यक ध्यान दिया जाएगा। इनके साथ किसी भी प्रकार के
दर्ुव्यवहार और भेदभाव को रोकने की पूरी कोशिश होगी।
इस तरह के अभियान शुरू के दो वर्षों में चलाए जाने चाहिए, ताकि लोगों में
यह विश्वास पैदा हो सके कि गलत चीजों से लड़ा जा सकता है, स्वस्थ बदलाव
संभव है और इसके लिए किसी बड़े या चमत्कारी नेता की आवश्यकता नहीं है।
गांव और मुहल्ले के सामान्य लोग भी संगठित और नियमित काम के जरिए सफलता
प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह का वातावरण बन जाने के बाद अगले वर्ष से बड़े
कार्यक्रम हाथ में लिए जा सकते हैं।
तीसरे और चौथे वर्ष का कार्यक्रम
भारत में अंग्रेजी शोषण, विषमता तथा अन्याय की भाषा है। अतः अंग्रेजी के
सार्वजनिक प्रयोग के विरुध्द अभियान चलाना आवश्यक है। बीड़ी, सिगरेट,
गुटका आदि के कारखानों को बंद कराना होगा। जो धंधे महिलाओं के शारीरिक
प्रदर्शन पर टिके हुए हैं, वे रोके जाएंगे। महंगे होटल, महंगी कारें,
जुआ, शराबघरों या कैबरे हाउसों में नाच आदि को खत्म करने का प्रयास किया
जाएगा। देश में पैदा होनेवाली चीजें, जैसे दवा, कपड़ा, पंखा, काजू, साइकिल
आदि, जब भारतीयों की जरूरतों से ज्यादा होंगी, तभी उनका निर्यात होना
चाहिए। इसी तरह, उन आयातों पर रोक लगाई जाए जिनकी आम भारतीयों को जरूरत
नहीं हैं या जो उनके हितों के विरुध्द हैं। राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधान
मंत्री, मुख्य मंत्री, मत्री, सांसद, विधायक, अधिकारी आदि से छोटे घरों
में और सादगी के साथ रहने का अनुरोध किया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि
एयरकंडीशनरों का इस्तेमाल खुद करने के बजाय वे उनका उपयोग अस्पतालों,
स्कूलों, वृध्दाश्रमों, पुस्तकालयों आदि में होने दें। रेलगाड़ियों,
सिनेमा हॉलों, नाटकघरों आदि में कई क्लास न हों। सभी के लिए एक ही दाम का
टिकट हो।
चार वर्ष बाद का कार्यक्रम
चार वर्षों में इस तरह का वातावरण बनाने में सफलता हासिल करना जरूरी है
कि राजनीति की धारा को प्रभावित करने में सक्षम हुआ जा सके। हम राज्य
सत्ता से घृणा नहीं करते। उसके लोकतांत्रिक अनुशासन को अनिवार्य मानते
हैं। हम मानते हैं कि बहुत-से बुनियादी परिवर्तन तभी हो सकते हैं जब
सत्ता सही लोगों के हाथ में हो। लेकिन जिस संगठन के माध्यम से यह सारा
कार्यक्रम चलेगा, उसके सदस्य चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। जिन्हें चुनाव लड़ने
की और सत्ता में जाने की अभिलाषा हो, उन्हें संगठन से त्यागपत्र देना
होगा। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के इस आंदोलन से जरूरी नहीं कि किसी एक ही
राष्ट्रीय दल का गठन हो। कई राजनीतिक दल बन सकते हैं, ताकि उनमें स्वस्थ
और लोकतांत्रिक प्रतिद्वंद्विता हो सके। जो लोग सत्ता में शिरकत करेंगे,
उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे मौजूदा संविधान को, यदि उसके कुछ
प्रावधान जन-विरोध पाए जाते हैं तो उनकी उपेक्षा करते हुए, सख्ती से लागू
करने का प्रयत्न करें। बुरे कानूनों को खत्म करें। अच्छे और जरूरी कानून
बनाएं। किसानों सहित सभी को उसकी उपज और उत्पादन का उचित मूल्य दिलाने का
प्रयत्न करें। सभी नीतियों में जनवादी परिवर्तन ले आएँ। राज्य सरकार के
स्तर पर भी इसी प्रकार के परिवर्तन अपेक्षित होंगे। राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण का यह अभियान पहले दिन से ही उनके कार्यवृत्त की कठोर
निगरानी करेगा जो इस अभियान से निकल कर सत्ता में शरीक होंगे।
संगठन
जाहिर है, यह सारा काम एक सांगठनिक ढांचे में ही हो सकता है। शुरुआत गांव
तथा मुहल्ला स्तर पर संगठन बना कर करनी होगी। जिस जिले में कम से कम
एक-चौथाई कार्य क्षेत्र में स्थानीय संगठन बन जाएं, वहां जिला स्तर पर
संगठन बनाया जा सकता है। राज्य स्तर पर संगठन बनाने के लिए कम से कम
एक-तिहाई जिलों में जिला स्तर का संगठन होना जरूरी है। राष्ट्रीय संगठन
सबसे आखिर में बनेगा। सदस्यों की पहचान के लिए बाईं भुजा में हरे रंग की
पट्टी या इसी तरह का कोई और उपाय अपनाना उपयोगी हो सकता है। इससे संगठित
हो कर काम करने में सहायता मिलेगी। सभी पदों के लिए चुनाव होगा।
कार्य प्रणाली
यह इस कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण पक्ष है। जो भी कार्यक्रम या
अभियान चलाया जाए, उसका शांतिपूर्ण होना आवश्यक है। प्रत्येक कार्यकर्ता
को गंभीर से गंभीर दबाव में भी हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करनी होगी। सभी
निर्णय कम से कम तीन-चौथाई बहुमत से लिए जाएंगे। पुलिस तथा सरकार के अन्य
अंगों को सूचित किए बिना सामाजिक अंकेक्षण, सामाजिक दबाव और संघर्ष का
कोई कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया जाएगा। अपील, अनुरोध, धरना, जुलूस,
जनसभा, असहयोग आदि उपायों का सहारा लिया जाएगा। आवश्यकतानुसार जन अभियान
के नए-नए तरीके निकाले जाएंगे। किसी को अपमानित या परेशान नहीं किया
जाएगा। जिनके विरुध्द आंदोलन होगा, उनके साथ भी प्रेम और सम्मानपूर्ण
व्यवहार होगा। कोशिश यह होगी कि उन्हें भी अपने आंदोलन में शामिल किया
जाए। आय और व्यय के स्पष्ट और सरल नियम बनाए जाएंगे। चंदे और आर्थिक
सहयोग से प्राप्त प्रत्येक पैसे का हिसाब रखा जाएगा, जिसे कोई भी देख
सकेगा। एक हजार रुपए से अधिक रकम बैंक में रखी जाएगी।
स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता समूह काम करेंगे। वे सप्ताह में कुछ दिन
सुबह और कुछ दिन शाम को एक निश्चित, पूर्वघोषित स्थान पर (जहां सुविधा
हो, इसके लिए कार्यालय बनाया जा सकता है) कम से कम एक घंटे के लिए एकत्र
होंगे, ताकि जिसे भी कोई कष्ट हो, वह वहां आ सके। कार्यक्रम की शुरुआत
कुछ क्रांतिकारी गीतों, भजनों, अच्छी किताबों के अंश के पाठ से होगी।
उसके बाद लोगों की शिकायतों को नोट किया जाएगा तथा अगले दिन क्या करना
है, कहां जाना है, इसकी योजना बनाई जाएगी। जिनके पास समाज को देने के लिए
ज्यादा समय है जैसे रिटायर लोग, नौजवान, महिलाएं, उन्हें इस कार्यक्रम के
साथ विशेष रूप से जोड़ा जाएगा।
निवेदन
कृपया इसकी प्रतियां बनवा कर मित्रों, परिचितों एवं अन्य व्यक्तियों के
बीच वितरित करें। अन्य भाषाओं में अनुवाद करवाने का भी आग्रह है।
प्रतिक्रिया तथा सुझाव भेजने का पता : राजकिशोर, 53, एक्सप्रेस
अपार्टमेंट्स, मयूर कुंज, दिल्ली - 110096 ईमेल : truthonly@gmail.com
राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने के लिए एक विनम्र कार्यक्रम
1. भारत इस समय एक गंभीर संकट से गुजर रहा है। यह संकट समग्र संस्कृति
का संकट है। स्वतंत्रता के बाद हमने जीवन की जो व्यवस्था बनाई है, उसमें
अधिकांश लोगों के लिए कोई समाधान नहीं है। लगभग बीस प्रतिशत लोग संपन्न
हैं या संपन्नता की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन उनके जीवन में भी घोर असुरक्षा
है। यह नहीं कहा जा सकता कि वे सुखी भी हैं। बाकी लोगों के जीवन में
मुश्किलें ही मुश्किलें हैं। इसका प्रधान कारण वर्तमान राजनीतिक तंत्र को
माना जाता है। राजनेताओं के प्रति नफरत बढ़ रही है, क्योंकि उन्होंने समाज
की भलाई के लिए सोचना या काम करना बंद कर दिया है। किसी भी दल से लोग खुश
या संतुष्ट नहीं हैं। वामपंथी दलों का सम्मान थोड़ा बचा हुआ है, पर ये दल
अपनी घोषित प्रतिबध्दताओं के अनुसार न तो कार्यक्रम बना पा रहा हैं और न
ही अपना चरित्र सुधार पा रहे हैं। नक्सलवाद के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है,
पर वह निकट भविष्य में राष्ट्रीय मुक्ति का माध्यम बन सकता है, यह
विश्वास नहीं बन पा रहा है। हिंदूवादी संगठन खूंखार हो रहे हैं।
लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं कमजोर हो रही हैं। तानाशाही बढ़ रही है। नर्मदा
बचाओ जैसे कुछ आंदोलन आशा का स्रोत बने हुए हैं, पर इनके पास पूरे देश के
लिए कोई कार्यक्रम नहीं हैं। एनजीओं संस्थाएं कहीं-कहीं राहत के छिटपुट
कार्यक्रम चला रही हैं, पर उनके पास कोई बृहत विजन नहीं है। यही बात उन
छोटे-छोटे अभियानों के बारे में कही जा सकती है जो महिलाओं के विरुध्द
हिंसा, दलितों के अधिकारों की रक्षा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार,
पानी के लिए संघर्ष, बचपन बचाओ आदि पर केंद्रित हैं। किसानों की
आत्महत्याओं ने संकट के एक नए आयाम से हमारा परिचय कराया है। मजदूर वर्ग
में बेचैनी बढ़ रही है। कुल मिला कर, देश में इस समय निराशा और पस्ती का
वातावरण है। सभी को लगता है कि कोई ठोस पहल होनी चाहिए।
2. राजनीति का जवाब राजनीति है; बुरी राजनीति का जवाब अच्छी राजनीति है;
देश के नवनिर्माण के लिए कोई रास्ता निकलेगा, तो राजनीति से ही निकलेगा
-- ये बातें स्वतःसिध्द हैं। इनके बारे में कोई गंभीर मतभेद नहीं हो
सकता। लेकिन आज अगर कोई व्यक्ति या समूह सीधे राजनीतिक दल बनाने के लिए
निकले, तो उसकी असफलता निश्चित है। पिछले कुछ दशकों से अच्छे उद्देश्यों
से कई दल बनाए गए, लेकिन उनकी व्याप्ति नहीं हो पाई। ज्यादातर जेबी या
स्थानीय संगठन बन कर रह गए। कुछ तो तैयारी के स्तर से ही आगे नहीं बढ़
पाए। इस निराशाजनक स्थिति का कारण यह है कि चालू राजनीतिक दलों की
देखादेखी नए दल भी समाज में अपनी व्यापक जगह बनाए बिना सीधे सत्ता में
जाना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि सत्ता प्राप्त करने के बाद ही कोई बड़ा
काम किया जा सकता है। यह उलटा रास्ता है। संसदीय हिस्सेदारी की राजनीति
करने के पहले पर्याप्त समय तक जनता की सेवा कर समाज के बीच विश्वसनीयता
बनानी होगी तथा लोगों को परिवर्तन और संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करना
होगा। जनसाधारण में यह यकीन पैदा करना जरूरी है कि वे अपने सवालों को खुद
हल कर सकते हैं। हम मानते हैं कि दिखने में साधारण चीजों के लिए संघर्ष
चला कर ही बड़ी चीजों के लिए संघर्ष का वातावरण बनाया जा सकता है। हम यह
नहीं मानते कि यह महास्वप्नों का समय नहीं है। लेकिन हमें यह जरूर लगता
है कि कोई भी महास्वप्न तभी सफल होगा जब वह लघु स्वप्नों की नींव पर खड़ा
हो। रोम एक दिन में नहीं बना था। परिवर्तन एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसे
निरंतर चलाने की जरूरत है -- इस उद्देश्य के साथ कि लघु परिवर्तन बड़े
परिवर्तनों के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि बनाने का काम करते जाएं। इसके लिए जन
सेवा का अभियान छेड़ना बहुत उपयोगी होगा।
3. जो समूह बड़े लक्ष्यों के लिए काम कर रहे हैं, उनसे हमारी कोई
प्रतिद्वंद्विता नहीं है। जिन्हें समाजवाद, नागरिक अधिकार, पर्यावरण की
रक्षा आदि बड़े उद्देश्य आकर्षित करते हैं, वे अपनी ईष्ट दिशा में बढ़े,
उनका स्वागत है। ऐसे व्यक्तियों और संगठनों को हम सहयात्री मानेंगे और
उनका सम्मान करेंगे। उनसे सहयोग भी करेंगे। लेकिन हम, अपने स्तर पर, कुछ
अधिक ही विनम्र शुरुआत करना चाहते हैं। हमारा विश्वास है कि एक अच्छा
समाज बनाने के लिए सेवा, संगठन और संघर्ष के माध्यम से जनसाधारण की
सामान्य समझी जाने वाली समस्याओं का हल निकालने का प्रयत्न किया जाए, तो
रेडिकल समाधानों की ओर जाने के लिए एक सरल और व्यावहारिक रास्ता निकल
सकता है। लोग सामूहिक कार्रवाइयों के लिए तैयार हैं, जरूरत उन्हें संगठित
करने और वांछित दिशा में काम शुरू करने की है। हम विफलता से नहीं डरते;
ऐसी सफलता से जरूर डरते हैं जिससे हममें से कुछ के हृदय में सत्ता के
प्रति अस्वस्थ आकर्षण पैदा हो जाए।
4. आज के माहौल में 'सेवा' शब्द दकियानूस और मुलायम लगता है। लेकिन इससे
भड़कने की जरूरत नहीं है। 'क्रांति' जैसे सख्त शब्दों की परिणतियां हम देख
चुके हैं। लोकतांत्रिक सत्ताएं भी कितनी अहंकारी हो सकती है, यह तो हम
रोज ही देखते हैं। ऐसी स्थिति में, यदि हम एक विनम्र अवधारणा के माध्यम
से आगे की राह बनाने का प्रयास करें, तो यह प्रयोग करने योग्य जान पड़ता
है। सार्वजनिक जीवन में सेवा और संघर्ष जुड़वां प्रतीत होते हैं। सेवा का
दायरा जितना बड़ा होगा, संघर्ष की जरूरत उतनी ही ज्यादा सामने आएगी। इस
तरह यह एक सम्यक दर्शन भी बन सकता है। वस्तुत: सबसे बड़ा क्रांतिकारी जनता
का सबसे बड़ा सेवक ही हो सकता है।
5. हमारा मानना है कि भारतीय संविधान एक क्रांतिकारी दस्तावेज है और जन
सेवा के लिए उसका क्रांतिकारी इस्तेमाल हो सकता है। अगर अभी तक इस प्रकार
का इस्तेमाल नहीं हो पाया है, तो इसका कारण है कि संविधान के उन पहलुओं
की ओर ध्यान नहीं दिया गया है जिनमें मूलभूत परिवर्तन की आशा और मांग की
गई है। इस तरफ संकेत करने के लिए नमूने के रूप में हम संविधान के भाग 4
से कुछ उध्दरण दे रहे हैं।
(क) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक
न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी
रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास
करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास
करेगा और न केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों
में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच
भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास
करेगा। - अनुच्छेद 38
(ख) राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि
सुनिश्चित रूप से --- (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से
जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय के भौतिक
संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित
का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे
धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो; (घ)
पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (ड.) पुरुष
और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार
अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को
ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनका आयु या शक्ति के अनुकूल न हो; (च)
बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और
सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और
आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए। -- अनुच्छेद 39
(ग) राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक क्षेत्र इस प्रकार काम करे कि
समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टतया, यह सुनिश्चित
करेगा कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय
प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा
या किसी अन्य रीति से नि:शुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा। --
अनुच्छेद 39क
(घ) राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापनों या अन्य संगठनों
के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त
विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा। -- अनुच्छेद 43क
6. यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने
को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि
कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे लाभ हुआ है। ऐसे ही एक प्रयत्न
के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा
दिया गया है। हमारा मानना है कि न्यायालय भले ही सरकार को सभी नीति
निदेशक तत्वों पर चलने के लिए बाध्य न कर सकें, पर इसके लिए नागरिक
प्रयास करने पर संविधान में कोई रोक नहीं है। अर्थात नागरिक चाहें तो
राज्य के नीति निदेशक तत्वों (संविधान का भाग 4) को लागू कराने के लिए
आंदोलन कर सकते हैं। यह उनका लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार है। हमें
यकीन है कि अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल
करने के लिए आगे आते हैं, तो अदालत इन बहादुर और सदाशयी लोगों की सहायता
ही करेगी।
7. अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम
बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना
तथा हर इलाके में शुध्दिकरण का अभियान छेड़ना। यह काम कठिन है, असंभव
नहीं। इसके लिए एक ऐसा कार्यक्रम बनाने की जरूरत है, जिस पर तत्काल अमल
किया जा सके। ऐसे कार्यक्रम की एक बहुत संक्षिप्त रूपरेखा यहां पेश की
जाती है।
पहले और दूसरे वर्ष का कार्यक्रम
(क) कानून के राज की स्थापना -- कानून का राज कायम करना राज्य की
जिम्मेदारी है। राज्य किसी भी स्तर पर अपनी यह जिम्मेदारी पूरी नहीं कर
रहा है। इसलिए नागरिकों को यह बीड़ा उठाना चाहिए। उदाहरण के लिए, वे यह
सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर कोशिश कर सकते हैं कि
1.सार्वजनिक परिवहन के सभी साधन नियमानुसार चलें। बसों में यात्रियों की
निर्धारित संख्या से दस प्रतिशत से अधिक यात्री न चढ़ाए जाएं। बस चालकों
का व्यवहार अच्छा हो। महिलाओं, वृध्दों आदि को उनकी सीट मिलें। ऑटोरिक्शा
नियमानुसार किराया लें। बस स्टैंड, रेल स्टेशन साफ-सुथरे और नागरिक
सुविधाओं से युक्त हों।
2. सरकारी अस्पतालों में नियम और नैतिकता केअनुसार काम हो। रोगियों को आवश्यक सुविधाएं मिलें और पैसे या रसूख के बल पर कोई काम न हो। डॉक्टर पूरा समय दें। बिस्तर, वार्ड आदि साफ-सुथरे हों।
एयर कंडीशनर डॉक्टरों और प्रशासकों के लिए नहीं, रोगियों के लिए हों।
निजी अस्पतालों में रोगियों से ली जाने वाली फीस लोगों की वहन क्षमता के
भीतर हो। प्राइवेट डॉक्टरों से अनुरोध किया जाए कि वे ज्यादा फीस न लें
और रोज कम से कम एक घंटा मुफ्त रोगी देखें।
3. स्कूलों पर भी इसी तरह के नियम लागू होने चाहिए। छात्रों को प्रवेश देने की प्रक्रिया पूरी तरह
पारदर्शी हो। किसी को डोनेशन देने के लिए बाध्य न किया जाए। फीस कम से कम
रखी जाए। शिक्षकों को उचित वेतन मिले। शिक्षा संस्थानों को मुनाफे के लिए
न चलाया जाए।
4. थानों और पुलिस के कामकाज पर स्थानीय लोगों द्वारा निगरानी रखी जाए। किसी के साथ अन्याय न होने दिया जाए। अपराधियों को पैसे ले कर या रसूख की वजह से छोड़ा न जाए। सभी शिकायतें दर्ज हों और उन पर
कार्रवाई हो। हिरासत में पूछताछ के नाम पर जुल्म न हो। जेलों में कैदियों
के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। उनकी सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति हो।
5. अदालतों के कामकाज पर भी इसी दृष्टि से निगरानी रखी जाए।
(ख) नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था -- नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था करना
प्रशासन, नगरपालिका, पंचायत आदि का कम है। ये काम समय पर और ठीक से हों,
इसके लिए नागरिक हस्तक्षेप जरूरी है। बिजली, पानी, टेलीफोन, गैस आदि के
कनेक्शन देना, इनकी आपूर्ति बनाए रखना, सड़क, सफाई, शिक्षा, चिकित्सा,
प्रसूति, टीका, राशन कार्ड, पहचान पत्र आदि विभिन्न क्षेत्रों में नागरिक
सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर सतत
सक्रियता और निगरानी की जरूरत है। जिन चीजों की व्यवस्था सरकार,
नगरपालिका आदि नहीं कर पा रहे हैं जैसे पुस्तकालय और व्यायामशाला खोलना,
वेश्यालय बंद कराना, गुंडागर्दी पर रोक लगाना आदि उनके लिए नागरिकों के
सहयोग से काम किया जाए।
(ग) उचित वेतन, सम्मान तथा सुविधाओं की लड़ाइर् र् : मजदूरों को उचित वेतन
मिले, उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार हो, उनके काम के घंटे और स्थितिया
अमानवीय न हों, उन्हें मेडिकल सहायता, छुट्टी आदि सुविधाएं मिलें, इसके
लिए संघर्ष करना ही होगा। गांवों में खेतिहर मजदूरों के हितों की रक्षा
करनी होगी।
(घ) उचित कीमतों के लिए आग्रह : प्रायः सभी जगह देखा जाता है कि एक ही
चीज कई कीमतों पर मिलती है। सभी दुकानदार 'अधिकतम खुदरा मूल्य' के आधार
पर सामान बेचते हैं। ग्राहक यह तय नहीं कर पाता कि कितना प्रतिशत मुनाफा
कमाया जा रहा है। नागरिक टोलियों को यह अधिकार है कि वे प्रत्येक दुकान
में जाएं और बिल देख कर यह पता करें कि कौन-सी वस्तु कितनी कीमत दे कर
खरीदी गई है। उस आधार पर दस या पंद्रह प्रतिशत मुनाफा जोड़ कर प्रत्येक
वस्तु का विक्रय मूल्य तय करने का आग्रह किया जाए। दवाओं को मामले में इस
सामाजिक अंकेक्षण की सख्त जरूरत है। खुदरा व्यापार में कुछ निश्चित
प्रतिमान लागू कराने के बाद उत्पादकों से भी ऐसे ही प्रतिमानों का पालन
करने के लिए आग्रह किया जाएगा।
(ड़.) दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के हित : इन तीन तथा ऐसे अन्य
वर्गों के हितों पर आवश्यक ध्यान दिया जाएगा। इनके साथ किसी भी प्रकार के
दर्ुव्यवहार और भेदभाव को रोकने की पूरी कोशिश होगी।
इस तरह के अभियान शुरू के दो वर्षों में चलाए जाने चाहिए, ताकि लोगों में
यह विश्वास पैदा हो सके कि गलत चीजों से लड़ा जा सकता है, स्वस्थ बदलाव
संभव है और इसके लिए किसी बड़े या चमत्कारी नेता की आवश्यकता नहीं है।
गांव और मुहल्ले के सामान्य लोग भी संगठित और नियमित काम के जरिए सफलता
प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह का वातावरण बन जाने के बाद अगले वर्ष से बड़े
कार्यक्रम हाथ में लिए जा सकते हैं।
तीसरे और चौथे वर्ष का कार्यक्रम
भारत में अंग्रेजी शोषण, विषमता तथा अन्याय की भाषा है। अतः अंग्रेजी के
सार्वजनिक प्रयोग के विरुध्द अभियान चलाना आवश्यक है। बीड़ी, सिगरेट,
गुटका आदि के कारखानों को बंद कराना होगा। जो धंधे महिलाओं के शारीरिक
प्रदर्शन पर टिके हुए हैं, वे रोके जाएंगे। महंगे होटल, महंगी कारें,
जुआ, शराबघरों या कैबरे हाउसों में नाच आदि को खत्म करने का प्रयास किया
जाएगा। देश में पैदा होनेवाली चीजें, जैसे दवा, कपड़ा, पंखा, काजू, साइकिल
आदि, जब भारतीयों की जरूरतों से ज्यादा होंगी, तभी उनका निर्यात होना
चाहिए। इसी तरह, उन आयातों पर रोक लगाई जाए जिनकी आम भारतीयों को जरूरत
नहीं हैं या जो उनके हितों के विरुध्द हैं। राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधान
मंत्री, मुख्य मंत्री, मत्री, सांसद, विधायक, अधिकारी आदि से छोटे घरों
में और सादगी के साथ रहने का अनुरोध किया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि
एयरकंडीशनरों का इस्तेमाल खुद करने के बजाय वे उनका उपयोग अस्पतालों,
स्कूलों, वृध्दाश्रमों, पुस्तकालयों आदि में होने दें। रेलगाड़ियों,
सिनेमा हॉलों, नाटकघरों आदि में कई क्लास न हों। सभी के लिए एक ही दाम का
टिकट हो।
चार वर्ष बाद का कार्यक्रम
चार वर्षों में इस तरह का वातावरण बनाने में सफलता हासिल करना जरूरी है
कि राजनीति की धारा को प्रभावित करने में सक्षम हुआ जा सके। हम राज्य
सत्ता से घृणा नहीं करते। उसके लोकतांत्रिक अनुशासन को अनिवार्य मानते
हैं। हम मानते हैं कि बहुत-से बुनियादी परिवर्तन तभी हो सकते हैं जब
सत्ता सही लोगों के हाथ में हो। लेकिन जिस संगठन के माध्यम से यह सारा
कार्यक्रम चलेगा, उसके सदस्य चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। जिन्हें चुनाव लड़ने
की और सत्ता में जाने की अभिलाषा हो, उन्हें संगठन से त्यागपत्र देना
होगा। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के इस आंदोलन से जरूरी नहीं कि किसी एक ही
राष्ट्रीय दल का गठन हो। कई राजनीतिक दल बन सकते हैं, ताकि उनमें स्वस्थ
और लोकतांत्रिक प्रतिद्वंद्विता हो सके। जो लोग सत्ता में शिरकत करेंगे,
उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे मौजूदा संविधान को, यदि उसके कुछ
प्रावधान जन-विरोध पाए जाते हैं तो उनकी उपेक्षा करते हुए, सख्ती से लागू
करने का प्रयत्न करें। बुरे कानूनों को खत्म करें। अच्छे और जरूरी कानून
बनाएं। किसानों सहित सभी को उसकी उपज और उत्पादन का उचित मूल्य दिलाने का
प्रयत्न करें। सभी नीतियों में जनवादी परिवर्तन ले आएँ। राज्य सरकार के
स्तर पर भी इसी प्रकार के परिवर्तन अपेक्षित होंगे। राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण का यह अभियान पहले दिन से ही उनके कार्यवृत्त की कठोर
निगरानी करेगा जो इस अभियान से निकल कर सत्ता में शरीक होंगे।
संगठन
जाहिर है, यह सारा काम एक सांगठनिक ढांचे में ही हो सकता है। शुरुआत गांव
तथा मुहल्ला स्तर पर संगठन बना कर करनी होगी। जिस जिले में कम से कम
एक-चौथाई कार्य क्षेत्र में स्थानीय संगठन बन जाएं, वहां जिला स्तर पर
संगठन बनाया जा सकता है। राज्य स्तर पर संगठन बनाने के लिए कम से कम
एक-तिहाई जिलों में जिला स्तर का संगठन होना जरूरी है। राष्ट्रीय संगठन
सबसे आखिर में बनेगा। सदस्यों की पहचान के लिए बाईं भुजा में हरे रंग की
पट्टी या इसी तरह का कोई और उपाय अपनाना उपयोगी हो सकता है। इससे संगठित
हो कर काम करने में सहायता मिलेगी। सभी पदों के लिए चुनाव होगा।
कार्य प्रणाली
यह इस कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण पक्ष है। जो भी कार्यक्रम या
अभियान चलाया जाए, उसका शांतिपूर्ण होना आवश्यक है। प्रत्येक कार्यकर्ता
को गंभीर से गंभीर दबाव में भी हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करनी होगी। सभी
निर्णय कम से कम तीन-चौथाई बहुमत से लिए जाएंगे। पुलिस तथा सरकार के अन्य
अंगों को सूचित किए बिना सामाजिक अंकेक्षण, सामाजिक दबाव और संघर्ष का
कोई कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया जाएगा। अपील, अनुरोध, धरना, जुलूस,
जनसभा, असहयोग आदि उपायों का सहारा लिया जाएगा। आवश्यकतानुसार जन अभियान
के नए-नए तरीके निकाले जाएंगे। किसी को अपमानित या परेशान नहीं किया
जाएगा। जिनके विरुध्द आंदोलन होगा, उनके साथ भी प्रेम और सम्मानपूर्ण
व्यवहार होगा। कोशिश यह होगी कि उन्हें भी अपने आंदोलन में शामिल किया
जाए। आय और व्यय के स्पष्ट और सरल नियम बनाए जाएंगे। चंदे और आर्थिक
सहयोग से प्राप्त प्रत्येक पैसे का हिसाब रखा जाएगा, जिसे कोई भी देख
सकेगा। एक हजार रुपए से अधिक रकम बैंक में रखी जाएगी।
स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता समूह काम करेंगे। वे सप्ताह में कुछ दिन
सुबह और कुछ दिन शाम को एक निश्चित, पूर्वघोषित स्थान पर (जहां सुविधा
हो, इसके लिए कार्यालय बनाया जा सकता है) कम से कम एक घंटे के लिए एकत्र
होंगे, ताकि जिसे भी कोई कष्ट हो, वह वहां आ सके। कार्यक्रम की शुरुआत
कुछ क्रांतिकारी गीतों, भजनों, अच्छी किताबों के अंश के पाठ से होगी।
उसके बाद लोगों की शिकायतों को नोट किया जाएगा तथा अगले दिन क्या करना
है, कहां जाना है, इसकी योजना बनाई जाएगी। जिनके पास समाज को देने के लिए
ज्यादा समय है जैसे रिटायर लोग, नौजवान, महिलाएं, उन्हें इस कार्यक्रम के
साथ विशेष रूप से जोड़ा जाएगा।
निवेदन
कृपया इसकी प्रतियां बनवा कर मित्रों, परिचितों एवं अन्य व्यक्तियों के
बीच वितरित करें। अन्य भाषाओं में अनुवाद करवाने का भी आग्रह है।
प्रतिक्रिया तथा सुझाव भेजने का पता : राजकिशोर, 53, एक्सप्रेस
अपार्टमेंट्स, मयूर कुंज, दिल्ली - 110096 ईमेल : truthonly@gmail.com
Sunday, May 20, 2007
कला सिर्फ अमिधा नहीं है'
बड़ोदरा के महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय में कला छात्र चंद्रमोहन की प्रदर्शनी पर छिड़ी बहस अभी थमी नहीं है। २० मई के जनसत्ता में प्रभाष जोशी और अशोक वाजपेयी ने इस प्रसंग में लंबी तकरीर की है। इसके कुछ अंश यहां रखना आवश्यक लगता है:
अशोक वाजपेयी लिखते हैं
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस संघर्ष में एक बात और गौरतलब है, चाहे हुसेन द्वारा चित्रित सरस्वती या भारत माता हो, बड़ोदरा के चंद्रमोहन द्वारा बनाई दुर्गा और ईसा मसीह की छबियां, इन सभी को शु;द्ध अभिधा की तरह देखा-पढ़ा जा रहा है। सारी कला को निरा अमिधा में घटा देना और उसके व्यंजित आशय की अनदेखी करना ठीक से देखने समझने की असमर्थता प्रकट करता है। सारी कला को मात्र प्रतिनिधित्व करनेवाली कला मानना उसके कई शक्तियों और अभिप्रायों को हाशिये पर धकेलना है। विषय, किसी भी कृति का विषय उसका आशय नहीं होता, पूरा आशय तो किसी भी तरह से नहीं। सारी कला को उसके विषय तक महदूद करना कला को हाशिये पर करना है। अमिधा से आतंकित शक्तियां दरअसल एक तरह के सांस्कृतिक आतंकवाद का संस्करण हैं जो दो अर्थों में कलाकृति को नष्ट करते हैं : उसे भौतिक रूप से ध्वस्त-नष्ट करके या फाड़कर या उस पर रंग या कीचड़ फेंककर । दूसरा उसके कलात्मक गुणों की पूरी तरह से अनदेखी कर उसे सिर्फ विषय मानकर उसके सारे अन्य अर्थों को तिरोहित करने की चेष्टा करते हुए।
प्रभाष जोशी लिखते हैं
.
....अब संघ संप्रदायी वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्वतंत्रता का नहीं किसी के भी ईश्वर की निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन करने के लिए नहीं बनाए थे। लेकिन मंदिर बनानेवालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेस्त्रर के मंदिर सबके लिए और धर्म के लिए बनाए। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़िए इन मंदिरों को और हमारे पौराणिक साहित्य को। कभी सोचा है अरुण जेटली! कि महादेव का ज्योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्थापित किया जाता है वह किसकी प्रतीक है? क्या हिंदुओं के धर्म और देवी देवताओं को सामी और संगठित इस्लाम या ईसाइयत समझ रखा है जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो? थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो!
अशोक वाजपेयी लिखते हैं
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस संघर्ष में एक बात और गौरतलब है, चाहे हुसेन द्वारा चित्रित सरस्वती या भारत माता हो, बड़ोदरा के चंद्रमोहन द्वारा बनाई दुर्गा और ईसा मसीह की छबियां, इन सभी को शु;द्ध अभिधा की तरह देखा-पढ़ा जा रहा है। सारी कला को निरा अमिधा में घटा देना और उसके व्यंजित आशय की अनदेखी करना ठीक से देखने समझने की असमर्थता प्रकट करता है। सारी कला को मात्र प्रतिनिधित्व करनेवाली कला मानना उसके कई शक्तियों और अभिप्रायों को हाशिये पर धकेलना है। विषय, किसी भी कृति का विषय उसका आशय नहीं होता, पूरा आशय तो किसी भी तरह से नहीं। सारी कला को उसके विषय तक महदूद करना कला को हाशिये पर करना है। अमिधा से आतंकित शक्तियां दरअसल एक तरह के सांस्कृतिक आतंकवाद का संस्करण हैं जो दो अर्थों में कलाकृति को नष्ट करते हैं : उसे भौतिक रूप से ध्वस्त-नष्ट करके या फाड़कर या उस पर रंग या कीचड़ फेंककर । दूसरा उसके कलात्मक गुणों की पूरी तरह से अनदेखी कर उसे सिर्फ विषय मानकर उसके सारे अन्य अर्थों को तिरोहित करने की चेष्टा करते हुए।
प्रभाष जोशी लिखते हैं
.
....अब संघ संप्रदायी वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्वतंत्रता का नहीं किसी के भी ईश्वर की निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन करने के लिए नहीं बनाए थे। लेकिन मंदिर बनानेवालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेस्त्रर के मंदिर सबके लिए और धर्म के लिए बनाए। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़िए इन मंदिरों को और हमारे पौराणिक साहित्य को। कभी सोचा है अरुण जेटली! कि महादेव का ज्योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्थापित किया जाता है वह किसकी प्रतीक है? क्या हिंदुओं के धर्म और देवी देवताओं को सामी और संगठित इस्लाम या ईसाइयत समझ रखा है जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो? थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो!
Thursday, May 17, 2007
प्रतिध्वनि
भाई परमजीत जी ! देश और समाज के प्रति आपकी भावनाओं का आदर करते हुए यह कहना चाहूंगा कि आप विक्रमजी के लेख के मर्म से चूक गए। इसमें कही नहीं कहा गया है कि कलाकारों को देश और समाज को गाली देने लगना चाहिए। लेकिन यह ठेका किसी व्यक्ति या कुछ शोहदों को क्यों मिले कि वह तय करें कि देश के लिए क्या ठीक है और समाज को क्या करना चाहिए। यहं बात किसी पेंटिंग तक सीमित तक नहीं है यह उस प्रवृति को रेखांकित करती है जो हमें यथास्थिति में जकड़े रहना चाहती है। कल्पना और कला ही वह ताकत है जो हमें इन घेरों से बाहर निकालने में मदद करती है और अगर वह मनुष्य के पास नहीं होती तो शायद हम आज भी कंदराओं और गुफाओं में रह रहे होते। आमीन
भाई लेख तो बहुत अच्छा है लेकिन क्या कलाकार का कोई कर्तव्य नही होता अपनें देश के प्रति? क्या उसे यह ध्यान नही रखना चाहिए कि जो वह कला प्रदर्शित कर रहा है उस से देश मे रहने वालो की भावनाएं तो कही आहत नही होगी? सच्चा कलाकार सत्य का दर्शन तो कराता है लेकिन उसे भी अपनी कला प्रदर्शित करते समय इस मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए।
परमजीत बाली
भाई लेख तो बहुत अच्छा है लेकिन क्या कलाकार का कोई कर्तव्य नही होता अपनें देश के प्रति? क्या उसे यह ध्यान नही रखना चाहिए कि जो वह कला प्रदर्शित कर रहा है उस से देश मे रहने वालो की भावनाएं तो कही आहत नही होगी? सच्चा कलाकार सत्य का दर्शन तो कराता है लेकिन उसे भी अपनी कला प्रदर्शित करते समय इस मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए।
परमजीत बाली
Wednesday, May 16, 2007
कला और धर्म
के बिक्रम सिंह वस्तुत: फिल्मकार हैं। फिल्मों के अलावा अन्य कला रूपों एवं सम सामयिक विषयों पर उनकी बेबाक टिप्पणियां जनसत्ता में हम बिंब प्रतिबिंब नामक उनके स्तंभ में नियमित रूप से पढ़ते रहे हैं। पिछले दिनों बड़ौदा में कला के विद्यार्थी चंद्रमोहन की एक पेंटिंग को लेकर बवाल मचा। कट्टरपंथियों ने उन पर हमला बोला ही गुजरात पुलिस ने उन्हें हवालात में बंद कर दिया। वहीं घिसा-पिटा तर्क कि इससे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है। ... धर्म की आड़ लेकर कलाकारों पर किये जा रहे हमले के संदर्भ में उन्होंने कला और धर्म के विकास पर विचार किया है। प्रस्तुत है उसके कुछ अंश:
मैंने जानबूझकर धर्म की बजाय मजहब शब्द का इस्तेमाल किया है , क्योंकि धर्म शब्द का अर्थ व्यापक है। मजहब के अलावा धर्म को कर्तव्य के अर्थ में भी इस्तेमाल किया जाता सकता है जैसे महाभारत मंे भीष्म पितामह ने कौरवों का साथ देने के लिए धर्म का हवाला दिया था। भीष्म पितामह यह जानते थे कि न्याय और अन्याय की इस लड़ाई में न्याय पांडवों के साथ है, लेकिन उनका कर्तव्य कौरवों के राज्य की रक्षा करना था, क्योंकि वे उसी राज्य के सेवक थे और उसी का उन्होंने नमक खाया था।
....(यहां कुछ विवरण छोड् दिया गया है)यह तो सभी जानते हैं कि धर्म यानी मजहब और कला का पुराना रिश्ता है। चाहे वह इटली के पुनर्जागरण के समय की कला हो, अजंता कक भित्ति चित्र की कला हो या फिर मंदिरों की मूर्तिकला। इन सभीका एक स्रोत धर्म रहा है। धर्म की छत्रछाया में ही ये सभी पली हैं। लेकिन यह भी मानना होगा कि कम से कम शुरुआती दौर में धर्म को भी कला की उतनी ही आवश्यकता थी जितनी कला को धर्म की। प्रोफेसर वाइटहेड के अनुसार जब धर्म मानव इतिहास में अवतरित होता है तो उसके चार रूप नजर आते हैं। ये रूप हैं - रीति संस्कार, भावना, विश्वास और औचित्य स्थापन। साधारणतया यह माना ही जाता है कि सृष्टि के कम से कम दो रूप हैं - दृश्य और अद्श्य। जा दृश्य है वह भले ही हम समझ न पाएं, लेकिन कम से कम उसे देख सकते हैं। अदृश्य को सभ्यता के शुरुआती दौर में न देखा जा सकता था और न ही समझा। जिसे हम समझ नहीं पाते, लेकिन किसी तरह महसूस कर सकते हैं उससे या तो भय की उत्पति होती है या आश्चर्य की। आदि मानव की यही दो प्रधान भावनाएं थीं। भय से धर्म का जन्म हुआ और आश्चर्य से कला का।
अपने भय पर काबू पाने के लिए और उन शक्तियों का संरक्षण पाने के लिए, जिससे वह डरता था उसने रीति यानी रिचुअल का सहारा लिया, इस आशा से कि इनके द्वारा वे शक्तियां उससे प्रसन्न रहेंगी और उनकी कृृपा मनुष्य पर बनी रहेगी। लेकिन रीति के लिए प्रतीक और संगीत की आवश्कता थी और इसलिए उसने धर्म को संगीतकार और कलाकार की जरूरत पड़ी। रीति पालन करते-करते एक नई बात पैदा हुई। कला के जोड़ के कारण मनुष्य को इसमें अनंद का अनुभव होने लगा। अब रीति पालन दैवीय शक्तियों का अनुकुल बनाने के लिए आवश्यक नहीं रह गया, आनंद प्राप्ति का एक जरिया भी बन गया। शायद इसी आनंद भावना के कारण नृत्य, नाटक, मूर्तिकला, और चित्रकला की शुरुआत स्वतंत्र कलाओं के रूप में हुई जो अब धर्म के ऊपर पूर्णत: निर्भर नहीं थीं। इस तरह से यह कहा गया जा सकता है कि बाद में कला की स्वतंत्र स्थापना हुई।
जैसे-जैसे मजहब संगठित होता गया और उसकी जकड़ समाज पर बढ़ती चली गई वैसे-वैसे मनुष्य का निजी जीवन और सामाजिक आचरण दोनों धर्म की गिरफ्त में आते चले गये। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कोई फर्क नहीं रहा। दरअसल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धरणा प्रजातंत्र के आने के बाद ही उभर कर आई। तब भी बहुत अरसे तक इंसान का व्यक्तिगत जीवन धर्म के बताए हुए रास्ते पर ही चलता रहा।
हमारे समय की स्थिति अब बिल्कुल है। लगभग सभी धर्म ईमानदारी, सौहार्द और अच्छे इंसान बनने यानी दूसरे लागों का भला करने का सबक सिखाते हैं। लेकिन अब हमारे निजी जीवन में इन चीजों की कोई बाकी जगह नहीं रही है। पूंजीवाद की शिक्षा कुछ अलग है। व्यापार बढ़ाओ, धन कमाओ, और सबसे आगे बढ़कर चलो, चाहे इसके लिए तुम्हें औरों को कुचलकर आगे बढ़ना पड़े। दूसरों के साथ अपना धन बांटने में कोई अच्छाई नहीं है। तुम जितना ज्यादा धन अपने ऊपर व्यय करोगे उतने ही बड़े आदमी बनोगे।
एक संकीर्ण तबके के लिए धर्म अब जातीय चिह्न मात्र बन कर रह गया है, जो हमें एक-दूसरे से अलग करता है और जिसके झंडे के नीचे एकत्रित होकर हम दूसरों पर हमला कर सकते हैं। इसमें दूसरों से बचाव की भावना कम है और और आक्रमण की भावना अधिक । विडंबना यह है कि झंडे के नीचे इकट्ठा होने के लिए हर इंसान को अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छोड़कर एक ही तरह का व्यवहार करना पडेगा। इसलिए धर्म के ठेकेदारों को कलाकार की स्वतंत्रता नामंजूर है क्योंकि कलाकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रतीक है। वह धर्म के प्रतीकों को अपनी ऐतिहासिक धरोहर के तौर पर स्वीकार तो करता है, परंतु उन प्रतीकों से कलात्मक ढंग से खेलने का अधिकार छोड़ना नहीं चाहता। और छोड़े भी क्यों, आखिर ये प्रतीक उसी के पूर्वजों ने बनाए हैं और हिंदू धर्म में तो इन प्रतीकों के कितने रूप हैं। चाहे शिव हो या हनुमान या फिर गणेश हो या विष्णु, इनके अनेक रूप हैं तो इनका एक और रूप क्यों नहीं हो सकता।
यही बात उन प्रतीक चिह्नों पर भी लागू होती है जो धार्मिक तो नहीं हैं, लेकिन लगभग धार्मिक हैं जैसे भारत माता। आधुनिक युग में भारत माता का पहला चित्र अबनींद्रनाथ ने बनाया था। हुसेन के चित्र भारत माता` को लेकर जो विवाद चल रहा है इस बारे में 'सहमत` ने दिल्ली के प्रेस क्लब में इसी सप्ताह एक प्रेस कांफ्रेंस की थी। (जिसमें यह तर्क दिया गया कि चित्र को यह शीर्षक हुसेन ने नहीं बल्कि एक आर्ट गैलरी ने दिया था) के बिक्रम लिखते हैं कि अगर यह नाम हुसेन ने स्वयं भी दिया होता तो यह विवाद का कारण क्यों बनना चाहिए! जब हम भारत को भारत माता के रूप मं श्रद्धेय मानते हैं तो उसका चित्रण स्त्री के आकार में करना क्या गुनाह है! मान लिया, स्त्री का आकार इस चित्र में निर्वस्त्र है, लेकिन उसमें कहीं कामुकता या अश्लीलता नजर नहीं आती । एक और दृष्टि से देखें तो तो हम सबने बचपन में अपनी मां को कमोबेश निर्वस्त्र रूप में देखा ही है। स्त्री का हर निर्वस्त्र रूप कामुकता का द्योतक नहीं है और न ही निरादर का।
दरअसल, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी लोग और कलाकार जो आजकल बाजार में व्यस्त हैं, यह लड़ाई आधे मन से लड़ रहे हैं। कट्टरवादी धार्मिक संस्थाएं और राजनीतिक दल खुल्लम-खुल्ला यह कोशिश कर रहे हैं कि भारतीय समाज मंे कलाकार की स्वतंत्रता तो अलग व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भी गूंजाइश नहीं है। बुद्धिजीवियों और कलाकारों को यह लड़ाई जीतनी है तो उन्हें इस लड़ाई में सक्रिय रूप से शामिल होना पड़ेगा और इसे संपूर्ण राजनीतिक शस्त्रों से लड़ना पड़ेगा। क्या हमारे कलाकार इसके लिए तैयार हैं? यदि नहीं तो हुसेन और चंद्रमोहन के बाद उनका नंबर भी जरूर आएगा या फिर वे विहिप और भाजपा की आज्ञा लेने के बाद अपनी कला का सृजन करेंगे?
Sunday, May 13, 2007
शिक्षा में समरहिल का हस्तक्षेप
पिछले वर्षो में शिक्षा पर कुछ सार्थक बहसें हुई हैं। इसी दौर में राज्यपोषित साक्षरता और सर्वशिक्षा अभियान जैसे बड़े प्रकल्प हाथ में लिए हैं और कहीं-कहीं कुछ हद तक समाज की भागीदारी भी बढ़ी है। कुछ स्वैच्छिक समूहों ने कोरी बहसों से इतर जमीनी प्रयोग किए हैं और नए विकल्प भी खड़े किए हैं। इनमें एकलव्य, बोध, विद्याभवन, प्रथम आदि कई महत्वपूर्ण नाम हैं। इन संस्थाओं ने जमीनी काम के अपने अनुभव के दस्तावेज तो उपलब्ध तो कराए ही हैं शिक्षा के मामले में विश्व के दूसरे हिस्सों में किए गए प्रयोगों से भी हमारा परिचय कराया है। इस सिलसिले में एकलव्य द्वारा 'समरहिल` का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित करना एक महत्वपूर्ण घटना है। शिक्षा पर शास्त्रीय रचनाओं को हिन्दी में उपलब्ध कराना, एकलव्य का एजेंडा में शामिल रहा है। लेकिन जॉन होल्ट की किताब 'बच्चे असफल कैसे होते हैं` के प्रकाशन के लंबे इंतजार के बाद इस श्रृंखला में यह किताब आई है।
यह किताब दरअसल एक नवाचारी स्कूल 'समरहिल` की कहानी है। इसे ए.एस.नील और उनकी पत्नी फ्रा न्यूस्टैटर ने १९२१ में जर्मनी में इसे शुरू किया था। लेकिन यह कोशिश सफल नहीं हुई। अंतत: १९२३ में यह इंग्लैंड के सफोल्फ क्षेत्र में लंदन से करीब सौ मील दूर एक गांव मंंे स्थापित हुआ और अभी तक चल रहा है। अब इसका काम नील और फ्रा की बेटी जोई देखती हैं। संयोग से ए.एस नील का सामय भी वही दौर है जब भारत में महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, जे.कृष्णमूर्ति और गीजूभाई वधेका ने शिक्षा को लेकर कई तरह के प्रयोग किए। नील के काम पर मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के चिंतन का स्पष्ट असर दिखता है। उनके चिंतन में सेक्स और दमन मुख्य कारक है।
समरहिल की यह कहानी ए.एस.नील के चालिस वर्षों के शैक्षिक अवलोकन व प्रयोग का दस्तावेज है। यह एक तरह से रोज बच्चों की विभिन्न समस्याओं से जूझते हुए उनकी आजादी और स्वतंत्र व्यक्तित्व को सुरक्षित रखने की कहानी है। इस दौराने वे बच्चों, अभिभावकों, प्रशासकों और सामाजिक मान्यताओं व मूल्यों का धीरज से सामना करते हुए बिना सिकन के अपना काम जारी रखते हैं। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं था। वे कहते हैं ''समरहिल को चलाना हमेशा से ही कुछ कठिन रहा है। ऐसे माता-पिता कम ही हैं जिनमें इतना धीरज या विश्वास हो कि अपने बच्चे को एक ऐसे स्कूल में भेजें जहां पढ़ने के विकल्प के रूप में वे खेलें। वे यह सोचकर वे थर्राते हैं कि कहीं इक्कीस का होने के बाद भी उनका बेटा गुजारा करने भर न कमा पाए।`` हमारे समय और समाज में अभी भी ऐसे नवाचारी काम के लिए यह चुनौती खत्म नहीं हुई है।
नील बच्चों का वैसे ही बयान करते हैं जैसे वे होते हैं वैसा नहीं जैसा वयस्क चाहते हैं। स्वशासन, शिष्टाचार, सहशिक्षा, काम, खेल, नाटक, संगीत, धर्म, सेक्स, भय, हीनभावना, कल्पनालोक, झूठ, आज्ञापालन, सज़ा, टट्टी-पेशाब का प्रशिक्षण, खिलौने, पैसा, गालियां बकना, यौन निर्देश, समलैंगिकता, हस्तमैथुन, चोरी ऐसी अनेकों बाते हैं जो बच्चों के अभिभावकों को दिन-रात परेशान रखती हैं, विभिन्न संदर्भों में नील इनका विश्लेषण करते हैं और बच्चों के साथ हुए वास्तविक अनुभवों को सिलसिलेवार रखते हैंं।
नील कई उदाहरण देकर यह साबित करते हैं कि बच्चों में समस्या या आदतें (बुरी) उनके परिवेश और परिवार के प्रति प्रतिक्रियाएं हैं जो दमन की वजह से मौके पर अभिव्यक्त नहीं हो पाई हैं। सिर्फ बच्चे पर काम करके उनसे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। वे कहते हैं दमन हमेशा अवज्ञा जगाता है। स्वभाविक है कि अवज्ञा बदले की भावना पैदा करती है। अगर हमें अपराध खत्म करने हैं तो हमें वे सब चीजेें खत्म करनी होंगी जो बच्चों में बदला लेने की इच्छा जगाती हैं। बचपन की अधिकांश समस्याओं का समाधान ऐसे प्रेममय वातावरण से ही हो सकता है जिसमें माता-पिता का अनुशासन न हो। मैं चाहता हूं कि यह बात भी सभी माता-पिता समझें। अगर उनके बच्चों को घर में प्यार और अनुमोदन का वातावरण मिलेगा तो बदमिजाजी, घृणा और नष्ट करने की इच्छा कभी नहीं जन्मेंगी।
बच्चों में बेईमानी को, बदमाश दोस्तों की साहबत, फिल्मों की ंहिंसा का प्रभाव या पिता के सेना में होने से नियंत्रण में कमी आदि बताए जाने को वे भूल मानते हैं। उनका कहना है कि जो बच्चा घर में प्रेम और प्रशंसा के साथ पलता है, सेक्स के प्रति जिसका दृष्टिकोण सहज रूप से विकसित हो पाता है, उन पर इन तमाम कारणों का असर सीमित या न के बराबर पड़ता है। अंतत: वे कहते हैं कि समूची मानवता इसी आस पर टिकी है कि अगर माता-पिता सजग हों और बच्चों के मुक्ति, ज्ञान और प्रेम की दिशा मंे बढ़ाने के पक्ष में हों तो वे जो कुछ करेंगे वह उनके हित मंे ही होगा।
नील का मानना है कि जीवन का लक्ष्य है आनंद हासिल करना। इसका अर्थ है (उन्हें आनंदमार्गी न समझा जाए) अपनी वास्तविक रुचि को तलाश पाना। शिक्षा (का लक्ष्य) जीवन की तैयारी होनी चाहिए। हमारी संस्कृति उतनी सफल नहीं रही है। हमारी शिक्षा राजनीति और अर्थव्यवस्था युद्ध की ओर ले जाती है। हमारी औषधियों से रोग समाप्त नहीं हुआ है। हमारे धर्म ने सूदखोरी और चोरी खत्म नहीं की है। जिस मानवतावाद का हम इतना बखान करते हैं वह आज भी आम जनता को शिकार जैसे बर्बर खेल की स्वीकृति देता है...। इन पंक्तियों के जरिये वह शिक्षा के प्रति अपने नजरिए को स्पष्ट करतेे हैं। सूचनाओं से लाद देनेवाली वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के उत्पादों पर वह कड़ी प्रतिक्रिया करते हैं - ये विद्यार्थी बहुत कुछ जानते हैं उनकी अभिव्यक्ति और तर्कशक्ति अच्छी होती है। वे तमाम पोथों को उद्धृत करते हैं। पर जीवन के प्रति उनका नजरिया बच्चों जैसा होता है। क्योंकि उन्हें सिर्फ जानना सिखाया जाता है महसूस करना नहीं।....``
आजादी, स्व-नियंत्रण और प्रेम पर आधारित समरहिल के नियम-कानून और व्यवस्थाओं पर पूरा नियंत्रण बच्चों का होता है। कठिन परिस्थितियों में ही बच्चे शिक्षकों की मदद लेते हैं। इस स्कूल में बच्चे और शिक्षक का मत बराबर है। नील अपने विस्तृत व्योरे से स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि स्व-नियंत्रण से कभी किसी मनुष्य का नुकसान नहीं हुआ। उनका मानना है कि बचपन की स्वाभाविक रुचियों के दमन के कारण मनुष्य में कुंठाएं और नफरतें बसती हैं जो संसार की अमानवीयता और क्रूरता का कारण हैं। समरहिल में बच्चों को कुंठा और दमन से मुक्त रखने की काशिश होती है।
बच्चों के बारे में नील का सूक्ष्म अवलोकन है। उनका मानना है कि बच्चों में वास्तविकता और काल्पनिक जगत काफी आस-पास होते हैं। उनकी रुचियां तात्कालिक होती हैं और भविष्य का अस्तित्व होता ही नहीं है। सामुदायिक और सामाजिक जिम्मेवारी की भावना अठारह की उम्र से पहले विकसित नहीं होती। इसलिए भविष्य से डरे हुए अभिभावक बच्चों को उत्तरदायी बनाने के चक्कर में उनका बचपन तो नष्ट करते ही हैं आगे के जीवन पर भी प्रश्न चिह्न खड़े कर देते हैं। इस किताब में ऐस बच्चों और अभिभावकों से कई रोचक मुठभेड़ें हैंं।
आखिर नील बच्चों के साथ क्या करते हैं? क्या वे मनोचिकित्सक हें? इस प्रश्न का उत्तर वह खुद ही देते हैंै- मैंने धीरे-धीरे पाया कि मेरा क्षेत्र, इलाज न होकर, रोगनिरोध का है। इसका पूरा अर्थ समझने में मुझे सालों लगे। तब पता चला कि समरहिल में आनेवाले बच्चे इलाज की वजह से नहीं बल्कि आजादी की वजह से सुधरते हैं। मैंने पाया कि मेरा मुख्य काम चुपचाप बैठै रहकर उस सबका अनुमोदन करना है जिसे जिसे बच्चा अपनी कमी मानकर नफरत करता है। अर्थात मुझे बच्चे पर लादे गए उस विवेक को तोड़ना है जो उसमें खुद के प्रति नफरत जगाता है।``
आजादी और स्व-अनुशासन की बात करते हैं हुए वे काफी सजग हंैं - मैं साफ कर दूं कि मैं स्वेच्छाचारिता का हिमायती नहीं हूं। पूरी आजादी जैसी कोई चीज नहीं होती। न ही किसी इंसान को पूरी सामाजिक आजादी रहती है क्योंकि हरेक को दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना पड़ता है। परंतु व्यक्तिगत आजादी सबको मिलनी चाहिए। समरहिल मंे बच्चे को हमेशा मनचाहा करने के बारे में छूट नहीं मिलती। बच्चों द्वारा बनाये गए नियम ही उन्हें सीमा में बांधते हैं। उसे केवल वही चीजें अपनी मर्जी से करने दी जाती हैं जो केवल उसे प्रभावित करती हैं, किसी दूसरे को नहीं। यानी वह चाहे तो दिन भर खेल सकता है क्योंकि खेलना या पढ़ना उसका मामला है लेकिन क्लास में वह पुंगी नहीं बजा सकता क्योंकि उसका ऐसा करना दूसरों को भी प्रभावित करेगा।
आमतौर पर स्व-अनुशासन अर्थ वयस्कों द्वारा लादे गए नैतिक विचारों के अनुसार खुद को अनुशासित करना ही समझा जाता है। लेकिन वास्तविक स्व-अनुशासन में न तो दमन होता है न ही दूसरे के विचारों की स्वीकृति। उसमें दूसरों की खुशी और अधिकारों का पर्याप्त सम्मान होता है। यह व्यक्ति को उस दिशा में ले जाता है जहां वह दूसरों के नजरिए के सम्मान में कुछ चीजें समझ-बूझकर त्यागता है, ताकि वह सबके साथ शांति से रह सके।
नील अपने अवलोकन और व्याख्या में कई अवधारणाओं को नया प्रकाश देते हैं। परंतु 'यही` और बस 'इतना` ही का नुस्खा नहीं देते। उनका जोर परिस्थिति, परिवेश और बच्चे के अवलोकन पर है। उनकी शिक्षा दृष्टि और स्कूल की क्रांतिकारी अवधारणा न केवल उस समय बल्कि आज भी कई रूपों में शिक्षा मंे प्रयोग करनेवालों के लिए चुनौती है। क्योंकि इस प्रक्रिया में शिक्षक व अभिभावक का विवेक बहुत महत्वपूर्ण है। नील की पद्धति शिक्षकों अभिभावकों से असीम धीरज और कौशल की मांग करती है। आज की फटाफट उत्पादवाली शिक्षा शैली से अलग इसमें बच्चे की रुचि और दिशा विकसित होने का इंतजार किया जाता है। उसको महसूस करने की कोशिश होती है। वह कहते हैं, ''इस प्रक्रिया में शिक्षक का काम दरअसल बड़ा आसान है उसे बस इतना भर पता करना है कि बच्चे की रुचि कहां है और तब उस रुचि को जीने का उसे भरपूर मौका देना है। किसी रुचि को दबाने, उसे चुप कर देने से रुचि मरती नहीं, सिर्फ सतह के नीचे दब जाती है।``
समरहिल का लक्ष्य एक खुशहाल निद्वंद्व रचनात्मक इंसान है। मोटी तनख्वाह पर उबाऊ काम में जीवन नष्ट करनेवाले, छद्म जीवन जीनेवाले इंसान नहीं। समरहिल से निकलनेवाले लड़के मोटर मैकेनिक भी हैं और चिकित्सक भी, इसे उन्होंने अपनी रुचि से चुना है और इसको वे भरपूर आनंद से जीते हैं। उनके लिए कोई नामचीन पेशा नहीं बल्कि उस काम से मिलनेवाला आनंद महत्वपूर्ण है।
धर्म पर अपनी संक्षित्प टिप्पणी में वे कहते हैं, धर्म को इसलिए दूर रखूंगा क्योंकि धर्म सिर्फ बोलता है, उपदेश देता है भावनाओं का शुद्धीकरण और दमन करता है। धर्म पाप की कल्पना वहां करता है जहां दरअसल पाप न हो। वह स्वतंत्र इच्छाशक्ति को मानकर चलता है। जबकि कई बच्चे अपनी प्रवृतियों के इस कदर गुलाम होते हैं कि उनकी इच्छाशक्ति स्वतंत्र रह ही नहीं पाती।
किताब का अंतिम हिस्सा नील से विभिन्न मुद्दों पर लिए गए साक्षात्कार का है। इसको देखकर दुहराव का खयाल आता है। लेकिन बच्चों से जुड़े मुद्दे इतने नए परिवेश और परिप्रेक्ष्यों से आते हैं कि उनकी नविनता बरकरार रहती है और वह उन मुद्दों पर हमारे नजरिए को फिर से मांजते हैं। प्रश्नोंत्तर में नील का धीरज और बेबाकी साफ दिखते हैं -
प्र.एक शिक्षिका को क्या करना चाहिए जब बच्चा कक्षा में पेंसिल से खेल रहा हो
उ. पेंसिल यानी शिश्न। बच्चे के लिए शिश्न से खेलना निषिद्ध है। उपचार- अभिभावकों से कहें कि वे हस्तमैथुन पर से प्रतिबंध हटा दें।
नील अपनी जिरह में किसी भी वाद से अलग मनुष्य की स्वतंत्रता, स्व-अनुशासन और प्रेम को मूल्य की तरह अपनाते हैं और इसके खिलाफ किसी भी कोशिश को आड़े हाथ लेते हैं - मैंने अपने जीवन में दो भयावह युद्ध देखे हैं। संभव है कि मैं एक तीसरा और अधिक भयावह युद्ध भी देखूं। कई करोड़ नौजवान इन दो युद्धों में मरे हैं। १९१४ से १९१८ के बीच तमाम सैनिक उस साम्राज्यवादी युद्ध में खप रहे थे जो तमाम युद्धों को खत्म करने के नाम पर लड़ा गया। और दूसरे विश्वयुद्ध में वे फासीवाद को खत्म करने के नाम पर जान गंवा रहे थे। कल वे शायद साम्यवाद के दमन के नाम पर मरें। इसका मतलब यह है कि कुछ केन्द्रीय ताकतों के हुक्म पर लोग उन मुद्दों के नाम पर अपने और अपने बच्चों की आहूति दे डालते हैं, जो उनके व्यक्तिगत जीवन को छूते तक नहीं। .....हमें प्रशिक्षित किया गया है कि हम निरीह भाव से सत्तालोलुप समाज के अनुरूप ढालते चलें। अपने मालिक के हुकुम पर, उसके आदर्शोें के लिए जान गंवाने को तैयार रहें। ......``
हालांकि नील का काम करने का तरीका प्रभावशाली है फिर भी वह अपने प्रयोग को अंतिम नहीं मानते। वह विनम्रता से स्वीकारते हैं कि दुनिया को बेहतर शिक्षण पद्धति ढूंढनी ही होगी क्योंकि राजनीति मानवता को नहीं बचाएगी। उसने कभी यह किया ही नहीं। अधिकांश समाचार पत्रों में हमेंशा घृणा ही भरी रहती है। लोग साम्यवादी इसलिए हैं क्योंकि वे अमीरों से घृणा करते हैं, इसलिए नहीं कि वे गरीबों से प्यार करते हैं। कई जगहों पर ऐसी बेबाक टिप्पणियां हैं जो हमारे राजनीतिक, शैक्षणिक, नैतिक, धार्मिक आस्थाओं (जड़ताओं?) को झकझोरती हैं। हालांकि समरहिल स्कूल पुराना है और उस पर अंग्रेजी में लिखी पुस्तक भी कोई खास नई नहीं है लेकिन हिन्दी समाज और उसका पाठक वर्ग जिन प्रक्रियाओं से गुजर रहा है उसमें यह किताब शिक्षा पर हो रही बहसों को नया आयाम देगी। पूर्वा याज्ञिक के अनुवाद कौशल की बदौलत कई महत्वपूर्ण किताबें हिन्दी में संभव हुई हैं। उनकी खासियत यही है कि वे अनुवादपन को पास नहीं फटकने देतीं।
लालबहादुर ओझा
पुस्तक का नाम : समरहिल
लेखक : ए.एस.नील
हिन्दी अनुवाद : पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा
प्रकाशक : एकलव्य, एच.आई.जी. ४५३/ई-७, अरेरा कॉलोनी भोपाल (म.प्र.)।
मूल्य : ११० रुपए।
यह किताब दरअसल एक नवाचारी स्कूल 'समरहिल` की कहानी है। इसे ए.एस.नील और उनकी पत्नी फ्रा न्यूस्टैटर ने १९२१ में जर्मनी में इसे शुरू किया था। लेकिन यह कोशिश सफल नहीं हुई। अंतत: १९२३ में यह इंग्लैंड के सफोल्फ क्षेत्र में लंदन से करीब सौ मील दूर एक गांव मंंे स्थापित हुआ और अभी तक चल रहा है। अब इसका काम नील और फ्रा की बेटी जोई देखती हैं। संयोग से ए.एस नील का सामय भी वही दौर है जब भारत में महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, जे.कृष्णमूर्ति और गीजूभाई वधेका ने शिक्षा को लेकर कई तरह के प्रयोग किए। नील के काम पर मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के चिंतन का स्पष्ट असर दिखता है। उनके चिंतन में सेक्स और दमन मुख्य कारक है।
समरहिल की यह कहानी ए.एस.नील के चालिस वर्षों के शैक्षिक अवलोकन व प्रयोग का दस्तावेज है। यह एक तरह से रोज बच्चों की विभिन्न समस्याओं से जूझते हुए उनकी आजादी और स्वतंत्र व्यक्तित्व को सुरक्षित रखने की कहानी है। इस दौराने वे बच्चों, अभिभावकों, प्रशासकों और सामाजिक मान्यताओं व मूल्यों का धीरज से सामना करते हुए बिना सिकन के अपना काम जारी रखते हैं। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं था। वे कहते हैं ''समरहिल को चलाना हमेशा से ही कुछ कठिन रहा है। ऐसे माता-पिता कम ही हैं जिनमें इतना धीरज या विश्वास हो कि अपने बच्चे को एक ऐसे स्कूल में भेजें जहां पढ़ने के विकल्प के रूप में वे खेलें। वे यह सोचकर वे थर्राते हैं कि कहीं इक्कीस का होने के बाद भी उनका बेटा गुजारा करने भर न कमा पाए।`` हमारे समय और समाज में अभी भी ऐसे नवाचारी काम के लिए यह चुनौती खत्म नहीं हुई है।
नील बच्चों का वैसे ही बयान करते हैं जैसे वे होते हैं वैसा नहीं जैसा वयस्क चाहते हैं। स्वशासन, शिष्टाचार, सहशिक्षा, काम, खेल, नाटक, संगीत, धर्म, सेक्स, भय, हीनभावना, कल्पनालोक, झूठ, आज्ञापालन, सज़ा, टट्टी-पेशाब का प्रशिक्षण, खिलौने, पैसा, गालियां बकना, यौन निर्देश, समलैंगिकता, हस्तमैथुन, चोरी ऐसी अनेकों बाते हैं जो बच्चों के अभिभावकों को दिन-रात परेशान रखती हैं, विभिन्न संदर्भों में नील इनका विश्लेषण करते हैं और बच्चों के साथ हुए वास्तविक अनुभवों को सिलसिलेवार रखते हैंं।
नील कई उदाहरण देकर यह साबित करते हैं कि बच्चों में समस्या या आदतें (बुरी) उनके परिवेश और परिवार के प्रति प्रतिक्रियाएं हैं जो दमन की वजह से मौके पर अभिव्यक्त नहीं हो पाई हैं। सिर्फ बच्चे पर काम करके उनसे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। वे कहते हैं दमन हमेशा अवज्ञा जगाता है। स्वभाविक है कि अवज्ञा बदले की भावना पैदा करती है। अगर हमें अपराध खत्म करने हैं तो हमें वे सब चीजेें खत्म करनी होंगी जो बच्चों में बदला लेने की इच्छा जगाती हैं। बचपन की अधिकांश समस्याओं का समाधान ऐसे प्रेममय वातावरण से ही हो सकता है जिसमें माता-पिता का अनुशासन न हो। मैं चाहता हूं कि यह बात भी सभी माता-पिता समझें। अगर उनके बच्चों को घर में प्यार और अनुमोदन का वातावरण मिलेगा तो बदमिजाजी, घृणा और नष्ट करने की इच्छा कभी नहीं जन्मेंगी।
बच्चों में बेईमानी को, बदमाश दोस्तों की साहबत, फिल्मों की ंहिंसा का प्रभाव या पिता के सेना में होने से नियंत्रण में कमी आदि बताए जाने को वे भूल मानते हैं। उनका कहना है कि जो बच्चा घर में प्रेम और प्रशंसा के साथ पलता है, सेक्स के प्रति जिसका दृष्टिकोण सहज रूप से विकसित हो पाता है, उन पर इन तमाम कारणों का असर सीमित या न के बराबर पड़ता है। अंतत: वे कहते हैं कि समूची मानवता इसी आस पर टिकी है कि अगर माता-पिता सजग हों और बच्चों के मुक्ति, ज्ञान और प्रेम की दिशा मंे बढ़ाने के पक्ष में हों तो वे जो कुछ करेंगे वह उनके हित मंे ही होगा।
नील का मानना है कि जीवन का लक्ष्य है आनंद हासिल करना। इसका अर्थ है (उन्हें आनंदमार्गी न समझा जाए) अपनी वास्तविक रुचि को तलाश पाना। शिक्षा (का लक्ष्य) जीवन की तैयारी होनी चाहिए। हमारी संस्कृति उतनी सफल नहीं रही है। हमारी शिक्षा राजनीति और अर्थव्यवस्था युद्ध की ओर ले जाती है। हमारी औषधियों से रोग समाप्त नहीं हुआ है। हमारे धर्म ने सूदखोरी और चोरी खत्म नहीं की है। जिस मानवतावाद का हम इतना बखान करते हैं वह आज भी आम जनता को शिकार जैसे बर्बर खेल की स्वीकृति देता है...। इन पंक्तियों के जरिये वह शिक्षा के प्रति अपने नजरिए को स्पष्ट करतेे हैं। सूचनाओं से लाद देनेवाली वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के उत्पादों पर वह कड़ी प्रतिक्रिया करते हैं - ये विद्यार्थी बहुत कुछ जानते हैं उनकी अभिव्यक्ति और तर्कशक्ति अच्छी होती है। वे तमाम पोथों को उद्धृत करते हैं। पर जीवन के प्रति उनका नजरिया बच्चों जैसा होता है। क्योंकि उन्हें सिर्फ जानना सिखाया जाता है महसूस करना नहीं।....``
आजादी, स्व-नियंत्रण और प्रेम पर आधारित समरहिल के नियम-कानून और व्यवस्थाओं पर पूरा नियंत्रण बच्चों का होता है। कठिन परिस्थितियों में ही बच्चे शिक्षकों की मदद लेते हैं। इस स्कूल में बच्चे और शिक्षक का मत बराबर है। नील अपने विस्तृत व्योरे से स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि स्व-नियंत्रण से कभी किसी मनुष्य का नुकसान नहीं हुआ। उनका मानना है कि बचपन की स्वाभाविक रुचियों के दमन के कारण मनुष्य में कुंठाएं और नफरतें बसती हैं जो संसार की अमानवीयता और क्रूरता का कारण हैं। समरहिल में बच्चों को कुंठा और दमन से मुक्त रखने की काशिश होती है।
बच्चों के बारे में नील का सूक्ष्म अवलोकन है। उनका मानना है कि बच्चों में वास्तविकता और काल्पनिक जगत काफी आस-पास होते हैं। उनकी रुचियां तात्कालिक होती हैं और भविष्य का अस्तित्व होता ही नहीं है। सामुदायिक और सामाजिक जिम्मेवारी की भावना अठारह की उम्र से पहले विकसित नहीं होती। इसलिए भविष्य से डरे हुए अभिभावक बच्चों को उत्तरदायी बनाने के चक्कर में उनका बचपन तो नष्ट करते ही हैं आगे के जीवन पर भी प्रश्न चिह्न खड़े कर देते हैं। इस किताब में ऐस बच्चों और अभिभावकों से कई रोचक मुठभेड़ें हैंं।
आखिर नील बच्चों के साथ क्या करते हैं? क्या वे मनोचिकित्सक हें? इस प्रश्न का उत्तर वह खुद ही देते हैंै- मैंने धीरे-धीरे पाया कि मेरा क्षेत्र, इलाज न होकर, रोगनिरोध का है। इसका पूरा अर्थ समझने में मुझे सालों लगे। तब पता चला कि समरहिल में आनेवाले बच्चे इलाज की वजह से नहीं बल्कि आजादी की वजह से सुधरते हैं। मैंने पाया कि मेरा मुख्य काम चुपचाप बैठै रहकर उस सबका अनुमोदन करना है जिसे जिसे बच्चा अपनी कमी मानकर नफरत करता है। अर्थात मुझे बच्चे पर लादे गए उस विवेक को तोड़ना है जो उसमें खुद के प्रति नफरत जगाता है।``
आजादी और स्व-अनुशासन की बात करते हैं हुए वे काफी सजग हंैं - मैं साफ कर दूं कि मैं स्वेच्छाचारिता का हिमायती नहीं हूं। पूरी आजादी जैसी कोई चीज नहीं होती। न ही किसी इंसान को पूरी सामाजिक आजादी रहती है क्योंकि हरेक को दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना पड़ता है। परंतु व्यक्तिगत आजादी सबको मिलनी चाहिए। समरहिल मंे बच्चे को हमेशा मनचाहा करने के बारे में छूट नहीं मिलती। बच्चों द्वारा बनाये गए नियम ही उन्हें सीमा में बांधते हैं। उसे केवल वही चीजें अपनी मर्जी से करने दी जाती हैं जो केवल उसे प्रभावित करती हैं, किसी दूसरे को नहीं। यानी वह चाहे तो दिन भर खेल सकता है क्योंकि खेलना या पढ़ना उसका मामला है लेकिन क्लास में वह पुंगी नहीं बजा सकता क्योंकि उसका ऐसा करना दूसरों को भी प्रभावित करेगा।
आमतौर पर स्व-अनुशासन अर्थ वयस्कों द्वारा लादे गए नैतिक विचारों के अनुसार खुद को अनुशासित करना ही समझा जाता है। लेकिन वास्तविक स्व-अनुशासन में न तो दमन होता है न ही दूसरे के विचारों की स्वीकृति। उसमें दूसरों की खुशी और अधिकारों का पर्याप्त सम्मान होता है। यह व्यक्ति को उस दिशा में ले जाता है जहां वह दूसरों के नजरिए के सम्मान में कुछ चीजें समझ-बूझकर त्यागता है, ताकि वह सबके साथ शांति से रह सके।
नील अपने अवलोकन और व्याख्या में कई अवधारणाओं को नया प्रकाश देते हैं। परंतु 'यही` और बस 'इतना` ही का नुस्खा नहीं देते। उनका जोर परिस्थिति, परिवेश और बच्चे के अवलोकन पर है। उनकी शिक्षा दृष्टि और स्कूल की क्रांतिकारी अवधारणा न केवल उस समय बल्कि आज भी कई रूपों में शिक्षा मंे प्रयोग करनेवालों के लिए चुनौती है। क्योंकि इस प्रक्रिया में शिक्षक व अभिभावक का विवेक बहुत महत्वपूर्ण है। नील की पद्धति शिक्षकों अभिभावकों से असीम धीरज और कौशल की मांग करती है। आज की फटाफट उत्पादवाली शिक्षा शैली से अलग इसमें बच्चे की रुचि और दिशा विकसित होने का इंतजार किया जाता है। उसको महसूस करने की कोशिश होती है। वह कहते हैं, ''इस प्रक्रिया में शिक्षक का काम दरअसल बड़ा आसान है उसे बस इतना भर पता करना है कि बच्चे की रुचि कहां है और तब उस रुचि को जीने का उसे भरपूर मौका देना है। किसी रुचि को दबाने, उसे चुप कर देने से रुचि मरती नहीं, सिर्फ सतह के नीचे दब जाती है।``
समरहिल का लक्ष्य एक खुशहाल निद्वंद्व रचनात्मक इंसान है। मोटी तनख्वाह पर उबाऊ काम में जीवन नष्ट करनेवाले, छद्म जीवन जीनेवाले इंसान नहीं। समरहिल से निकलनेवाले लड़के मोटर मैकेनिक भी हैं और चिकित्सक भी, इसे उन्होंने अपनी रुचि से चुना है और इसको वे भरपूर आनंद से जीते हैं। उनके लिए कोई नामचीन पेशा नहीं बल्कि उस काम से मिलनेवाला आनंद महत्वपूर्ण है।
धर्म पर अपनी संक्षित्प टिप्पणी में वे कहते हैं, धर्म को इसलिए दूर रखूंगा क्योंकि धर्म सिर्फ बोलता है, उपदेश देता है भावनाओं का शुद्धीकरण और दमन करता है। धर्म पाप की कल्पना वहां करता है जहां दरअसल पाप न हो। वह स्वतंत्र इच्छाशक्ति को मानकर चलता है। जबकि कई बच्चे अपनी प्रवृतियों के इस कदर गुलाम होते हैं कि उनकी इच्छाशक्ति स्वतंत्र रह ही नहीं पाती।
किताब का अंतिम हिस्सा नील से विभिन्न मुद्दों पर लिए गए साक्षात्कार का है। इसको देखकर दुहराव का खयाल आता है। लेकिन बच्चों से जुड़े मुद्दे इतने नए परिवेश और परिप्रेक्ष्यों से आते हैं कि उनकी नविनता बरकरार रहती है और वह उन मुद्दों पर हमारे नजरिए को फिर से मांजते हैं। प्रश्नोंत्तर में नील का धीरज और बेबाकी साफ दिखते हैं -
प्र.एक शिक्षिका को क्या करना चाहिए जब बच्चा कक्षा में पेंसिल से खेल रहा हो
उ. पेंसिल यानी शिश्न। बच्चे के लिए शिश्न से खेलना निषिद्ध है। उपचार- अभिभावकों से कहें कि वे हस्तमैथुन पर से प्रतिबंध हटा दें।
नील अपनी जिरह में किसी भी वाद से अलग मनुष्य की स्वतंत्रता, स्व-अनुशासन और प्रेम को मूल्य की तरह अपनाते हैं और इसके खिलाफ किसी भी कोशिश को आड़े हाथ लेते हैं - मैंने अपने जीवन में दो भयावह युद्ध देखे हैं। संभव है कि मैं एक तीसरा और अधिक भयावह युद्ध भी देखूं। कई करोड़ नौजवान इन दो युद्धों में मरे हैं। १९१४ से १९१८ के बीच तमाम सैनिक उस साम्राज्यवादी युद्ध में खप रहे थे जो तमाम युद्धों को खत्म करने के नाम पर लड़ा गया। और दूसरे विश्वयुद्ध में वे फासीवाद को खत्म करने के नाम पर जान गंवा रहे थे। कल वे शायद साम्यवाद के दमन के नाम पर मरें। इसका मतलब यह है कि कुछ केन्द्रीय ताकतों के हुक्म पर लोग उन मुद्दों के नाम पर अपने और अपने बच्चों की आहूति दे डालते हैं, जो उनके व्यक्तिगत जीवन को छूते तक नहीं। .....हमें प्रशिक्षित किया गया है कि हम निरीह भाव से सत्तालोलुप समाज के अनुरूप ढालते चलें। अपने मालिक के हुकुम पर, उसके आदर्शोें के लिए जान गंवाने को तैयार रहें। ......``
हालांकि नील का काम करने का तरीका प्रभावशाली है फिर भी वह अपने प्रयोग को अंतिम नहीं मानते। वह विनम्रता से स्वीकारते हैं कि दुनिया को बेहतर शिक्षण पद्धति ढूंढनी ही होगी क्योंकि राजनीति मानवता को नहीं बचाएगी। उसने कभी यह किया ही नहीं। अधिकांश समाचार पत्रों में हमेंशा घृणा ही भरी रहती है। लोग साम्यवादी इसलिए हैं क्योंकि वे अमीरों से घृणा करते हैं, इसलिए नहीं कि वे गरीबों से प्यार करते हैं। कई जगहों पर ऐसी बेबाक टिप्पणियां हैं जो हमारे राजनीतिक, शैक्षणिक, नैतिक, धार्मिक आस्थाओं (जड़ताओं?) को झकझोरती हैं। हालांकि समरहिल स्कूल पुराना है और उस पर अंग्रेजी में लिखी पुस्तक भी कोई खास नई नहीं है लेकिन हिन्दी समाज और उसका पाठक वर्ग जिन प्रक्रियाओं से गुजर रहा है उसमें यह किताब शिक्षा पर हो रही बहसों को नया आयाम देगी। पूर्वा याज्ञिक के अनुवाद कौशल की बदौलत कई महत्वपूर्ण किताबें हिन्दी में संभव हुई हैं। उनकी खासियत यही है कि वे अनुवादपन को पास नहीं फटकने देतीं।
लालबहादुर ओझा
पुस्तक का नाम : समरहिल
लेखक : ए.एस.नील
हिन्दी अनुवाद : पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा
प्रकाशक : एकलव्य, एच.आई.जी. ४५३/ई-७, अरेरा कॉलोनी भोपाल (म.प्र.)।
मूल्य : ११० रुपए।
Wednesday, May 9, 2007
इकबाल अहमद
इकबाल अहमद जैसे लोग दुनिया में विरले ही होते हैं। उनकी मृत्यु कैंसर से 1999 में हुई थी। मृत्यु के सात साल बाद उनकी हाल में एक किताब आयी है। किताब का शीर्षक है दि सिलेक्टेड राइटिंग्सस ऑफ इकबाल अहमद, जिसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस ने छापा है। यह उनका लेख संग्रह है। किताब की भूमिका लिखी है प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक व लेखक नोआम चॉम्स्की ने और इसे संपादित किया है कैरोली बेंगेल्सडॉर्फ, मार्गरेट सेरूलो और योगेश चंद्रानी ने। इस पुस्तक में भारत, पाकिस्तान, फलस्तीन, इजराइल, कश्मीर सहित पूरी दुनिया के हालात पर लेख शामिल हैं। यह पुस्तक अब भारत और पाकिस्तान में उपलब्ध है।
इकबाल अहमद बिहार के रहने वाले थ्ो। बंटवारे के वक्त वह अपने भाई सहित दिल्ली में परिवार से बिछुड़ गये और पाकिस्तान पहुंच गये। गांव में ज़मीन के झगड़े के कारण उनकी आंखों के सामने ही उनके पिता की हत्या कर दी गयी थी। शायद यही वजह थी जिसने उन्हें अहिंसा की विचारधारा की तरफ मोड़ दिया। उन्हें अमन का झंडाबरदार और नागरिक स्वतंत्रता का पैरोकार बना दिया। वह अंत तक इन्हीं सिद्धांतों के लिए लड़ते रहे और उन्हें जेल में भी डाला गया। वह ज़िन्दगी भर दुनिया के फौजी तानाशाहों, मजहबी अतिवादियों, आतंकवादियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे। वह सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष थे।
उपनिवेशवाद विरोधी बुद्धिजीवियों में इकबाल अहमद (1933-1999) की जगह अहम है। हालांकि एडवर्ड सईद की ओरिएंटलिज्म की तरह उनकी कोई चर्चित पुस्तक नहीं है, फिर भी पश्चिम से लेकर पूर्व तक न केवल तीसरी दुनिया के अतिवादी विचारक बल्कि उनके विरोधी भी उनको आदर की दृष्टि से देखते हैं।
इकबाल हालांकि कल्पना की उड़ान भरने और महाद्वीप की सीमाओं से परे जाकर दो अलग-अलग विषयों के आपसी सूत्र तलाशने में माहिर थे, फिर भी वह अपने वक्तव्यों के लिए ज्यादा जाने जाते हैं। इकबाल अहमद एक ऐसे विचारक थे, जो ताउम्र मार्क्सवादी तो रहे लेकिन अपने तरीके से। आशीष नंदी ने उन्हें एक ऐसे लेनिनवादी के रूप में देखा है, जो आधे-अधूरे मार्क्सवादी थे। आगे चलकर उन्होंने पहली दुनिया अर्थात अमेरिका, जहां उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया, के ज्यादातर सृजनशील मार्क्सवादियों की तर्ज पर लेनिनवाद की छाया से बाहर निकलने का प्रयास किया।
इकबाल को अपनी किशोरावस्था में ही भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी से रूबरू होना पड़ा। विभाजन काल के रक्तरंजित माहौल में वह कुछ खास तरह के निष्कर्षों तक पहुंचे। रवींद्रनाथ टैगोर, जिन्हें वह एक कवि व विचारक के रूप में काफी सम्मान देते थे, की तरह ही वह समझते थे कि भारत के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में राष्ट्रवादी विचारधारा को अलग दृष्टि से देखना चाहिए।
इसी को स्पष्ट करते हुए सन 2000 में प्रकाशित डेविड बार्सेमियन के साथ साक्षात्कारों की एक सीरीज़ में उन्होंने कहा था, हम पश्चिमी साम्राज्यवाद को नकारते तो हैं, लेकिन इसी के साथ ही हम पश्चिमी राष्ट्रीयता को स्वीकार करते हैं और उसे ग्रहण करते हैं।
आज भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से लेखक, जिनमें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन भी शामिल हैं, अहमद के इस कथन से कि राष्ट्रीयता विविधता की विचारधारा है, के प्रशंसक हैं। अपनी हाल की पुस्तक आइडेंटिटी एंड वायलेंस में अमर्त्य सेन भी इकबाल अहमद की तर्ज पर विविधतापूर्ण पहचान के स्थान पर राष्ट्रीयता की इकहरी पहचान थोपने पर सवाल उठाते हैं।
आज जब पूरी दुनिया को पूर्व और पश्िचम की अलग-अलग संस्कृतियों के आधार पर विभाजित करने के लिए नित नये मिथक गढ़े जा रहे हैं, इकबाल अहमद का यह सोचना अक्षरश: प्रासंगिक है कि पूर्व और पश्िचम के बीच का विभेद जान-बूझ कर कुछ राजनीतिक और आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए पैदा किया जा रहा है।
राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के आदेश पर जब अमेरिकी सेनाओं ने 1998 में अफगानिस्तान और सूडान में बमबारी करना शुरू किया, तो उस दौरान उन्होंने आसन्न संकट को समझते हुए चेतावनी दी थी, अमेरिका ने मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया में ज़हरीले बीज बो दिये हैं। यह बीज अब उग रहे हैं। कुछ पक चुके हैं, कुछ पकने को तैयार हैं। इस बात का परीक्षण जल्द ही होगा कि यह क्यों बोये गये, इनमें क्या उगा और वे उन्हें कैसे काटेंगे। मिसाइल से हर समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता।
ऊपर दिये गये अंशों से हम इकबाल अहमद की कठमुल्लावाद के प्रति घृणा, साम्राज्यवादी पाखंड से द्वेष और इतिहास में उनकी आस्था को जान-समझ सकते हैं। इसी से उनके इस विश्वास को भी समझा जा सकता है कि समस्याओं के हल राजनीति और कूटनीति से ही प्राप्त किये जा सकते हैं, युद्ध से नहीं। 1984 में इस्लाम और राजनीति शीर्षक से लिखे अपने निबंध में उन्होंने लिखा था कि मुस्लिमों की दशा बहुत से विशेषज्ञों की समझ से बाहर रही है। मुसलमानों के बारे में उनकी रचनाएं इसलिए भी महत्वपूर्ण और यादगार है, क्योंकि ये बहुत सजगता और निहायत सूझबूझ से लिखी गयी है। उनकी दृष्टि में इस्लाम शुरुआती दौर में दबे-कुचले लोगों का धर्म था, क्योंकि उसका विकास बड़ी गहराई से सामाजिक विद्रोह से जुड़ा था।
अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले 1999 में वह अमेरिका से पाकिस्तान आ गये। यहां वह मानविकी की पढ़ाई कराने के उद्देश्य से एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे। इस का नाम उन्होंने अरब के महान इतिहासकार इब्न खलदून (1332-1406) के नाम पर खलदूनिया विश्वविद्यालय सोच लिया था। हालांकि उनका यह सपना अधूरा ही रह गया।
इकबाल अहमद पर यह आलेख मोहल्ला से साभार
इकबाल अहमद बिहार के रहने वाले थ्ो। बंटवारे के वक्त वह अपने भाई सहित दिल्ली में परिवार से बिछुड़ गये और पाकिस्तान पहुंच गये। गांव में ज़मीन के झगड़े के कारण उनकी आंखों के सामने ही उनके पिता की हत्या कर दी गयी थी। शायद यही वजह थी जिसने उन्हें अहिंसा की विचारधारा की तरफ मोड़ दिया। उन्हें अमन का झंडाबरदार और नागरिक स्वतंत्रता का पैरोकार बना दिया। वह अंत तक इन्हीं सिद्धांतों के लिए लड़ते रहे और उन्हें जेल में भी डाला गया। वह ज़िन्दगी भर दुनिया के फौजी तानाशाहों, मजहबी अतिवादियों, आतंकवादियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे। वह सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष थे।
उपनिवेशवाद विरोधी बुद्धिजीवियों में इकबाल अहमद (1933-1999) की जगह अहम है। हालांकि एडवर्ड सईद की ओरिएंटलिज्म की तरह उनकी कोई चर्चित पुस्तक नहीं है, फिर भी पश्चिम से लेकर पूर्व तक न केवल तीसरी दुनिया के अतिवादी विचारक बल्कि उनके विरोधी भी उनको आदर की दृष्टि से देखते हैं।
इकबाल हालांकि कल्पना की उड़ान भरने और महाद्वीप की सीमाओं से परे जाकर दो अलग-अलग विषयों के आपसी सूत्र तलाशने में माहिर थे, फिर भी वह अपने वक्तव्यों के लिए ज्यादा जाने जाते हैं। इकबाल अहमद एक ऐसे विचारक थे, जो ताउम्र मार्क्सवादी तो रहे लेकिन अपने तरीके से। आशीष नंदी ने उन्हें एक ऐसे लेनिनवादी के रूप में देखा है, जो आधे-अधूरे मार्क्सवादी थे। आगे चलकर उन्होंने पहली दुनिया अर्थात अमेरिका, जहां उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया, के ज्यादातर सृजनशील मार्क्सवादियों की तर्ज पर लेनिनवाद की छाया से बाहर निकलने का प्रयास किया।
इकबाल को अपनी किशोरावस्था में ही भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी से रूबरू होना पड़ा। विभाजन काल के रक्तरंजित माहौल में वह कुछ खास तरह के निष्कर्षों तक पहुंचे। रवींद्रनाथ टैगोर, जिन्हें वह एक कवि व विचारक के रूप में काफी सम्मान देते थे, की तरह ही वह समझते थे कि भारत के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में राष्ट्रवादी विचारधारा को अलग दृष्टि से देखना चाहिए।
इसी को स्पष्ट करते हुए सन 2000 में प्रकाशित डेविड बार्सेमियन के साथ साक्षात्कारों की एक सीरीज़ में उन्होंने कहा था, हम पश्चिमी साम्राज्यवाद को नकारते तो हैं, लेकिन इसी के साथ ही हम पश्चिमी राष्ट्रीयता को स्वीकार करते हैं और उसे ग्रहण करते हैं।
आज भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से लेखक, जिनमें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन भी शामिल हैं, अहमद के इस कथन से कि राष्ट्रीयता विविधता की विचारधारा है, के प्रशंसक हैं। अपनी हाल की पुस्तक आइडेंटिटी एंड वायलेंस में अमर्त्य सेन भी इकबाल अहमद की तर्ज पर विविधतापूर्ण पहचान के स्थान पर राष्ट्रीयता की इकहरी पहचान थोपने पर सवाल उठाते हैं।
आज जब पूरी दुनिया को पूर्व और पश्िचम की अलग-अलग संस्कृतियों के आधार पर विभाजित करने के लिए नित नये मिथक गढ़े जा रहे हैं, इकबाल अहमद का यह सोचना अक्षरश: प्रासंगिक है कि पूर्व और पश्िचम के बीच का विभेद जान-बूझ कर कुछ राजनीतिक और आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए पैदा किया जा रहा है।
राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के आदेश पर जब अमेरिकी सेनाओं ने 1998 में अफगानिस्तान और सूडान में बमबारी करना शुरू किया, तो उस दौरान उन्होंने आसन्न संकट को समझते हुए चेतावनी दी थी, अमेरिका ने मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया में ज़हरीले बीज बो दिये हैं। यह बीज अब उग रहे हैं। कुछ पक चुके हैं, कुछ पकने को तैयार हैं। इस बात का परीक्षण जल्द ही होगा कि यह क्यों बोये गये, इनमें क्या उगा और वे उन्हें कैसे काटेंगे। मिसाइल से हर समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता।
ऊपर दिये गये अंशों से हम इकबाल अहमद की कठमुल्लावाद के प्रति घृणा, साम्राज्यवादी पाखंड से द्वेष और इतिहास में उनकी आस्था को जान-समझ सकते हैं। इसी से उनके इस विश्वास को भी समझा जा सकता है कि समस्याओं के हल राजनीति और कूटनीति से ही प्राप्त किये जा सकते हैं, युद्ध से नहीं। 1984 में इस्लाम और राजनीति शीर्षक से लिखे अपने निबंध में उन्होंने लिखा था कि मुस्लिमों की दशा बहुत से विशेषज्ञों की समझ से बाहर रही है। मुसलमानों के बारे में उनकी रचनाएं इसलिए भी महत्वपूर्ण और यादगार है, क्योंकि ये बहुत सजगता और निहायत सूझबूझ से लिखी गयी है। उनकी दृष्टि में इस्लाम शुरुआती दौर में दबे-कुचले लोगों का धर्म था, क्योंकि उसका विकास बड़ी गहराई से सामाजिक विद्रोह से जुड़ा था।
अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले 1999 में वह अमेरिका से पाकिस्तान आ गये। यहां वह मानविकी की पढ़ाई कराने के उद्देश्य से एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे। इस का नाम उन्होंने अरब के महान इतिहासकार इब्न खलदून (1332-1406) के नाम पर खलदूनिया विश्वविद्यालय सोच लिया था। हालांकि उनका यह सपना अधूरा ही रह गया।
इकबाल अहमद पर यह आलेख मोहल्ला से साभार
Wednesday, May 2, 2007
डॉ देव वाराणसी में रहते हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं में दखल रखते हैं। हमलोगों के लिए उनके गीत काफी महतवपूर्ण रहे हैं। खास तौर से यह गीत जिससे नुक्कड़ नाटकों के लिए मजमा जमाया जाता था। प्रस्तुत है उनका गीत......
आज नहीं तो कल चूमेगी पांव तेरे मंजिल
चलते जा ..चलते जा...
माना अनजाने सपनों का शहर हुआ जीवन
तूफानों के बीच भटकती लहर हुआ जीवन
मानो कहर हुआ जीवन.. मानो कहर हुआ जीवन..
चलते जा.. चलते जा...
कदम-कदम पर अंगारे हैं यहां जलेंगे पांव
दूर नहीं है अब पास है अपने अरमानों के गांव
तुम्हारे छाले देंगे छांव-तुम्हारे छाले देंगे छांव
चलते जा ... चलते जा....
आज नहीं तो कल ....
Tuesday, May 1, 2007
Sunday, April 29, 2007
भोजपुरी के दादा साहेब
नाजि़र हुसेन
नाज़िर हुसेन की ज़िद ना होती तो भोजपुरी की पहली फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` जगह विमल रॉय के निर्देशन में कोई हिन्दी फिल्म बनी होती। नाज़िर हुसेन ने काफी पहले इस फिल्म की पटकथा तैयार कर ली थी और निर्माता तलाश रहे थे। विमल रॉय को भी यह पटकथा पसंद आई थी, लेकिन वह इसे भोजपुरी की बजाय हिन्दी में बनाना चाहते थे। श्री हुसेन ने कहा था, ''इ फिलिमिया बनी त भोजपुरिये में बनीं चाहे जब बने।'' नाज़िर हुसेन के अभिनय का विकास विमल रॉय के स्कूल में हुआ था। हालांकि श्री रॉय से जुड़ने के पहले वे आज़ाद हिन्द फौज़ में सांस्कृतिक मोरचे के संयोजक थे। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद विपरीत परिस्थितियों में जब फौज़ का काम समेटा गया तब वह कोलकाता में श्री रॉय के स्कूल से जुड़ गये थे। अपने देस, अपनी मिट्टी और बानी से गहरा सरोकार उन्हें फौज़ के परिवेश से ही मिला होगा। वरना लाभ और लोभ में देश व समाज को बौना कर देनेवाले इस समय में विमल रॉय के बैनर को भला कौन ठुकराता। कुछ समय बाद ही नाज़िर हुसेन की ज़िद फलीभूत हुई और विश्वनाथ शाहाबादी जैसा एक और भोजपुरी प्रेमी मिला जिसने इस फिल्म के लिए पैसा लगाना स्वीकार किया। भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत करने और उसको जिंदा रखने में श्री हुसेन के अप्रतीम योगदान की बदौलत ही भोजपुरी सिनेमा उद्यो्ग से जुड़े लोग उन्हें अपना 'दादा साहेब फाल्के` मानते हैं।
फिल्म की दुनिया में नाजि़र हुसेन के नाम से प्रतिष्ठत मोहम्मद नज़ीर खान उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले के उसियां गांव के रहनेवाले थे। उनके पिता साहेबजाद खान इंडियन पेनीसुलर रेलवे के कर्मचारी थे। जिनके साथ वे लखनऊ में रहे। नाजि़र साहब की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा लखनऊ के उर्दू परिवेश में हुई थी। उन दिनों हर तरफ आजादी की लड़ाई का ज्वार था। श्री हुसेन आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गये। वर्ष १९४० व ४१ के दौर में पूर्वोत्तर प्रांतों में उन्होंने आजाद हिन्द फौज के क्षेत्र प्रचारक के रूप में काम किया। इन्हीं दिनों उनका जुड़ाव थिएटर और साहित्य से हुआ। स्वाध्याय के साथ-साथ उन्होंने लेखन का अभ्यास भी शुरू किया और फौज़ के साथियों में एक सांस्कृतिक टोली विकसित की। जनवरी १९४५ में आयोजित नेताजी के जन्म दिवस समारोह में नज़ीर हुसेन ने बंगाल में अकाल को केन्द्र मे रखकर 'बलिदान` नामक नाटक तैयार किया, जिसकी सराहना खुद नेताजी ने की थी। जब आइ.एन.ए. का काम समेटा गया तो वे कलकत्ता आ गये। यहीं उनकी मुलाकात विमल राय से हुई। और वे उनके साथ का करने लगे थे। विमल राय जब कलकत्ता से मुबई आए तो नाजि़र हुसेन भी उनकी टोली में थे। तब की प्रतिष्ठित फिल्म पत्रिका माधुरी में विमल रॉय संबंधी एक आलेख में फिल्म 'पहला आदमी` के बारे में लिखा है - यह फिल्म आजाद हिन्द फौज से संबंधित एक सत्य घटना पर बनायी गई थी। कहानी लिखी थी आजाद हिन्द फौज के श्री नाजि़र हुसेन ने। श्री हुसेन आजकल एक सफल सिनेमा कलाकार, लेखक निर्माता हैं। इन्हें लेखक और अभिनेता के रूप में विमल दा ने ही सबसे पहले प्रस्तुत किया था...``। विमल राय की 'सिपाही का सपना`, 'परख`, 'अछूत कन्या`, 'दो बीघा जमीन` और 'बन्दगी` जैसी फिल्मों में काम कर नाजि़र हुसेन ने चरित्र अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। १९२२ में जन्मे नज़ीर हुसेेन की २५ जनवरी १९८४ को जब देहांत हुआ तब तक हिन्दी व भोजपुरी की सौ से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके थे। उन्होंने कई भोजपुरी फिल्मों की पटकथा लिखी और निर्माण भी किया। इनमें 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबा`, 'लागी नाही छूटे रामा, 'हमार संसार`, 'बलम परदेसिया,` रूस गइले सैंया हमार, 'चनवा के ताके चकोर,`'चुटकी भर सिंदूर` (निर्देशन) आदि फिल्में प्रमुख हैं। नाज़िर हुसेन का ही यह आग्रह था कि भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग भोजपुर इलाके में हो। उन दिनों जब मुंबई से भोजपुर जाना अत्यंत कठिन था। और सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं था। श्री हुसेन अपनी टोली लेकर छोटे-शहरों और कस्बों और गांवों में शूटिंग करते थे। उन्होंने भोजपुर अंचल के घर, आंगन, बातचीत, खेती-किसानी और भोजपुरी संस्कार से जुड़ी बारीक से बारीक चीजों को अपनी फिल्मों के दृश्य का हिस्सा बनाया।
लाल बहादुर
नाज़िर हुसेन की ज़िद ना होती तो भोजपुरी की पहली फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` जगह विमल रॉय के निर्देशन में कोई हिन्दी फिल्म बनी होती। नाज़िर हुसेन ने काफी पहले इस फिल्म की पटकथा तैयार कर ली थी और निर्माता तलाश रहे थे। विमल रॉय को भी यह पटकथा पसंद आई थी, लेकिन वह इसे भोजपुरी की बजाय हिन्दी में बनाना चाहते थे। श्री हुसेन ने कहा था, ''इ फिलिमिया बनी त भोजपुरिये में बनीं चाहे जब बने।'' नाज़िर हुसेन के अभिनय का विकास विमल रॉय के स्कूल में हुआ था। हालांकि श्री रॉय से जुड़ने के पहले वे आज़ाद हिन्द फौज़ में सांस्कृतिक मोरचे के संयोजक थे। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद विपरीत परिस्थितियों में जब फौज़ का काम समेटा गया तब वह कोलकाता में श्री रॉय के स्कूल से जुड़ गये थे। अपने देस, अपनी मिट्टी और बानी से गहरा सरोकार उन्हें फौज़ के परिवेश से ही मिला होगा। वरना लाभ और लोभ में देश व समाज को बौना कर देनेवाले इस समय में विमल रॉय के बैनर को भला कौन ठुकराता। कुछ समय बाद ही नाज़िर हुसेन की ज़िद फलीभूत हुई और विश्वनाथ शाहाबादी जैसा एक और भोजपुरी प्रेमी मिला जिसने इस फिल्म के लिए पैसा लगाना स्वीकार किया। भोजपुरी सिनेमा की शुरुआत करने और उसको जिंदा रखने में श्री हुसेन के अप्रतीम योगदान की बदौलत ही भोजपुरी सिनेमा उद्यो्ग से जुड़े लोग उन्हें अपना 'दादा साहेब फाल्के` मानते हैं।
फिल्म की दुनिया में नाजि़र हुसेन के नाम से प्रतिष्ठत मोहम्मद नज़ीर खान उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले के उसियां गांव के रहनेवाले थे। उनके पिता साहेबजाद खान इंडियन पेनीसुलर रेलवे के कर्मचारी थे। जिनके साथ वे लखनऊ में रहे। नाजि़र साहब की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा लखनऊ के उर्दू परिवेश में हुई थी। उन दिनों हर तरफ आजादी की लड़ाई का ज्वार था। श्री हुसेन आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गये। वर्ष १९४० व ४१ के दौर में पूर्वोत्तर प्रांतों में उन्होंने आजाद हिन्द फौज के क्षेत्र प्रचारक के रूप में काम किया। इन्हीं दिनों उनका जुड़ाव थिएटर और साहित्य से हुआ। स्वाध्याय के साथ-साथ उन्होंने लेखन का अभ्यास भी शुरू किया और फौज़ के साथियों में एक सांस्कृतिक टोली विकसित की। जनवरी १९४५ में आयोजित नेताजी के जन्म दिवस समारोह में नज़ीर हुसेन ने बंगाल में अकाल को केन्द्र मे रखकर 'बलिदान` नामक नाटक तैयार किया, जिसकी सराहना खुद नेताजी ने की थी। जब आइ.एन.ए. का काम समेटा गया तो वे कलकत्ता आ गये। यहीं उनकी मुलाकात विमल राय से हुई। और वे उनके साथ का करने लगे थे। विमल राय जब कलकत्ता से मुबई आए तो नाजि़र हुसेन भी उनकी टोली में थे। तब की प्रतिष्ठित फिल्म पत्रिका माधुरी में विमल रॉय संबंधी एक आलेख में फिल्म 'पहला आदमी` के बारे में लिखा है - यह फिल्म आजाद हिन्द फौज से संबंधित एक सत्य घटना पर बनायी गई थी। कहानी लिखी थी आजाद हिन्द फौज के श्री नाजि़र हुसेन ने। श्री हुसेन आजकल एक सफल सिनेमा कलाकार, लेखक निर्माता हैं। इन्हें लेखक और अभिनेता के रूप में विमल दा ने ही सबसे पहले प्रस्तुत किया था...``। विमल राय की 'सिपाही का सपना`, 'परख`, 'अछूत कन्या`, 'दो बीघा जमीन` और 'बन्दगी` जैसी फिल्मों में काम कर नाजि़र हुसेन ने चरित्र अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। १९२२ में जन्मे नज़ीर हुसेेन की २५ जनवरी १९८४ को जब देहांत हुआ तब तक हिन्दी व भोजपुरी की सौ से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुके थे। उन्होंने कई भोजपुरी फिल्मों की पटकथा लिखी और निर्माण भी किया। इनमें 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबा`, 'लागी नाही छूटे रामा, 'हमार संसार`, 'बलम परदेसिया,` रूस गइले सैंया हमार, 'चनवा के ताके चकोर,`'चुटकी भर सिंदूर` (निर्देशन) आदि फिल्में प्रमुख हैं। नाज़िर हुसेन का ही यह आग्रह था कि भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग भोजपुर इलाके में हो। उन दिनों जब मुंबई से भोजपुर जाना अत्यंत कठिन था। और सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं था। श्री हुसेन अपनी टोली लेकर छोटे-शहरों और कस्बों और गांवों में शूटिंग करते थे। उन्होंने भोजपुर अंचल के घर, आंगन, बातचीत, खेती-किसानी और भोजपुरी संस्कार से जुड़ी बारीक से बारीक चीजों को अपनी फिल्मों के दृश्य का हिस्सा बनाया।
लाल बहादुर
Saturday, April 28, 2007
भोजपुरी बाजार पर लट्टू बॉलीवुड
१९६२ में भोजपुरी की पहली फिल्म जब 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` रिलीज हुई तो उसने लोगों को चौंकाया था कि हिन्दी इलाके में यह कौन-सा नया सिनेमा है? उसके गीत अभी भी लोगों की स्मृति में हैं। १९७७ में 'दंगल` से भोजपुरी में रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हुआ और ८० के दशक में सेंसर बोर्ड में 'हिन्दी फिल्म` के खाते में दर्ज 'नदिया के पार` के बाद अब 'ससुरा बड़ा पैसे वाला` नाम की फिल्म भोजपुरी और उसके सिनेमा के लिए चमत्कारिक घटना है। कई बार राष्ट्रीय फलक पर कौंधने और फिर दृश्य से लगभग गायब होने की कगार पर जा चुके भोजपुरी सिनेमा की बालियां एक बार फिर खनकने लगी हैं। 'भइया लोगों का सिनेमा` कहकर मुंह बिदकाने वाले मुुबई के फिल्म निर्माताओं के मुंह में पानी भर आया है। गीतों के बाद अब फिल्मों के जरिये भोजपुरी अनुगूंज सुनायी दे रही है।
ऐसे दौर में जबकि बड़े बजट और मेगा प्रचारवाली फिल्में दूसरे शो में ही लुढ़क रही हैं, महज दो-तीन सप्ताह चलने वाली कोई हिन्दी फिल्म सुपर हिट मान ली जाती है, 'ससुरा बड़ा पैसा वाला` ने भोजपुरी के शास्त्रीय गढ़ से बाहर एक साथ कानपुर, लखीमपुर और लखनऊ में गोल्डेन जुबली मनाई। इसी क्रम मेंे 'कब होई गौना हमार`, 'उठाइले घूंघटा चांद देख ले,` 'बलमा बड़ा नादान,` 'बंधन टूटे ना,` 'गंगा के पार सैंया हमार,` 'दारोगा बाबू आई लव यू,` 'पंडित जी बताई ना बियाह कब होई,` और 'दामादजी` की बॉक्स आफिस पर सफलता और उनके अर्थशास्त्र ने बड़े निगमों को भी भोजपुरी फिल्मों में हाथ आजमाने के लिए ललचाया है। ट्रेड गाइड के आंकड़ों पर गौर करें तो औसतन ४० लाख के बजट में बननेवाली ये फिल्में करोड़ों का कारोबार कर रही हैं। खबर है कि विजय मलैया, बालाजी टेलीफिल्म्स और एबी कॉरपोरेशन भी भोजपुरी सिनेमा में पैसा लगाने जा रहे हैं। ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार व सायरा बानो की कंपनी भोजपुरी में फिल्म बनाने की घोषणा कर चुकी है। प्रसिद्ध नृत्य निर्देशिका सरोज खान 'दिल तोहार दिवाना हो गइल` से निर्देशन की भूमिका में उतर रही हैं।
गौर करनेे की बात है कि भोजपुरी सिनेमा को 'अछूत` मानने वाले हिन्दी के स्टार भी भोजपुरी आसमान में चमकने को उत्सुक दिख रहे हैं। फिल्म 'गंगा` में बागबान की सफल जोड़ी अमिताभ और हेमामालिनी होंगे। 'बाबुल प्यारे` में राज बब्बर दिखेंगे तो 'मति भुलैह माई बाप के` में रति अग्निहोत्री नजर आयेंगी। अजय देवगन 'धरती कहे पुकार के` में अपनी झलक दे चुके हैं। बॉलीवुड के संघर्ष से किनारे हो गयीं हृषिता भट्ट प्रीति झंगियानी को भोजपुरी सिनेमा में शरण मिली है। तो जूही चावला, भाग्यश्री, नग्मा.. जैसी नायिकाएं भी इधर हाथ आज़मा रही हंै।
भोजपुरी बाजार के मुनाफे से लोग इतने उतावले हैं कि एक समय की हिट फिल्म 'नमक हलाल` भोजपुरी में 'बबुआ खिलाड़ी ददुआ अनाड़ी` के नाम से डब होकर रिलीज हो चुकी है। एक्शन मास्टर टीनू वर्मा एक सामान्य भोजपुरी फिल्म के निर्माण से कहीं अधिक पैसा लगाकर 'मेरा गांव मेरा देश` का 'धरती पुत्र` के नाम से पुनर्निर्माण कर चुके हैं। इतना ही नहीं 'शोले` और 'दीवार` सहित ३० से ४० हिट हिन्दी फिल्मों की डबिंग राइट के लिए भी जोरआजमाइश जारी है। हवा यह भी है कि हॉलीवुड की फिल्मों की भोजपुरी में डबिंग की योजना है।
आलम यह है कि भोजपुरी फिल्में अपने बुनियादी इलाके यानी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, बंगाल तथा मुंबई में भी अपनी जगह बना रही हैं। हाल ही मे 'बंधन टूटे ना` ने मुंबई में १०० दिन पूरे किये हैं। यह आंकड़ा किसी भी हिन्दी सिनेमा के लिए सपना होता है। कल्याण, उल्हासनगर और डोंबिवली जैसे इलाके के सिनेमा घरों में २५ फिल्में रिलीज हुईं। नयी दिल्ली के पास लोनी में एक भोजपुरी फिल्म तीन महीने तक नहीं उतरी। इसके बाद तो नोएडा के अलका, मोती, आकाश जैसे सिनेमाघरों ने भी भोजपुरी फिल्मों को अपनाया और निराश नहीं हुए। भोजपुरी की पहली डॉल्बी डीटीएच कही जा रही फिल्म 'दामादजी` पिछले दिनों दिल्ली के देहाती इलाके के सिनेमा हॉल में नहीं बल्कि पारस और जनक जैसे संभ्रांत इलाके के सिनेमाघरों मंें रिलीज हुई जो भोजपुरी सिनेमा के लिए अभूतपूर्व घटना है।
जानकारों का कहना है कि भोजपुरी सिनेमा ने उत्तर प्रदेश और बिहार के एकल परदे वाले सिनेमा घरों को नया जीवन दिया है और महानगरों में मल्टीप्लेक्स संस्कृति से मुरझाये एकल परदेवाले सिनेमाघरों में रौनक लौट आई है। यह तथ्य है कि 'बंटी और बबली`, 'मंगल पांडेय,` 'पेज थ्री,` और 'ब्लैक` अपने सरोकार और कथ्य में भले ही उम्दा फिल्में हों लेकिन उनने लागत के अनुपात में उस तरह का व्यवसाय नहीं किया जितना कि इस दौर की भोजपुरी फिल्मों ने। मल्टीप्लेक्स संस्कृति के इस दौर में जब मेगा बजट वाली फिल्में औंधे मुंह गिर रही हैं भोजपुरी फिल्मों की पगडंडी चौड़ी होती नजर आ रही है और वह चौतरफा चर्चे में है। नोट करने की बात है कि भोजपुरी सिनेमा ने किसी राज्याश्रय की बदौलत नहीं बल्कि अपने दम पर यह कद बनाया है।
यह नयी बात नहीं है
लेकिन भोजपुरी फिल्मों का राष्ट्रीय फलक पर कौंधना और बाजार की इस ओर लपकना पहली बार नहीं हुआ है। यह बात अलग है कि इस बार यह चमक बड़े पैमाने पर और कई रूपों में दिखाई दे रही है। १९६१-६२ में बनी भोजपुरी की पहली फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` जब परदे पर आई तो ऐसी ही सनसनी पैदा हुई थी। दिल्ली के गोलचा सिनेमा आयोजित में उसके प्रीमियर में तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जगजीवन राम और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोग उपस्थित हुए थे। हिन्दी की मातहत भाषा घोषित होने के बावजूद उसने गीतों और फिल्म की दुनिया में अपनी अलग तसवीर पेश की थी। इसी क्रम में बनी 'बिदेसिया` और 'लागी नाही छूटे राम` जैसी सफल फिल्में बनीं जो अपने कर्णप्रिय गीतों की छाप छोड़ गयीं। भोजपुरी में फिल्म बनाने का भगीरथ प्रयास करने वाले नज़ीर हुसेन ने भोजपुरी अंचल से पलायन को केेन्द्र में रखकर 'हमार संसार` जैसी यादगार फिल्म बनायी थी।
भोजपुरी सिनेमा के पहले दौर में हिन्दी और भोजपुरी फिल्मों की लागत और बुनावट में बहुत ज्यादा फर्क नहीं था। गीत दोनों ही फिल्मों की ताकत थी। चित्रगुप्त, अंजान, शैलेन्द्र कह बात हो या मो. रफी और लता मंगेशकर की दोनो भाषाओं में उपलब्ध थे। कुन्दन कुमार, नज़ीर हुसेन, कुमकुम, असीम कुमार, लीला मिश्रा, असीत सेन जैसे मजे हुए कलाकार थे। इनकी कड़ी में सुजीत कुमार और पद्मा खन्ना उभरे जो लंबे समय तक भोजपुरी सिनेमा के पर्याय बने रहे। यह दौर भोजपुरी इलाके की परंपरा, संस्कृति के दस्तावेजीकरण का दौर माना जा सकता है। इसे हिन्दी फिल्मों में काम से मिले अवकाश, कमाई से हुई बचत से बने सिनेमा का दौर कहा जा सकता है। विश्वनाथ शाहाबादी के अलावा भोजपुरी अंचल से ऐसा कोई दूसरा निर्माता नहीं उभर कर आया जो इन फिल्मों में निवेश करे। एक गुजराती निर्माता बच्चू भाई शाह ने 'बिदेसिया` में पैसा लगाया और सफल रहे। फिल्म का निर्देशन संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी ने किया था, गीत राममूर्ति चतुर्वेदी के थेे। इसी फिल्म में 'बिदेसिया शैली` के जनक भिखारी ठाकुर को गाते हुए फिल्माया गया। तीन-चार वर्ष में करीब १९ फिल्में बनीं। लेकिन तब हिन्दी की समांतर दुनिया में रंगीन सिनेमा और ७० एमएम की टैक्नोलॉजी का प्रयोग शुरू हो चुका था। और सिनेमा उद्योग आम हालत बहुत अच्छी नहीं थी लिहाजा भोजपुरी सिनेमा का यह दौर लड़खड़ा गया।
भोजपुरी सिनेमा का दूसरा हिलोर १९७७ में उठा। इस दौर में भी गीतों की ताकत काम आयी। वैसे भी गीतों के मामले में भोजपुरी फिल्मों ने कभी समझौता नहीं किया। पहले दौर में सफल फिल्म 'बिदेसिया` की टोली ने ही उसी कथानक में जरा फेर-बदलकर भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म 'दंगल` बनायी। निर्देशन रति कुमार ने किया। इसमें तब की 'मिस इंडिया` प्रेमा नारायण को बतौर हिरोइन लिया गया। पहलवानी, लठैती, भेड़ा की लड़ाई जैसे गंवई मसाले थे तो डाकुओं की डेन, (शोले का प्रभाव), घोड़ों के चेज और गोला बारूद वाले एक्शन सीक्वेंस जैसे हिन्दी सिनेमा के तत्कालीन नुमाइशी तत्वों का इस्तेमाल किया गया। एक बार फिर भोजपुरी फिल्मों का बाज़ार गरम हुआ। इस बार निर्माताओं की भूमिका में भोजपुरी अंचल से भी लोग आए जो या तो सिनेमाघरों के मालिक थे या फिर वितरण के काम में लगे थे। अशोक जैन की 'गंगा किनारे मोरा गांव` और नाज़िर हुसेन की 'बलम परदेसिया`, मोहन जी प्रसाद की 'हमार भौजी,` लक्ष्मण शाहाबादी की फिल्म 'दूल्हा गंगा पार के` जैसी सफल फिल्में भी आईं। भाई-बहन के संबंध पर बनी कमर नार्वी फिल्म 'भैया दूज` को तो तब राजस्थानी (मारवाणी) में डब किया गया और वहां भी वह हिट रही।
पहले दौर की बनिस्बत यह दौर कुछ लंबा चला। परंतु इन फिल्मों का फारमूला इतनी बार दुहराया गया कि उब स्वाभाविक थी। न तो नये विचार आए न सिनेमा का नया अंदाज। विषय और कला को मांजने की बजाय भोजपुरी सिनेमा में नुमाइशी चीजें ज्यादा हावी हो गयीं। इसका नमूना यह था कि भोजपुरी फिल्मों की स्टार सुजीत कुमार ने, जिन्हें तब के सुपर स्टार राजेश खन्ना के समांतर देखा जाता था, रेखा और अमिताभ को मेहमान बनाकर 'पान खाये सैंया हमार` और शत्रुघ्न सिन्हा ने 'बिहारी बाबू` जैसी फिल्म बनायी- जो औंधे मुंह गिर गयी। लेकिन इसी दौर में राजश्री प्रोडक्शन ने इन फिल्मों के मिजाज को परिष्कृत संस्कार देकर 'नदिया के पार` फिल्म बनायी। भोजपुरी संस्कार और मिजाज वाली इस हिन्दी फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर सफलता लंबे समय तक बॉलीवुड के लिए मिसाल बनी रही।
हालांकि इस दूसरे दौर में भोजपुरी फिल्मों की सफलता कोई कम नहीं थी, लेकिन इसके बाद भी भोजपुरी फिल्मों के लिए बुनियादी अधोरचनाओं के लिए पहल नहीं हो सकी। कुछ संगठन और मंच जरूर बन गये जिन्होंने दूसरे राज्य की भाषाओं की तर्ज पर यु.पी. और बिहार की सरकारों से इस उद्योग को मदद करने की गुहार लगायी। लेकिन बॉलीवुड पर उसकी निर्भरता कम नहीं हो सकी। इस दौर में कुणाल, गौरी और राकेश पांडेय जैसी नई प्रतिभाएं तो आईं। पर उंगलियों पर गिने जानेवाले लोगों के भरोसे कोई उद्योग नहीं चल सकता था। सस्ते कलाकार, तकनिशियनों और सस्ती कहानियों के कारण फिल्में पिटने लगीं तो लोगों ने दूसरा रास्ता पकड़ लिया। निर्देशक ब्रजभूषण कहते हैं, ''बेहतर होता यदि अपनी कमाई का कुछ हिस्सा लोग इस उद्योग के विकास में लगाते। अपने कलाकारों को यहां टिके रहने भर पारिश्रमिक और सम्मान देते। लेकिन हुआ उल्टा। भोजपुरी से पैसा और नाम बनानेवाले भी मैदान छोड़ गये।``
तब एक और बड़ा कारण भारतीय क्षितिज पर टीवी/विडियो संस्कृति का उभार था। सीरियलों की दुनिया में निवेश किसी भाषायी फिल्म या बी ग्रेड की हिन्दी फिल्म बनाने से कहीं ज्यादा चोखा धंधा था। उसके बाद नब्बे का दशक भोजपुरी फिल्मों में सूखा को दशक रहा है। हां, हर साल तीन-चार के औसत से फिल्में बनती जरूर रहीं लेकिन बाजार की उनमें कोई रुचि नहीं थी।
नयी सदी की शुरुआत में मोहनजी प्रसाद की 'सैंया हमार` और संजय उपाध्याय की 'कन्या दान` ने जो सुगबुगाहट शुरू की पिछले एक-डेढ़ साल भर का समय भोजपुरी सिनेमा के इतिहास में अभूतपूर्व स्थितियां उपस्थित हुई हंै। पहले रवि किशन और अब भोजपुरी गायकी से आया नया नवेला स्टार मनोज तिवारी 'मृदुल` नामचीन स्टार है। इस दौर में सफलता का परिणाम है कि चालीस साल से ऊपर तक की यात्रा में मात्र दो सौ का आंकड़ा छूनेवाले इस बाजार में पिछले कुछ ही महीनों में कुल अस्सी से ज्यादा फिल्मों की घोषणा हुई है।
लेकिन संख्या और कमाई किसी भी कलात्मक विधा के लिए कोई मानदंड नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण यह है कि ये फिल्में अपने अंतर्वस्तु में क्या लेकर आती हैं। और अपने को कितने लंबे समय तक टिकाये रखने का माद्दा रखती हैं।
क्या है इन फिल्मों मंे
सच तो यह है कि जिस कलात्मक ऊंचाई के लिए दूसरी भाषाई यानी ओड़िया, बांग्ला, असमिया या मलयालम फिल्में जानी जाती हैं भारतीय सिनेमा में भोजपुरी फिल्में वैसी कोई नई जमीन तोड़ नहीं तोड़ रही है। शुरुआती दौर की कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो भोजपुरी सिनेमा हिन्दी सिनेमा द्वारा खाली की गयी जगह का सिनेमा है। जिसके खिलाड़ी कम पूंजी वाले सिनेमा के शौकीन हैं। फिल्म निर्माता लाला दमानी कहते हैं, ''बड़े बैनरवाली किसी हिन्दी फिल्म के नायक के मेक-अप मैन के मेहनताने में भोजपुरी की एक फिल्म बन जाती है।``
दरअसल हिन्दी सिनेमा के मल्टीप्लेक्स अवतार ने महानगरों ही नहीं बल्कि कस्बाई और ग्रामीण इलाकों के एक सिनेमाघरों को सूना कर दिया था। महानगरीय और एनआरआई दर्शकों की चाह में वह गैर मेट्रो आबादी की रुचियों से दूर चला गया है। लिहाजा इन सिनेमाघरों का काम बी-ग्रेड हिन्दी फिल्मों या 'ए` सर्टिफिकेट वाली देसी-विदेशी फिल्मों के भरोसे चल रहा था। जाहिर है ऐसे सिनेमा का स्थायी और बड़ा दर्शक वर्ग नहीं हो सकता जिससे वह खुद को जोड़ नहीं पा रहा हो। आखिर वह उस सिनेमा का दर्शक कैसे हो सकता है जिसमें उसकी भाषा, रहन-सहन सब कुछ उपहास का पर्याय बना हुआ हो। उसकी भूमिकाएं नौकर, अपराधी या बौड़म की हो। 'ससुरा बड़ा पैसे वाला` के निर्देशक अजय सिन्हा कहते हैं, 'वह दर्शक जो २० रुपये देकर टिकट खरीदता है हिन्दी फिल्मों के नये दौर में अपने को ठगा महसूस करता है।`` भोजपुरी के स्टार रविकिशन कहते हैं, ''एक बंदा जो घर का खाना पसंद करता है उसे पांच सितारा खाना परोसा जा रहा है जिससे उसका परिचय ही नहीं है।`` 'नदिया के पार` के निर्देशक गोविंद मूनीस कहते हैं, ''सेक्स और हिंसा के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है हमारे समाज और संस्कृति में जो फिल्मों का विषय हो सकता है।``
१९६२ से लेकर अब तक की कुछ सफल फिल्मों पर गौर करें तो उनकी कल्पनाशीलता, नजरिया और प्रस्तुतीकरण पर लेकर सवाल उठ सकते हैं। लेकिन ये अपना मुहावरा और अपना नायक गढ़ने की कोशिश करती फिल्में हैं। भोजपुरी यहां किसी की चेरी नहीं है। ठेठ अंदाज में (कुछ लोग इसे 'भदेस` कहते हैं) ही सही उसका अपना भरा-पूरा संसार है। साठ के दशक की हिन्दी फिल्मों की तरह इनका पसंदीदा विषय समाजिक-पारिवारिक ताना-बाना है जिनका मुख्य सरोकार परिवार व विवाह तक सीमित है। यह भी कहा जा सकता है कि राजश्री प्रोडक्शन के फारमूले को ग्रामीण छौंक के साथ परोसा जा रहा है। सिंदूर, मंगलसूत्र व धर्म-कर्म के ईद-गिर्द भावपूर्ण कथानक और आठ से बारह गीत-नृत्य सिक्वेंस (कव्वाली, मुजरा, नौटंकी) और समकालीन हिन्दी मसाला फिल्मों के लटके-झटके भोजपुरी फिल्मों का मुख्य हिस्सा हैं। कुछ फिल्में स्लैप्स्टिक कॉमेडी और द्विअर्थी संवादों की राह पर भी चल पड़ी हैं।
अपनी सफलता से नया आयाम खोलने वाली फिल्म 'ससुरा बड़ा पैसे वाला` मूलत: कॉमेडी है जिसका अंत मेलोड्रामाइ है। यह एक ग्रामीण युवक की कहानी है जिसका अपने परिवार और परंपरा से गहरा लगाव है। उसने शहर में पढ़ाई की है, दिलेर और विवेकवान है। लेकिन विचित्र तरह की अपनी मित्र मंडली (एक बौना, एक बड़ी उम्र में छोटी बुद्धिवाला, एक नाक से बोलने वाला..आदि। कहा जा सकता है इस इलाके में प्रचलित शिव की बारातियों से यह बिंब लिया गया है।) से कोई परहेज नहीं करता। गोरुओं को चारा देने और खेत में कुदाल चलाने और अपने स्वाभिमान की रक्षा में रिक्शा चलाने जैसे काम से अपने दर्शक समूह से तादात्म्य बिठाता है। उसकी टकराहट शहरी संस्कृति की प्रतिनिधि नायिका से होती है। फारमूले के मुताबिक नायिका को पराजित होकर समर्पण करना है, सो होता है। खलनायक जैसे पेंच भी होने चाहिए सो है। पूरी कथा ग्रामीण परिवेश में फिल्मायी गयी है। बहुत कुछ शुरुआती दौर की फिल्मों की तरह। यानी खेत, खलिहाल, हल-बैल, टमटम, कच्चे-पक्के खपरैल मकान, शादी के गीत और रीति-रिवाज तो है ही। आम जनता के लिए आइटम सांग यानी नौटंकी और 'लौंडा नांच` भी है को स्थानीय मसाले के तौर पर डाला गया है। यहां डेविड धवन गोविंदा वाला बनावटी गांव नहीं है। न ही गांव के नाम पर बनावटी भाषा। नाभि, उरोज, नितंब, महीन कपड़ों में स्नान जैसे हिन्दी फिल्मों के उद्दीपक मसाले का भी इस्तेमाल है, लेकिन संयत ढंग से। यह संतुलन ही बाजार की भाषा में इस फिल्म का 'सेलिंग प्वाइंट है` जो इसे बड़े दर्शक समूह तक ले जाता है। निर्देशक बड़ी सावधानी से जातीय, वर्गीय भेदभाव और स्थानीय टकराव वाले बिन्दुओं से बचते हुए एक गुडी-गुडी फिल्म बनाने की कोशिश की है जो इस इलाके के पुरुषवादी मिजाज का बखूबी खयाल रखती है। एक तरह से यह फिल्म अब तक की हिट भोजपुरी फिल्मों का सारांश है।
अन्य फिल्मों के कथानक और बुनावट भी इस दायरे के बाहर नहीं निकलीे दिख रही। हां, इतना जरूर हुआ है कि इनमें सिर्फ गांव और गलियां ही नहीं है। हिन्दी सिनेमा की तरह यथार्थ के बीच स्वप्निल उड़ानें भी हैं। जो आकर्षक लोकेशन की संभावना बनाती हैं। गायक उदित नारायण की भोजपुरी फिल्म 'कब होई गौना हमार` में मॉरीशस का लोकेशन है। 'बाबुल प्यारे`, 'दिल दीवाना हो गइल` और 'गंगा` की शुटिंग लंदन में पूरी की गयी है। हाल ही में रिलीज 'फिरंगी दुल्हनियां` न केवल विदेशों में शूट हुई है बल्कि इसकी नायिका तान्या युक्रेन की है। नए दौर में राजनीतिक व्यंग्य की ओर भी एक धारा जाती है इन दिनों 'बांके बिहारी एम.एल.ए. जैसी फिल्म बन रही है। डर की तर्ज पर 'पिपरा तर के बरम्ह` जैसी हॉरर फिल्म पर भी एक निर्देशक ने हाथ आजमाया है। ३५ एमएम और सिनेमास्कोप में शूटिंग, डिजीटल डॉल्बी के साउंड ट्रैक की समकालीन तकनिकी का उपयोग भी है।
कहां ले जायेगा यह उफान
एक दौर रहा है जब अमेरिका सहित दुनिया के तमाम शहरों में सिनेमा के नाम पर हॉलीवुड फिल्मों को बोलबाला था। लेकिन जल्द ही लोगों को लगने लगा कि इन फिल्मों में जो कुछ भी परोसा जा रहा है वह उनकी खंडित सच्चाइयां हंै या फिर इन कथाओं में उनका अस्तित्व है ही नहीं। कारण और भी रहे हैं नजीजतन फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी, रूसी, जापानी सिनेमा का अस्तित्व उभर कर आया। ब्लैक सिनेमा और तीसरा सिनेमा का उद्भव हुआ। इस कड़ी में ईरानी और भारतीय सिनेमा का भी नया अंदाज जुड़ा। यह भी बात उभरी कि सिनेमा सिर्फ मौज मस्ती ही नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का औजार बन सकता है। अपने यहां भी बॉलीवुड की मुख्यधारा सिनेमा के बरक्श अलग अंदाजवाले क्षेत्रीय सिनेमा का विकास हुआ है। पिछले चालीस वर्षों से भोजपुरी सिनेमा में उठता-गिरता यह उफान भी इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है। हलांकि अभी उसमें सौंदर्यबोध और प्रतिरोध की वह धार विकसित नहीं हो पायी है जैसा कि अन्य भाषाई सिनेमा या विश्व के दूसरे प्रतिरोधी सिनेमा में दिखता है। सवाल यह है कि क्या यह ताजा उफान भोजपुरी सिनेमा उद्योग को कोई स्थाई शक्ल दे सकेगा? क्या वह अन्य भाषाई सिनेमा की तरह अपनी अलग पहचान बना सकेगा?
लंबे समय तक भोजपुरी सिनेमा के स्टार रहे राकेश पांडेय कुछ सच्चाइयों से हमारा परिचय कराते हैं, ''कुछ ऐसे लोग भी सक्रिय हैं जिन्होंने इस भाषा और सिनेमा को बदनाम भी किया है। वो दस बारह दिन के लिए आउटडोर में जाते हैं और फिल्म लपेटकर ले आते हैं। यह जो 'लपेटकर ले आना` मुहावरा है उसने बहुत ही कबाड़ा किया है। दक्षिण की फिल्में भी तो क्षेत्रीय ही हैं न! लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी इस तरह के शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। यह रीयल मेकिंग नहीं है।`` अजय सिन्हा कहते हैं, ''भोजपुरी सिनेमा के एक-आध माइनस प्वाइंट रहे हैं जो मुझे परेशान करते रहे हैं। यहां 'मैनेज करना` एक शब्द चलता है। जिसमें कोई एक लाख रुपया देकर हीरो बन गया, पचास हजार देकर विलेन बन गया या बनना चाहता है। इस तरह से तो सिनेमा नहीं चलता है। कोई कला मैनेज नहीं की जा सकती। जब तक पेशेवर लोग नहीं हो कैसे आप अच्छे काम की उम्मीद कर सकते हैं।`` इसमें कोई शक नहीं कि इस उफान में बहुत से ऐसे लोग भी शामिल हैं जिनका भोजपुरी और उसके सिनेमा से बहुत लेना देना नहीं है। उनके लिए यह पिछले दौर की तरह एक और अवसर भर है।
विडंबना यह है कि भोजपुरी सिनेमा को हर बार शून्य से शुरुआत करनी पड़ती है। सिनेमा के बाबत निर्माण और वितरण अधोरचनाएं विकसित नहीं हैं। वहां अब भी सिनेमा की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के तकनिकी और मानव संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। उसे अपने इलाके से सैकड़ों मिल दूर मुंबई में ही सारा काम-धाम करना पड़ता है। क्लैप ब्वाय से लेकर तमाम तकनिशियन तक के लिए वह मुंबई पर निर्भर है। उत्तर प्रदेश सरकार की सक्रियता की बदौलत स्टूडियो के नाम पर ले दे कर नोएडा फिल्म सिटी है लेकिन ज्यादातर फिल्मों की शूटिंग मिर्जापुर, जौनपुर, वाराणसी, पटना और हाजीपुर में होती है। जहां किसी तरह की तकनिकी या ढांचागत सुविधाएं नहीं हैं। लखनऊ के भारतेन्दु नाट्य संस्थान को छोड़ दें तो अभिनय के प्रशिक्षण के लिए कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। अभिनेताओं का तो काम चल जाता है लेकिन अभी भी अभिनेत्रियां दूसरे प्रदेशों की होती हैं।
बीस करोड़ की ठोस आबादी के मनोरंजन का बीड़ा जो उद्योग उठाने जा रहा है वह इस लंगड़ी व्यवस्था और परनिर्भरता के सहारे कितने दूर तक जायेगा इसके प्रति आशंका सहज है। नये दौर के पूंजी प्रवाह से उसकी तकनिकी काबिलियत भले ही बढ़ जाये, लेकिन कलात्मकता और अंतवर्स्तु में विकास या मौलिकता तब तक नहीं आ सकती जब तक कि इसमें स्थानीय प्रशिक्षित आवग की बढ़ोतरी न हो। अगर आज भी भोजपुरी फिल्में साठ के दशक के कथानक से बाहर नहीं निकलना चाहती हैं तो यह विकास नहीं ठहराव कहा जायेगा। और इसकी भी एक सीमा है। मौजूदा उफान को भोजपुरी बाजार का उफान तो कहा जा सकता है, सेंसेक्स की तरह जिसमें बुनियादी बदलाव से लापरवाह आसमानी उछाल संभव होते हैं। लेकिन भोजपुरी सिनेमा का उफान आना बाकी है। जाहिर सी बात है बाजार इसमें मददगार हो सकता है लेकिन असल काम तो इस भाषा में पले-बढ़े बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों के हाथ में है अगर सचमुच वे इसे अपना सिनेमा मानने को तैयार हों! ज्यादातर लोगों के लिए तो अभी भी यह अछूत माध्यम उर्फ कला है।
लालबहादुर
ऐसे दौर में जबकि बड़े बजट और मेगा प्रचारवाली फिल्में दूसरे शो में ही लुढ़क रही हैं, महज दो-तीन सप्ताह चलने वाली कोई हिन्दी फिल्म सुपर हिट मान ली जाती है, 'ससुरा बड़ा पैसा वाला` ने भोजपुरी के शास्त्रीय गढ़ से बाहर एक साथ कानपुर, लखीमपुर और लखनऊ में गोल्डेन जुबली मनाई। इसी क्रम मेंे 'कब होई गौना हमार`, 'उठाइले घूंघटा चांद देख ले,` 'बलमा बड़ा नादान,` 'बंधन टूटे ना,` 'गंगा के पार सैंया हमार,` 'दारोगा बाबू आई लव यू,` 'पंडित जी बताई ना बियाह कब होई,` और 'दामादजी` की बॉक्स आफिस पर सफलता और उनके अर्थशास्त्र ने बड़े निगमों को भी भोजपुरी फिल्मों में हाथ आजमाने के लिए ललचाया है। ट्रेड गाइड के आंकड़ों पर गौर करें तो औसतन ४० लाख के बजट में बननेवाली ये फिल्में करोड़ों का कारोबार कर रही हैं। खबर है कि विजय मलैया, बालाजी टेलीफिल्म्स और एबी कॉरपोरेशन भी भोजपुरी सिनेमा में पैसा लगाने जा रहे हैं। ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार व सायरा बानो की कंपनी भोजपुरी में फिल्म बनाने की घोषणा कर चुकी है। प्रसिद्ध नृत्य निर्देशिका सरोज खान 'दिल तोहार दिवाना हो गइल` से निर्देशन की भूमिका में उतर रही हैं।
गौर करनेे की बात है कि भोजपुरी सिनेमा को 'अछूत` मानने वाले हिन्दी के स्टार भी भोजपुरी आसमान में चमकने को उत्सुक दिख रहे हैं। फिल्म 'गंगा` में बागबान की सफल जोड़ी अमिताभ और हेमामालिनी होंगे। 'बाबुल प्यारे` में राज बब्बर दिखेंगे तो 'मति भुलैह माई बाप के` में रति अग्निहोत्री नजर आयेंगी। अजय देवगन 'धरती कहे पुकार के` में अपनी झलक दे चुके हैं। बॉलीवुड के संघर्ष से किनारे हो गयीं हृषिता भट्ट प्रीति झंगियानी को भोजपुरी सिनेमा में शरण मिली है। तो जूही चावला, भाग्यश्री, नग्मा.. जैसी नायिकाएं भी इधर हाथ आज़मा रही हंै।
भोजपुरी बाजार के मुनाफे से लोग इतने उतावले हैं कि एक समय की हिट फिल्म 'नमक हलाल` भोजपुरी में 'बबुआ खिलाड़ी ददुआ अनाड़ी` के नाम से डब होकर रिलीज हो चुकी है। एक्शन मास्टर टीनू वर्मा एक सामान्य भोजपुरी फिल्म के निर्माण से कहीं अधिक पैसा लगाकर 'मेरा गांव मेरा देश` का 'धरती पुत्र` के नाम से पुनर्निर्माण कर चुके हैं। इतना ही नहीं 'शोले` और 'दीवार` सहित ३० से ४० हिट हिन्दी फिल्मों की डबिंग राइट के लिए भी जोरआजमाइश जारी है। हवा यह भी है कि हॉलीवुड की फिल्मों की भोजपुरी में डबिंग की योजना है।
आलम यह है कि भोजपुरी फिल्में अपने बुनियादी इलाके यानी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अलावा दिल्ली, उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, बंगाल तथा मुंबई में भी अपनी जगह बना रही हैं। हाल ही मे 'बंधन टूटे ना` ने मुंबई में १०० दिन पूरे किये हैं। यह आंकड़ा किसी भी हिन्दी सिनेमा के लिए सपना होता है। कल्याण, उल्हासनगर और डोंबिवली जैसे इलाके के सिनेमा घरों में २५ फिल्में रिलीज हुईं। नयी दिल्ली के पास लोनी में एक भोजपुरी फिल्म तीन महीने तक नहीं उतरी। इसके बाद तो नोएडा के अलका, मोती, आकाश जैसे सिनेमाघरों ने भी भोजपुरी फिल्मों को अपनाया और निराश नहीं हुए। भोजपुरी की पहली डॉल्बी डीटीएच कही जा रही फिल्म 'दामादजी` पिछले दिनों दिल्ली के देहाती इलाके के सिनेमा हॉल में नहीं बल्कि पारस और जनक जैसे संभ्रांत इलाके के सिनेमाघरों मंें रिलीज हुई जो भोजपुरी सिनेमा के लिए अभूतपूर्व घटना है।
जानकारों का कहना है कि भोजपुरी सिनेमा ने उत्तर प्रदेश और बिहार के एकल परदे वाले सिनेमा घरों को नया जीवन दिया है और महानगरों में मल्टीप्लेक्स संस्कृति से मुरझाये एकल परदेवाले सिनेमाघरों में रौनक लौट आई है। यह तथ्य है कि 'बंटी और बबली`, 'मंगल पांडेय,` 'पेज थ्री,` और 'ब्लैक` अपने सरोकार और कथ्य में भले ही उम्दा फिल्में हों लेकिन उनने लागत के अनुपात में उस तरह का व्यवसाय नहीं किया जितना कि इस दौर की भोजपुरी फिल्मों ने। मल्टीप्लेक्स संस्कृति के इस दौर में जब मेगा बजट वाली फिल्में औंधे मुंह गिर रही हैं भोजपुरी फिल्मों की पगडंडी चौड़ी होती नजर आ रही है और वह चौतरफा चर्चे में है। नोट करने की बात है कि भोजपुरी सिनेमा ने किसी राज्याश्रय की बदौलत नहीं बल्कि अपने दम पर यह कद बनाया है।
यह नयी बात नहीं है
लेकिन भोजपुरी फिल्मों का राष्ट्रीय फलक पर कौंधना और बाजार की इस ओर लपकना पहली बार नहीं हुआ है। यह बात अलग है कि इस बार यह चमक बड़े पैमाने पर और कई रूपों में दिखाई दे रही है। १९६१-६२ में बनी भोजपुरी की पहली फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो` जब परदे पर आई तो ऐसी ही सनसनी पैदा हुई थी। दिल्ली के गोलचा सिनेमा आयोजित में उसके प्रीमियर में तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जगजीवन राम और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोग उपस्थित हुए थे। हिन्दी की मातहत भाषा घोषित होने के बावजूद उसने गीतों और फिल्म की दुनिया में अपनी अलग तसवीर पेश की थी। इसी क्रम में बनी 'बिदेसिया` और 'लागी नाही छूटे राम` जैसी सफल फिल्में बनीं जो अपने कर्णप्रिय गीतों की छाप छोड़ गयीं। भोजपुरी में फिल्म बनाने का भगीरथ प्रयास करने वाले नज़ीर हुसेन ने भोजपुरी अंचल से पलायन को केेन्द्र में रखकर 'हमार संसार` जैसी यादगार फिल्म बनायी थी।
भोजपुरी सिनेमा के पहले दौर में हिन्दी और भोजपुरी फिल्मों की लागत और बुनावट में बहुत ज्यादा फर्क नहीं था। गीत दोनों ही फिल्मों की ताकत थी। चित्रगुप्त, अंजान, शैलेन्द्र कह बात हो या मो. रफी और लता मंगेशकर की दोनो भाषाओं में उपलब्ध थे। कुन्दन कुमार, नज़ीर हुसेन, कुमकुम, असीम कुमार, लीला मिश्रा, असीत सेन जैसे मजे हुए कलाकार थे। इनकी कड़ी में सुजीत कुमार और पद्मा खन्ना उभरे जो लंबे समय तक भोजपुरी सिनेमा के पर्याय बने रहे। यह दौर भोजपुरी इलाके की परंपरा, संस्कृति के दस्तावेजीकरण का दौर माना जा सकता है। इसे हिन्दी फिल्मों में काम से मिले अवकाश, कमाई से हुई बचत से बने सिनेमा का दौर कहा जा सकता है। विश्वनाथ शाहाबादी के अलावा भोजपुरी अंचल से ऐसा कोई दूसरा निर्माता नहीं उभर कर आया जो इन फिल्मों में निवेश करे। एक गुजराती निर्माता बच्चू भाई शाह ने 'बिदेसिया` में पैसा लगाया और सफल रहे। फिल्म का निर्देशन संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी ने किया था, गीत राममूर्ति चतुर्वेदी के थेे। इसी फिल्म में 'बिदेसिया शैली` के जनक भिखारी ठाकुर को गाते हुए फिल्माया गया। तीन-चार वर्ष में करीब १९ फिल्में बनीं। लेकिन तब हिन्दी की समांतर दुनिया में रंगीन सिनेमा और ७० एमएम की टैक्नोलॉजी का प्रयोग शुरू हो चुका था। और सिनेमा उद्योग आम हालत बहुत अच्छी नहीं थी लिहाजा भोजपुरी सिनेमा का यह दौर लड़खड़ा गया।
भोजपुरी सिनेमा का दूसरा हिलोर १९७७ में उठा। इस दौर में भी गीतों की ताकत काम आयी। वैसे भी गीतों के मामले में भोजपुरी फिल्मों ने कभी समझौता नहीं किया। पहले दौर में सफल फिल्म 'बिदेसिया` की टोली ने ही उसी कथानक में जरा फेर-बदलकर भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म 'दंगल` बनायी। निर्देशन रति कुमार ने किया। इसमें तब की 'मिस इंडिया` प्रेमा नारायण को बतौर हिरोइन लिया गया। पहलवानी, लठैती, भेड़ा की लड़ाई जैसे गंवई मसाले थे तो डाकुओं की डेन, (शोले का प्रभाव), घोड़ों के चेज और गोला बारूद वाले एक्शन सीक्वेंस जैसे हिन्दी सिनेमा के तत्कालीन नुमाइशी तत्वों का इस्तेमाल किया गया। एक बार फिर भोजपुरी फिल्मों का बाज़ार गरम हुआ। इस बार निर्माताओं की भूमिका में भोजपुरी अंचल से भी लोग आए जो या तो सिनेमाघरों के मालिक थे या फिर वितरण के काम में लगे थे। अशोक जैन की 'गंगा किनारे मोरा गांव` और नाज़िर हुसेन की 'बलम परदेसिया`, मोहन जी प्रसाद की 'हमार भौजी,` लक्ष्मण शाहाबादी की फिल्म 'दूल्हा गंगा पार के` जैसी सफल फिल्में भी आईं। भाई-बहन के संबंध पर बनी कमर नार्वी फिल्म 'भैया दूज` को तो तब राजस्थानी (मारवाणी) में डब किया गया और वहां भी वह हिट रही।
पहले दौर की बनिस्बत यह दौर कुछ लंबा चला। परंतु इन फिल्मों का फारमूला इतनी बार दुहराया गया कि उब स्वाभाविक थी। न तो नये विचार आए न सिनेमा का नया अंदाज। विषय और कला को मांजने की बजाय भोजपुरी सिनेमा में नुमाइशी चीजें ज्यादा हावी हो गयीं। इसका नमूना यह था कि भोजपुरी फिल्मों की स्टार सुजीत कुमार ने, जिन्हें तब के सुपर स्टार राजेश खन्ना के समांतर देखा जाता था, रेखा और अमिताभ को मेहमान बनाकर 'पान खाये सैंया हमार` और शत्रुघ्न सिन्हा ने 'बिहारी बाबू` जैसी फिल्म बनायी- जो औंधे मुंह गिर गयी। लेकिन इसी दौर में राजश्री प्रोडक्शन ने इन फिल्मों के मिजाज को परिष्कृत संस्कार देकर 'नदिया के पार` फिल्म बनायी। भोजपुरी संस्कार और मिजाज वाली इस हिन्दी फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर सफलता लंबे समय तक बॉलीवुड के लिए मिसाल बनी रही।
हालांकि इस दूसरे दौर में भोजपुरी फिल्मों की सफलता कोई कम नहीं थी, लेकिन इसके बाद भी भोजपुरी फिल्मों के लिए बुनियादी अधोरचनाओं के लिए पहल नहीं हो सकी। कुछ संगठन और मंच जरूर बन गये जिन्होंने दूसरे राज्य की भाषाओं की तर्ज पर यु.पी. और बिहार की सरकारों से इस उद्योग को मदद करने की गुहार लगायी। लेकिन बॉलीवुड पर उसकी निर्भरता कम नहीं हो सकी। इस दौर में कुणाल, गौरी और राकेश पांडेय जैसी नई प्रतिभाएं तो आईं। पर उंगलियों पर गिने जानेवाले लोगों के भरोसे कोई उद्योग नहीं चल सकता था। सस्ते कलाकार, तकनिशियनों और सस्ती कहानियों के कारण फिल्में पिटने लगीं तो लोगों ने दूसरा रास्ता पकड़ लिया। निर्देशक ब्रजभूषण कहते हैं, ''बेहतर होता यदि अपनी कमाई का कुछ हिस्सा लोग इस उद्योग के विकास में लगाते। अपने कलाकारों को यहां टिके रहने भर पारिश्रमिक और सम्मान देते। लेकिन हुआ उल्टा। भोजपुरी से पैसा और नाम बनानेवाले भी मैदान छोड़ गये।``
तब एक और बड़ा कारण भारतीय क्षितिज पर टीवी/विडियो संस्कृति का उभार था। सीरियलों की दुनिया में निवेश किसी भाषायी फिल्म या बी ग्रेड की हिन्दी फिल्म बनाने से कहीं ज्यादा चोखा धंधा था। उसके बाद नब्बे का दशक भोजपुरी फिल्मों में सूखा को दशक रहा है। हां, हर साल तीन-चार के औसत से फिल्में बनती जरूर रहीं लेकिन बाजार की उनमें कोई रुचि नहीं थी।
नयी सदी की शुरुआत में मोहनजी प्रसाद की 'सैंया हमार` और संजय उपाध्याय की 'कन्या दान` ने जो सुगबुगाहट शुरू की पिछले एक-डेढ़ साल भर का समय भोजपुरी सिनेमा के इतिहास में अभूतपूर्व स्थितियां उपस्थित हुई हंै। पहले रवि किशन और अब भोजपुरी गायकी से आया नया नवेला स्टार मनोज तिवारी 'मृदुल` नामचीन स्टार है। इस दौर में सफलता का परिणाम है कि चालीस साल से ऊपर तक की यात्रा में मात्र दो सौ का आंकड़ा छूनेवाले इस बाजार में पिछले कुछ ही महीनों में कुल अस्सी से ज्यादा फिल्मों की घोषणा हुई है।
लेकिन संख्या और कमाई किसी भी कलात्मक विधा के लिए कोई मानदंड नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण यह है कि ये फिल्में अपने अंतर्वस्तु में क्या लेकर आती हैं। और अपने को कितने लंबे समय तक टिकाये रखने का माद्दा रखती हैं।
क्या है इन फिल्मों मंे
सच तो यह है कि जिस कलात्मक ऊंचाई के लिए दूसरी भाषाई यानी ओड़िया, बांग्ला, असमिया या मलयालम फिल्में जानी जाती हैं भारतीय सिनेमा में भोजपुरी फिल्में वैसी कोई नई जमीन तोड़ नहीं तोड़ रही है। शुरुआती दौर की कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो भोजपुरी सिनेमा हिन्दी सिनेमा द्वारा खाली की गयी जगह का सिनेमा है। जिसके खिलाड़ी कम पूंजी वाले सिनेमा के शौकीन हैं। फिल्म निर्माता लाला दमानी कहते हैं, ''बड़े बैनरवाली किसी हिन्दी फिल्म के नायक के मेक-अप मैन के मेहनताने में भोजपुरी की एक फिल्म बन जाती है।``
दरअसल हिन्दी सिनेमा के मल्टीप्लेक्स अवतार ने महानगरों ही नहीं बल्कि कस्बाई और ग्रामीण इलाकों के एक सिनेमाघरों को सूना कर दिया था। महानगरीय और एनआरआई दर्शकों की चाह में वह गैर मेट्रो आबादी की रुचियों से दूर चला गया है। लिहाजा इन सिनेमाघरों का काम बी-ग्रेड हिन्दी फिल्मों या 'ए` सर्टिफिकेट वाली देसी-विदेशी फिल्मों के भरोसे चल रहा था। जाहिर है ऐसे सिनेमा का स्थायी और बड़ा दर्शक वर्ग नहीं हो सकता जिससे वह खुद को जोड़ नहीं पा रहा हो। आखिर वह उस सिनेमा का दर्शक कैसे हो सकता है जिसमें उसकी भाषा, रहन-सहन सब कुछ उपहास का पर्याय बना हुआ हो। उसकी भूमिकाएं नौकर, अपराधी या बौड़म की हो। 'ससुरा बड़ा पैसे वाला` के निर्देशक अजय सिन्हा कहते हैं, 'वह दर्शक जो २० रुपये देकर टिकट खरीदता है हिन्दी फिल्मों के नये दौर में अपने को ठगा महसूस करता है।`` भोजपुरी के स्टार रविकिशन कहते हैं, ''एक बंदा जो घर का खाना पसंद करता है उसे पांच सितारा खाना परोसा जा रहा है जिससे उसका परिचय ही नहीं है।`` 'नदिया के पार` के निर्देशक गोविंद मूनीस कहते हैं, ''सेक्स और हिंसा के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है हमारे समाज और संस्कृति में जो फिल्मों का विषय हो सकता है।``
१९६२ से लेकर अब तक की कुछ सफल फिल्मों पर गौर करें तो उनकी कल्पनाशीलता, नजरिया और प्रस्तुतीकरण पर लेकर सवाल उठ सकते हैं। लेकिन ये अपना मुहावरा और अपना नायक गढ़ने की कोशिश करती फिल्में हैं। भोजपुरी यहां किसी की चेरी नहीं है। ठेठ अंदाज में (कुछ लोग इसे 'भदेस` कहते हैं) ही सही उसका अपना भरा-पूरा संसार है। साठ के दशक की हिन्दी फिल्मों की तरह इनका पसंदीदा विषय समाजिक-पारिवारिक ताना-बाना है जिनका मुख्य सरोकार परिवार व विवाह तक सीमित है। यह भी कहा जा सकता है कि राजश्री प्रोडक्शन के फारमूले को ग्रामीण छौंक के साथ परोसा जा रहा है। सिंदूर, मंगलसूत्र व धर्म-कर्म के ईद-गिर्द भावपूर्ण कथानक और आठ से बारह गीत-नृत्य सिक्वेंस (कव्वाली, मुजरा, नौटंकी) और समकालीन हिन्दी मसाला फिल्मों के लटके-झटके भोजपुरी फिल्मों का मुख्य हिस्सा हैं। कुछ फिल्में स्लैप्स्टिक कॉमेडी और द्विअर्थी संवादों की राह पर भी चल पड़ी हैं।
अपनी सफलता से नया आयाम खोलने वाली फिल्म 'ससुरा बड़ा पैसे वाला` मूलत: कॉमेडी है जिसका अंत मेलोड्रामाइ है। यह एक ग्रामीण युवक की कहानी है जिसका अपने परिवार और परंपरा से गहरा लगाव है। उसने शहर में पढ़ाई की है, दिलेर और विवेकवान है। लेकिन विचित्र तरह की अपनी मित्र मंडली (एक बौना, एक बड़ी उम्र में छोटी बुद्धिवाला, एक नाक से बोलने वाला..आदि। कहा जा सकता है इस इलाके में प्रचलित शिव की बारातियों से यह बिंब लिया गया है।) से कोई परहेज नहीं करता। गोरुओं को चारा देने और खेत में कुदाल चलाने और अपने स्वाभिमान की रक्षा में रिक्शा चलाने जैसे काम से अपने दर्शक समूह से तादात्म्य बिठाता है। उसकी टकराहट शहरी संस्कृति की प्रतिनिधि नायिका से होती है। फारमूले के मुताबिक नायिका को पराजित होकर समर्पण करना है, सो होता है। खलनायक जैसे पेंच भी होने चाहिए सो है। पूरी कथा ग्रामीण परिवेश में फिल्मायी गयी है। बहुत कुछ शुरुआती दौर की फिल्मों की तरह। यानी खेत, खलिहाल, हल-बैल, टमटम, कच्चे-पक्के खपरैल मकान, शादी के गीत और रीति-रिवाज तो है ही। आम जनता के लिए आइटम सांग यानी नौटंकी और 'लौंडा नांच` भी है को स्थानीय मसाले के तौर पर डाला गया है। यहां डेविड धवन गोविंदा वाला बनावटी गांव नहीं है। न ही गांव के नाम पर बनावटी भाषा। नाभि, उरोज, नितंब, महीन कपड़ों में स्नान जैसे हिन्दी फिल्मों के उद्दीपक मसाले का भी इस्तेमाल है, लेकिन संयत ढंग से। यह संतुलन ही बाजार की भाषा में इस फिल्म का 'सेलिंग प्वाइंट है` जो इसे बड़े दर्शक समूह तक ले जाता है। निर्देशक बड़ी सावधानी से जातीय, वर्गीय भेदभाव और स्थानीय टकराव वाले बिन्दुओं से बचते हुए एक गुडी-गुडी फिल्म बनाने की कोशिश की है जो इस इलाके के पुरुषवादी मिजाज का बखूबी खयाल रखती है। एक तरह से यह फिल्म अब तक की हिट भोजपुरी फिल्मों का सारांश है।
अन्य फिल्मों के कथानक और बुनावट भी इस दायरे के बाहर नहीं निकलीे दिख रही। हां, इतना जरूर हुआ है कि इनमें सिर्फ गांव और गलियां ही नहीं है। हिन्दी सिनेमा की तरह यथार्थ के बीच स्वप्निल उड़ानें भी हैं। जो आकर्षक लोकेशन की संभावना बनाती हैं। गायक उदित नारायण की भोजपुरी फिल्म 'कब होई गौना हमार` में मॉरीशस का लोकेशन है। 'बाबुल प्यारे`, 'दिल दीवाना हो गइल` और 'गंगा` की शुटिंग लंदन में पूरी की गयी है। हाल ही में रिलीज 'फिरंगी दुल्हनियां` न केवल विदेशों में शूट हुई है बल्कि इसकी नायिका तान्या युक्रेन की है। नए दौर में राजनीतिक व्यंग्य की ओर भी एक धारा जाती है इन दिनों 'बांके बिहारी एम.एल.ए. जैसी फिल्म बन रही है। डर की तर्ज पर 'पिपरा तर के बरम्ह` जैसी हॉरर फिल्म पर भी एक निर्देशक ने हाथ आजमाया है। ३५ एमएम और सिनेमास्कोप में शूटिंग, डिजीटल डॉल्बी के साउंड ट्रैक की समकालीन तकनिकी का उपयोग भी है।
कहां ले जायेगा यह उफान
एक दौर रहा है जब अमेरिका सहित दुनिया के तमाम शहरों में सिनेमा के नाम पर हॉलीवुड फिल्मों को बोलबाला था। लेकिन जल्द ही लोगों को लगने लगा कि इन फिल्मों में जो कुछ भी परोसा जा रहा है वह उनकी खंडित सच्चाइयां हंै या फिर इन कथाओं में उनका अस्तित्व है ही नहीं। कारण और भी रहे हैं नजीजतन फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी, रूसी, जापानी सिनेमा का अस्तित्व उभर कर आया। ब्लैक सिनेमा और तीसरा सिनेमा का उद्भव हुआ। इस कड़ी में ईरानी और भारतीय सिनेमा का भी नया अंदाज जुड़ा। यह भी बात उभरी कि सिनेमा सिर्फ मौज मस्ती ही नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का औजार बन सकता है। अपने यहां भी बॉलीवुड की मुख्यधारा सिनेमा के बरक्श अलग अंदाजवाले क्षेत्रीय सिनेमा का विकास हुआ है। पिछले चालीस वर्षों से भोजपुरी सिनेमा में उठता-गिरता यह उफान भी इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है। हलांकि अभी उसमें सौंदर्यबोध और प्रतिरोध की वह धार विकसित नहीं हो पायी है जैसा कि अन्य भाषाई सिनेमा या विश्व के दूसरे प्रतिरोधी सिनेमा में दिखता है। सवाल यह है कि क्या यह ताजा उफान भोजपुरी सिनेमा उद्योग को कोई स्थाई शक्ल दे सकेगा? क्या वह अन्य भाषाई सिनेमा की तरह अपनी अलग पहचान बना सकेगा?
लंबे समय तक भोजपुरी सिनेमा के स्टार रहे राकेश पांडेय कुछ सच्चाइयों से हमारा परिचय कराते हैं, ''कुछ ऐसे लोग भी सक्रिय हैं जिन्होंने इस भाषा और सिनेमा को बदनाम भी किया है। वो दस बारह दिन के लिए आउटडोर में जाते हैं और फिल्म लपेटकर ले आते हैं। यह जो 'लपेटकर ले आना` मुहावरा है उसने बहुत ही कबाड़ा किया है। दक्षिण की फिल्में भी तो क्षेत्रीय ही हैं न! लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी इस तरह के शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। यह रीयल मेकिंग नहीं है।`` अजय सिन्हा कहते हैं, ''भोजपुरी सिनेमा के एक-आध माइनस प्वाइंट रहे हैं जो मुझे परेशान करते रहे हैं। यहां 'मैनेज करना` एक शब्द चलता है। जिसमें कोई एक लाख रुपया देकर हीरो बन गया, पचास हजार देकर विलेन बन गया या बनना चाहता है। इस तरह से तो सिनेमा नहीं चलता है। कोई कला मैनेज नहीं की जा सकती। जब तक पेशेवर लोग नहीं हो कैसे आप अच्छे काम की उम्मीद कर सकते हैं।`` इसमें कोई शक नहीं कि इस उफान में बहुत से ऐसे लोग भी शामिल हैं जिनका भोजपुरी और उसके सिनेमा से बहुत लेना देना नहीं है। उनके लिए यह पिछले दौर की तरह एक और अवसर भर है।
विडंबना यह है कि भोजपुरी सिनेमा को हर बार शून्य से शुरुआत करनी पड़ती है। सिनेमा के बाबत निर्माण और वितरण अधोरचनाएं विकसित नहीं हैं। वहां अब भी सिनेमा की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के तकनिकी और मानव संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। उसे अपने इलाके से सैकड़ों मिल दूर मुंबई में ही सारा काम-धाम करना पड़ता है। क्लैप ब्वाय से लेकर तमाम तकनिशियन तक के लिए वह मुंबई पर निर्भर है। उत्तर प्रदेश सरकार की सक्रियता की बदौलत स्टूडियो के नाम पर ले दे कर नोएडा फिल्म सिटी है लेकिन ज्यादातर फिल्मों की शूटिंग मिर्जापुर, जौनपुर, वाराणसी, पटना और हाजीपुर में होती है। जहां किसी तरह की तकनिकी या ढांचागत सुविधाएं नहीं हैं। लखनऊ के भारतेन्दु नाट्य संस्थान को छोड़ दें तो अभिनय के प्रशिक्षण के लिए कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। अभिनेताओं का तो काम चल जाता है लेकिन अभी भी अभिनेत्रियां दूसरे प्रदेशों की होती हैं।
बीस करोड़ की ठोस आबादी के मनोरंजन का बीड़ा जो उद्योग उठाने जा रहा है वह इस लंगड़ी व्यवस्था और परनिर्भरता के सहारे कितने दूर तक जायेगा इसके प्रति आशंका सहज है। नये दौर के पूंजी प्रवाह से उसकी तकनिकी काबिलियत भले ही बढ़ जाये, लेकिन कलात्मकता और अंतवर्स्तु में विकास या मौलिकता तब तक नहीं आ सकती जब तक कि इसमें स्थानीय प्रशिक्षित आवग की बढ़ोतरी न हो। अगर आज भी भोजपुरी फिल्में साठ के दशक के कथानक से बाहर नहीं निकलना चाहती हैं तो यह विकास नहीं ठहराव कहा जायेगा। और इसकी भी एक सीमा है। मौजूदा उफान को भोजपुरी बाजार का उफान तो कहा जा सकता है, सेंसेक्स की तरह जिसमें बुनियादी बदलाव से लापरवाह आसमानी उछाल संभव होते हैं। लेकिन भोजपुरी सिनेमा का उफान आना बाकी है। जाहिर सी बात है बाजार इसमें मददगार हो सकता है लेकिन असल काम तो इस भाषा में पले-बढ़े बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों के हाथ में है अगर सचमुच वे इसे अपना सिनेमा मानने को तैयार हों! ज्यादातर लोगों के लिए तो अभी भी यह अछूत माध्यम उर्फ कला है।
लालबहादुर
Subscribe to:
Posts (Atom)